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(5) माण्डव्य शिक्षा शुक्ल यजुर्वेद से संबंधित वाजसनेयी संहिता में आने वाले केवल औष्ठ्य वर्णों का ही संग्रह इस शिक्षा की विशेषता है।
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(6) अमोधनन्दिनी शिक्षा श्लोक संख्या 130- । इस के संक्षिप्त संस्करण की श्लोक संख्या केवल 17 है। इस में स्वरों का तथा वर्णों का सूक्ष्म विचार किया है।
( 10 ) मल्लशर्मशिक्षा रचनाकाल ई. 1726-1
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(7) माध्यन्दिनी शिक्षा इसकी गद्यात्मक आवृत्ति बड़ी और पद्यात्मक छोटी है। इसमें केवल द्वित्व के नियमों का विचार किया है। (8) वर्णरत्नप्रदीपिका - श्लोक संख्या 227- । लेखक - भारद्वाजबंशी अमरेश । समय-अज्ञात । इसमें वर्णों, स्वरों तथा संधियों का सविस्तर विवेचन किया है।
(9) केशवी शिक्षा - लेखक- केशव दैवज्ञ । पिता - गोकुल दैवज्ञ । इस शिक्षा के दो प्रकार हैं। पहिली में माध्यन्दिन शाखा से संवाद परिभाषाओं का विवेचन तथा प्रतिज्ञासूत्र के समस्त नौ सूत्रों की विस्तृत व्याख्या उदाहरणों के साथ दी है। दूसरी 2। पद्यात्मक शिक्षा में स्वरविषयक विवेचन है।
लेखक- मल्लशर्मा । पिता - अग्निहोत्री खगपति । कान्यकुब्ज ब्राह्मण । श्लोक संख्या - 65-1
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(11) स्वरांकुश शिक्षा लेखक जयन्त स्वामी। 25 श्लोकों में स्वरों का विवेचन । (12) षोडश श्लोकी शिक्षा लेखक- अनन्तदेव । शुक्ल यजुर्वेद से (13) अवसाननिर्णय शिक्षा - लेखक- अनन्तदेव । शुक्ल यजुर्वेद से (14) स्वरभक्तिलक्षणशिक्षा लेखक - महर्षि कात्यायन ।
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संबंधित । संबंधित ।
(15) प्रातिशाख्य प्रदीपशिक्षा - लेखक- बालकृष्ण । पिता- सदाशिव । यह शिक्षा परिमाण में बहुत बड़ी है। इसमें प्राचीन ग्रंथों के मतों का निर्देश होने के कारण वैदिक शिक्षा शास्त्र को आकलन के लियी यह ग्रंथ उत्तम माना गया है।
(16) नारदीय शिक्षा सामवेद से संबंधित स्वरों के रहस्य जानने के लिए यह ग्रंथ महत्त्वपूर्ण माना जाता है। इस पर शोभाकर भट्ट कृत विस्तृत व्याख्या उपलब्ध है। गौतमी तथा लोमशी नामक अन्य दो शिक्षाएं सामवेद से संबंधित हैं ।
( 17 ) माण्डूकी शिक्षा - श्लोक संख्या 179- । विषय- अथर्ववेद के स्वरों एवं वर्णों का विवेचन उपरिनिर्दिष्ट सभी शिक्षा ग्रंथ मुद्रित हैं। इनके अतिरिक्त अन्य ग्रंथ आमुद्रित पड़े हैं। शिक्षा ग्रंथों के पूर्व आपिशली, पाणिनि तथा चंद्रगोमी द्वारा रचित शिक्षासूत्र निर्माण हुए थे, जिन का निर्देश वाक्यपदीय की वृषभदेव कृत टीका में, व्याकरण की वृहद्वृत्ति में एवं न्यास में मिलता है। चंद्रगोमी ने पाणिनि की अष्टध्यायी के आधार पर अपने व्याकरण की जिस प्रकार रचना की, उसी प्रकार पाणिनीय शिक्षा सूत्रों के आधार पर वर्णसूत्रों की संख्या 50) रचना की है। आपिशलिकृत शिक्षा सूत्रों के आठ प्रकरणों में स्थान, करण, प्रयत्न, स्थान- पीडन, इत्यादि विविध शिक्षा विषयों का अध्ययन कर डा. सिद्धेश्वर वर्मा ने "फोनेटिक आब्जरवेशन आफ् एन्शन्ट हिंदूज" नामक उत्कृष्ट ग्रंथ लिखा है। शिक्षाशास्त्र, इस देश की उच्चारण विषयक प्राचीन गवेषणा की व्याप्ति तथा गहनता का निदर्शन है। इस वेदांग के कारण वैदिक उच्चारण की परंपरा इतनी निर्दोष रही है कि, भारत के किसी प्रदेश का वेदाध्यायी अपनी शाखा के अन्य प्रदेशीय वेदाध्यायी के साथ, समान स्वरों में उन मंत्रों का उच्चारण कर सकता है। आजकल उच्चारण के स्वरूप को समझने के लिए उपलब्ध यंत्रोपकरण प्राचीन काल में नहीं थे। फिर भी वैदिकों के उच्चारण में, समानता रही इसका संपूर्ण श्रेय शिक्षा को ही है।
2 कल्प (वैदिक कर्मकाण्ड)
कल्पसूत्र
वैदिक धर्म का कर्मकाण्ड बड़ा जटिल है । उसका विविध प्रकार से ज्ञान कल्पसूत्रों में प्रतिपादन किया है। कल्प शब्द का अर्थ, जिस मे यज्ञ-यागादि प्रयोग कल्पित याने समर्थित किये जाते हैं उसे कल्प कहते हैं- (कल्प्यन्ते समर्थ्यन्ते यज्ञ-यागादिप्रयोगाः यत्र इति कल्पः) अथवा ( वेदविहितानां कर्मणाम् आनुपूर्व्येण कल्पनाशास्त्रम्) । इनमें से कुछ सूत्रों को श्रौत सूत्र कहते है कारण उनमें श्रुतिविहित यज्ञयागों का विधान और विवरण होता है दूसरे गृह्यसूत्रों में गृहस्थाश्रमी लोगों के लिए जन्म से मृत्यु तक के संस्कारों का प्रतिपादन होता है और तीसरे धर्मसूत्रों में सामाजिक, राजनैतिक और पारमार्थिक कर्तव्यों का उपदेश होता है। कल्प नामक वेदांग का सूत्रमय वाङ्मय इस प्रकार त्रिविध होता है। इनके अतिरिक्त चौथे प्रकार के सूत्रों का नाम है शुल्बसूत्र, जिनका संबंध यशीय शिल्पशास्त्र से है।
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'ऋग्वेदियों के (1) शांखायन तथा आश्वलायन नामक श्रौतसूत्र हैं, जिन में एक ही प्रकार के कर्मकाण्ड का प्रतिपादन मिलता है। परंतु शांखायन श्रौतसूत्र (जो आश्वालायन सूत्रों से प्राचीन माने जाते हैं) में राजाओं के लिए विहित कुछ महायज्ञ
संस्कृत वाङ्मय कोश- प्रथकार 3/29