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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पर टीकाएं। पक्षधर मिश्र - समय ई.की 13 वीं शताब्दी का उत्तरार्ध । इनका मूल नाम था जयदेव। किसी भी सिद्धांत को लेकर उसका एक पक्ष (पखवाडे) तक समर्थन करते रहने के उनके स्वभाव के कारण, उन्हें “पक्षधर" कहते थे। इन्होंने गंगेश उपाध्याय के तत्त्वचिंतामणि नामक ग्रंथ पर, आलोक नामक टीका लिखी है। इनके शिष्य रुचिदत्त मिश्र भी प्रकांड पंडित थे। उन्होंने वर्धमान के कुसुमांजलिप्रकाश पर "मकरंद" नामक तथा गंगेरी की तत्त्वचिंतामणि पर "प्रकाश" नामक टीका लिखी है। पट्टाभिराम शास्त्री (विद्यासागर एवं मीमांसान्यायकेसरी उपाधियों से विभूषित) - - समय ई. 20 वीं शती। महाराजा संस्कृत कॉलेज, जयपुर के अध्यक्ष एवं कलकत्ता वि. वि. में मीमांसा प्राध्यापक। "नवोढा वधूः वरश्च” नामक प्रहसन के प्रणेता। वाराणसी में निवास । पतंग प्राजापत्य - ऋग्वेद के 10 वें मंडल का 177 वां सूक्त इनके नाम पर है। ये प्रजापति के प्रिय पुत्र थे। एक कथा के अनुसार, इनके द्वारा निर्मित साम (मंत्र) के कारण, उच्चैःश्रवस कौपेय को मृत्यु के पश्चात् धूम्रशरीर प्राप्त हुआ। उनके द्वारा विरचित सूक्त की एक ऋचा इस प्रकार है - पतङ्गमक्तमसुरस्य मायया हदा पश्यन्ति मनसा विपश्चितः । समुद्रे अन्तः कवयो विचक्षते मरीचीनां पदमिच्छन्ति वेधसः ।। (ऋ. 10.1.77) अर्थ - यह पतंग = (परमात्मरूप पक्षी अथवा सूर्य) अपनी ईश्वरीय माया से (अतयं शक्ति से) व्याप्त होने के कारण उत्तम ज्ञानी जन उसे केवल अपने हृदय की संवेदना से युक्त मन से ही पहचानते हैं। गूढ कल्पना तरंग में निमग्न रहनेवाले कवि भी (विश्वरूपी) सागर के उदर में ही उसे देखते हैं और विधाता (स्वानुभवी) होते हैं, वे उसके प्रकाश स्थान की प्राप्ति की इच्छा करते हैं। सूर्य का वर्णन "पतंग" इस नाम से करने के कारण इन्हें 'पतंग' यह नाम प्राप्त हुआ होगा। पतंजलि - ई. 2 री शती। "व्याकरण-पहाभाष्य" के रचयिता, योगदर्शन के प्रणेता तथा आयुर्वेद की चरक परंपरा के जनक पतंजलि की गणना, भारत के अग्रगण्य विद्वानों में की जाती है। इसी लिये उन्हें नमन करते हुए भर्तृहरि ने अपने ग्रंथ वाक्यपदीय के प्रारंभ में निम्न श्लोक लिखा है - योगेन चित्तस्य पदेन वाचां मलं शरीरस्य च वैद्यकेन । योऽपाकरोत् तं प्रवरं मुनीनां पतंजलिं प्रांजलिरानतोऽस्मि ।। अर्थ - योग से चित्त का, पद (व्याकरण) से वाणी का व वैद्यक से शरीर का मल जिन्होंने दूर किया, उन मुनिश्रेष्ठ पतंजलि को में अंजलि बद्ध होकर नमस्कार करता हूँ। पतंजलि के अन्य नाम हैं- गोनीय, गोणिकापुत्र, नागनाथ, अहिपति, चूर्णिकार, फणिभृत, शेषाहि, शेषराज और पदकार । निवास स्थान - गोनर्द ग्राम (काश्मीर) अथवा गोंडा उ. प्र.। माता- गोणिका। पिताजी का नाम उपलब्ध नहीं। रामचंद्र दीक्षित ने पतंजलिचरित नामक उनका चरित्र लिखा है जिसमें पतंजलि को शेष का अवतार मानकर, तत्संबंधी निम्न आख्यायिका दी गई है एक बार जब श्रीविष्णु शेषशय्या पर निद्रित थे, शंकरजी ने अपना तांडव नृत्य प्रारंभ किया। उस समय श्रीविष्णु गहरी निद्रा में नहीं थे। अतः स्वाभाविकतः उनका ध्यान उस शिवनृत्य की ओर आकर्षित हुआ। उस नृत्य को देखते हुए श्रीविष्णु को इतना आनंद हुआ, कि वह उनके शरीर में समाता नहीं था। अतः उन्होंने अपने शरीर को बढ़ाना प्रारंभ किया। विष्णु का शरीर वृद्धिंगत होते ही शेष को उनका भार असह्य हो उठा। वे अपने सहस्र मुखों से फूत्कार करने लगे। उसके कारण लक्ष्मीजी घबराईं और उन्होंने श्रीविष्णु को नींद से जगाया। उनके जागते ही उनका शरीर आकुंचित हुआ। तब छुटकारे की सांस लेते हुए शेष ने पूछा "क्या आज मेरी परीक्षा लेना चाहते थे।" इस पर श्रीविष्णु ने शेष को, शिवजी के तांडव नृत्य का कलात्मक श्रेष्ठत्व विशद करके बताया। तब शेष बोले - “वह नृत्य एक बार मै देखना चाहता हूं"। इस पर विष्णु ने कहा - "तुम एक बार पुनः पृथ्वी पर अवतार लो, उसी अवतार में तुम शिवजी का तांडव नृत्य देख सकोगे।" । तदनुसार अवतार लेने हेतु उचित स्थान की खोज में शेषजी चल पडे। चलते चलते गोनर्द नामक स्थान पर, उन्हें गोणिका नामक एक महिला, पुत्रप्राप्ति की इच्छा से तपस्या करती हुई दीख पडी। शेषजी ने उसे मातृरूप में स्वीकार करने का मन ही मन निश्चय किया। अतः जब गोणिका सूर्य को अर्घ्य देने हेतु सिद्ध हुई तब शेषजी सूक्ष्म रूप धारण कर उसकी अंजलि में जा बैठे और उसकी अंजलि के जल के साथ नीचे आते ही, उसके सम्मुख बालक के रूप में खडे हो गए। गोणिका ने उन्हें अपना पुत्र मान कर गोदी में उठा लिया और बोली "मेरी अंजुलि से पतन पाने के कारण, मै तुम्हारा नाम पतंजलि रखती हूँ"। पतंजलि ने बाल्यावस्था से ही विद्याभ्यास प्रारंभ किया। फिर तपस्या द्वारा उन्होंने शिवजी को प्रसन्न कर लिया। शिवजी ने उन्हें चिदंबर क्षेत्र में अपना तांडव नृत्य दिखलाया और पदशास्त्र पर भाष्य लिखने का आदेश दिया। तदनुसार चिदंबरम् में ही रह कर पतंजलि ने पाणिनि के सूत्रों तथा कात्यायन के वार्तिकों पर विस्तृत भाष्य की रचना की। यह ग्रंथ “पातंजल महाभाष्य" के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस महाभाष्य की कीर्ति सुनकर, उसके अध्ययनार्थ हजारों 360 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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