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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ- एक ओर से प्रदीर्घ और अर्ध्वगामी किरणों के रज्जु धारण करने वाले तेजस्वी सूर्य का उदय तथा दूसरी ओर से शीतरष्णि चन्द्रमा का अस्त होते समय, यह (रैवतक) पर्वत, दोनों ओर लटकनेवाली घंटा धारण करने वाले गजेन्द्र की शोभा धारण करता है। इस श्लोक में घण्टा की अपूर्व उपमा के कारण उत्तरकालीन रसिकों ने इन्हें 'घण्टामाघ' की उपाधि दी है। माघनन्दि - माघनन्दि नाम के तेरह आचार्य हुए हैं। सभी प्रायः दक्षिण भारतीय रहे हैं। इनमें माघनन्दि योगीन्द्र प्रमुख हैं जिनका समय ई. 12 वीं शती है। गुरुनाम-कुमुदेन्दु । शिष्यनाम- कुमुदचन्द्र। ग्रंथ- 1. माघनन्दि- श्रावणाचारसार (चार अध्याय) और 2. शास्त्रसार-समुच्चय। सिद्धान्तसार, पदार्थसार, और प्रतिष्ठाकल्पटिप्पण (जिनसंहिता)। माणिक्यशेखर सूरि - जैनधर्मी अंचलगच्छीय महेन्द्रप्रभसूरि के प्रशिष्य और मेरुतुंगसूरि के शिष्य। गुरुभ्राता- जयकीर्तिसूरि । चैत्यवासी। समय-वि.की 15 वीं शती। ग्रंथ- 1. आवश्यक-नियुक्ति-दीपिका, 2. दशवैकालिक-नियुक्ति-दीपिका, 3. पिण्डनियुक्ति-दीपिका, 4. उत्तराध्ययन दीपिका और 5. आचार-दीपिका। माणिक्यचन्द्र सूरि . वस्तुपाल (सं. 1276) के मंत्री से अच्छा संपर्क। रचना- 1. शान्तिनाथचरित। (आठ सर्ग, 5574 श्लोक) जो हरिभद्र सूरिकृत समराइच्चकहा पर आधारित है (विक्रम की 13 वीं शती का उत्तरार्ध, 1276) और 2. काव्यप्रकाश की संकेत नामक टीका (सं. 1266)। माणिक्यनन्दि - जैनधर्मी नन्दिसंघ के प्रमुख आचार्य। धारा नगरी के निवासी। गुरुनाम- रामनन्दी। शिष्य-नयनन्दी और प्रभाचन्द्र। न्यायशास्त्र के पण्डित। समय- ई. 11 वीं शताब्दी का प्रथम चरण । ग्रंथ-परीक्षामुख (जैन न्यायशास्त्र का आद्य न्यायसूत्र । कुल छः समुद्देशों में विभक्त, 208 सूत्र) । उत्तरकाल में इस पर अनेक टीकाएं- व्याख्याएं लिखी गयीं जिनमें प्रभाचन्द्र का प्रमेयकमल-मार्तण्ड, लघु अनन्तवीर्य की प्रमेय-रत्नमाला, चारुकीर्ति का प्रमेयरत्न-मालालंकार एवं शान्तिवर्णी की प्रमेयकण्ठिका आदि टीकाएं प्रसिद्ध हैं। देवसूरि का प्रमाण-नयतत्त्वालोक तथा हेमचंद्र की प्रमाणमीमांसा पर परीक्षामुख-सूत्र का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। मातृगुप्ताचार्य- समय- संभवतः 5 वीं शती। राजतरंगिणी में मातृगुप्त का कवि के रूप में उल्लेख है। अभिनवभारती में वीणावादन के पुष्प नाम प्रमेद की व्याख्या के समय मातृगुप्त का मत उद्धृत किया है। कुन्तक ने काव्य की सुकुमारता तथा विचित्रता नामक गुणों के लिये मातृगुप्त के उद्धरण दिये हैं। मातृगुप्त के सर्वाधिक उद्धरण अभिज्ञान-शाकुन्तल की टीका करते हुए राघवभट्ट ने दिए हैं। नान्दी का सूत्रधार नाटक तथा यवनिका के लक्षणहेतु, मातृगुप्त के ही श्लोक उद्धृत किए गए हैं। भरत के 'आरंभ' तथा 'बीज' विषयक पद्यों को लिखते समय भी राघवभट्ट ने मातृगुप्त को उद्धृत किया है 'अत्र विशेषो मातृगुप्ताचायौँः उक्तः'क्वचित् कारणमात्रन्तु क्वचिच्च फलदर्शनम्।।' सुन्दरमिश्र ने नाट्यप्रदीप (1613 ई.) नामक ग्रंथ में भरत के नाट्यशास्त्र के अनुसार नान्दी का लक्षण देते हुए उसकी व्याख्या में मातृगुप्ताचार्य के मत का उल्लेख किया है। मातृचेट - समय- ई. प्रथम शती। कनिष्क के समकालीन महायानी बौद्ध पंडित व स्तोत्रकवि। स्तोत्र-साहित्य के प्रवर्तक । भारत के बाहर विशेष ज्ञात तथा आदृत। पाश्चात्य विद्वानों द्वारा खोतान तथा तुरफान से विशेष ग्रंथों का अन्वेषण कर इनके ग्रन्थों का प्रकाशन किया गया। महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने महत्प्रयास से कवि के 'अध्यर्ध-शतक' (बुद्ध स्तोत्र) की मूल संस्कृत प्रति तिब्बल के विहार से प्राप्त की (1926)। इनके तथा अन्य अन्वेषण से विन्टरनिट्झ तथा तारानाथ ने कवि के जीवन पर कुछ प्रकाश डाला है। तदनुसार मातृचेट पूर्वायुष्य में काल नामक ब्राह्मण और शिवोपासक थे। नालन्दा में बौद्ध-केन्द्र पर शास्त्रार्थ में पराजित होने पर बौद्ध संघ में समाविष्ट हुए। आर्यदेव इनके धर्मपरिवर्तक थे। कुछ जीवनीकारों के अनुसार, इन्होंने क्षुधित व्याघ्री को शरीरार्पण किया। रचनाएं- चतुःशतक और अध्यर्धशतक। तन्जौर के ग्रंथालय में इनके नाम पर 11 कृतियों का उल्लेख है- (1) वर्णनाथ-वर्णन, (2) सम्यक्बुद्धलक्षण-स्तोत्र, (3) त्रिरत्नमंगल-स्तोत्र, (4) एकोत्तरी स्तोत्र, (5) सुगत-पंचत्रिरत्न-स्तोत्र, (6) त्रिरत्न-स्तोत्र, (7) मिश्रक-स्तोत्र, (8) चतुर्विपर्यय-कथा, (9) कलियुग परिकथा, (10) आर्य तारादेवी-स्तोत्र (सर्वार्थसाधननाम-स्तोत्रराज) और (11) मतिचित्र-गीति। ये रचनाएं मूल संस्कृत में अनुपलब्ध है। नेपाल में उपलब्ध हस्तलेखों के अनुसन्धान से इनमें से कुछ प्राप्त हो सकती हैं। माथुरेश विद्यालंकार - ई. 17 वीं शती। पिता-शिवराम चक्रवर्ती। माता-पार्वती। बंगाली पंडित । कृतियां- शब्द-रत्नावली (कोश) व सार-सुन्दरी (व्याकरण)। माधव- आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रंथ 'रोगविनिश्चय' या 'माधवानिदान' के प्रणेता। समय ई. 7 वीं शती के आसपास । 'माधव-निदान', आधुनिक युग में रोग निदान का अत्यंत लोकप्रिय ग्रंथ माना जाता है - ___निदाने माधवः श्रेष्ठः। इनके पिता निघण्टुकार इंदु हैं। कविराज गणनाथसेन ने इन्हें बंगाली कहा है। इनके 'माधव-निदान' ग्रंथ की दो टीकाएं प्रसिद्ध हैं और उसके तीन हिंदी अनुवाद प्राप्त होते हैं। माधव कवींद्र- ई. 17 वीं शती। बंगाली वैष्णव। 'उद्धव-दूत' नामक संदेश-काव्य के रचयिता। इनके जीवन के बारे में कोई संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड /413 For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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