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सामगान कर, पामें की संख्या प्रायः अल्पमात्र रही है। वे सामगायक भी संगीत प्रवीण न होने के कारण आवश्यक स्वरों का उच्चारण करने में असमर्थ होते थे। ऐसे सामगायकों ने स्वरनिर्देश के लिए “हस्तवीणा" नामक पद्धति शुरु की। हस्तवीणा याने संगीत के सात स्वरों का करांगुली को अंगूठे से स्पर्श कर निर्देश करना।
वैदिक वाङ्मय में तत्कालीन विविध वाद्यों का नामनिर्देश हुआ है, जिन में दुंदुभि, आडंबर, भूमिदुंदुभि, वनस्पति, अघति, काण्डवीणा, वीणा, तूणव, नाडी जैसे वाद्यों के नाम उल्लेखनीय हैं। भूमिदुंदुभि वाद्य की निर्मिति, भूमि में निर्मित कुंड पर चर्माच्छादन कर होती थी। शततंत्री वीणा भी उस समय निर्माण हुई थी।
नारदीय शिक्षा नामक ग्रंथ में संगीत के सप्त स्वरों का मूल मयूर (षड्ज), गाय (ऋषभ), बकरी भेडी - (गंधार), क्रौंच (मध्यम), कोकिल (पंचम), अश्व (धैवत) और हाथी (निषाद) इन के नैसर्गिक ध्वनि में माना है।
(षड्ज मयूरो वदति, गावो रम्भन्ति चर्षभम्। अजाविके तु गंधार, क्रौंचो वदति मध्यमम्।
पुष्पसाधारणे काले कोकिलो वक्ति पंचमम्। अश्वस्तु धैवतं वक्ति, निषादं वक्ति कुंजरः ।। पाणिनीय शिक्षा में सप्त स्वरों की उत्पत्ति उदात्त, अनुदात्त और स्वरित इन वैदिक मंत्रों के स्वरों से मानी है। तदनुसार गंधार-निषाद - उदात्त; ऋषभ-धैवत = अनुदात्त और षडज् मध्यम तथा पंचम = स्वरित है।
इस प्रकार वैदिक समाज के धार्मिक जीवन से संगीत का संबंध होने से छह ऋतुओं के अनुसार, छह प्रकार के रागों का विकास हुआ। बाद में इस में रसिकता का अतिरेक होने के कारण भगवान् मनु तथा जैन बौद्ध मतानुयायी सत्पुरुषों ने समाज को संगीत से अलिप्त रहने का उपदेश दिया, जिस के फलस्वरूप संगीत का विकास एवं प्रचार कुंठित सा हो गया होगा।
प्रारंभिक संगीतज्ञ संगीत का महत्त्व प्रतिपादन करते हुए उसका व्यवस्थित शास्त्र निर्माण करने का कार्य नाट्य शास्त्रकार भरताचार्य ने किया। उन्हों ने गांधर्व विद्या को सामवेद के उपवेद की प्रतिष्ठा दी।
तन्त्र शास्त्रीय यामल तंत्र के 32 ग्रंथों में से कुछ ग्रन्थों में संगीत के अंगोपांगों का विमर्श हुआ है। यामल तंत्रानुसार गांधर्व वेद की श्लोकसंख्या 36 हजार थी और उनमें,
“वीणातंत्र कलातंत्र रागतंत्रमनुत्तमम् । मिश्रतंत्र तालतंत्र गीतिका तंत्रमेव च ।। लासिकोल्लासिकातंत्र मेलतंत्र महत्तरम्।। इत्यादि अनेकविध विषयों का प्रतिपादन किया था। कलातंत्र नामक नौवें यामाल तंत्र में रस, भाव, नाट्य आदि का विचार किया है। 19 वें वीणातंत्र में स्वरोत्पत्ति, रागभेद रागों का काल, ध्वनिभेद, ताल, श्रुति, लय, चतुर्विध वीणा, मेललक्षण इत्यादि का विचार किया है। 28 वें त्रौताल नामक तंत्र में तालों का विचार किया है।
शारदातनय और संगीतमुक्तावलीकार देवेन्द्र ने अपने ग्रंथों में सदाशिव, ब्रह्मा, भरत, कश्यप, मतंग, याष्टिक, दुर्गाशक्ति, शार्दूल, कोहल, कम्बल, रम्भा, अर्जुन, नारद, तुबरु, आंजनेय, मातृगुप्त, रावण, भोजराज, सोमेश्वर, रुद्रसेन, लोल्लट, उद्भट, शंकुक, अभिनवगुप्त इत्यादि अनेक संगीतशास्त्रज्ञों की नामावली दी है।
भरतमुनि गीत, नृत्य और नाट्य इन कलाओं का सविस्तर विवेचन करने वाले संस्कृत ग्रन्थों में भरतमुनिकृत नाट्यशास्त्र नामक ग्रन्थ को अग्रक्रम दिया जाता है। शारदातनय ने वृद्धभरत और भरत इन दो नामों का उल्लेख किया है। उसी प्रकार भरत नाट्यशास्त्र की "द्वादशसाहस्त्री" और "षट्साहस्त्री" इन दो संहिताओं का भी उल्लेख मिलता है। विद्वानों का तर्क है कि द्वादशसाहस्त्री संहिता के रचियता वृद्धभरत और षट्साहस्त्री संहिता के रचियता भरत होगे। नाट्यशास्त्र की द्वादशसाहस्त्री संहिता के 63 अध्याय और षट्साहस्त्री संहिता के 36 अध्याय सम्प्रति उपलब्ध हैं। भरत नाट्यशास्त्र के चतुर्थ और पंचम अध्याय में नाटक के पूर्वरंग का विवेचन करते समय, देवताप्रीत्यर्थ प्रयोजनीय गीत और नृत्य इन ललित कलाओं का परामर्श लिया है। नृत्य की अगणित मुद्राओं में से 108 करण और उनके समन्वय से साधित 32 अंगहारों या अंग विक्षेपों का विचार भरत मुनि ने किया है। भरत मुनि ने संगीत के रागों का विवेचन नहीं किया अपि तु 63 जातियों का परिगणन किया है।
“यत् किंचिद् गीयते लोके तत् सर्वं जातिषु स्थितम्" - इस सिद्धान्त के अनुसार समस्त रागों का अन्तर्भाव “जाति" व्यवस्था में होता है। 'जाति' और अंगहार के औचित्य का निर्णय नाट्यप्रयोग के सूत्रधार ने रसानुसार करना चाहिए यह भरत का मत है।
नाट्यशास्त्र के 28 वें अध्याय में श्रुति, स्वर, इत्यादि का विवेचन करते हुए 22 श्रुतियों का विभाजन बताया गया है। तदनुसार षड्ज, मध्यम और पंचम तीन स्वरों की चार, ऋषभ और धैवत की तीन और गंधार तथा निषाद की दो श्रुतियाँ
60/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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