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कोहल स्वयं भरत मुनि ने कोहल को यह सम्मान दिया है कि "शेष नाट्यशास्त्रीय विवेचन कौहल ही करेंगे"" शेषमुत्तरतंत्रेण कोहलः कथयिष्यति” । संभवतः कोहल ने संगीत, नृत्य और अभिनय के सम्बन्ध में भी शास्त्ररचना की होगी ।
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अभिनवगुप्त ने अपनी टीका में अनेक स्थलों पर कोहलाचार्य को उद्धृत किया है । नान्दी - विवेचन के प्रसंग में उद्धरण है" इत्येषा - कोहलप्रदर्शिता नान्दी उपपन्ना भवति ।। नाट्य के रस, भाव आदि । अंगों की गणना के समय अभिनवगुप्त ने इन्हें कोहलाभिमत कहा है, भरताभिमत नहीं ("अनेन तु श्लोकेन कोहलमतेन एकादशांगत्वमुच्यते। न तु भरते" ।) नाट्यशास्त्र तथा अभिनवभारती में कुल मिला कर 8 स्थलों पर कोहल के नाम का उल्लेख है। भावप्रकाशन तथा नाट्यदर्पण में रूपकों की संख्या के प्रसंग में तथा अन्यत्र इनका उल्लेख है। शिंगभूपाल ने भी कोहलाचार्य का उल्लेख किया है। दामोदरगुप्त ने "कुट्टनीमत" नामक कृति में भरत के साथ ही कोहल का उल्लेख किया है। बालरामायण में कोहल को नाट्याचार्य के रूप में प्रस्तावना में ही उद्धृत किया गया है । रामकृष्ण कवि के मत से, कोहल तीसरी शती ई. पूर्व में हुए थे।
"भरत इव नाट्याचार्यः कोहलादय इव नटाः " इस अभिनवभारती के उल्लेख से प्रतीत होता है कि कोहल भरत की परम्परा के आचार्यों तथा प्रयोक्ताओं में परिगणित हुए हैं। संगीतरत्नाकर में कोहल के संगीत संबंधी अनेक उद्धरण प्राप्त होते हैं। पार्श्वदेव के संगीतसमयसार में कोहल तथा दत्तिल को संगीतशास्त्र के आचार्य के रूप में स्मरण किया है । कोहलप्रोक्त ग्रंथ का 13 वां अध्याय मद्रास के शासकीय हस्तलिखित ग्रंथागार में विद्यमान है जिसका नाम "कोहलरहस्य" है । यह ग्रंथ खण्डित है। इसमें कोहल का उल्लेख, भरतपुत्र के रूप में हुआ है "कोहलमतम्" नामक एक ग्रंथ भी मिला है ऐसा श्री. शुक्ल कहते हैं। इसमें पुष्पांजलि का मात्र स्वरूप मिलता है इन्होंने ही "कोहलीयम्" नामक ग्रन्थ का उल्लेख किया है जो तालपत्र पर लिखित है तथा लन्दन की इंडिया आफिस लायब्रेरी में संग्रहित है। ये सभी ग्रन्थ अपूर्ण तथा अप्रकाशित हैं। कोहल के उत्तराधिकारी होने एवं अभिनवगुप्त के मतों को लेकर निष्कर्ष निकालते हुए श्री शुक्ल ने लिखा है कि नाट्यशास्त्र की रचना के समय भरत अत्यंत वृद्ध थे जिससे ग्रन्थ में ही "मुनिना भरतेन यः प्रयोगो" आदि उल्लेखों में भरत को मुनि कहा गया। लेखन के अन्त समय तक कोहल प्रसिद्ध प्राप्त नाट्याचार्य हो गए थे तथा अवशिष्ट विषयों पर लिखने की क्षमता भी उनहीं की थी। अतः स्वयं भरत ने यह भविष्यवाणी की कि अवशिष्ट भाग कोहल ही पूर्ण करेगा।
डॉ. राघवन् ने भरत के बाद कोहल को ही सर्वाधिक
304 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड
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महत्त्वपूर्ण आचार्य निरूपित करते हुए कहा है कि नाट्यशास्त्र में भरत के पूर्वतन्त्र के साथ कोहल के उत्तरतन्त्र के विषय भी उपपादन तथा उपबृंहण के रूप में समाविष्ट हैं। संगीतरत्नाकर के टीकाकार कल्लिनाथ के द्वारा उद्धृत ग्रन्थ संगीतमेरु किसी अन्य आचार्य की रचना है तथा कोहल के नाम से उसका प्रचार किया गया है ऐसा डा. राघवन का मत है । कौत्सव्य अथर्व परिशिष्ट की कुल 78 संख्या में कौत्सव का निरुक्त-निघण्टु 48 वां है। इस आथर्वण निरुक्त-निघण्टु में कुछ ऐसे पद आते है जो उपलब्ध अर्थवशाखा में नहीं मिलते; अथर्ववेद की किसी अज्ञात शाखा से उनका संबंध होगा ऐसा विद्वानों का तर्क है।
कौशिक कुछ ऋचाओं के द्रष्टा, एक गोत्र ऋषि तथा कौडिण्य के शिष्य । पाणिनि के अनुसार एक शाखा के प्रवर्तक । इनके नाम पर ये ग्रन्थ हैं: 1. कौशिकसूत्र, 2. कौशिकस्मृति, 3. कौशिकशिक्षा व 4. कौशिकपुराण कुशिक विश्वामित्र के पूर्वज तथा भरत के पुरोहित थे । कुशिक कुल ही कौशिक के नाम से जाना जाता है। विश्वामित्र के पिता गाधी भी कौशिक नाम से जाने जाते थे।
कौशिक भट्टभास्कर ई. 11 वीं शती यजुर्वेद की तैत्तिरीय संहिता के भाष्यकार सायणाचार्य, देवराज यज्जा, श्रीकण्ठाचार्य, विश्वेश्वरभट्ट मान्धाता आदि भाष्यकार भट्ट भास्कराचार्य का प्रमाण रूप से निर्देश करते हैं। भट्टभास्करप्रणीत "तैत्तिरीयभाष्य" में चतुर्थ काण्ड मुद्रित नहीं फिर भी चतुर्थकाण्ड के अन्तर्गत रुद्राध्याय पर भट्टभास्कराचार्यजी का भाष्य उपलब्ध है। संहिता भाष्यकार और रुद्रभाष्यकार कौशिक अभिन्न हैं या भिन्न, इस विषय में मतभेद है। एक एक शब्द के अनेक अर्थ देने के कारण भट्ट भास्कराचार्यजी का विशेष निर्देश होता है। कौशिक रामानुजाचार्य श्रीरंगपट्टणम् निवासी । रचना - अथर्वशिखाविलासः । इसमें वैष्णवमत का प्रतिपादन किया गया है ।
क्रमदीश्वर संक्षिप्तसारव्याकरण के रचयिता । इसकी स्वोपज्ञ टीका (रसवती) का जुमरनन्दी ने परिष्कार किया था। इस लिये वह जौमर के नाम से ज्ञात है।
क्रोष्टुक निरुक्तकार के रूप में यास्कप्रणीत निरुक्त में आचार्य क्रोष्टुक का एक बार निर्देश है। बृहदेवता में भी इनका एक बार निर्देश मिलता है।
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क्षमाकल्याण ई. 18 वीं शती । रचना "यशोधरचरितम् " (जैन राजा यशोधर का चरित्र ) । क्षमादेवी राव प्रसिद्ध कवयित्री । जन्म 4 जुलाई 1890 को पुणे में। पिता शंकर पांडुरंग पण्डित। बचपन में ही पितृवियोग काका के यहां विद्यार्जन पति कंबई के डा. राघवेन्द्र राव। अनेक भाषाओं तथा क्रीडाओं में नैपुण्य । अंग्रेजी और मराठी में लेखन। सन 1930 से, म. गांधी के सत्याग्रह
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