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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनात्मश्रीविगर्हण, उपदेशसाहस्री, धन्याष्टक, विवेकचूडामणि इ.। ई.पू. दूसरी शताब्दी से पूर्व का निश्चित होता है। शंतनु के शंकराचार्य को कुछ लोग 'प्रच्छन्न बौद्ध' मानते हैं। पद्मपुराण सूत्र पाणिनि के भी पहले होने चाहिये ऐसा मत, सिद्धांतके निम्न श्लोक का आधार वे लेते हैं कौमुदी के वैदिक प्रकरण पर सुबोधिनी नामक टीका-ग्रंथ के मायावादमसच्छास्त्रं प्रच्छन्नं बौद्धमुच्यते। लेखक ने अंकित किया है। सूत्रकार शतनु की परंपरा, पाणिनि मयैव कथितं देवि कलो ब्राह्मणरूपिणा । से भिन्न प्रतीत होती है। विशेष बात यह कि प्रचलित मान्यता परंतु वे प्रच्छन्न बौद्ध नहीं थे यह स्वयं बौद्ध दृष्टि से भी के विपरीत वे कहते है कि वेदों के समान लौकिक भाषा में सिद्ध होता है। शांतरक्षित समान प्रकांड बौद्ध दार्शनिक ने भी प्रत्येक शब्द को स्वर होता है। अर्थभेद के कारण स्वरभेद आचार्य के मतों की कटु आलोचना की है। होने वाले 'अर्जुन', 'कृष्ण' आदि अनेक शब्दों की स्वरविषयक ama ___ आचार्य ने जो अद्वैत सिद्धान्त प्रतिपादित किया, उसका चर्चा उन्होंने इस दृष्टि से अपने फिटसूत्रों में की है। मूलमंत्र है। शक्तिवल्लभ अाल - नेपाली। ई. 18 वीं शती। ___ "ब्रह्म सत्यं, जगन्मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः" आत्रेय गोत्री कान्यकुब्ज ब्राह्मण। पिता-लक्ष्मीनारायण। शक्ति आचार्य ने 32 वर्ष की आयु में जो सर्वंकष कार्य किया के उपासक। राजनीतिनिपुण। संगीत-कुशल। संस्कृत तथा कि वह विश्व में अपूर्व है। देशभाषाओं के विद्वान्। 'जयरत्नाकर' नाटक के प्रणेता। शंकरानंद - ई. 11 वीं सदी। बौद्ध मतानुयायी तर्कशास्त्री। शकपूत - एक सूक्तद्रष्टा राजा। नृमेध आंगिरस के पुत्र होने काश्मीरी ब्राह्मण। धर्मकीर्ति की प्रमाणवार्तिक एवं संबंध-परीक्षा से नार्मेध भी कहलाये। ऋग्वेद के दसवें मंडल का 132 वां पर टीका, अपोहसद्धि तथा प्रतिबंधसिद्धि इनके ग्रंथ हैं। सभी सूक्त, आपके नाम पर है। इस सूक्त का विषय मित्रावरुणस्तुति ग्रंथ तिब्बती में अनुवादित। है। एक ऋचा है - (2) एक अद्वैती आचार्य। ई. 14 वीं सदी। विद्यारण्य ता वां मित्रावरुणा धारयत्क्षिती खामी के गुरु। इन्होंने अद्वैत प्रचार के लिये प्रस्थानत्रयी पर सुषुम्नेषितत्वा यजामसि । टीका लिखी। आत्मपुराण नामक ग्रंथ की भी रचना की जो युवोः क्राणाय सख्यैरभि ष्याम रक्षसः ।। सर्वोपनिषदों का सार है। अर्थ- हे इष्ट देवतास्वरूप, पृथ्वी-रक्षक, धनसम्पन्न मित्रावरुण, (3) ई. 18 वीं सदी। एक धर्मशास्त्री व मीमांसक। , आपकी सहायता से ही हम यज्ञद्वेषी राक्षसों को पराजित करते है। पूर्वाश्रम का नाम बालकृष्ण भट्ट। काशी में निवास । खंडदेव शची पौलोमी - पुलामा असुर की कन्या। ऋग्वेद के दसवें के भाट्टदीपिका नामक मीमांसा ग्रंथ पर इन्होंने प्रभावली नामक मंडल का 159 वां सूक्त आपके नाम है। इस सूक्त में सपत्नी टीका लिखी। धर्मशास्त्र पर लिखे अन्य ग्रंथ हैं : (सौत) के नाश की प्रार्थना की गई है। सूर्य को लक्ष्य कर कालतत्त्व-विवेचनसारसंग्रह, त्रिंशच्छ्लोकी, निर्णय-सारोद्धार एवं इसका जप किया जाता है। पातयज्ञप्रयोग। इनके अतिरिक्त तंत्रशास्त्र पर सुंदरी-महोदय नामक यनेन्द्रो हविषा कृत्व्य भवद् द्युम्न्युत्तमः । ग्रंथ की भी इन्होंने रचना की है। इदं तदक्रि असपत्ना किलाभुवम्।। शंकुक - शंकुक के मत का अभिनवगुप्त ने 15 स्थानों पर अर्थ- हे हविर्दत्त देवताओं, आपकी कृपा से इंद्रसमान उल्लेख किया है तथा टीका के उद्धरण देकर आलोचना भी जगद्विख्यात पति मुझे मिला है, मैं आज सपत्नी (सौत) की की है। ये रसशास्त्र के व्याख्यान में अनुमितिवादी आचार्य पीडा से मुक्त हुई हूं। माने जाते हैं। राजतंरगिणी में इन्हें भी अजितापीड के समय शठकोप यति (शठकोपाचार्य) - दक्षिण भारत के अहोबिल ई. 9 वीं शती का कहा गया है - मठ के सप्तम आचार्य। मूल नाम तिरुमल्ल। कविर्बुधमनःसिन्धुशशांकः शंकुकाभिधः। 'कवि-तार्किक-कण्ठीरव' की उपाधि से विभूषित । कवि वाहिनीपति यमुद्दिश्याकरोत् काव्यं भुवनाभ्युदयामिधम्। द्वारा प्रशंसित। विजयनगर के रंगराज (1575-1598) के इससे सिद्ध होता है कि शंकुक ने 'भुवनाभ्युदय' नामक समकालीन। रचना- वासंतिका-परिणय नामक नाटक। काव्य अजितापीड की स्तुति में लिखा था। सूक्ति-मुक्तावली शठकोपाचार्य - वैष्णवों के श्री - संप्रदाय के प्रधान आलवार । तथा शाङ्गधरपद्धति से ज्ञात होता है कि शंकुक के पिता श्रीराम के प्रति मधुर भावना से युक्त 'सहस्र-गीति' नामक का नाम मयूर था। ये बाण के समकालीन मयूर से भिन्न ही होंगे। रस-भावात्मक ग्रंथ के रचयिता। आपने अपने सहस्र- गीति शंतनु - व्याकरण के फिटसूत्रों के कर्ता। इनके संबंध में ग्रंथ में भगवान् राम की माधुर्यमयी प्रार्थना की है। राम के कोई भी जानकारी उपलब्ध नहीं हैं। पतंजलि ने अपने महाभाष्य प्रति दक्षिण के आलवारों की मधुर भावना का परिचय आपके में आपके सूत्रों का आधार लिया है। अतः शंतनु का काल, इस ग्रंथ से होता है। आप 'शठकोप मुनि' के नाम से भी प्रसिद्ध थे। 468 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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