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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मंगरुलकर, गंगाधरशास्त्री (गंगाधर कवि) - नागपुर की पण्डित-परम्परा में उल्लेखनीय व्यक्ति । जन्म- ई. 1790। पिता- विठ्ठलशास्त्री। नागपुर के भोसले (रघूजी) के पुराणवाचक । ग्रन्थरचना- भामाविलास, गुरुतत्त्वविचार, रामप्रमोद, अपराधमार्जन, राधाविनोद, गणेशलीला, विलासगुच्छ, रतिकुतूहल, प्रसन्नमाधव, चित्रमंजूषा, गंगाष्टपदी, संगीतराघव। इन काव्यों में संगीतराघवम् गेय है। शंकराचार्यजी की आनन्दलहरी पर इनकी गद्य-पद्य टीका भी है। इनका हस्तलिखित साहित्य नागपुर वि.वि. संग्रहालय में सुरक्षित है। मंगलगिरि कृष्णद्वैपायनाचार्य- ई. 20 शती का प्रथम चरण। कौशिक गोत्री। आन्ध्रप्रदेश के विजयपटनम् के निवासी। पिता-वेंकटरमणाचार्य मैसूर राज्य में प्रसिद्ध थे। कृतियांश्रीकृष्णदानामृत (नाटक), वसन्तमित्र (भाण), श्रीकृष्ण-चरित (काव्य) और हयग्रीवाष्टक (स्तोत्र)। तेलगु रचनाएंराका-परिणय, एकावली और पार्वतीपति-शतक । मंडनमिश्र - ई. 7 वीं शती का उत्तरार्ध। कुमारिल भट्ट के शिष्य। पिता- हिममित्र । शुल्क यजुर्वेदी काण्वशाखीय ब्राह्मण । कोई इन्हें मिथिला का तो कोई महिष्मती का (मध्यप्रदेश में नर्मदा के तट पर बसा हुआ महेश्वर नामक स्थान) निवासी बतलाते हैं। शोण नदी के तीर पर रहने वाले विष्णुमित्र नामक विद्वान् ब्राह्मण की विदुषी कन्या अंबा इनकी पत्नी थी। उस विदुषी को लोग 'भारती' के नाम से पहिचानते थे। इनके जयामश्र भी मीमांसा दर्शन के प्रकांड पंडित थे। ये वैदिक कर्मकाण्ड के निष्ठावान् उपासक थे। तत्कालीन कर्मकांडी मीमांसक पंडितों में इनका स्थान सर्वश्रेष्ठ था। ये आद्य शंकराचार्य के समकालीन थे। इन्होंने मीमांसा-दर्शन पर निम्न ग्रंथों की रचना की है - 1. विधिविवेक - इसमें विध्यर्थ का अनेक पहलुओं से विचार किया गया है। 2. भावनाविवेक - इसमें आर्थी भावना की विस्तारपूर्वक मीमांसा है। 3. विभ्रमविवेक- इसमें पांच ख्यातियों का विवरण है। 4. मीमांसासूत्रानुक्रमणी - इसमें मीमांसासूत्रों की श्लोकों में संक्षिप्त व्याख्या है। इन्होंने वेदांत पर ब्रह्मसिद्धि तथा स्फोटसिद्धि नामक दो और ग्रंथ लिखे हैं। दोनों ग्रंथों में अद्वैत तत्त्वज्ञान के सिद्धान्तों की चर्चा है। जीवन के पूर्वार्ध में मीमांसा तत्त्वज्ञान के अनुसार इनका आचार-विचार रहा, परंतु उत्तरार्ध में शंकराचार्य की प्रेरणा से ये वेदान्तनिष्ठ बने।। शंकराचार्य से संन्यास धर्म की दीक्षा ग्रहण करने पर ये सुरेश्वराचार्य के नाम से विख्यात हुए परंतु कुछ विद्वानों का मत है कि मंडन मिश्र और सुरेश्वराचार्य भिन्न व्यक्ति है। मंडन-मिश्र और शंकराचार्य के वाद-विवाद की आख्यायिका सुप्रसिद्ध है। एक बार जब शंकराचार्य की कुमारिल भट्ट से भेंट हुई, तब उन्होंने अपना ब्रह्मसूत्र पर लिखा हुआ भाष्य कुमारिल भट्ट को दिखाया। कुमारिल भट्ट ने आचार्य से कहा कि वे अपना भाष्य मंडन मिश्र को दिखायें। यदि उन्होंने उनके अद्वैतसिद्धान्त को मान्यता दे दी, तो उसके विश्वमान्य होने में कोई अडचन नहीं रहेगी। कुमारिल भट्ट के कथनानुसार आचार्य अपनी शिष्य-मंडली के साथ माहिष्मती पहुंचे। वहां मंडन मिश्र का आवास ढूंढने के लिये अकेले ही चल पडे। मार्ग में एक दासी से आचार्य ने मंडन मिश्र का पता पूछा। दासी ने आचार्य से कहा कि वे जिस मार्ग से जा रहे है उसी से आगे जावे तथा जिस प्रासाद उसी से आगे जावें तथा जिस प्रासाद के सामने -- जगद् ध्रुवं स्याज्जगदधुवं स्यात् कीराङ्गना यत्र गिरं गिरन्ति । द्वारस्थनीडान्तरसन्निरुद्धा जानीहि तन्मण्डनपण्डितौकः ।। विश्व शाश्वत है या अशाश्वत है (मीमांसकों के मत से जगत् शाश्वत है तथा वेदांतियों के मत से जगत अशाश्वत है) ऐसी चर्चा जिसके द्वार पर टंगे हुए पिंजरे की मैनायें करती हों, वही आप समझिये कि मंडन पंडित का घर है। दासी द्वारा बताये गये लक्षण के अनुसार आचार्य मंडन-मिश्र के घर पहुंचे। उस समय मंडन मिश्र अपने पिता के श्राद्धकर्म में लगे हुए थे। श्राद्ध के समय यतिदर्शन निषिद्ध माना जाता है। अतः मंडन मिश्र यतिवेष में आचार्य को देखकर अत्यंत कुद्ध हुए। दोनो में शाब्दिक नोंकझोंक हुई। अंत में मंडन-मिश्र ने यति को भिक्षा देने को कहा। तब शंकराचार्य ने कहा, 'मुझे अन्नभिक्षा नहीं, वाद-भिक्षा चाहिये। मंडन मिश्र ने आचार्य की चुनौती मान ली। शास्त्रार्थ में हार-जीत का निर्णय करने के लिये वहा उपस्थित व्यास-जैमिनि ने मंडनपत्नी भारती को ही पंच नियुक्त किया। दूसरे दिन दोनों के बीच शास्त्रार्थ प्रारंभ हुआ। शंकराचार्य ने निम्न प्रमेय रखा : 'इस जगत में एक ब्रह्म ही सत्, चित्, निर्मल तथा यथार्थ वस्तु है। वही ब्रह्म, सीप पर भासमान होनेवाली रजत की आभा-सदृश स्वयं जगद्प में भासमान है। जैसे सीप की रजतआभा मिथ्या है, वेसे ही यह जगत् भी मिथ्या है। अतः ब्रह्मज्ञान आवश्यक है। उस ज्ञान से प्रपंच का विनाश होकर मनुष्य जगत् के बाह्य जंजाल से मुक्त होगा, अपने विशुद्ध रूप में प्रतिष्ठित होगा तथा जन्म-मरण के चक्र से अर्थात् संसारपाश से मुक्त होगा। इस प्रकार मेरा अद्वैत का सिद्धान्त है। श्रुति इसका प्रमाण है।' - अपने सिद्धान्त का मंडन करने के पश्चात् आचार्य ने कहा, मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि यदि मैं शास्त्रार्थ में पराजित हुआ, तो में सन्यास धर्म छाडकर गृहस्थाश्रम स्वीकार करूगा। इसके बाद मंडनमिश्र ने अपना निम्नलिखित प्रमेय प्रतिपादित किया : वेदों का कर्मकांड ही प्रमाण है। ज्ञानकाण्ड (उपनिषद्) को मै प्रमाण नहीं मानता क्यों कि वह चैतन्यस्वरूप ब्रह्म का संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड /403 For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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