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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org सामगान के पांच प्रकार (1) प्रस्ताव: इस का गायन प्रस्तोता करता है। (4) उपद्रव: इसका गायन उद्गाता करता है। (2) उद्गीत: इस का गायन उद्गाता करता है। (5) निधान : इसका गायन प्रस्तोता करता है। (3) प्रतिहार : इसका गायन प्रतिहतो करता है। सामविधान ब्राह्मण : सामवेद से संबंधित इस ग्रंथ में ऐंद्रजालिक प्रयोगों का प्रतिपादन किया है। वैदिक परंपरा के अनुसार सामध्वनि सुनाई देते ही अन्य वेदों का अध्ययन बंद किया जाता हैं। आपस्तंब स्मृतिकार कहते है कि, कुत्ता, गधा, भेड, बकरी इत्यादि प्राणियों का, बालक के रोने का अथवा किसी वाद्य का ध्वनि सुनाई देते ही वेदों का अध्ययन तत्काल बंद करना चाहिए। चरणव्यूह तथा पातंजल महाभाष्य में सामवेद के एक सहस्र भेदों का निर्देश है (सामवेदस्य किल सहस्रभेदा भवन्ति- चरणव्यूह)। (सहस्रवर्मा सामवेदः- व्याकरण महाभाष्य) । व्याकरण महाभाष्य के पस्पशाह्निक में चारों वेदों के शाखाओं की संख्या बताई है : “एकविंशतिधा बा चम्। एकशतम् अध्वर्युशाखाः। सहस्रवा सामवेदः। नवधा आथर्वणो वेदः। आज ये सारे शाखा भेद उपलब्ध नहीं हैं परंतु आज कौथुम राणायनीय, जैमिनीय ये तीन ही सामवेद की शाखाएं जीवित मानी जाती हैं। सामवेद गानप्रधान होने के कारण उसमें केवल गानोचित ऋचाओं का ही संग्रह किया हुआ है। सामवेद की कुल 1549 ऋचाओं में से 75 ऋचाएं ऋग्वेद के बाहर की हैं। इसी कारण सामवेद का पृथक अस्तित्व नहीं माना जाता। ऋग्वेदीय ऋचाओं के आधार पर सामगान की रचना होती है; अतः ऋचाओं को “सामयोनि" कहते हैं। सामवेद की विद्यमान तीन शाखाओं में से कौथुम शाखा विशेष प्रसिद्ध है। कौथुम शाखा के पूर्वार्चिक और उत्तरार्चिक नामक दो भाग हैं। आर्चिक = ऋचाओं का समूह, जिन की ऋचाओं की कुल संख्या 1810 है। इन में कुछ ऋचाओं की पुनरावृत्ति होती है। पुनरावृत्त ऋचाओं की संख्या छोडकर इस संहिता की कुल संख्या : 1549 ही रहती है। पूर्वार्चिक : सामवेद के इस विभाग को छन्दसी अथवा छन्दसिका कहते हैं। इसमें कुल 585 ऋचाएं, छह प्रपाठका में संगृहीत की हैं। प्रपाठकों में कुल 59 "दशतय" (अर्थात् दस ऋचाओं का समूह) किए हैं। प्रारंभिक 12 दशतय अग्निविषयक, बाद में 36 दशतय सोमविषयक और अंत में 11 दशतय सोमविषयक हैं। पूर्वार्चिक के अंत में 55 मंत्रों का एक जो पर्व है उसे “अरण्यकाण्ड" कहते है। इसके आगे उत्तरार्चिक का आरंभ होता है। पूर्वार्चिक में (1) ग्रामगेय गान और (2) अरण्यगेय गान नामक दो गान प्रकार हैं। ग्रामगेय गान से संबंधित ऊहगान और अरण्यगेय गान से संबंधित ऊह्यगान नामक दो विकृत गानप्रकार माने गए हैं। अरण्यगान विकृत होने के कारण और ऊह्यगान रहस्यात्मक होने के कारण उनका गायन अरण्य में ही करने की परम्परा है। - उत्तरार्चिक : सामवेदीय कौथुम शाखा के इस उत्तर भाग में 40 गेय साम हैं, जिनमें प्रत्येकशः 3-3 ऋचाएं होती हैं। कुल 9 प्रपाठकों में प्रत्येकशः दो या क्वचित् तीन भाग हैं। उत्तरार्चिक के अनेक मंत्र पूर्वार्चिक से लिए गए है। इसमें सात अनुष्ठानों का निर्देश किया है : (1) दशरात्र, (2) संवत्सर, (3) एकाह, (4) अहीन, (5) सत्र, (6) प्रायश्चित्त और (7) क्षुद्र । पूर्वार्चिक में ऋचाओं का क्रम, छंद और वर्णनीय देवताओं के अनुसार है। उत्तरार्चिक में वह क्रम यज्ञानुसार किया है। पूर्वाचिक में अनेक योनि और ताल-लय हैं, उत्तरार्चिक में उसका अभाव है। कौथुम शाखा के इन दो भागों का केवल संहिता पाठ मात्र आज उपलबब्ध है। यह संहितापाठ ही ताल, लय, और वाद्यों सहित गाया जाता है। सामगायक पुरोहित सप्तस्वरों का निर्देश अंगुलि संकेत द्वारा करता है। सामवेदी उद्गाता पुरोहित होने के लिए छात्र को आर्चिक द्वारा संगीत की दीक्षा लेनी पड़ती थी। उत्तरार्चिक के कुछ सूक्त कंठस्थ होने के बाद दृढ अभ्यास करने पर, सामवेदी उद्गाता पुरोहित तैयार होता था। भारतीय संगीत विद्या का मूलस्त्रोत सामगान में ही मिलता है। उस प्राचीनतम काल में ही इस देश का संगीत इतनी प्रगत अवस्था में था कि उसे जान कर प्राचीन भारतीय संस्कृति की विकसित अवस्था की कल्पना की जा सकती है। राणायनीय शाखा - सामवेद की यह शाखा, कौथुम शाखा से विशेष भिन्न नहीं है। इस की मंत्रसंख्या भी कौथुम के बराबर है। भेद केवल उच्चारण में है। जैसे कौथुम शाखा में जहां "हा उ" उच्चारण होता है वहां राणायनीय शाखीय "हा वु" उच्चारण करते हैं। कौथुम "राह" कहते हैं वहां राणायनीय "राई" कहते है। जैमिनीय शाखा - इस शाखा की कुल मंत्रसंख्या 1687 और सामगानों की संख्या 3681 है। इस शाखा की एक उपशाखा तलवकार नाम से प्रसिद्ध है। सुप्रसिद्ध केनोपनिषद् इसी शाखा से संबंधित है। __ इस प्रकार सामवेद का संबंध, यज्ञ, इन्द्रजाल और संगीत इन तीन विषयों के साथ जुड़ा हुआ है। मंत्रों की दृष्टि से ही करने की परम शाखा के भाग 14/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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