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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हमें प्रतीत नहीं होती, परंतु भारतीय समाज की संस्कृति एवं सभ्यता का ऐतिहासिक पर्यालोचन करने वालों को, प्राचीन एवं मध्ययुगीन धर्मशास्त्र में प्रतिपादित विषयों का ज्ञान नितांत आवश्यक है इसमें संदेह नहीं। वैदिक धर्मशास्त्र विषयक वाङ्मय में जिन अनेक विषयों की चर्चा हुई है उनकी विविधता देखते हुए यह ज्ञात होता है कि, भारतीय धर्मशास्त्रकारों की धर्मसंबंधी धारणा सर्वस्पर्शी थी। उन की दृष्टि में धर्म किसी संप्रदाय या पंथ का द्योतक नहीं है, अपि तु व्यक्ति तथा समाज को अपने चरम लक्ष्य तक पहुंचाने वाला तथा उनके जीवन में दुःख का परिहार करने वाला अथवा शान्ति- समाधान देने वाला आचार एवं व्यवहार है। उस के अंगोंपांगों की सूक्ष्म जानकारी प्राप्त करने की अपेक्षा रखने वाले जिज्ञासुओं को मूल ग्रंथों का ही अवगाहन करना आवश्यक है। यहां धर्मशास्त्रान्तर्गत विविध विषयों का केवल विहंगावलोकनात्मक परिचय कुछ परिभाषिक शब्दों के माध्यम से संख्यानुक्रम से दिया है, जिस से हिंदू समाज के धर्मशास्त्र का अंशतः परिचय हो सकेगा। दो प्रकार का धर्म - [1] इष्ट (अर्थात यज्ञ-याग) और [2] पूर्त (अर्थात- मंदिर जलाशय का निर्माण, वृक्षारोपण, जीर्णोद्धार, इ.। इन दोनों का निर्देश “इष्टापूर्व" शब्द से होता है। मुक्ति के दो साधन - तत्त्वज्ञान एवं तीर्थक्षेत्र में देहत्याग। तिथियों के दो प्रकार- (1) शुद्धा- (सूर्योदय से सूर्यास्त तक रहनेवाली) (2) विद्धा (या सखंडा) इस के दो प्रकार माने जाते हैं- (अ) सूर्योदय से 6 घटिकाओं तक चलकर दूसरी तिथि में मिलनेवाली और (आ) सूर्यास्त से 6 घटिका पूर्व दूसरी तिथि में मिलने वाली । आशौच के दो प्रकार- जननाशौच और मरणाशौच। दो प्रकार के विवाह - अनुलोम और प्रतिलोम। दो प्रकार की वेश्याएं - (1) अवरुद्धा (अर्थात उपभोक्ता के घर में रहने वाली) (2) भुजिष्या स्वतंत्र घर में रहने वाली। पूजा के तीन प्रकार - वैदिकी, तांत्रिकी एवं मिश्रा। तांत्रिकी पूजा शूद्रों के लिए उचित मानी गई है। जप के तीन प्रकार - वाचिक, उपांशु और मानस। तीन तर्पण योग्य • (1) देवता (कुलसंख्या 31), (2) पितर और (3) ऋषि (कुलसंख्या-30) गृहमख के तीन प्रकार - अयुत होम, लक्षहोम, एवं कोटिहोम । यात्रा के योग्य त्रिस्थली - प्रयाग, काशी एवं गया। त्रिविध कर्म- संचित, प्रारब्ध एवं क्रियमाण । तीन ऋण - देवऋण, ऋषिऋण एवं पितृऋण । तीन प्रकार का धन- शुक्ल, शबल, एवं कृष्ण । कालगणना के तीन भारतीय सिद्धान्त - सूर्यसिद्धान्त, आर्यसिद्धान्त, एवं ब्राह्मसिद्धान्त । मृत पूर्वजों के निमित्त तीन कृत्य- पिण्ड पितृयज्ञ, महापितृयज्ञ और अष्टका श्राद्ध । कलिवर्ण्य तीन कर्म-नियोग विधि, ज्योतिष्टोम में अनुबन्ध्या गो की आहुति, एवं ज्येष्ठ पुत्र को पैतृक सम्पत्ति का अधिकांश प्रदान । रात्रि में वर्जित तीन कृत्य- स्नान, दान एवं श्राद्ध। (किन्तु ये तीन कृत्य ग्रहण काल में आवश्यक हैं।) विवाह के लिए वर्जित तीन मास- आषाढ, माघ एवं फाल्गुन । (कुछ ऋषियों के मत से विवाह सभी कलों में संपादित हो सकता है।) वर्ष की तीन शुभ तिथियां - चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (वर्ष प्रतिपदा), कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा एवं विजया दशमी। चार पुरुषार्थ - धर्म, अर्थ काम एवं मोक्ष । (2) चार वर्ण - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र । चार आश्रम - ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। गृहस्थाश्रमी के प्रकार- (1) शालीन, (2) वार्ताजीवी (3) यायावर (4) चक्रधर और (5) घोराचारिक। चार मेध - अश्वमेध, सर्वमेध, पुरुषमेध और पितृमेध। चार मेध (यज्ञ) करने वाला विद्वान "पंक्तिपावन" माना जाता है। यज्ञों के चार पुरोहित - अध्वर्यु, आग्निध्र, होता एवं ब्रह्मा। चार वेदव्रत - महानाम्नी व्रत, महाव्रत, उपनिषद्बत और गोदान, (इन की गणना सोलह संस्कारों में की जाती है।) चार कायिक व्रत - एकभुक्त, नक्तभोजन, उपवास और अयाचित भोजन । चार वाचिक व्रत - वेदाध्ययन, नामस्मरण, सत्यभाषण और अपैशुन्य (पीछे निन्दा न करना।) संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 37 For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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