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अनुवाद प्राप्य है।
I
स्थौलाष्ठीवि चौदह नितकारों में एकदम वास्कप्रणीत निरुक्त में स्थौलाष्टीवि का दो बार उल्लेख आता है। स्फुलिंग - ई. 16 वीं शती । पिता लक्ष्मण । प्रसिद्ध कवि कुमारडिण्डिम के जामात । मल्लिकार्जुन नाम से भी विख्यात । 'सत्यभामापरिणय' नामक पांच अंकों के नाटक के प्रणेता । स्वस्ति आत्रेय - ऋग्वेद के पांचवें मण्डल के 50 तथा 51इन दो सूक्तों के द्रष्टा । ये सूक्त विश्वेदेव की स्तुति में लिखे गये हैं। 51 वें सूक्त में स्वस्ति का अनेक बार तथा इसी सूक्त की 8, 9 व 10 वीं ऋचा में अत्रि का उल्लेख आया है। इस आधार पर इनका नाम स्वस्ति आत्रेय रहा होगा, ऐसा अनुमान है। इनकी एक ऋचा इस प्रकार है। स्वस्ति पन्थामनुचरेम सूर्याचन्द्रमसाविव पुनर्ददता नता जानता संगमेमहि । अर्थ - विश्वदेव की कृपा से मेरा प्रवास सूर्य चंद्र की तरह सुखदायी बने। हमें सदा ज्ञानवान, दानवीर और दयालु व्यक्ति मिलते रहें।
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स्वामी नारायण (सहजानंद स्वामी) वैष्णव धर्म के अंतर्गत 'श्री स्वामी नारायण पंथ के प्रवर्तक अयोध्या के पास छपिया नामक ग्राम के सरयूपारीण ब्राह्मण कुल में, वि.सं. 1837 (1781 ई.) की चैत्र शुक्ल नवमी को जन्म । पिताधर्मदेव, माता- भक्तिदेवी। सं. 1849 में अर्थात् 12 वर्ष की आयु होते ही माता-पिता का देहांत । तभी गृह त्याग कर निरंतर 7 वर्षो तक भारत के तीर्थ क्षेत्रों का भ्रमण बाल्यकाल का नाम घनश्याम था किंतु तीर्थ यात्रा में 'नीलकंठ वर्णी' नाम धारण कर, सं. 1856 (= 1800 ई.) में आप लोजपुर पहुंचे, जहां श्री रामानुज स्वामी द्वारा दीक्षित श्री रामानंद स्वामी का आश्रम था। स्वामीजी के प्रति आप इतने आकृष्ट हुए कि एक वर्ष की अवधि में ही सं. 1857 ( = 1801 ई.) की कार्तिक शुल्क एकादशी को 'पीपलाणा' नामक स्थान में आपने उनसे भागवती दीक्षा ग्रहण की। अब आपका नाम हुआ नारायण मुनि, और रामानंदजी के शिष्यों में आप ही अग्रगण्य माने जाने लगे। एक वर्ष पश्चात् अपना अंतकाल समीप जानकर, रामानंदजी ने वि.सं. 1858 (1802 ई.) की देवोत्थान एकादशी को जेतपुर की अपनी धर्मधुरीण नही पर इन्हें अभिषिक्त किया। इसके पश्चात् आपने विशिष्टाद्वैती श्री स्वामी नारायण संप्रदाय की स्थापना की। फिर 28 वर्षो तक अपने संप्रदाय का प्रचार प्रसार कर वि.सं. 1886 (1830 ई.) की ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी को लगभग 50 वर्ष की आयु होनेपर आपने अपनी इहलीला समाप्त की । इस संप्रदाय में आपके अनेक नाम प्रचलित हैं यथा सरयूदास, सहजानंद स्वामी, श्रीजी महाराज, श्री स्वामी नारायण आदि। स्वामी सहजानंद द्वारा दलित वनवासी समाज के उद्धार का कार्य
490 / संस्कृत वाङ्मय कोश
ग्रंथकार खण्ड
बहुत बडे प्रमाण में हुआ। आपने शिक्षापत्री नामक ग्रंथ का प्रणयन किया जिसमें जनकल्याणार्थ धर्म तथा शास्त्रों के सिद्धान्तों का विवरण दिया गया है। व्यावहारिक उपदेशों के साथ दार्शनिक विचारों का भी इसमें समावेश है। इसी प्रकार आपके उपदेशों का संग्रह 'वचनामृत' के नाम से प्रख्यात है जिसमें सांख्य, योग तथा वेदांत का समन्वय है । इनके कुछ उपदेश निमांकित है
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मनुष्य को चाहिये कि वह ग्यारह प्रकार के दोषों का सर्वथा त्याग करे। ये दोष हैं- हिंसा, मांस, मदिरा, आत्मघात, विधवा स्पर्श, किसी पर कलंक लगाना, व्यभिचार, देव निंदा, भगवद्-विमुख व्यक्ति से श्रीकृष्ण की कथा सुनना, चोरी और जिनका अन्न-जल वर्जित है उनका अन्न जल ग्रहण करना । इन दोषों का त्याग कर भगवान की शरण में जाने पर भगवत् - प्राप्ति होती है। परमात्मा के माहात्म्य-ज्ञान द्वारा उनमें जो आत्यंतिक स्नेह होता है, उसी को भक्ति कहते हैं । भगवान् से रहित अन्यान्य पदार्थों में प्रीति का जो अभाव होता है, उसी का नाम वैराग्य है ।
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श्रीस्वामी नारायण द्वारा प्रवर्तित पंथ, ईश्वर और परमेश्वर में पार्थव्य मानता है। श्री स्वामी नारायण संप्रदाय, श्री रामानुजाचार्य के विशिष्टाद्वैतवाद के सिद्धांत को बहुशः मानता है तथा पांचरात्र के तत्त्वों का भी पक्षपाती है। वैष्णव-धर्म के इस संप्रदाय का प्रसार विगत कुछ वर्षो से गुजरात में विपुल है। आज कल विदेशों में भी इस संप्रदाय के अनुयायी लोगों की संध्या काफी अधिक है। स्थिरमति - ई. 4 थी शती । बौद्धाचार्य । वसुबन्धु के प्रमुख शिष्य । अपने गुरु के ग्रंथों पर अनेक टीकाएं रचकर उसका गूढार्थ स्पष्ट किया और गुरु के प्रेमभाजन बने। इनकी रचनाएं चीनी अनुवाद के रूप में ही उपलब्ध हैं। रचनाएं- काश्यपपरिवर्तटीका, सूत्रालंकारवृति भाष्य, त्रिंशिका - भाष्य, पंचस्कन्ध- प्रकरण भाष्य, अभिधर्मकोशभाष्यवृत्ति, मूल माध्यमिककारिकावृत्ति और मध्यान्तविभागसूत्रभाष्यटीका । स्थिरमति मूलतः सौराष्ट्र के थे। अध्ययन हेतु वे नालंदाविद्यापीठ गये और आगे चलकर वहां के आचार्य बने । हंसराज अगरवाल लुधियाना में संस्कृत प्राध्यापक । रचना(1) संस्कृत निबंध प्रदीपः (5 प्रदीप विभाग ) । विभिन्न विषयों पर छात्रोपयुक्त निबंध, अन्य रचना (2) संस्कृत - साहित्येतिहासः । हजारीलाल शर्मा - ई. 20 वीं शती। हरियाणा में पिण्डारा, जिन्द के लज्जाराम संस्कृत महाविद्यालय के प्राचार्य । 'विद्यालंकार' की उपाधि से विभूषित । कृतियां सगुणब्रह्मस्तुति, संस्कृत महाकविदिव्योपाख्यान, कादम्बरी- शतक, महर्षि दयानन्दप्रशस्ति, शिवप्रतापविरुदावली, चर्पटपंजरी आदि काव्य तथा हकीकतराय नामक एकांकी रूपक ।