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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपनी भगवद्गीता की टीका का रचनाकाल 1864 वि. सं. (1707 ई.) स्वयं ही दिया है। श्रीधर स्वामी के समान ये भी रास-पंचाध्यायी को निवृत्ति मार्ग का उपदेश देने वाली मानते हैं। इनकी भाष्योत्कर्षदीपिका आचार्य शंकर के गीता भाष्य के उत्कर्ष को प्रदर्शित करने वाली है। किंतु अद्वैत के आचार्यप्रवर मधुसूदन सरस्वती के अर्थ पर आक्षेप करने से भी ये पराङ्मुख नहीं होते। इनकी भागवत । गूढार्थदीपिका, “अष्टटीका भागवत" के संस्करण में प्रकाशित हो चुकी है। धनपाल - ई. 10 वीं शती। मेरुतुंगाचार्य के प्रबंधचिंतामणि नामक ग्रंथ में धनपाल का चरित्र आया है। संकाश्य गोत्र के ब्राह्मण सर्वदेव आपके पिता थे। प्रारंभ में धनपाल जैन धर्म के विरोधी थे, किन्तु बाद में जैनधर्म का अध्ययन कर वे जैन बन गए। आप भोजराजा के सभा में पंडित थे। धनपाल के ग्रंथों के नाम है : पाईलच्छीनाममाला, तिलकमंजरी और ऋषपंचाशिका। पाईलच्छीनाममाला है उनका प्राकृतकोश, जो प्राकृत का एकमात्र कोश है। धनपाल का संस्कृत ग्रंथ है तिलकमंजरी। यह ग्रंथ राजा भोज को अत्यंत प्रिय था। धनपाल की भाषा का गौरव करते हुए पंडितों का प्रश्नार्थक कथन है कि धनपाल के सरस वचन और मलयगिरि के चंदन से कौन संतुष्ट न होगा। धनेश्वर या धनेश - महाभाष्य के टीकाकार। वोपदेव के गुरु । टीका- चिन्तामणि नामक व्याकरण विषयक ग्रंथ और अन्य रचना "प्रक्रिया-रत्नमणि' उपलब्ध। समय वि. की 13 वीं शती का उत्तरार्ध । धनेश्वर सूरि - चन्द्रगच्छ के प्रसिद्ध जैन आचार्य। समय 610 ई.। “शत्रुजय" नामक महाकाव्य के रचयिता। इस महाकाव्य में इन्होंने शत्रुजयतीर्थ के उद्धारक 18 राजाओं की प्रसिद्ध दंतकथाओं का वर्णन 14 सर्गों में किया है। इसमें बौद्ध शास्त्रार्थ का भी उल्लेख है। तत्कालीन शासक शिलादित्य थे। डा. हीरालाल जैन ने इनका समय 7-8 वीं शती माना है। धन्वन्तरि - इन्हें आद्य धन्वंतरि का ही अवतार माना गया है। पुराणांतर्गत वंशावलि के अनुसार इनका जन्म चंद्रवंशी राजकुल में हुआ था। "हरिवंश" में सुहोत्र, काशिक, दीर्घतपा, धन्वंतरि के क्रम से इनकी वंश परंपरा दी हुई है। (1,32,18,22)। कुछ, पुराणों में इन्हें दीर्घतप का पौत्र तथा धन्वा का पुत्र माना गया है। धन्वंतरि को आयुर्वेद का प्रवर्तक माना जाता है। इन्होंने भारद्वाज से आयुर्वेद का ज्ञान प्राप्त किया, उसका अष्टांगों में विभाजन किया और वह ज्ञान अपने अनेक शिष्यों को प्रदान किया। पुराणों ने इन्हें विद्वान, सर्वरोगप्रणाशन, महाप्राज्ञ, वाविशारद, राजर्षि आदि विशेषणों से गौरवान्वित किया है। इनके नाम पर चिकित्सादर्शन, चिकित्साकौमुदी, योगचिंतामणि, सन्निपातकलिका, गुटिकाधिकार, धातुकल्प, अजीर्णामृतमंजरी, रोगनिदान, वैद्यचिंतामणि, विद्याप्रकाशचिकित्सा, धन्वंतरिनिघंटु, वैद्यभास्करोदय और चिकित्सासारसंग्रह नामक तेरह ग्रंथ हैं। उनमें से कुछ ग्रंथ उपलब्ध हो चुके हैं। इनके प्रपौत्र काशीराज दिवोदास को भी "धन्वन्तरि" का बिरुद प्राप्त हुआ था। धरणीदास - ई. 11 वीं शती। बंगाल के निवासी। अनेकार्थ संग्रह (अपरनाम धरणीकोश) के कर्ता। धर्मकीर्ति (आचार्य) - ई. 7 वीं शती। एक बौद्ध नैयायिक। संभ्रांत ब्राह्मणकुल में जन्म। मूलतः ये आंध्रप्रदेश के तिरुमलै के निवासी थे। प्रारंभ में इन्होंने वैदिक परंपरा के ग्रंथों का उत्तम अध्ययन किया था, किन्तु बौद्ध पंडितों के संपर्क में आने के बाद उन्होंने बौद्ध धर्म स्वीकार किया। न्यायशास्त्र में विशेष अभिरुचि होने के कारण इन्होंने सुप्रसिद्ध बौद्ध नैयायिक दिङ्नाग के शिष्य ईश्वरसेन के पास बौद्धन्याय का अध्ययन किया। पश्चात् वे नालंदा महाविहार पहुंचे और वहां पर उन्होंने संघस्थविर विज्ञानवादी आचार्य धर्मपाल का शिष्यत्व स्वीकार किया। ब्राह्मण दर्शनों का ज्ञान कराने वाले कुमारिल इनके प्रथम गुरु थे किन्तु कुमारिल और धर्मकीर्ति ने एक दूसरे के मतों का खंडन किया है। धर्मकीर्ति ने ब्राह्मण तार्किकों का खंडन करने हेतु अनेक ग्रंथ लिखे। "प्रमाणवार्तिक' उनका सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ है। इसके अतिरिक्त न्यायबिंदु, हेतुबिंदु, प्रमाणविनिश्चय, वादन्याय, संबंधपरीक्षा और समान्तरसिद्धि नामक अन्य 6 ग्रंथ भी उनके नाम पर हैं। इनमें से प्रमाणवर्तिक, न्यायबिंदु एवं वादन्याय नामक केवल तीन ग्रंथ ही मूल संस्कृत रूप में उपलब्ध हैं। शेष ग्रंथों के तिब्बती अनुवाद प्राप्त हुए हैं। "न्यायमंजरी"कार जयंत भट्ट (1000 ई.) जैसे विरोधकों ने भी आचार्य धर्मकार्ति की प्रशंसा की है। बौद्ध न्याय परंपरा में दिङ्नाग के पश्चात् धर्मकीर्ति का ही स्थान माना जाता है। इत्सिंग ने अपने यात्रा वर्णन में इनका उल्लेख किया है। महापंडित डा. राहुल सांकृत्यायन ने तिब्बत से इनके ग्रंथ खोज निकाले हैं। उसके पूर्व ब्राह्मण नैयायिकों के ग्रंथों में हुए नामाल्लेख के अतिरिक्त इनके बारे में कुछ भी जानकारी उपलब्ध नहीं थी। धर्मकीर्ति - न्यायबिन्दुकार धर्मकीर्ति से भिन्न बौद्ध पंडित । समय वि. सं. 1140 के लगभग । रचना- रूपावतार, प्रक्रियानुसारी ग्रन्थों में सबसे प्राचीन।। धर्मकीर्ति - ई. 17 वीं शती। धर्मकीर्ति नाम के अनेक विद्वान भट्टारक परम्परा में हुए। उनमें ललितकीर्ति के शिष्य जैन मत के बलात्कारगण जेरहट शाखा के आचार्य धर्मकीर्ति की दो संस्कृत रचनाएं मिलती हैं - पदमपुराण और हरिवंशपुराण । धर्मतापस - ऋग्वेद के 10 वें मंडल के 114 वें सूक्त के रचयिता। इसमें उन्होंने विश्वेदेव की स्तुति की है। संस्कृत वाङ्मय कोश-ग्रंथकार खण्ड/343 For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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