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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra • • www.kobatirth.org सहित) इस दर्शन का मूलग्रंथ माना जाता है। 15 वीं शताब्दी में अद्वैतानन्द ने अपने ब्रह्मविद्याभरण नामक ग्रंथ में पाशुपतमत का स्वतंत्र प्रतिपादन किया है। पाशुपत मतानुसार पदार्थ पांच प्रकार के होते हैं. (1) कार्य, (2) कारण (3) योग, (4) विधि और (5) दुःखान्त :- (1) विद्या, (2) कला और (3) पशु जीव और जड दोनों का अन्तर्भाव कार्य में होता है क्यों कि दोनों परतंत्र होने से परमेश्वर के अधीन है। कार्य तीन प्रकार का होता है - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir — विद्या- दो प्रकार की होती है। (1) बोध (चित्त) और अबोध (अर्थात जीवत्व की प्राप्ति कराने वाले धर्माधर्म) । कला के दो प्रकार — (1) कार्यरूपा (पंचभूत और उनके गुण) । (2) कारणरूपा (दस इन्द्रियां, मन, बुद्धि और अहंकार) पशु (अर्थात् जीव ) के दो प्रकार (1) सांजन (शरीरेन्द्रिय से संबद्ध) और निरंजन (शरीरेन्द्रिय विरहित ) । (2) कारण जगत् की उत्पत्ति, स्थिति, संहार करने वाले महेश्वर यह ज्ञानशक्ति, प्रभुशक्ति और अनुग्रहशक्ति के आश्रय होते हैं। (3) योग चित्त के द्वारा आत्मा तथा ईश्वर का संयोग । इसके दो प्रकार और (2) क्रियोपरम (भक्ति) (1) क्रियात्मक (जप, ध्यान आदि) - (4) विधि - इस के दो प्रकार (1) व्रत और (2) द्वार। व्रत के पांच प्रकार- भस्मस्नान, जप, प्रदक्षिणा आदि । द्वार के क्राथन, स्पन्दन, मन्थन आदि प्रकार होते हैं। इन विधियों से महेश्वर की आराधना होती है। (5) दुःखान्त (अर्थात् मोक्ष) के दो प्रकार- (1) अनात्मक ( जिसमें दुःखों की आत्यंतिक निवृत्ति होती है । ( 2 ) सात्मक जिसमें दुक्शक्ति और क्रियाशक्ति की सिद्धियां प्राप्त होती है। पाशुपत वर्ग के कापालिक और कालमुख संप्रदायों में शवभस्मस्नान, कपालपात्रभोजन, सुराकुंभ स्थापन जैसे विधि अदृश्य सिद्धिप्रद माने गये हैं। रसेश्वर दर्शन में पारद (पारा) को शिवजी का वीर्य एवं रसेश्वर माना है। गन्धक को पार्वती का रज माना है। इन दोनों के मिलने से जो भस्म सिद्ध होता है उससे मनुष्य का शरीर योगाभ्यास के पात्र होता है जिससे आत्मदर्शन होता है। इन संप्रदायों का समाज में विशेष प्रचार नहीं है। कापालिक परंपरा में आदिनाथ, अनाथ, काल, अतिकालक, कराल, विकराल, महाकाल, काल भैरवनाथ, बाहुक, भूतनाथ, वीरनाथ और श्रीकंठ नामक बारह श्रेष्ठ कापालिक माने जाते हैं। तंत्रशास्त्र की निर्मिति इन्हीं के द्वारा मानी जाती है। शैवों के नाथ संप्रदाय परंपरा के अनुसार "आदिनाथ” अर्थात् साक्षात् शिवजी आदिगुरु माने जाते हैं। शिवजी ने पार्वती जी को जो गूढ आध्यात्म का उपदेश दिया, उसका ग्रहण मत्स्येन्द्रनाथ ने किया। ऐतिहासिक दृष्टि से मत्स्येंद्रनाथ ही इस संप्रदाघ के प्रवर्तक माने जाते हैं। इनकी परम्परा में गोरक्ष, जालंदर, कानीफ, चर्पट, भरत और रेवण नामक नौ "नाथ" हुए। सांप्रदायिक धारणा के अनुसार श्रीमद्भागवत के 11 वें स्कन्ध में उल्लेखित कवि, हरि, अन्तरिक्ष, प्रबुद्ध, पिप्पलायन, अविर्होत्र द्रुमिल, चमस, और करभाजन, इन नौ सिद्धों के अवतार नवनाथ माने जाते हैं। सभी नाथों की कथाएं अदभुतता से परिपूर्ण हैं। इनके संप्रदाय में हठयोगप्रदीपिका, गोरखबोध, जैसे ग्रंथ प्रमाण हैं और मंत्रतंत्रों एवं सिद्धियों के प्रगति विशेष आग्रह है । नाथ पंथ में जातिभेद नहीं माना जाता। For Private and Personal Use Only आगमिक वर्गीय शैव संप्रदायों में तमिलनाडु के नायन्मार नामक सत्पुरुषों द्वारा प्रवर्तित संप्रदाय का अन्तर्भाव होता है । नायनमारों की कुल संख्या 63 है जिनमें अप्पर, सुन्दर, माणिक्क, वासगर (या वाचकर), ज्ञानसंबंधर विशेष प्रख्यात हैं। "तेवारम्" नामक प्राचीन तामिलभाषीय काव्यसंग्रह में इन चार नावमारों के शिवभक्तिपूर्ण काव्यों का संकलन किया है। "तेवारम्" के प्रति सांप्रदायिकों में नितांत प्रामाण्य एवं श्रद्धा है। दक्षिण भारत के अनेक शिवमंदिरों में एवं उनके गोपुरों पर नायन्मार संतों की मूर्तियां होती हैं, जिन की लोग पूजा करते हैं। ई. 12 वीं शताब्दी में मेयकण्डदेव नामक शैवाचार्य ने तामिलनाडु के इस शैवमत को दार्शनिक प्रतिष्ठा, अपने शिवज्ञानबोध नामक ग्रंथद्वारा प्राप्त करा दी। इस संप्रदाय के सभी प्रमाणभूत ग्रंथ तामिलभाषी है शैवसिद्धान्तों पर आधारित यह एक भक्तिनिष्ठ तंत्रमार्ग है। (आ) वीरशैव मत सान्प्रदायिक परंपरा के अनुसार कलियुग में वीरशैव मत की स्थापना, रेवणसिद्ध मल्लसिद्ध, एकोराम, पंडिताराध्य और विश्वाराध्य इन पांच आचार्यो द्वारा हुई। इन पांच आचार्यो में रेवणसिद्धाचार्य 14 सौ वर्ष जीवित थे और उन्होंने श्रीशंकराचार्य जी को "चन्द्रमौलीश्वर" नामक शिवलिंग नित्य उपासना के हेतु दिया था। इन आचार्यो द्वारा स्थापित शैव मठ भारत में अन्यान्य स्थानों में विद्यमान है, जहां मठ, मठपति, स्थावर, गणगाचार्य और देशिक नाम के पांच उपाचार्य कार्यभार सम्हालते हैं। केदारनाथ, श्रीशैल उज्जयिनी, वाराणसी और बलेही इन पांच क्षेत्रों में वीरशेव संप्रदाय के प्रमुख पीठ विद्यमान हैं। वीरशैव संप्रदाय में 63 "पुरातन" (प्राचीन साधुपुरुष) और 770 "नूतन पुरातन" ( सुधारवादी सत्पुरुष) पूज्य माने जाते संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 179 -
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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