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________________ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra वैदिक त्रिष्टुभ् छंद से इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उपजाति जैसे एकादश अक्षरों के छंदों की, जगती छंद से, द्वादशाक्षरी वंशस्थ की और शक्वरी से वसंत तिलका की उत्पत्ति मानी गयी है। वेदमंत्रों के छंद अक्षरसंख्या-निष्ठ हैं। मंत्रों को चरणों में विभाजित कर उन चरणों की अक्षरसंख्या का निर्देश करने की पद्धति रूढ होने के पहले, छंदोगत अक्षरसंख्या का निर्देश होता था। 23 अक्षरसंख्या तक वृत्त सविशेष होते हैं। आगे चलकर 24 से 48 अक्षरों तक अतिछंद माने गए। उनके आगे कृतियां होती हैं जिन का सप्रकार उल्लेख वाजसनेयी संहिता में हुआ है। अनुष्टभ् के 8, त्रिष्टुभ् के 11, जगती के 12, इस प्रकार अक्षरसंख्या की वृद्धि का क्रम देखते हुए वैदिक छंदों का विकासक्रम ध्यान में आता है। उसी प्रकार त्रिपदा गायत्री, चतुष्पदी अनुष्टुभ्, त्रिष्टुभ् जगती; पंचपदी पंक्ति; षटपदी महापङ्क्ति; इस पदवृद्धि के क्रम में भी छंदों का विकासक्रम दिखाई देता है। श्री व्हर्वान अर्नोल्ड नामक पाश्चात्य विद्वान ने अपने "वैदिक मीटर" नामक प्रबंध में दो से आठ तक चरणों के श्लोकबंधों के अन्यान्य 88 प्रकारों का निर्देश किया है। इन में एक ही छंद के चरणों में समान और असमान अक्षरसंख्या दिखाई देती है। यति और गण प्राचीन छंदःशास्त्र ने वैदिकमंत्रों के पादों में यति अर्थात विरामस्थान नहीं माने थे, परंतु कुछ छंदों में चौथे, पांचवें, आठवें अक्षर पर विरामस्थान आता है। वैदिक छन्दशास्त्र के आधुनिक विद्वान ऐसे स्थानों का निर्देश द्विभंगी, चतुर्भगी इस प्रकार की संज्ञा से करते हैं। पिंगल कृत छन्दःसूत्र में वृत्तविषयक सूत्रों में “य-म-त-र-ज-भ-न-स" इन अक्षरसंज्ञा के आठ 'गण' बताए हैं। ये गण तीन अक्षरों के होते हैं। गणों की अक्षरसंख्या का निर्देश करने वाला “यमाताराजभानसलग" यह एक प्राचीन सत्र (जो पिंगलकृत नहीं है) प्रसिद्ध है। इस सूत्र में स पर्यंत कोई भी तीन अक्षर लेने पर, उनके प्रथमाक्षर से सूचित गण की मात्राओं का परिचय मिलता है। जैसे "यमाता" इन तीन अक्षरों में 'य' शब्द य गण का बोध लेकर, उसकी मात्रा आदिलघु और अन्य दो गुरु है; यह बोध मिलता है। उसी प्रकार 'मातारा' 'ताराज' आदि अक्षरों से गणमात्रा का निर्देश सूचित होता है। सूत्रस्थ "ल" का अर्थ लघु और 'ग' अर्थ गुरु है। संस्कृत साहित्य के अन्तर्गत सारे वृत्तों का नियमन इस त्रयक्षरात्मक गणपद्धति से होता है। इस प्रकार की गणपद्धति में यति (विरामस्थान) का बोध होता नहीं यही एक महत्त्वपूर्ण दोष माना जाता है। भरत मुनि के नाट्यशास्त्र में आवर्तनी संस्कृत वृत्तों एवं मात्रावृत्तों का विवेचन है। मात्रावृत्तों में रचित गानानुकूल रचनाओं को 'ध्रुवा' कहते हैं। अनेक गानानुकूल रचनाओं का प्रारंभ प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषाओं में रूढ होने के पश्चात्, संस्कृत कवियों ने उन्हें आत्मसात् किया। जयदेव के गीतगोविंद की रचना इसी प्रणाली में हुई है। छन्दःशास्त्र विषयक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ पिंगलाचार्य ने अपने ग्रंथ में कोष्टकी, तण्डी, यास्क, काश्यप, शैतव, रात तथा माण्डव्य आदि पूर्वाचायों का उल्लेख किया है। अभिनवगुप्ताचार्य ने अपनी 'अभिनवभारती' (भरतनाट्यशास्त्र की टीका) में कात्यायन, भट्टशंकर और जयदेव के अवतरण उद्धृत किए हैं। अग्निपुराण के (328-34) सात अध्यायों में पिंगल के अनुसार छन्दोविचिती का विवेचन मिलता है। पिंगल के पहले भरत, जनाश्रयी आदि शास्त्रकारों की पांच छंदविचितियां प्रचलित थीं, जिनमें यक्षरी गणपद्धति से छंदों का विमर्श किया था परंतु पिंगलाचार्य की छंदोविचिती सर्वमान्य होने के बाद पूर्वकालीन छंदोविचितियां लुप्त हो गई। पिंगलसूत्रों की विद्वन्मान्यता के कारण उन पर हलायुध, श्रीहर्षशर्मा वाणीनाथ (16 वीं शती), लक्ष्मीनाथ, यादवप्रकाश और दामोदर इन पंडितों ने टीकाग्रंथ लिखे। नारायण कृत वृत्तोक्तिरत्न और चंद्रशेखर कृत वृत्तमौक्तिक, पिगलाचार्य के छन्द पर आधारित पद्यग्रंथ हैं। जनाश्रयी की छंदोविचिति (अध्यायसंख्या 6) में दिए हुए उदाहरणों को कुछ ऐतिहाहिक महत्त्व दिया जाता है। पिंगलाचार्य के ग्रंथ में 'यति' (वृत्तों में विरामस्थान) को महत्त्व न होने का दोष निर्दिष्ट किया है। 'वृत्तरत्नावली' इसी एकमात्र नाम से दुर्गादत्त, नारायण, वेंकटेश (अवधान सरस्वती के पुत्र), रामस्वामी, यशवंतसिंह, सदाशिवमुनि, कालिदास, कृष्णराज, इत्यादि अनेक विद्वानों ने रचना की है। छन्दःशास्त्र विषयक ग्रंथों की निर्मिति संस्कृत वाङ्मय क्षेत्र में अखंड होती रही। अर्वाचीन कालखंड में रामदेव (18 वीं शती) बंगाल में राधापुर के नायब दीवान यशवंतसिंह के आश्रित कवि ने वृत्तरत्नावली लिखी। इस लक्षण ग्रंथ में उदाहरणार्थ लिखे हुए श्लोकों में रामदेव (जो चिरंजीव नाम से भी प्रसिद्ध थे) ने अपने आश्रयदाता यशवंतसिंह की स्तुति पर श्लोकरचना की है। गोपालपुत्र गंगादास ने छंदोमंजरी नामक ६ प्रकरणों का ग्रंथ लिखा, जिसमें उदाहरणात्मक सभी श्लोक कृष्णस्तुति परक हैं। नागपुर के पंडित वसंतराव शेवडे ने अपनी वृत्तमंजरी में लिखे हुए लक्षणश्लोक लक्ष्यभूतवृत्त में ही लिखे हैं और उसी वृत्त में लिखे हा स्वोपत्त उदाहरणों में अपनी उपास्य देवता भगवती की स्तुति की है। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 57 For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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