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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सन् 1912 में त्रिवेन्द्रम के महाविद्यालय में संस्कृत के "काव्यानुशासन" में मिलता है। "काव्यमीमांसा" इनका प्राध्यापक। विद्वद्गोष्ठियों द्वारा संस्कृत के अभ्युदय की योजनाएं साहित्यशास्त्र विषयक ग्रंथ है। इनके 4 नाटकों के नाम हैंकार्यान्वित की। गुरु-आचार्य चूनकर अच्युत वारियार तथा 1) बालरामायण, 2) बालमहाभारत (जिसका दूसरा नाम चाचा केरलवर्मा से शिक्षा प्राप्त।। "प्रचंडपांडव' भी है), 3) विद्धशालभंजिका और 4) कृतियां- गैर्वाणी-विजय (नाटक), आंग्ल-साम्राज्य कर्पूरमंजरी। कर्पूरमंजरी की संपूर्ण रचना प्राकृत में होने (महाकाव्य), राधा-माधव (गीतिकाव्य), उद्दालकचरित के कारण इस नाटिका को सट्टक कहा जाता है। राजशेखर (ओथेल्लो का संस्कृत गद्यानुवाद), तुलाभार-प्रबंध, ने स्वयं को कविराज कहा है और महाकाव्य के प्रणेताओं के ऋग्वेदकारिका, लघुपाणिनीय (अष्टाध्यायी का संक्षेप), प्रति अपना आदर-भाव प्रकट किया है। ये भूगोल के भी करणपरिष्करण (ज्योतिष विषयक), वीणाष्टक, देवीमंगल, महाज्ञाता थे। इन्होंने भूगोलविषयक "भुवनकोष' नामक ग्रंथ विमानाष्टक आदि लघुकाव्य । इनके अतिरिक्त आपने केरलपाणिनीय की भी रचना की थी। इसकी सूचना "काव्य-मीमांसा' में (मलयालम का व्याकरण) तथा भाषाभूषण (काव्यशास्त्रविषयक) प्राप्त होती है। नामक मलयालम-ग्रंथों का भी प्रणयन किया। ___ इन्होंने "कविराज" उसे कहा है जो अनेक भाषाओं में राजरुद्र - काशिका वृत्ति में उद्धृत कात्यायनीय वार्तिकों के समान अधिकार के साथ रचना कर सके। इन्होंने स्वयं अनेक भाष्यकार। पितृनाम-गन्नय। मद्रास के हस्तलेख-संग्रह में एक भाषाओं में रचना की थी। इनकी रचनाओं के अध्ययन से हस्तलिधित प्रति विद्यमान है, जिसमें आठ अध्याय और प्रत्येक ज्ञात होता है कि वे नाटककार की अपेक्षा कवि के रूप में में चार पाद हैं। अधिक सफल रहे हैं। "बालरामायण" की विशालता (10 राजवल्लभ- बंगाल निवासी। ग्रन्थ- द्रव्यगुण । अंक), उसके अभिनेय होने में बाधक सिद्ध हुई है। राजवर्म-कुलशेखर - ई. 19 वीं शती। त्रावणकोर के नरेश । राजशेखर शार्दूलविक्रीडित छंद के सिद्धहस्त कवि हैं जिसकी रचनाएं- अजामिलोपाख्यान, पद्मनाभशतक, कुचेलोपाख्यान, प्रशंसा क्षेमेंद्र ने अपने "सुवृत्ततिलक' में की है। इन्होंने भक्तिमंजरी और उत्सववर्णन। सभी मुद्रित। अपने नाटकों के “भणितिगुण' की स्वयं प्रशंसा की है। राजशेखर - समय- ई. 10 वीं शती का पूर्वार्ध । इन्होंने "बालरामायण" के नाट्य-गुण को महत्त्व न देकर उसे प्रसिद्ध नाटककार व काव्यशास्त्री। इन्होंने अपने नाटकों की पाठ्य व गेय माना है। ये अपने नाटकों की सार्थकता अभिनय प्रस्तावना में अपनी जीवनी विस्तारपूर्वक प्रस्तुत की है। ये में न मान कर पढने में स्वीकार करते हैं (बालरामायण 1/12) । महाराष्ट्र की साहित्यिक परंपरा से विमंडित एक ब्राह्मण-वंश आचार्यों ने राजशेखर को "शब्द-कवि" कहा है। वर्णन में उत्पन्न हुए थे। इनका कुल “यायावर" के नाम से विख्यात की निपुणता तथा अलंकारों का रमणीय प्रयोग उन्हें उच्च था। कीथ ने इन्हें भ्रमवश क्षत्रिय माना है। इनकी पत्नी कोटि का कवि सिद्ध करते हैं। इन्होंने अपनी रचनाओं में अवश्यही चौहान-कुलोत्पन्न क्षत्राणी थीं जिनका नाम अवंतिसुंदरी लोकोक्तियों व मुहावरों का भी चमत्कारपूर्ण विन्यास किया है। था। वे संस्कृत व प्राकृत भाषा की विदुषी एवं कवयित्री थी। राजशेखर - समय- ई. 19 वीं शती। सोमनाथपुरी (जिला राजशेखर ने अपने साहित्यशास्त्रीय ग्रंथ "काव्य-मीमांसा" में गोदावरी, आन्ध्र प्रदेश) में वास्तव्य। रचनाएं- साहित्यकल्पद्रुम "पाक" के प्रकरण में इनके मत का आख्यान किया है। (81 स्तबक), अलंकारमकरन्द, शिवशतक और श्रीश (भागवत) राजशेखर, कान्यकुब्ज-नरेश महेंद्रपाल व महीपाल के राजगुरु चम्पू। थे। प्रतिहारवंशी शिलालेखों के आधार पर महेंद्रपाल का राजानक रुय्यक - ये काश्मीरी माने जाते हैं। समय, ई. 10 वीं शती का प्रारंभिक काल माना जाता है। राजानक इनकी उपाधि थी। "काव्य-प्रकाश-संकेत" नामक ग्रंथ अतः राजशेखर का भी यही समय है। उस युग में राजशेखर के प्रारंभिक द्वितीय पद्य में इन्होंने अपना नाम रुचक दिया के पांडित्य एवं काव्यप्रतिभा की सर्वत्र ख्याति थी, और वे है। "अलंकार-सर्वस्व" के टीकाकार चक्रवर्ती, कुमारस्वामी, स्वयं को वाल्मीकि, भर्तृमेण्ठ तथा भवभूति के अवतार मानते . अप्पय दीक्षित प्रभृति ने भी इनका रुचक नाम दिया है। थे (बालभारत)। इनके संबंध में सुभाषितसंग्रहों तथा अनेक किन्तु मंखक के "श्रीकंठचरित' नामक महाकाव्य में रुय्यक ग्रंथों में विचार व्यक्त किये गये हैं। अभिधा दी गई है। अतः इनके दोनों ही नाम प्रामाणिक हैं राजशेखर की अब तक 10 रचनाओं का पता चला है, और इन दोनों ही नामधारी एक ही व्यक्ति थे। इनके पिता जिनमें 4 रूपक, 5 प्रबंध और 1 काव्यशास्त्रीय ग्रंथ है। का नाम राजानक तिलक था, जो रुय्यक के गुरु भी थे। इन्होंने स्वयं अपने षट्प्रबंधों का संकेत किया है। (बालरामायण मंखक से "श्रीकंठ-चरित" का रचनाकाल 1135-45 ई. के 1/12)। इन प्रबंधों में से 5 प्रबंध प्रकाशित हो चुके हैं . . मध्य है। रुय्यक ने अपने "अलंकार-सर्वस्व" में "श्रीकंठचरित" तथा 6 वां प्रबंध "हरविलास" का उद्धरण हेमचंद्र रचित . के 5 श्लोक उदाहरण स्वरूप उद्धृत किये हैं। अतः इनका 424/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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