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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 1 प्रतिपादन कर, सिद्धवस्तुओं का वर्णन करता है। विधि का प्रतिपादन ही वेदों का तात्पर्य है। परंतु उपनिषद् विधि का वर्णन न कर केवल ब्रह्मस्वरूप का ही प्रतिपादन करते हैं इसलिये प्रमाणकोटि में नहीं गिने जा सकते। शब्दों की शक्ति कार्यमात्र के प्रकटन में है तथा दुःख से मुक्ति कर्म द्वारा ही संभव है। इसलिये प्रत्येक मनुष्य को जीवन भर कर्मानुष्ठान में रत रहना चाहिये। यह मेरा वेदोक्त सिद्धांत है। इसके पश्चात् मंडन-मिश्र ने कहा, 'मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि यदि मैं शास्त्रार्थ में हार गया, तो में गृहस्थाश्रम का त्याग कर संन्यास धर्म ग्रहण करूंगा' | www.kobatirth.org शास्त्रार्थ में मंडन मिश्र की हार हुई। उनकी धर्मपत्नी भारती ने आचार्य की विजय की घोषणा की तथा शंकराचार्य से कहा, 'मेरे पति को शास्त्रार्थ में पराजित करने मात्र से आपको पूर्ण विजय प्राप्त नहीं होगी, मैं उनकी अर्धांगी हूं, अतः मुझसे शास्त्रार्थ कर यदि मुझे भी हरा सके तो ही आपकी जीत पूर्ण होगी।' शंकराचार्य ने भारती का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। बहुत समय तक दोनों के बीच शास्त्रार्थ चलता रहा। अंत में भारती ने आचार्य से कामशास्त्रविषयक प्रश्न पूछकर आचार्य को निरुत्तरित कर दिया। तब आचार्य ने प्रश्न का उत्तर देने के लिये 6 मास का समय मांगा। इस बीच उन्होंने परकाया प्रवेश कर कामशास्त्रविषयक ज्ञान प्राप्त किया ओर प्रत्यावर्तन कर भारती को उस शास्त्र में भी हराया। इसके पश्चात् मंडन मिश्र ने शंकराचार्य से संन्यास धर्म की दीक्षा ग्रहण की और उनके कार्य में जुट गए। मंडपाक पार्वतीश्वर समय- सन् 1833 से 1897। पिता कामकवि माता जोगम्मा। इनका जन्म विशाखापट्टण के समीप पालतेरू नामक देहात में हुआ था । बोब्बिल राजा के दरबार में ये विद्वत्कवि थे। इनके संस्कृत तथा तेलगु भाषा में 80 गद्यरूप एंव पद्यरूप ग्रंथ प्रकाशित हुए हैं। कविता- विनोद-कोश, सीता नेतृ-स्तुति, काशीश्वराष्टकम्, श्रीवेंकटगिरिप्रभुद्वयर्थिश्लोक कदंब आदि इनकी संस्कृत रचनाएं हैं। मंदिकल रामशास्त्री 'मेघप्रतिसंदेशकथा' नामक संदेश काव्य के प्रणेता । मैसूर राज्य के अंतर्गत मंदिकल नामक नगरी में 1849 ई. में इनका जन्म हुआ। पिता- वेंकटसुब्बा शास्त्री, जो रथीतर - गोत्रोत्पन्न ब्राह्मण थे। माता अक्काम्बा महाराज कृष्णराज के सभा - पंडित । महाराज से अग्रहार प्राप्त। बहुत दिनों तक ये शारदा - विलास संस्कृत पाठशाला मैसूर में अध्यक्ष पद पर विराजमान रहे। इन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की है। वे हैं आर्यधर्म-प्रकाशिका, नलविजय, चामराज-कल्याणचंपू, चामराज- राज्याभिषेक चरित्र, कृष्णराज्याभ्युदय, भैमी- परिणय (नाटक) और कुंभाभिषेकचंपू । शास्त्रीजी को अनेक संस्थाओं एवं व्यक्तियों के द्वारा कविरत्न, कवि-कुलालंकार, कवि - 404 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शिरोमणि, कवि - कुलावतंस आदि उपाधियों से विभूषित किया गया था। मत्स्येन्द्रनाथ नाथ संप्रदाय के प्रवर्तक। इनके नाम के साथ इतनी अद्भुत आख्यायिकाएं जुड़ी हैं कि उनका विश्वसनीय चरित्र लिखना कठिन है। उनके जीवन संबंधी कुछ कथाएं इस प्रकार हैं (1) एक बार एक द्वीप में एकांत में बैठे हुए शंकर, पार्वती को योग का उपदेश दे रहे थे। समीप ही बहने वाले जलप्रवाह में विचरण करने वाली मछली ने उनका वह उपदेश सुन लिया। उसका मन इतना एकाग्र हो गया कि उसे निश्चलावस्था प्राप्त हुई। भगवान् शंकर ने उसकी वह अवस्था देखकर उस पर अनुग्रहपूर्वक जलप्रोक्षण किया। मत्स्य का मत्स्येंद्रनाथ बन गया। (2) भगवान् शंकर द्वारा अपने गले में धारण की गयी मुण्डमाला के मुण्ड उनके पूर्वजन्मों के हैं, यह रहस्य जय नारद मुनि से जगन्माता पार्वती को ज्ञात हुआ, तब उन्हें भगवान् शंकर के पूर्वजन्म के बारे में जानने की जिज्ञासा हुई। उन्होंने अपनी इच्छा शिव के सामने प्रकट की। अपने पूर्वजन्म का रहस्य बतलाने के लिये शिवजी ने समुद्र में एकांत स्थान ढूंढा । संयोग से उसी समुद्र में 12 वर्षो से मछली के पेट में पलने वाले एक बालक ने वह शिव-पार्वती संवाद सुन लिया। वह बालक किसी भृगुवंशीय ब्राह्मण के यहां गंडांतरयोग पर पैदा होने के कारण पिता द्वारा समुद्र में फेंक दिया गया था, तथा उसे मछली ने निगल लिया था । अपना संवाद बालक ने सुन लिया है यह ज्ञात होने पर शिव ने उस पर कृपा की। वह बालक महासिद्ध अवस्था में मछली के पेट से बाहर निकला। वही मस्त्येन्द्रनाथ (मच्छिंद्रनाथ) के नाम से विख्यात हुआ। (3) मच्छिंद्रनाथ और गोरखनाथ गुरु-शिष्य थे। एक बार घूमते हुये दोनों प्रयाग में पहुंचे। उस समय वहां के राजा की मृत्यु हो गयी थी । सारी प्रजा शोकसागर में डूब गयी थी । गोरखनाथ प्रजा का दुःख देखकर द्रवित हुए तथा उन्होंने अपने गुरु से अनुरोध किया कि वे राजा के मृत शरीर में प्रवेश कर उसे जीवित करें। मच्छिंद्रनाथ ने शिष्य का अनुरोध स्वीकार कर लिया। इधर गोरखनाथ मच्छिंद्रनाथ के निर्जीव शरीर की रक्षा करते रहे, उधर मच्छिंद्रनाथ राजपाट तथा आमोद-प्रमोद में आकंठ डूब गये। बारह वर्षों के बाद रानियों को इस रहस्य का पता चला। उन्होंने मच्छिंद्रनाथ के शरीर के टुकडे-टुकडे करवा डाले तथा उन्हें चारों ओर फिंकवा दिया। भगवान् शिव को यह ज्ञात होते ही उन्होंने अपने अनुचर वीरभद्र को उन टुकडों को एकत्र कर लाने को भेजा। वीरभद्र ने अपने स्वामी की आज्ञा का पालन किया। For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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