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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पट्टन (गुजरात) के निवासी। पिता- राघवार्य। कृतियां- बृहवृत्ति (सारस्वत व्याकरण पर भाष्य), उद्योत (कातन्त्रवृत्ति पर टीका) और वृत्त-रत्नाकर-तात्पर्यटीका।। त्रिविक्रम- ई. 19 वीं शती। पिता-चिद्धनानन्द । अग्रज-त्र्यंबक। पंचायुध-प्रपंच भाण के रचयिता। त्रिविक्रम पंडित- ई. 13 वीं शती। एक द्वैती आचार्य। दक्षिण भारत के काकमठ-निवासी। पिता-सुब्रह्मण्यम भट्ट, श्रीविष्णु की उपासना से, ढलती आयु में उन्हें एक पुत्र की प्राप्ति हुई। त्रिविक्रम बाल्यावस्था से ही बुद्धिमान् थे। उनका संपूर्ण अध्ययन अपने पिता के ही मार्गदर्शन में हुआ। काव्यशास्त्र के अध्ययन की समाप्ति के पश्चात् उन्होंने अद्वैत वेदांत का अध्ययन प्रारंभ किया। किन्तु इस दर्शन के कई सिद्धांतों से वे सहमत न हो सके। अतः पिताजी की अनुमति से वे भक्तिमार्ग की ओर मुडे। बाद में एक बार मध्वाचार्यजी से शास्त्रार्थ में पराजित होने पर उन्होंने उनका शिष्यत्व स्वीकार करते हुए उनके मार्गदर्शन में द्वैतमत का अध्ययन प्रारंभ किया। अल्पावधि में ही वे माध्वमत के बड़े पंडित बन गए। फिर मध्वाचार्य की आज्ञा से उन्होंने आचार्यजी के भाष्य पर तत्त्वप्रदीप नामक एक टीकाग्रंथ लिखा, जिसे देख मध्वाचार्यजी परम संतुष्ट हुए। । इन्होंने "उषाहरण" नामक एका काव्यग्रंथ की भी रचना की जो कालिदास के शाकुंतल जैसा ही लोकप्रिय हुआ। ये आजीवन माध्वमत का प्रचार करते रहे। त्रिविक्रम भट्ट- ई. 10 वीं शती का पूर्वार्ध। "नलचंपू' नामक चंपू-काव्य के रचयिता। इनकी यह कृति संस्कृत साहित्य का प्रथम और उत्कृष्ट चंपू-काव्य है। इन्होंने अपने "नलचंपू" में अपने कुल-गोत्रादि का जो विवरण प्रस्तुत किया है, उसके अनुसार इनका जन्म शांडिल्य गोत्र में हुआ था। पितामह-श्रीधर । पिता-नेमादित्य या देवादित्य । राष्ट्रकूटवंशीय नृप इंद्रराज तृतीय के सभा-पंडित। इंद्रराज तृतीय ने अपने राज्याभिषेक के अवसर पर अनेक प्रकार के दान दिये थे जिनका उल्लेख अभिलेख में किया गया है और उन प्रशस्तियों के लेखक त्रिविक्रम भट्ट ही हैं श्रीत्रिविक्रमभट्टेन नेमादित्यस्य सूनुना । कता शस्ता प्रशस्तेयमिंद्रराजाङघ्रिसेवया ।। इंद्रराज की प्रशस्ति के श्लोक की श्लेषमयी शैली, "नलचंपू" के श्लेषबहुल पद्यों से साम्य रखती है ।त्रिविक्रमभट्ट के नाम पर एक अन्य ग्रंथ भी प्रचलित है जिसका नाम है "मदालसा-चंपू"। किन्तु तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर । दोनों काव्यों का लेखक एक ही व्यक्ति सिद्ध नहीं होता। संस्कृत साहित्य में श्लेष-प्रयोग के लिये इनकी अधिक प्रशस्ति है। इनका "नलचंपू' काव्य अधूरा है। उसके अधूरे रहने के बारे में एक किंवदंती प्रचलित है - "किसी समय समस्त शास्त्रों में निष्णात देवादित्य (नेमादित्य) नामक एक राजपंडित थे। उनका पुत्र त्रिविक्रम था। प्रारंभ में उसने कुकर्म ही सीखे थे, किसी शास्त्र का अध्ययन नहीं किया था। एक समय किसी कार्यवश देवादित्य दूसरे गांव चले गए। राजनगर में उनकी अनुपस्थिति जान कर एक विद्वान राजभवन आया व राजा से बोला- राजन् मेरे साथ किसी विद्वान् का शास्त्रार्थ कराइये, अन्यथा मुझे विजय-पत्र दीजिये ।राजा ने दूत को आदेश दिया कि वह देवादित्य को बुला लाये। राजदूत द्वारा जब यह ज्ञात हुआ कि देवादित्य कहीं बाहर गए हैं, तो उसने उनके पुत्र त्रिविक्रम को ही शास्त्रार्थ के लिए बुलवा लिया। त्रिविक्रम बड़ी चिंता में पडे। शास्त्रार्थ का नाम सुनते ही उनका माथा ठनका। अंततः उन्होंने सरस्वती की स्तुति की। तब पितृपरंपरा से पूजित कुलदेवी सरस्वती ने उन्हें वर दिया - "जब तक तुम्हारे पिता लौट कर नहीं आते, मैं तुम्हारे मुख में निवास करूंगी"। इस वर के प्रभाव से राजसभा में अपने प्रतिद्वंद्वी को पराजित कर राजा द्वारा बहुविध सम्मान प्राप्त कर त्रिविक्रम घर लौटे। घर आकर उन्होंने सोचा कि पिताजी के आगमन-काल तर सरस्वती मेरे मुख में रहेंगी, यश के लिये में कोई प्रबंध क्यों न लिख डालू। अतः उन्होंने पुण्यश्लोक राजा नल के चारित्र को गद्य-पद्य में लिखना प्रारंभ किया। इस प्रकार 7 वें उच्छ्वास की समाप्ति के दिन उनके पिताजी का आगमन हो गया और सरस्वती उनके मुख के बाहर चली गई। इसी लिये उनका "नलचम्पू" काव्य अधूरा रह गया। परन्तु इस किंवदंती में अधिक सार नहीं है क्यों कि त्रिविक्रम भट्ट की अन्य रचनाएं भी प्राप्त होती हैं। "नलचम्पू" के टीकाकार चण्डपाल ने इनकी प्रशस्ति में निम्न श्लोक लिखा है - शक्तिस्त्रिविक्रमस्येव जीयाल्लोकातिलंधिनी। दमयंती-प्रबंधेन सदा बलिमतोर्जिता।। सुप्रसिद्ध ज्योतिर्गणिती भास्कराचार्य के ये छटवें पूर्वज थे। भास्कराचार्य के पोते चंगदेव के पाटन-शिलालेख के अनुसार इन्हें “कविचक्रवर्ती" यह विरुद प्राप्त हुआ था। इनका घराना सह्यपर्वताश्रित विजलविड नामक गांव का निवासी रहा। उनके घराने में ज्ञानोपासना की परंपरा सात-आठ पीढियों तक चली ऐसा प्रतीत होता है। नलचंपू, संस्कृत चंपूसाहित्य का हक उत्तम ग्रंथ है। इसका दूसरा नाम है दमयंतीकथा। त्रिविक्रम के मदालसाचंपू के विषय में कुछ भी जानकारी उपलब्ध नहीं। त्रिवेणी - ई. 1817 से 1883। उपेन्द्रपुर के विद्वान अनन्ताचार्य की कन्या। पेरंबुदूर के प्रतिवादिभयंकर वेंकटाचार्य पति । वैधव्य दशा में अपने आराध्य दैवत का मन्दिर शासकीय साहाय्य से बनवाया। 19 वीं सदी की प्रसिद्ध लेखिका। रचनाएं - लक्ष्मीसहस्रम् और रंगनाथसहस्रम्। 332 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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