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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पदलांछनः) परन्तु आगे चलकर एक श्लोक में श्रीकण्ठ ने "भवभूति" शब्द का सुंदर प्रयोग किया। वह श्लोक है : तपस्वी कां गतोऽवस्थामिति स्मेराविव स्तनौ। वन्दे गौरीधनाश्लेष-भवभूति-सिताननौ । आशय यह है- पार्वती द्वारा भगवान् शंकर का प्रगाढ आलिंगन करने पर उनके शरीर पर चर्चित विभूति से देवी के स्तन श्वेत हवे, मानो वे हंस को कह रहे हों कि इस तपस्वी की अवस्था प्रेमवश क्या हो गई है। कुछ टीकाकार अन्य रचना की और निर्देश कर यही नामान्तर दर्शाते हैं। वह श्लोक है - साम्बा पुनातु भवभूतिपवित्रमूर्तिः इस कारण से वह "भवभूति" नाम से ही प्रसिद्ध हुए। भवानन्द सिद्धान्तवागीश - ई. 17 वीं शती। बंगालनिवासी। रचनाएं- तत्त्वचिंतामणिदीपिका, प्रत्यगालोकसारमंजरी, तत्त्वचिन्तामणिटीका और कारकविवेचन (व्याकरण- विषयक) भवालकर, श्रीमती वनमाला (डा.) - जन्म-सन् 1914 में, बेलगांव में। मातृभाषा- कन्नड। शिक्षा मराठी माध्यम से। मुंबई वि.वि. से बी.ए. तथा एम.ए. प्रथम श्रेणी में। "महाभारत में नारी" विषय शोधप्रबन्ध पर मध्यप्रदेश के सागर वि.वि. से डॉक्टरेट और उसी वि.वि. में संस्कृत की प्राध्यापिका। वहीं से प्रवाचक-पद से सेवानिवृत्त । नाट्याभिनय तथा निर्देशन में निपुण । वाद्यसंगीत में रुचि । उ.प्र. शासन द्वारा इनका "पाददण्ड" नामक नाटक पुरस्कृत। कृतियां- पाददण्ड, रामवनगमन और पार्वती-परमेश्वरीय नामक तीन नाटक। भल्लट - ई. 8 वीं शती का उत्तरार्ध । काश्मीर-निवासी कवि। इनका 'भल्लटशतक' नामक काव्यग्रंथ उपलब्ध है। मम्मट, क्षेमेंद्र, अभिनवगुप्त, आनंदवर्धन आदि प्रसिद्ध संस्कृत-कवियों ने अपने-अपने अंलकार-ग्रंथों में उत्तम काव्य के उदाहरण के रूप में इनकी काव्य-पंक्तियां उद्धृत की हैं। "भल्लटशतक' में मुक्तक पद्य हैं और उनमें अन्योक्ति का प्राधान्य है। अध्ययन, अनुसंधान तथा अध्यापन-कार्य को ही इनका जीवन समर्पित था। सन् 1965 में इनकी हैदराबाद (सिंध प्रान्त) के हायस्कूल में इनकी मुख्याध्यापक पद पर नियुक्ति हुई। परंतु वहां से शीघ्र ही रत्नागिरि के हायस्कूल में इनका उसी पद पर स्थानांतरण हुआ। सन् 1868 में एल्फिन्स्टन कॉलेज में संस्कृत के प्राध्यापक नियुक्त हुए। सन् 1882 में डेक्कन कॉलेज में सेवारत हुए और 1893 में सेवानिवृत्त हुए। ये संस्कृत-पंडित तथा पुरातत्त्वसंशोधक थे। ताम्रलेख-पठन, प्राकृत भाषाओं तथा ब्राह्मी तथा खरोष्ठी लिपियों का अध्ययन कर इन्होंने उन विषयों पर अनेक निबंध प्रकाशित किये। इनके इस कार्य का महत्त्व अनुभव कर सन् 1879 में सरकार ने पुरातन संस्कृत लेखों के संशोधन का दायित्व इन पर सौंपा। इन संशोधनलेखों के पांच संग्रह प्रकाशित हए हैं। सन् 1885 में जर्मनी के गारिजम-विश्वविद्यालय ने इन्हें पीएच.डी. की उपाधि प्रदान की। सन् 1891 में सरकार ने इन्हें सी.आय.ई. की उपाधि से गौरवान्वित किया। सन् 1893 में वे मुंबई-विश्वविद्यालय के कुलपति नियुक्त हुये। आयु के 80 वर्ष पूर्ण करने के उपलक्ष में इनके शिष्यों ने सन् 1917 में "भांडारकर स्मारक लेखसंग्रह", स्मरणिका के रूप में प्रकाशित कर इन्हें समर्पित किया। उसी समय पुणे में "भांडारकर प्राच्यविद्यासंशोधन मंदिर" नामक एक संस्था की स्थापना की गयी। आज यह संस्था इनकी संस्कृत वाङ्मय सेवा तथा पुरातत्त्व अनुसन्धान का महान् केंद्र है। इन्होंने इस संस्था को अपना बहुमूल्य संस्कृत-ग्रंथों का संग्रह अर्पित किया। इस संस्था ने महाभारत की सैकडों पाण्डुलिपियों का अनुसंधान कर संपूर्ण महाभारत की शुद्ध प्रति तैयार की और उसे प्रकाशित करने का प्रचण्ड कार्य पूर्ण किया है। __इनके "अर्ली हिस्टरी ऑफ दि डेक्कन" तथा "वैष्णविज्म, शैविज्म एण्ड अदर मायनर रिलिजस सेक्ट्स' नामक दो ग्रंथ अत्यंत प्रसिद्ध हैं। इन्होंने 'मालती-माधव' ग्रंथ पर टीका तथा शालेय छात्रों के लिये संस्कृत व्याकरण की पुस्तकें लिखीं जो अत्यंत लोकप्रिय थीं। भागुरि - संस्कृत के प्राचीन वैयाकरण। युधिष्ठिर मीमांसकजी के अनुसार इनका समय 4000 वि. पू. है। व्याकरण संबंधी इनके कतिपत नवीन वचनों के उद्धरण, जदीश तर्कालंकारकृत "शब्दशक्ति-प्रकाशिका' में प्राप्त होते हैं। संभवतः इनके पिता का नाम भागुर था। विद्वानों का कथन है कि भागुरि का व्याकरण, "अष्टाध्यायी" से भी विस्तृत था। "शब्दशक्ति-प्रकाशिका" में उद्धृत वचनों से ज्ञात होता है कि इनके व्याकरण की रचना श्लोकों में हुई थी। इनकी कृतियों के नाम हैं- भागुरि-व्याकरण, सामवेदीय शाखा ब्राह्मण, अलंकार-ग्रंथ, त्रिकाण्ड-कोड, सांख्य-भाष्य व दैवत ग्रंथ । भागुरि की प्रतिभा बहुमुखी थी और उन्होंने अनेक शास्त्रों की रचना की थी। भांडारकर, रामकृष्ण गोपाल (डा.) (सर) . ई. 1837-1925। एक श्रेष्ठ नव्य विद्वान् तथा गवेषक । रत्नागिरि जिले के मालवण नामक ग्राम में जन्म। सारस्वत ब्राह्मण। सन 1858 में मुंबई के एल्फिन्सटन कालेज से बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। सन् 1858 में इन्हें दक्षिणा-फेलोशिप प्राप्त हुई। उन्होंने पुणे के वर्तमान डेक्कन कालेज में 5-6 वर्षों तक संस्कृत का सूक्ष्म अध्ययन किया। सन् 1863 में इन्होंने संस्कृत में एम.ए. किया। इन्होंने संस्कृत का अध्ययन पाश्चात्य अनुसंधान पद्धति से किया था। इस पद्धति से इन्होंने न्याय, वेदान्त, व्याकरण आदि गहन विषयों का भी अध्ययन किया। एक संशोधक तथा चिकित्सक संस्कृत-पंडित के नाते इनकी कीर्ति फैली। 394 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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