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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आपकी बालबोध पुस्तकमाला सर्वत्र लोकप्रिय हुई है। स्वाध्याय मंडल नामक आपने स्थापन की हुई संस्था के द्वारा संस्कृत की प्राथमिक परीक्षाएं होती हैं। आप राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता थे। सामन्त चूडामणि - ई. 12 वीं शती। बंगाल-निवासी। "श्यामलचरित' नामक काव्य के रचयिता।। सामराज दीक्षित - ई. 17 वीं शती। मथुरा-निवासी। बुंदेलखंड के राजा आनंदराय के आश्रित। पिता-नरहरि विन्दुपुरन्दर । पुत्र-कामराज (शृंगार-कलिका के लेखक)। पौत्र-व्रजराज (रसमंजरीटीका के लेखक)। प्रपौत्र-जीवराज (रसतरंगिणी की टीका के प्रणेता)। ___ कृतियां- श्रीदामचरित (नाटक), धूर्तनर्तक (प्रहसन), रतिकल्लोलिनी (कामशास्त्र विषयक ग्रन्थ), शृंगारामृत-लहरी, त्रिपुरसुन्दरी-मानस-पूजन-स्तोत्र, काव्येन्दु-प्रकाश (काव्यशास्त्र-विषयक), आर्यात्रिशती और अक्षरगुम्फ । सायणाचार्य - ई. 14 वीं सदी। एक कूटनीतिज्ञ, संग्रामशूर, प्रकांड पंडित और वेदभाष्यकार। जन्म आंध्र में हुआ। पिता-मायण एवं माता-श्रीमती। माधवाचार्य आपके बड़े भाई थे। छोटे बाई थे भोगनाथ। आपके विद्यागुरु तीन थे :(1) शृंगेरीपीठ के स्वामी विद्यातीर्थ, (2) भारतीकृष्णतीर्थ और (3) श्रीकंठनाथ। 31 वर्ष की आयु में आप कंपण के महामंत्री बने। कंपण, उदयगिरि (जिला नेल्लोर, आन्ध्र) में विजयनगर सम्राट हरिहर के प्रतिनिधि थे। कंपण की मृत्यु के बाद उनके पुत्र संगम (द्वितीय) को योग्य मार्गदर्शन कर आपने उनका राज्य सम्हाला । उनके शासन के विषय में कहा है कि "सत्यं महीं भवति शासति सायणायें। सम्प्राप्तभोगसुखिनः सकलाश्च लोकाः ।।" । अर्थ- सायणाचार्य राज्य का शासन जब कर रहे थे तब सभी को उपभोग के सुख प्राप्त हुए। चोल देश के राजा चंप ने जब संगम को छोटा जानकर आक्रमण किया, तो सायण ने सेना का नेतृत्व कर चंप को पराजित किया। "अलंकारसुधानिधि" में इसका उल्लेख है। संगम के राज्य में 48 वर्ष की आयु तक रहने के बाद आप सम्राट बुक्क के राज्य में आये। वहां भी प्रधानपद आपने सम्हाला। सायणाचार्य ने कुछ लोकोपयोगी ग्रंथों की रचना भी की। वे हैं- सुभाषितसुधानिधि, आयुर्वेदसुधानिधि, अलंकारसुधानिधि, पुरुषार्थसुधानिधि, प्रायश्चित्तसुधानिधि और धातुवृत्तिषुधानिधि । यंत्रसुधानिधि नामक ग्रंथ भी आपने लिखा है। सायणाचार्य वेदभाष्यकार के रूप में अजरामर हैं। आपने भाष्यलेखन के लिये पहले कृष्ण यजुर्वेद का चुनाव किया। कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा के होने से इसे आपने अग्रपूजा का सम्मान दिया होगा। तैत्तिरीय ब्राह्मण एवं तैत्तिरीय आरण्यक पर भी आपने भाष्य लिखे। यजुर्वेद का भाष्य पूर्ण होने पर आपने ऋग्वेद का क्रम लिया। उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण एवं ऐतरेय आरण्यक पर भी भाष्य लिखे। फिर सामवेद व अथर्ववेद पर भाष्य लिखे। शतपथ ब्राह्मण पर लिखित भाष्य आपकी अंतिम रचना रही। सायणाचार्य ने अपने भाष्य में याज्ञिक-पद्धति को महत्त्व दिया है। सार्वभौम - ई. 16 वीं शती। गुरु-विश्वनाथ चक्रवर्ती । पुत्र-दुर्गादास। कवि कर्णपूर लिखित अलंकार-कौस्तुभ के टीकाकार। सिंधुक्षित् - ऋग्वेद के दसवें मंडल के 75 वें सूक्त के द्रष्टा। यह सूक्त छोटा है किन्तु सिन्धु नदी के नाम पर जाना जाता है। इस सूक्त की पांचवी ऋचा में गंगा, यमुना, सरस्वती, शुतुद्री (सतलज), परुष्णी (रावी), मरुद्वधा तथा आर्जिकीया नदियों का उल्लेख है। इसी प्रकार छठवीं ऋचा में कुभा (काबुल), सुसूर्त, रसा आदि नदियों का उल्लेख है। इनकी एक ऋचा इस प्रकार है प्र ते रदद्वरुणो यातवे पथः सिन्धो यद्वाजा अभ्यद्रवस्त्वम् भूम्या अधि प्रवता यासि सानुना यदेषामग्रं जगतामिरज्यसि अर्थात् पर्वत शिखर से अवतीर्ण होनेवाली जगत्स्वामिनी हे सिन्धु नदी, उर्वरा प्रदेश में तेरा प्रवाह वरुण देवता ने ही तैयार किया है। भौगोलिक दृष्टि से यह सूक्त महत्त्वपूर्ण है। सिद्धसेन दिवाकर - ई. 5 वीं शती-उत्तरार्ध । पिता-कात्यायन गोत्रीय ब्राह्मण । माता-देवश्री। जन्मस्थान-उज्जयिनी। सिद्धसेन ने वृद्ध वादिसूरि से वादविवाद में पराजित होने पर उनसे गुरु-दीक्षा ली। दीक्षानाम था कुमुदचन्द्र। इस संबंध में एक आख्यायिका इस प्रकार बतायी जाती है कि सिद्धसेन को अपनी विद्वत्ता और पांडित्य पर बडा गर्व था। उन्होंने यह प्रतिज्ञा की कि जो उन्हें वाद-विवाद में परास्त कर देगा उसे वे गुरु मान लेंगे। सिद्धसेन अपने इस प्रतिज्ञा-पूर्ति के लिये दिग्विजय करते गये। उन्हें यह जानकारी मिली कि पश्चिम भारत में एक विख्यात जैन आचार्य रहते हैं। उनकी खोज करने वे निकल पडे। सूरत के निकट जंगल में उनकी भेंट वृद्धवादी से हुई। उन्हें शास्त्रार्थ की चुनौती दी। वृद्धवादी ने कहा कि उन्हें चुनौती मंजूर है, किन्तु जय-पराजय का निर्णय देने वाले किसी तीसरे व्यक्ति की उपस्थिति में ही वे शास्त्रार्थ करेंगे। वहां पास में ही एक ग्वाला अपने पशु चरा रहा था। सिद्धसेन ने उसे अपने पास बुलाया और उसे पहल की और वे लगातार बोलते गये। उस ग्वाले की समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था। उसे लगा यह ब्राह्मण अर्ध-पागल-सा है। सिद्धसेन का भाषण समाप्त होने पर वृद्धवादी ने उस ग्वाले के पास की ढोलक अपने हाथों में ली और उसके ताल पर उन्होंने एक गीत गाया जिसका अर्थ था- किसी को 434 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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