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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरु : सिद्धि का मूल है देवता, देवता का मूल मंत्र, मंत्र का मूल दीक्षा और दीक्षा का मूल गुरु । अर्थात गुरु ही सिद्धि का मूल है। शिष्य : शुद्धचित्त, इन्द्रियजयी और पुरुषार्थी शिष्य ही तांत्रिक साधना का योग्य अधिकारी होता है। तंत्र साधना में गुरु-शिष्य संबंध का अपार महत्त्व माना जाता है। मंत्र : प्रत्येक मंत्र में प्रणव, बीज, और देवता यह तीन तत्त्व होते हैं। दीक्षामंत्र अत्यंत प्रभावी होता है। सौरमंत्र पुलिंगी, सौभ्यमंत्र स्त्रीलिंगी और पौराणिक मंत्र नंपुसक लिंगी माने जाते हैं। स्त्रीमंत्रों का ही अपर नाम है "विद्या"। नित्यातंत्र में एकाक्षरी मंत्र को पिंड, द्वयक्षरी को कर्तरी, त्र्यक्षरी से नवाक्षरी तक बीज और 20 से अधिक अक्षरों वाले मंत्र को माला कहते हैं। बीज : प्रत्येक देवता का अपना एक बीज होता है; जैसे काली का क्री, माया का ह्रीं, अग्नि का रं और योनि का ऐं। बीज के अतिरिक्त प्रत्येक देवता का मूलमंत्र होता है। मंत्रचैतन्य : मंत्र, मंत्रार्थ और मंत्रदेवता इन तीनों का एकीकरण । देवता : परमेश्वर या परमेश्वरी की विशिष्ट शक्ति।। भावत्रय : पशुभाव वीरभाव और दिव्यभाव अर्थात् तांत्रिक साधक की तीन अधम, मध्यम और उत्तम अवस्थाएं। आत्यंतिक संसारासक्ति को अधम पशुभाव और सत्कर्मप्रवृत्ति को उत्तम पशुभाव कहते हैं। आचारसप्तक : वेदाचार, वैष्णवाचार, शैवाचार, दक्षिणाचार, वामाचार, सिद्धांताचार और कौलाचार। उक्त अनुक्रम से इनकी श्रेष्ठता मानी गयी है। कौलाचार सर्वश्रेष्ठ माना गया है। (कौलात् परतरं न हि) शैवाचार में पशुहिंसा, दक्षिणाचार में विजया (भंग) सेवन, वामाचार में रजःस्वला रज और कुलस्त्री का पूजन और कौलाचार में 'भूतपिशाचवत्' अनियत आचार विहित माना गया है। दीक्षा : तंत्र साधना में अधिकारी गुरु द्वारा अनुकूल शिष्य को मंत्रदीक्षा आवश्यक मानी गयी है। समय दीक्षा और निर्वाण दीक्षा नामक दो प्रकार की दीक्षा, सामान्य विशेष भेद से होती है। निर्वाण दीक्षा के दो भेद 1) सबीज 2) निर्बीज। सबीज दीक्षा का अपरनाम है "पुत्रक दीक्षा" अथवा "आचार्य दीक्षा"। आगम ग्रंथों में कला, एकतत्त्व, त्रितत्त्व, पंचतत्त्व, नवतत्त्व, छत्तीस तत्व पद, मंत्र, वर्ण, भुवन और केवलभुबन नामक 11 प्रकार की दीक्षाएँ बताई हैं। अभिषेक : दीक्षा प्राप्त शिष्य पर गुरुद्वारा जलसिंचन। इस अभिषेक के शक्तिपूर्ण, क्रमदीक्षा, साम्राज्य, महासाम्राज्य, योगदीक्षा, पूर्णदीक्षा, महापूर्णदीक्षा नामक आठ प्रकार माने गये हैं। साधना : तांत्रिक साधना में उषःकाल में गुरु और देवता का ध्यान, मानसपूजा, मंत्रजप, स्नानविधि, नित्यार्चन, विजया (भंग) ग्रहण, भूतशुद्धि, न्यास, पात्रस्थापना, यंत्रराजस्थापना, श्रीपात्रस्थापना, इष्टदैवतपूजा, प्राणप्रतिष्ठा इन विधियों का पालन यथाक्रम होता है। कुल : श्रीकुल और कालीकुल नामक साधकों के दो कुल होते हैं। श्रीकुल में सुंदरी, भैरवी, बाला, बगला, कमला, धूमावती, मातंगी और स्वप्नावती इन आठ देवताओं का अंतर्भाव होता है और कालीकुल में काला, तारा, रक्तकाली, भुवनेश्वरी, महिषमर्दिनी, त्रिपुरा, दुर्गा और प्रत्यंगिरा इन आठ देवताओं का अन्तर्भाव होता है।। षोडशोचार पूजा : तांत्रिक साधक देवता की प्राणप्रतिष्ठा होने पर जिन उपचारों से पूजा करता है, वे हैं : आसन, स्वागत, पाद्य, अर्ध्य, आचमन, पुनराचमन, मधुपर्क, स्नान, वसन, आभरण, गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य और वंदन। हिंदुसमाज की उपासना में इन षोडशोपचारों का प्रयोग रूढ हुआ है। पंच मकार : मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा और मैथुन। इन्हीं को "पंचतत्त्व" भी कहते हैं। वामाचार में इन पंच मकारों का उपयोग आवश्यक माना है। दक्षिणाचार में पंच मकार का उपयोग नहीं होता। इन पांच मकारादि शब्दों के अर्थ, तंत्रशास्त्र का एक विवाद्य विषय है। इन शब्दों का लौकिक अर्थप्रहण करने वाले पशुभावी साधकों ने तंत्रमार्ग को समाज में निंदापात्र किया है। चक्रपूजा : वीरभाव के साधक स्त्री-पुरुष सामूहिक रीत्या मंडल में बैठ कर विधिपूर्वक सुरापान करते हैं तब वह चक्रपूजा कहलाती है। राजचक्र, महाचक्र, देवचक्र, वीरचक्र, भैरवचक्र और ब्रह्मचक्र नामक छह प्रकार के चक्र होते हैं। बिन्दु : शिवांश और शक्त्यंश की सृष्टि-निर्मिति के पूर्व साम्यावस्था। सृष्टि का आरंभ होते समय मूल बिंदु इच्छा, ज्ञान और क्रिया स्वरूप में विभक्त होता है । मूल बिंदु को परा वाक् और अग्रिम तीन बिंदुओं को पश्यंती, मध्यमा, वैखरी कहते हैं। ब्रह्मपुर : मानव शरीर। नाडी : शरीर में विद्यमान शक्तिस्त्रोत। मनुष्य देह में साढे तीन करोड नाडियों में 14 प्रमुख हैं जिनमें इडा, पिंगला और सुषुम्णा प्रमुख हैं। तीनों में रक्तवर्ण सुषुम्णा सर्वश्रेष्ठ है। उसके अंतर्गत चित्रा ब्रह्मनाडी मानी जाती है। षट्चक्र : मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्ध और आज्ञा। सहस्रारचक्र शरीर के ऊर्ध्वतम स्थान में होता है। (योगशास्त्र में भी इन चक्रों का महत्त्व प्रतिपादन किया है।) संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 161 For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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