________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
में अत्युक्ति नहीं होगी। ऋग्वेद के प्रत्येक सूक्त में स्तुत्य देवता के प्रति मंत्रद्रष्टा ऋषि के हृदय के सात्त्विक भाव व्यक्त हुए हैं। उपास्य देवता के दिव्य गुणों तथा कर्मों का वर्णन किया हुआ है। "त्वं हि नः पिता वसो त्वं माता शतक्रतो बभूविथ अद्या ते सुम्नमीमहे। (ऋ. 8-98-11)
सखा पिता पितृतमः पितृणां । कामु लोकमुशते वयो धा।। (क्र. 4-98-17) इस प्रकार के कुछ मंत्रों में उपास्य देवता से माता, पिता, सखा, बंधु जैसा नाता भी जोड़ा गया है। साथ ही पापक्षालन, पुण्यलाभ, विजय, अभ्युदय के लिए देवता से प्रार्थना अथवा याचना भी की गयी हैं। इसी प्रकार के मंत्र या सूक्त यजुर्वेद
और अथर्ववेद में भी स्थान स्थान पर मिलते हैं। स्तोत्रवाङ्मय में जिस भक्तिभाव का नितान्त महत्त्व है, उसकी महिमा सर्वप्रथम श्वेताश्वतर उपनिषद के,
“यस्य देवे परा भक्तिः यथा देवे तथा गुरौ। तस्यैते कथिता ह्या प्रकाशन्ते महात्मनः" (श्वेता. 6-23) ("जिस के हृदय में देवता के प्रति तथा गुरु के प्रति भी पराभक्ति होती है, उसी महात्मा को उपनिषद् के गूढ अर्थों कि प्रतीति आती है।) इस मंत्र में प्रतिवादन किया है। इसी भक्तियोग का प्रतिपादन श्रीमद्भगवद्गीता तथा समग्र पुराण वाङ्मय में किया हुआ है। श्रीमद्भागवत जैसे उत्कृष्ट पुराण में अनेक मधुर स्तोत्रों का भरपूर संग्रह मिलता है। अन्य सभी पुराणों में सर्वत्र स्तोत्र काव्य बिखरे हुए हैं। शंकर, रामानुज, वल्लभ, मध्व, रामानंद, चैतन्य आदि सभी वैष्णव, शैव, जैन, बौद्ध इत्यादि अन्यान्य सम्प्रदायों के आचार्यों ने अपनी अपनी धारणा के अनुसार अनन्य भक्तिभाव का महत्त्व प्रतिपादन किया है, और उनके सभी श्रेष्ठ अनुयायी साहित्यिकों ने अपनी अपनी काव्यशक्ति के अनुसार भक्तिभावपूर्ण स्तोत्रकाव्यों की रचना, संस्कृत प्राकृत तथा अर्वाचीन प्रादेशिक भाषाओं में भरपूर मात्रा में की है। संसार की सभी भाषाओं में स्तोत्रमय काव्यों का जितना अधिक प्रमाण है उतना अन्य प्रकार के काव्यों का नहीं होगा।
संस्कृत स्तोत्रसाहित्य अत्यंत विशाल एवं सार्वत्रिक है। इसमें उपास्य देवता, पवित्र नदियां, तीर्थक्षेत्र, संत-महात्मा इत्यादि विभूतियों के प्रति भक्ति एवं लौकिक विषयबहुल तुच्छ जीवन के प्रति विरक्ति उत्कट स्वरूप में व्यंजित हुई है। साथ ही अलंकारों का वैचित्र्य भी भरपूर मात्रा में दिखाई देता है। तांत्रिक वाङ्मय में अन्तर्भूत स्तोत्रों एवं कवचों पर जनता की नितांत श्रद्धा होने के कारण उनके पारायण होते हैं।
रामायण का आदित्यहृदय, महाभारत का विष्णुसहस्रनाम, मार्कण्डेयपुराण का दुर्गास्तोत्र जैसे अनेक पौराणिक आख्यानों के अंगभूत स्तोत्रों का स्वतंत्र पुस्तकों के रूप में प्रकाशन हुआ है। महाकाव्यों में भी पौराणिक पद्धति से रचे हुए, परंतु अधिक अलंकारमय स्तोत्रों का प्रमाण भरपूर मात्रा में मिलता है। इनके अतिरिक्त 'सहस्रक" तथा "शतक" पद्धति के स्तोत्रमय खण्डकाव्यों का भी प्रमाण संस्कृत साहित्य में भरपूर है।
कुछ उल्लेखनीय सहस्रक : लक्ष्मीसहस्रम् : ले. वेंकटाध्वरि । शिवदयासहस्रम् : ले. नृसिंह। शिवपादकमलरेणुसहस्रम् : ले. सुन्दरेश्वर। लक्ष्मीसहस्रम्
और रंगनाथसहस्रम् लेखिका त्रिवेणी। (प्रतिवादिभयंकर वेंकटाचार्य की धर्मपत्नी। ई. 10 वीं शती) नारायणीयम् : ले. नारायणभट्ट। उमासहस्रम् ले. वसिष्ठ गणपतिमुनि (ई. 20 वीं शती) क्षमापनसहस्र : ले. त्रिवांकुरनरेश केरलवर्मा (ई. 19-20 वीं शती)। महाभारत के अंतर्गत विष्णुसहस्रनाम स्तोत्र एक उत्कृष्ट भगवत्स्तोत्र माना गया है, उसके अनुसार विविध देवताओं के सहस्रनाम तांत्रिक स्तोत्रकारों ने लिखे हैं; जैसे उच्छिष्टगणेश सहस्रनाम, कादिसहस्रनामकला, गकारादिगणपतिसहस्रनाम स्तोत्र, गणेशसहस्रनाम, गायत्रीसहस्रनाम, जिनसहस्रनाम ले. जिनसेन। ज्वालासहस्रनाम, तारासहस्रनाम, त्रिपुरासहस्रनामस्तोत्र, दक्षिणकालिककारादिसहस्रनाम, दश्रिणामूर्तिसहस्रनाम, दुर्गा-दकारासहस्रनाम, प्रचण्डचण्डिकासहस्रनाम, बटुकभैरवसहस्रनाम, बालभैरवसहस्रनाम, भद्रकालीसहस्रनाम, भवानीसहस्रनाम, भुवनेश्वरीसहस्रनाम, मंत्राधारीभवानीसहस्रनाम, महागणपतिसहस्रनाम, योगेशसहस्रनाम, रकारादिरामसहस्रनाम, रामसहस्रनाम, ललितासहस्रनाम, वाराही सहस्रनाम, शिवसहस्रनाम, सूर्यसहस्रनामस्तोत्र, ले.भानुचंद्र मणि । सहस्रनामकमाला-कला (ले. तीर्थस्वामी । इन्होंने 40 सहस्रनामों के गूढार्थकनामों की कला नामक व्याख्या लिखी है।
आंध्र के अर्वाचीन सत्पुरुष बेल्लकोण्ड रामराय ने विवर्णादिविष्णु-सहस्रनामावली, हकारादि-हयग्रीव-नामावली और परमात्मसहस्रनामावली की रचना की और स्वयं उनकी व्याख्याएं भी लिखीं। नटराजसहस्रम् नामक अतिप्राचीन स्तोत्र की टीका आनंदतांडव दीक्षित और सोमशेखर दीक्षित ने लिखी है।
सहस्रनामस्तोत्रों के समान अष्टोत्तरशतनाम स्तोत्रों का प्रमाण भी भरपूर है। इस प्रकार के स्तोत्रों का विनियोग तंत्रमार्ग के साधकों एवं सकाम उपासकों द्वारा यत्र तत्र यथावसर होता है।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 251
For Private and Personal Use Only