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5 "शांकरमत" वेदान्त मत के प्रमुख सिद्धान्त हैं (1) जीव और ब्रह्म के अद्वैत ज्ञान से ही मोक्ष लाभ होता है। (2) यथार्थज्ञान प्राप्ति के साधन (या प्रमाण) छह हैं:- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, आप्तवाक्य, अर्थापत्ति और अनुपलब्धि। (3) ब्रह्मविचार का आरंभ करने से पहले जिज्ञासु को "साधन चतुष्टय" से सम्पन्न होना नितान्त आवश्यक है। साधन चतुष्टयः- (1) नित्यानित्यवस्तुविवेक, (2) ऐहिक एवं पारलौकिक विषयभोगों के प्रति प्रखर वैराग्य, (3) साधन षट्क अर्थात शम, दम, उपरति, तितिक्षा, समाधान
और श्रद्धा ये छह प्रकार की साधनाएं, और (4) मुमुक्षुत्वो इन सभी साधनों को मिला कर "साधनचतुष्टय' कहते हैं। जो इस में पूर्णत्व पाता है वही वेदान्त के पारमार्थिक ज्ञान का "अधिकारी" होता है। अधिकारी जिज्ञासु को भी वेदान्त सिद्धान्तों का ज्ञान तभी हो सकता है जब वह, "शाब्दे परे च निष्णातः” (अर्थात् वेदान्त ग्रन्थों के अध्ययन में प्रवीण एवं आध्यात्मिक अनुभव से सम्पन्न) श्रेष्ठ योग्यता के गुरु के चरणों में "दीप्तशिराः जलराशिमिव-अर्थात् आग से जला हुआ या अत्यंत तृषार्त मनुष्य जलाशय की और जिस व्याकुलता से जाता है, उस व्याकुलता से शरण जाकर श्रवण, मनन और निदिध्यासन द्वारा ज्ञान ग्रहण करता है।
अध्यारोप : जिस प्रकार अंधेरे में रज्जु पर सर्प का या प्रकाश में शुक्तिका पर चांदी का आभास होता है, उसी प्रकार सच्चिदानन्द स्वरूप ब्रह्मवस्तु पर अज्ञान के कारण जगद्पी अवस्तु का आभास होता है। वेदान्तियों के रज्जु-सर्प दृष्टान्त में
और शुक्तिका रजत-दृष्टान्त में, रज्जु एवं शुक्तिका "वस्तु" है और उन पर भासमान होने वाले सर्प एवं चांदी “अवस्तु" है। वेदान्त दर्शन में सच्चिदानन्दरूप ब्रह्म का निर्देश "वस्तु"शब्द से और अज्ञान तथा अज्ञानजन्य जगत् का “अवस्तु" शब्द से होता है। अज्ञान सत् नहीं और असत् भी नहीं। वह सत् इसलिये नहीं कि सत्य ज्ञान का उदय होने पर वह नष्ट होता है, और असत् इसलिए नहीं कि, रजु-शुक्तिका पर सर्प-रजत का आभास अज्ञान के ही कारण होता है। सत्य वस्तु पर असत्य या मिथ्या अवस्तु (जगत) के आभास का वही प्रमुख कारण है। इस प्रकार अज्ञान, सत् एवं असत् दोनों प्रकार का न होने के कारण वह “अनिर्वचनीय' (जिसका यथार्थ स्वरूप बताना असंभव है।) माना गया है। वेदान्त सिद्धान्त मुक्तावली में अज्ञान की अनर्विचनीयता का सिद्धान्त एक सुन्दर दृष्टान्त द्वारा विशद किया है :
"अज्ञानं ज्ञातुमिच्छेद् यो मानेनात्यन्तमूढधीः। स तु नूनं तमः पश्येद् दीपेनोत्तमतेजसा ।। अर्थात्- जो मूट बुद्धि पुरुष, किसी प्रमाण के आधार पर अज्ञान को जानने की इच्छा रखता है, वह तेजस्वी दीपक के सहारे अंधकार को भी देख सकेगा। इसी अनिर्वचनीय अज्ञान को श्री शंकराचार्य "माया" कहते हैं।
वेदसंहिता में माया का निर्देश एकवचनी एवं बहुवचनी दोनों प्रकार से हुआ है। अतः वेदवाक्य का निरपवाद प्रामाण्य मानने वाले वेदान्तशास्त्री, अज्ञान को वृक्ष के समान व्यष्टिरूप और वन के समान समष्टिरूप मानते हैं। प्रत्येक जीव में पृथक् प्रतीत होने वाला अज्ञान व्यष्टिरूप है, और समस्त जीवमात्र में प्रतीत होने वाला सामूहिक अज्ञान समष्टिरूप है। यह अज्ञान ज्ञानविरोधी, त्रिगुणात्मक, भावरूप, अनिर्वचनीय किन्तु स्वानुभवगम्य है। उसमें दो प्रकार की शक्ति होती है। 1) आवरण शक्ति
और 2) विक्षेप शक्ति। जिस प्रकार अल्पमात्र मेघ अतिविशाल सूर्यमण्डल को आच्छादित करता है, उसी प्रकार अज्ञान (अथवा माया) अपनी आवरणशक्ति से आत्मस्वरूप को आच्छादित करता है। वस्तुतः मेघ सूर्य को आच्छादित नहीं करता, वह द्रष्टा की दृष्टि को आच्छादित करता है। उसी प्रकार, तुच्छ अज्ञान सर्वव्यापी परमात्मा को आच्छादित नहीं करता, अपि तु अपनी आवरण शक्ति से वह मानव की बुद्धि को आच्छादित करता है। अतः मेघावरण के कारण नेत्रों को जैसा सूर्यदर्शन नहीं होता, वैसा ही माया की आवरण शक्ति के कारण बुद्धि को परब्रह्म का आकलन नहीं होता।
विक्षेपशक्ति : अज्ञान की आवरण शक्ति के कारण रज्जु आच्छादित होती है, और फिर उसी स्थान पर सर्प जिस शक्ति के कारण उद्भासित होता है, उसे विक्षेप शक्ति कहते हैं। अज्ञान की इसी शक्ति के कारण ब्रह्म पर सूक्ष्मतम शरीर से लेकर ब्रह्माण्ड तक का सारा प्रपंच उद्भासित होता है । वेदान्त का यह माया विषयक सिद्धान्त दार्शनिक क्षेत्र में विशेष महत्त्वपूर्ण माना जाता है।
___ परब्रह्म ही संसार का आदि कारण है, यह वेदान्त का सिद्धान्त है। परंतु कारण, उपादान और निमित्त स्वरूप दो प्रकार का होता है। घट का "उपादान कारण" मृतिका और कुम्भकार आदि अन्य, निमित्त कारण होता है। ब्रह्म को इस प्रपंच का उपादान कारण मानने में आपत्ति आती है। उपादान कारण के गुण उसके कार्य में प्रकट होते हैं। (कारणगुणाः कार्यगुणान् आरभन्ते) इस सर्वमान्य तत्त्व के अनुसार चेतनत्व, नित्यत्व इत्यादि ब्रह्म के निजी गुण इस प्रपंच में मिलने चाहिये, जैसे मृत्तिका के गुण घट में, या तंतु के गुण पट में मिलते हैं। परंतु प्रपंच का स्वरूप चेतन और नित्य ब्रह्म के विपरीत (अचेतन और अनित्य) दिखाई देता है। अतः ब्रह्म इस प्रपंच का उपादान कारण नहीं माना जा सकता।
तैतिरीय उपनिषद् में कहा है कि, "तत् सृष्ट्वा तदेव अनुप्राविशत्” (याने सृष्टि निर्माण करने पश्चात् ब्रह्म उसी कार्य में प्रविष्ट हुआ) इस श्रुतिवचन से ब्रह्म का अपने जगत्स्वरूप कार्य में प्रवेश कहा गया है। उपनिषद् का यह वचन प्रत्यक्ष अनुभव के विपरीत भी है। निमित्त कारण (चक्र, दण्ड, तुरी, वेमा आदि) का अपने कार्य, (घट, पट) में प्रवेश कभी किसी ने देखा
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड/169
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