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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बात निर्मूल सिद्ध हो जाती है।। उनके अनुसार पाणिनि कृत "पातालविजय" महाकाव्य में “संध्या वधूं गृह्य करेण भानुः" में "गृह्य" शब्द पाणिनीय व्याकरण के मत से अशुद्ध है। उनका कहना है कि महाकवि भी अपशब्दों का प्रयोग करते हैं और उसी के उदाहरण में पाणिनि ने यह श्लोक प्रस्तुत किया है। डा. आफ्रेट व डा. पिशेल ने पाणिनि को न केवल शुष्क वैयाकरण अपि तु सुकुमार हृदय कवि भी माना है। अतः पाणिनि के कवि होने में संदेह का प्रश्न नहीं उठता। "श्रीधरदासकृत सदुक्तिकर्णामृत' (सं. 1200) में सुबंधु, रघुकार (कालिदास) हरिश्चंद्र, शूर, भारवि व भवभूति जैसे कवियों के साथ दाक्षीपुत्र का भी नाम आया है जो पाणिनि का ही पर्याय है - "सुबंधौ भक्तिर्नःक इह रघुकारे न रमते धृतिर्दाक्षीपुत्रे हरति हरिश्चंद्रोऽपि हृदयम्। विशुद्धोक्तिः शूरः प्रकृतिमधुरा भारविगिरः तथाप्यंतर्मोदं कमपि भवभूतिर्वितनुते"। महाराज समुद्रगुप्त रचित "कृष्णचरित" नामक काव्य में बताया गया है कि वररुचि ने पाणिनि के व्याकरण व काव्य दोनों का ही अनुकरण किया था। __"जांबवती-विजय" में श्रीकृष्ण द्वारा पाताल में जाकर जांबवती से विवाह व उसके पिता पर विजय प्राप्त करने की कथा है। दुर्घटवृत्तिकार शरणदेव ने "जांबवती-विजय" के 18 वें सर्ग का उद्धरण अपने ग्रंथ में दिया है। उससे विदित होता है कि उसमें कम से कम 18 सर्ग अवश्य होंगे। पाणिनि का समय - डा. पीटर्सन के अनुसार अष्टाध्यायीकार पाणिनि एवं वल्लभदेव की "सुभाषितावली" के कवि पाणिनि एक हैं और उनका समय ईसवी सन का प्रारंभिक भाग है। वेबर व मैक्समूलर ने वैयाकरण व कवि पाणिनि को एक मानते हुए, उनका समय ईसा पूर्व 500 वर्ष माना है। डा. ओटो बोथलिंक ने "कथासारित्सागर" के आधार पर पाणिनि का समय 350 ई.पू. निश्चित किया है, पर गोल्डस्टकर व डा. रामकृष्ण भांडारकर के अनुसार इनका समय 700 ई.पू. है। डा, बेलवलकर ने इनका समय 700 से 600 ई. निर्धारित किया है और डा. वासुदेवशरण अग्रवाल इनका समय 500 ई.पू. मानते हैं। इन सभी के विपरीत पं. युधिष्ठिर मीमांसक का कहना है, कि पाणिनि का आविर्भाव वि.पू. 2900 वर्ष हुआ था। मैक्समूलर ने अपने कालनिर्णय का आधार, "अष्टाध्यायी' (5,1,18) में उल्लिखित सूत्रकार शब्द को माना है, जो इस तथ्य का द्योतक है कि पाणिनि के पूर्व ही सूत्र ग्रंथों की रचना हो चुकी थी। मैक्समूलर ने सूत्रकाल को 600 ई.पूर्व से 200 ई.पू. तक माना है, किन्तु उनका काल विभाजन विद्वान्मान्य नहीं है। वे पाणिनि व कात्यायन को समकालीन मान कर, पाणिनि का काल 350 ई.पू. स्वीकार करते हैं, क्यों कि कात्ययन का भी समय यही है। गोल्डस्टूकर ने बताया कि पाणिनि केवल ऋग्वेद, सामवेद व यजुर्वेद से ही परिचित थे पर अथर्ववेद व दर्शन ग्रंथों से वे अपरिचित थे किन्तु डा. वासुदेवशरण अग्रवाल ने इस मत का खंडन कर दिया हैं । पाणिनि को वैदिक साहित्य के कितने अंश, का परिचय था,इस विषय में विस्तृत अध्ययन के आधार पर थीमे का निष्कर्ष है कि ऋग्वेद, मैत्रायणी संहिता, काठक संहिता, तैत्तिरीय संहिता, अथर्ववेद, संभवतः सामवेद, ऋग्वेद के पद पाठ और पैप्पलाद शाखा का भी पाणिनि को परिचय था। अर्थात् यह सब साहित्य उनसे पूर्व युग में निर्मित हो चुका था। गोल्डस्कूटर ने यह माना था कि पाणिनि को उपनिषद् साहित्य का परिचय नहीं था, अतः उनका समय उपनिषदों की रचना के पूर्व होना चाहिये यह कथन निराधार है, क्योंकि सूत्र 1-4-79 में पाणिनि ने उपनिषद् शब्द का प्रयोग ऐसे अर्थ में किया है, जिसके विकास के लिये उपनिषद् युग के बाद भी कई शतीयों का समय अपेक्षित था। कीथ ने इसी सूत्र के आधार पर पाणिनि को उपनिषदों के परिचय की बात प्रामाणिक मानी थी। तथ्य तो यह है कि पाणिनिकालीन साहित्य की पारिधि वैदिक ग्रंथों से कही आगे बढ़ चुकी थी। अद्यावधि शोध के आधार पर पाणिनि का समय ई.पू. 700 वर्ष माना जा सकता है। पाणिनिकृत "अष्टाध्यायी" भारतीय जन जीवन व तत्कालीन सांस्कृतिक परिवेश को समझने के लिये स्वच्छ दर्पण है। इसमें अनेकानेक ऐसे शब्दों का सुगुंफन है, जिनमें उस युग के सांस्कृतिक जीवन के चित्र का साक्षात्कार होता है। तत्कालीन भूगोल, सामाजिक जीवन, आर्थिक अवस्था, शिक्षा व विद्या संबंधी जीवन, राजनैतिक व धार्मिक जीवन, दार्शनिक चिंतन, रहन सहन, वेश भूषा व खान पान का सम्यक् चित्र "अष्टाध्यायी" में सुरक्षित है। किंवदंतियां - ई. 7 वीं शताब्दी में भारत भ्रमण करते हुए चीनी यात्री युआन च्वांग शलातुर भी गया था। तब उन्हें पाणिनि से संबंधित अनेक दंतकथाएं सुनने को मिलीं। उनके कथनानुसार वहां पर पाणिनि की एक प्रतिमा भी स्थापित की हुई थी। वह प्रतिमा संप्रति लाहोर के संग्रहालय में है किन्तु दीक्षित उसे बुद्ध की प्रतिमा मानते हैं। पाणिनि के जीवन चरित्र की दृष्टि से किंवदंतियों तथा आख्यायिकों पर ही निर्भर रहना पडता है। कथासरित्सागर में एक किंवदंती इस प्रकार है : वर्ष नामक एक आचार्य पाणिनि के गुरु थे। उनके पास पाणिनि और कात्यायन पढा करते थे। इन दोनों में कात्यायन कुशाग्र बुद्धि के थे जब कि पाणिनि मंदबुद्धि के। कात्यायन सभी विषयों में पाणिनि से आगे रहा करते। यह स्थिति पाणिनि को असह्य हो उठी। अतः गुरुगृह का त्याग कर वे हिमालय गये। वहां पर शिवजी का प्रसाद प्राप्त करने हेतु उन्होंने घोर तपस्या की । शिवजी ने प्रसन्न होकर उन्हें संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 360 For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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