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नहीं। अतः ब्रह्म, जगत् का निमित्त कारण भी नहीं माना जा सकता। वेदान्त मत के विरोधी, इस प्रकार के युक्तिवादों से वेदान्त दर्शन के ब्रह्मकारणवाद का खंडन करते हैं। परंतु इस प्रकार विरोधी युक्तिवादों का खण्डन, वेदान्त दर्शन में एक सर्व परिचित एवं समुचित दृष्टान्त से किया गया है। वेदान्ती कहते हैं, जिस प्रकार लूता (मकडी) अपने द्वारा निर्मित तंतुजाल का उपादान कारण एवं निमित्त कारण होती है, उसी प्रकार ब्रह्म इस सृष्टि का उभयरुप (उपादान और निमित्त) कारण है। लूता की चैतन्य शक्ति उसके जाल का निमित्त कारण, और उसका शरीर, उपादान कारण होता है। ठीक उसी प्रकार अज्ञानाच्छादित ब्रह्म अपनी चैतन्यप्रधानता की दृष्टि से सृष्टि का निमित्त कारण और अज्ञान प्रधानता की दृष्टि से, उपादान कारण होता है। विभिन्नता में अभिन्नता सिद्ध करने में वेदान्त के अद्वैत वाद की विशेषता है। मूल शुद्ध चैतन्य और मायायुक्त चैतन्य (इसी को ईश्वर या प्राज्ञ कहते हैं।) इनमें आपाततः विभिन्नता होते हुए भी वेदान्तियों ने "तप्तायःपिण्ड' (आग के कारण, आग के समान लाललाल दीखने वाला लोहे का गोल) का दृष्टान्त देकर अभिन्नता प्रतिपादन की है। अग्निकुण्ड में पड़ा हुआ लोहपिड, अग्नि के समान लाल और उष्ण होते हुए भी लोहे के भारादि गुणधर्मों के कारण, वह लोहे का गोला ही माना जाता है। परंतु उसमें अग्नि के दाहकत्व आदि गुणधर्म प्रत्यक्ष दीखने के कारण, वह अग्निगोल भी माना जाता है। प्रस्तुत तप्त लोहपिंड के दृष्टान्त से विभिन्नता में अभिन्नता स्पष्ट होती है। मायारूप उपाधि के कारण ईश्वर और मूल शुद्ध चैतन्य में द्वैत (विभिन्नता) की प्रतीति होते हुए भी, मूल स्वरूप में उनमें अद्वैत (एकता) ही है, यह वेदान्त का सिद्धान्त है।
वेदान्त शास्त्र के अनुसार "अधिकारी" पुरुष को, गुरुद्वारा "तत् त्वम् असि" इस "महावाक्य" का अध्यारोप और अपवाद की पद्धति के अनुसार, यथोचित उपदेश होने पर उसके मनन और निदिध्यासन के कारण यथावसर, “अहं ब्रह्म अस्मि' "मैं (वह सर्व व्यापी और सर्वान्तर्यामी) ब्रह्म हूँ" इस प्रकार की चित्तवृत्ति का उदय होता है। इस चित्तवृत्ति के कारण उसका आत्मविषयक या ब्रह्मविषयक अज्ञान नष्ट हो जाता है। परंतु अज्ञान का नाश होने पर भी, अज्ञान के कार्य का (इस जड प्रपंच का) अनुभव उसे होगा या नहीं, यह प्रश्न उपस्थित होता है। इस प्रश्न का उत्तर "कारणे नष्ट कार्यम् अपि नश्यति" इस सिद्धान्त वाक्य से दिया जाता है और उसका स्पष्टीकरण, "तन्तुदाहे पटदाहः' अर्थात् तन्तु जलने पर वस्त्र जल जाता है। तंतुरूप कारण नष्ट होने पर वस्त्ररूप कार्य का पनश्च नाश करने की आवश्यकता नहीं रहती। "तत्त्वमसि' इस महावाक्य के उपदेश से "अहं ब्रह्माऽस्मि" यह चित्तवृत्ति उदित होने पर ब्रह्मविषयक (या आत्मविषयक) अज्ञान नष्ट होते ही उस अज्ञान या माया का कार्य तत्क्षण नष्ट होता है।
अद्वैतसिद्धि : "तत्त्वमसि" महावाक्य के उपदेश से उत्पन्न "अहं ब्रह्मास्मि" स्वरूप अखंडाकार चित्तवृत्ति अज्ञान एवं तजन्य प्रपंच का लय करती है। इस वेदान्त सिद्धान्त से एक प्रश्न उपस्थित होता है कि सारे प्रपंच का लय होने पर भी अज्ञान और प्रपंच दोनों का लय करने वाली “अहं ब्रह्मास्मि" यह चित्तवृत्ति तो रहती ही होगी।
इस आशंका का उत्तर वेदान्तियों द्वारा दिया गया है। वे कहते हैं
यह चित्त वृत्ति भी अज्ञान का ही कार्य होने के कारण "तन्तुदाहे पटदाहः" इस दृष्टान्त के अनुसार, अज्ञान नष्ट होते ही विलीन हो जाती है। आगे चल कर प्रश्न उपस्थित किया जाता है कि अज्ञान, प्रपंच और चित्तवृत्ति में प्रतिबिंब चैतन्याभास तो पृथक् रहता ही होगा? और वह अगर पृथक् रहता होगा तो शुद्धाद्वैत का सिद्धान्त असिद्ध रह जाता है।
इस आशंका का प्रशमन करने के लिये वेदान्तियों द्वारा सर्व परिचित दृष्टान्त दिया जाता है। "दर्पणाभावे मुखप्रतिबिम्बस्य मुखमात्रत्वम्' अर्थात् जिस प्रकार दर्पण (आईना) के अभाव में उसमें दिखाई देने वाला मुख का प्रतिबिम्ब मुख के रूप में ही अवशिष्ट रहता है किंबहुना वह प्रतिबिम्ब मुखरूप ही हो जाता है, उसी प्रकार 'अहं ब्रह्माऽस्मि" चित्तवृत्ति में उदभूत चैतन्य का प्रतिबिंब, "तन्तुदाहे पटदाहः" न्याय के अनुसार विलीन होते समय मूल स्वरूप में अवशिष्ट रहता है अथवा चैतन्य स्वरूप ही हो जाता है यह बात स्पष्ट है।
यही सिद्धान्त "दीपप्रभा आदित्यप्रभाऽवभासने असमर्था सती तया अभिभूयते" इस दूसरे दृष्टान्त से अधिक विशद किया जाता है। अर्थात् दीपप्रभा और सूर्यप्रभा दोनों स्वतंत्र होने पर भी सूर्यप्रभा का उदय होने पर, दीपप्रभा अपनी मंदता के कारण सूर्यप्रभा में विलीन हो जाती है, उसी प्रकार "अहं ब्रह्माऽस्मि' चित्तवृत्ति में प्रतिबिंबित चैतन्य की मंदप्रभा परब्रह्म की महाप्रभा में विलीन हो जाती है।
अधिकारी शिष्य को "तत्वमसि" महावाक्य का उपदेश गुरुमुख से मिलने पर उसकी चित्तवृत्ति में "अहं ब्रह्माऽस्मि" भाव जाग्रत होता है, अथवा उसकी चित्तवृत्ति "अहं ब्रह्मास्मि"- भावमय होती है। यह चित्तवृत्ति तत्क्षण अपना कार्य अर्थात् जीव के अज्ञानावरण का नाश करती है। जिस क्षण वह अज्ञान नष्ट होता है उसी क्षण अज्ञान-कार्यस्वरूप चित्तवृत्ति भी चैतन्य में विलीन होती है। यह सिद्धान्त वेदान्त शास्त्र में कतकचूर्ण (फिटकरी का चूर्ण) के दृष्टान्त से विशद किया जाता है। कतकचूर्ण मलिन जल में पड़ने पर उसकी मलिनता नष्ट करने का निजी कार्य पूर्ण होते ही जल में विलीन हो जाता है। इसी प्रकार
170/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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