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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धर्मदास - ई. 11 वीं शती के पूर्व। बंगाल निवासी। “विदग्धमुख-मण्डन" नामक काव्य के प्रणेता। धर्मदास - चन्द्र व्याकरण पर अनेक वृत्तियां लिखी किंतु सभी अप्राप्य। केवल एक वृत्ति जर्मनी में रोमन लिपिबद्ध है। उस पर धर्मदास रचयिता होने का उल्लेख है पर युधिष्ठिर मीमांसकजी को संदेह है कि वह चन्द्रगोमी द्वारा रचित होगी। धर्मदेव गोस्वामी - ई. 18 वीं शती का उत्तरार्ध । केहती सत्र (असम) के निवासी। कृतियां-नरकासुर विजय काव्य, धर्मोदय काव्य तथा धर्मोदय नाटक। धर्मधर - ई. 16 वीं शती। पिता- यशपाल । माता- हीरादेवी। गोलाराडान्वयी। इनके विद्याधर और देवधर नामक दो भाई थे। पत्नी- नन्दिका। पुत्र- पराशर और मनसुख। सरस्वतीगच्छ के अनुयायी। गुरु- भट्टारक पद्मनन्दी योगी। रचनाएं- श्रीपालचरित और नागकुमारचरित (ई. 1454)। चौहानवंशी राजा माधवचन्द्र द्वारा सम्मानित। नल्हू साहू की प्रेरणा से नागकुमारचरित की रचना की। धर्मपाल - ई. 7 वीं शती के एक बौद्ध नैयायिक। तमिलनाडु के कांचीपुरम् में जन्म। आठ भाइयों में सबसे बडे प्रमुख मंत्री के ज्येष्ठ पुत्र। दिङ्नाग के परवर्ती। किशोरावस्था में ही संसार से विरक्त हो कर धर्मपाल ने गृहत्याग किया। घूमते फिरते नालंदा विद्यापीठ में रह कर आपने बौद्ध धर्म का अध्ययन किया। फिर आप वहीं पर प्रधानाचार्य बने। उस विद्यापीठ ने "बोधिसत्त्वविद्' पदवी देकर आपको गौरवान्वित किया। सुप्रसिद्ध बौद्ध पंडित शून्यवाद के व्याख्याता धर्मकीर्ति तथा युआनच्चांग के गुरु शीलभद्र आपके ही शिष्य थे। चीनी यात्री युआन च्वांग और इत्सिंग ने धर्मपाल का उल्लेख किया है। ___धर्मपाल ने पाणिनि के व्याकरण पर एक वृत्ति लिखी है जिसका नाम है वेदवृत्ति। इसके अतिरिक्त आपके बौद्ध धर्म विषयक संस्कृत ग्रंथ प्रसिद्ध हैं। वे है :- आलंबन-प्रत्यवधान शास्त्रव्याख्या, विज्ञाप्तिमात्रतासिद्धि-व्याख्या, शतशास्त्रव्याख्या आदि। एक ग्रंथ का चीनी भाषा में अनुवाद हो चुका है ।ऐसा कहा जाता है कि कौशांबी में अनेक ब्राह्मणों को शास्त्रार्थ में आपने पराभूत किया। धर्मपाल बौद्धदर्शन के योगाचार मतानुयायी दार्शनिक थे। धर्मभूषण (अभिनव) - अभिनव धर्मभूषण, वर्धमान भट्टारक के शिष्य थे। विजयनगर के राजा देवराय प्रथम द्वारा सम्मानित । विजयनगर के निवासी। समय ई. 13 वीं शती का उत्तरार्ध । रचना- न्यायदीपिका (तीन परिच्छेद)। इसमें प्रमाण, प्रमाण के भेद और परोक्ष प्रमाण का विशद विवेचन किया गया है। धर्मराज कवि - "वेंकटेशचंपू' के प्रणेता। निवासस्थान तंजौर। ये ई. 17 वीं शती के अंतिम चरण में विद्यमान थे। इनकी काव्यकृति अभी तक अप्रकाशित है। उसका विवरण तंजौर केटलाग में प्राप्त होता है। धर्मराजाध्वरींद्र - एक प्राचीन नैयायिक। दक्षिण भारत स्थित बोलागुली के निवासी। वेंकटनाथ इनके गुरु थे। इन्हनि तत्त्वचिंतामणिग्रंथ पर पहले की दस टीकाओं का खंडन करते हुए एक नई टीका लिखी। इनका प्रमुख ग्रंथ है- वेदांतपरिभाषा। वेदांतविषयक विचारों को समझने की दष्टि से यह ग्रंथ अत्यंत उपयोगी माना जाता है। धर्मसूरि - ई. 15 वीं शती। आंध्र में गुंतूर जिले के तेनाली समीपस्थ कठेश्वर गांव के निवासी। जन्म वाराणसी के एक प्रतिष्ठित ब्राह्मण कुल में। यह घराना अलौकिक बुद्धिमत्ता तथा पांडित्य के लिये प्रसिद्ध था। धर्मसूरि के पितामह धर्मसुधी ने तपस्या द्वारा यह वरदान प्राप्त किया था कि उनके कुल में सात पीढियों तक पांडित्य की परंपरा चलती रहे। उनके तीनों ही पुत्र महापंडित थे। उनसे पर्वतनाथ के सुपुत्र धर्मसूरि का तो चौदह विद्याओं पर प्रभुत्व था। न्यायशास्त्र में वे विशेष रूप से पारंगत थे। धर्मसूरि का "साहित्यरत्नाकर' नामक ग्रंथ बहुत प्रसिद्ध है। दस तरंगों में विभाजित इस ग्रंथ में संपूर्ण काव्यशास्त्र की चर्चा की गई है। इसके अतिरिक्त धर्मसूरि ने कृष्णस्तुति व सूर्यशतक नामक दो स्तोत्रों तथा बालभागवत और कंसवध एवं नरकासुरविजय नामक दो नाटक भी लिखे हैं। धमोत्तराचार्य - ई. 9 वीं शती। ये कल्याणरक्षित और धर्मकरदत्त के शिष्य थे। ये बौद्धों के सौत्रान्तिक मत के अनुयायी थे। इन्होंने प्रमाणपरीक्षा अपोह नामक प्रकरण तथा परलोकसिद्धि, क्षणभंगसिद्धि और प्रमाणविनिश्चय- टीका नामक ग्रंथों की रचना की। इनके अतिरिक्त इन्होंने धर्मकीर्ति के न्यायबिंदु पर न्यायबिंदुटीका नामक ग्रंथ भी लिखा है। धानुष्कयज्वा (धन्वयज्वा) - ई. 13 वीं शती। एक वैष्णव आचार्य। इन्होंने ऋग्वेद, यजुर्वेद व सामवेद इन तीनों वेदों पर भाष्य लिखे, किन्तु उनमें से अब एक भी उपलब्ध नहीं। वेदाचार्य की सुदर्शनमीमांसा में इनका त्रिवेदी भाष्यकार अथवा त्रयीनिष्ठ वृद्ध कहकर अनेक बार उल्लेख हुआ है। धोयी - ई. 12 वीं शती। "पवनदूत" नामक एक संदेश काव्य तथा "सत्यभामाकृष्णसंवाद" के प्रणेता। इनके कई नाम मिलते हैं यथा धूयि, धोयी व धोयिक। ये बंगाल के राजा लक्ष्मणसेन के दरबारी कवि रहे। श्रीधरदासकृत "सदुक्तिकर्णामृत" में इनके पद्य उद्धृत है, जो कि शक सं. 1127 या 1206 ई. का ग्रंथ है। म. म. हरप्रसाद शास्त्री के अनुसार कविराज धोयी पालधिगधि तथा काश्यप गोत्र के राढीय ब्राह्मण थे। इनके वैद्य जातीय होने का आधार वैद्य वंशावली ग्रंथों में दुहिसेन या धुयिसेन नाम का उल्लिखित होना है। "गीतगोविंद" से ज्ञात होता है कि लक्ष्मणसेन के दरबार में उमापतिधर, शरण, गोवर्धन, धोयी और जयदेव कवि रहे थे। इन्हें "कविराज" उपाधि प्राप्त हुई थी। अपने संदेशकाव्य "पवनदूत में (श्लोक सं. 101 व 103) इन्होंने स्वयं को "कविक्ष्मामृतां में (प्रलोक में 101 din होने को चक्रवर्ती" तथा "कविनरपति" कहा है। FREE 344 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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