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जैन पौराणिक साहित्य में तथा विविध कथाकोशों में जो अनेक प्रकार के कथानक आये हैं, उनमें से अनेकों पर आधारित स्वतंत्र कथाप्रबन्धों की रचनाएं हुई हैं। ऐसी रचनाओं में समरादित्यकथा, यशोधरकथा, श्रीपालकथा, रत्नचूडकथा, इत्यादि पुरुषचरित्र प्रधान कथाप्रबंध एवं तरंगवतीकथा, कुवलयमाला कथाप्रबंध इत्यादि स्त्रीप्रधान तथा शत्रुजयमाहात्म्य, सुदर्शनचरित, ज्ञानपंचमी कथा, भक्तामर कथा इत्यादि तीर्थक्षेत्र, पवित्रतिथि, स्तोत्र आदि विषयक कथाएं सुप्रसिद्ध हैं। पार्श्वनाथ विद्यालय शोध संस्थान द्वारा प्रकाशित जैन साहित्य का बृहद् इतिहास (भाग 6) के प्रकरण 3 में (पृ. 231-390 में जैन कथासाहित्य का यथोचित प्रदीर्घ परिचय दिया है।) संस्कृत गद्य साहित्य में सुबन्धु की वासवदत्ता, बाणभट्ट की कादम्बरी धनपाल की तिलकमंजरी और वादीभसिंह का गद्यचिन्तामणि, अपने कल्पगुणों के कारण उत्कृष्ट गद्यकाव्य माने गये हैं। वस्तुतः कथा की रोचकता की दृष्टि से उनका अन्तर्भाव प्रबन्धकथाओं में ही करना उचित लगता है।
4 चम्पूवाङ्मय कथाप्रबन्धों में उपरिनिर्दिष्ट पद्य एवं गद्यप्रधान ग्रन्थों के साथ गद्यपद्य मिश्रित शैली में लिखे गए काव्यात्मक प्रबन्धों की प्रणाली संस्कृत साहित्य के क्षेत्र में 10 वीं शताब्दी में त्रिविक्रम भट्ट कृत नलचम्पू से प्रारंभ हुई। इस प्रकार के पद्यमिश्रित गद्यसाहित्य की निर्मिति कनड भाषा में 8-9 वीं शताब्दी में प्रारंभ हो गई थी। पम्प, पोत्र, रन आदि कन्नड साहित्यिक चम्पूकाव्य के प्रारंभिक रचयिता माने जाते हैं; परंतु इन कन्नड लेखकों के पूर्व (ई. 7 वीं शती में) हुए दण्डीने अपने काव्यादर्श में, "गद्य-पद्यमयी काचित् चम्पूरित्यभिधीयते" (का.द-1/31) इस प्रकार व्याख्या की है जिसे आगे चल कर हेमचन्द्र और विश्वनाथ ने प्रमाण मानी है। हेमचंद्र ने चम्पू का “सांक" और "सोच्छ्वास" होना आवश्यक माना है। क्यों कि कुछ चम्पू ग्रन्थों का विभाजन अंकों में और कुछ का विभाजन उच्छ्वासों में किया गया था। साथ ही उसमें उक्ति-प्रत्युक्ति, शून्यता तथा विष्कम्भक होना भी आवश्यक माना गया है। चम्पू का गद्य और पद्य अलंकारनिष्ठ होता है। गद्य में समासबाहुल्य और पद्य में छन्दों का वैविध्य प्रशस्त माना गया है। चम्पूकाव्यों के पूर्व ही संस्कृत में गद्य-पद्य मिश्रित लेखन पद्धति का प्रारंभ वैदिक वाङ्मय से ही होता है। कृष्ण यजुर्वेद की तीनों ही शाखाओं में गद्य-पद्य रचना है। अथर्व वेद का छठा अंश गद्यमय है। पुराणों में भी यह प्रवृत्ति दिखाई देती है। विष्णुपुराण का चतुर्थ अंश तथा श्रीमद्भागवतपुराण का पंचम स्कन्ध गद्यमय है, जिसमें प्रदीर्घ समासों का प्राचुर्य है। तथापि गद्यपद्यमय चम्पूकाव्य का प्रवर्तकत्व त्रिविक्रमभट्ट को ही दिया जाता है। इनके नलचम्पू को "नलदमयन्तीकथा" भी कहते हैं। डॉ. छबिनाथ त्रिपाठी ने अपने "चम्पूकाव्य का आलोचनात्मक एवं ऐतिहासिक अध्ययन-" नामक शोध प्रबन्ध में इस काव्य प्रकार का मार्मिक समीक्षण किया है। तदनुसार चम्पूकाव्य का विकास दसवीं शताब्दी से सतत होता रहा। इनमें रामायण, महाभारत, भागवत, शिवपुराण, जैन पुराणवाङ्मय जैसे प्राचीन उपजीव्य ग्रंथों पर आधारित ही चम्पूग्रन्थ अनेक हैं। इनके अतिरिक्त चरित्रयात्रा, क्षेत्रदेवता और उनके महोत्सव, तथा काल्पनिक कथाओं पर आश्रित चम्पूग्रन्थ मिलते हैं। कुछ उल्लेखनीय चम्पू :नलचम्पू :- ले-त्रिविक्रम भट्ट (ई-10 वीं शती)। मदालसाचम्पू :- ले-त्रिविक्रम भट्ट (ई-10 वीं शती)। मार्कंडेय पुराण की कथा पर आधारित । यशस्तिलकचम्पू :- ले- सोमदेवसूरि। ई-10 वीं शती। गुणभद्र कृत उत्तरपुराण की कथा पर आधारित । जीवन्धरचम्पू :- ले- हरिश्चन्द्र। ई-10 वीं शती। उत्तर पुराण की कथा पर आधारित । रामायणचम्पू :- ले-भोजराज-ई-11 वीं शती। इस चम्पू का किष्किन्धाकाण्ड के आगे का युद्धकाण्ड तक भाग लक्ष्मणसूरि, राजचूडामणि दीक्षित (ई-17 वीं शती) घनश्याम कवि, आदि लेखकों ने पूर्ण किया। भारतचम्पू :- ले-अनन्तभट्ट। ई-15 वीं शती। भागवतचम्पू :- ले- अभिनव कालिदास। ई-11 वीं शती। विषय-कृष्णकथा। आनन्दवृन्दावनचम्पू :- ले- कविकर्णपूर। ई-16 वीं शती। गोपालचम्पू :- ले- जीव गोस्वामी। ई-17 वीं शती। आनन्दकन्दचम्पू :- ले- मित्रमिश्र । ई-17 वीं शती। वीरमित्रोदय नामक धर्मशास्त्र विषयक प्रसिद्ध प्रबन्ध के लेखक। परिजातहरणचम्पू :- ले-श्रीकृष्णशेष । प्रसिद्ध वैयाकरण। ई-16 वीं शती। नृसिंहचम्पू :- ले- सूर्यकवि। ई-16 वीं शती। लीलावती (गणितग्रंथ) के एक टीकाकार । नीलकण्ठविजयचम्पू :- ले-नीलकण्ठ दीक्षित। ई-17 वीं शती। वरदाम्बिकापरिणयचम्पू :- लेखिका- तिरुमलाम्बा। विजयनगर के अधिपति अच्युतराय की पटरानी। ई-16 वीं शती। विषयअच्युतराय और वरदाम्बिका का विवाह ।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 245
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