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कोश पर हेम, विश्वप्रकाश और मेदिनी कोशों का प्रभाव दीखता है।अतः इसका रचनाकाल ई. 13 वीं शती का उत्तरार्ध और 14 वीं शती का पूर्वार्ध माना जा सकता है। इसमें 2453 श्लोक हैं। नानार्थकोश की परम्परा में यह कोश अग्रगण्य माना जाता है। श्रीधरस्वामी- समय- 1908-73 ई.। पिता- नारायणराव देगलूरकर। माता- कमलाबाई। समर्थ रामदास के परम भक्त और महान् तपस्वी। निवास- महाराष्ट्र में सज्जनगड पर और अंत में कर्नाटक के वरदहल्ली मठ में। रचनाएं- श्रीदत्तकरुणार्णव और श्रीशिवशान्तस्तोत्रतिलकम् नामक दो संस्कृत काव्य और आर्यसंस्कृति नामक मराठी प्रबंध। आपके हजारों भक्त महाराष्ट्र और कर्नाटक में विद्यमान हैं। श्रीधरस्वामी - ई. 14 वीं शती का पूर्वार्ध । श्रीधर स्वामी की सुप्रसिद्ध व्याख्या "भावार्थ-दीपिका", श्रीमद्भागवत के भाव तथा अर्थ की विद्योतिका टीका है। श्रीधर स्वामी का व्यक्तित्व सर्वथा अप्रसिद्ध है। यों तो उनके देश और काल दोनों ही अज्ञात हैं, कोई उन्हें बंगाल का मानता है, कोई उत्कल का, कोई गुजरात का, तो कोई महाराष्ट्र का। निर्विवाद इतना है कि वाराणसी में वे बिन्दुमाधव मंदिर के सान्निध्य में निवास करते थे और उनका मठ तथा नृसिंह का विग्रह, मणिकर्णिकाघाट पर आज भी विद्यमान है। वे नृसिंह भगवान् के अनन्य उपासक थे। उनकी भागवत-व्याख्या के निम्न मंगल श्लोक से इस तथ्य की पुष्टि होती है
वागीशो यस्य वदने लक्ष्मीर्यस्य च वक्षसि ।
यस्यास्ते हृदये संवित् तं नृसिंहमहं भजे।।
एक प्राचीन प्रशंसा-श्लोक से भी इसकी पुष्टि होती है जिसमें नृसिंह के प्रसाद से श्रीधर के समग्र भागवतार्थ के
के ज्ञाता होने की बात कही गई है। श्रीधर के गुरु का नाम, अंतःसाक्ष के आधार पर, परमानंद था जिसकी सूचना अन्यत्र भी उपलब्ध होती है। गीता की टीका में भी उनके गुरु परमानंद का नाम निर्दिष्ट है। द्वादश स्कंध की समाप्ति पर श्रीधर ने स्वयं को ‘परमानंद-पदाब्जर्भूगः" कहा है तथा परमानंद की प्रीति के निमित्त उन्होंने भागवत-व्याख्या का प्रणयन अपने गुरु के मत का आश्रय लेकर ही करने की बात कही है। एक उद्भट विद्वान् होने पर भी श्रीधर बड़े ही विनम्र भक्त थे। भगवद्गीता की अपनी 'सुबोधिनी' टीका में, श्रीधर ने स्वयं को 'यति' कहा है। इससे स्पष्ट है कि 'सुबोधिनी' के प्रणयन के पूर्व वे संन्यास ले चुके थे। (सुबोधिनी, 18 अ. अंतिम पद्य)।
श्रीधर अद्वैत वेदांती होते हुए भी शुष्क ज्ञानमार्गी न होकर सरस भक्ति-मार्गावलंबी थे। अतः इनकी व्याख्या, गौडीय वैष्णव संप्रदाय में सर्वाधिक मान्यता से मंडित तथा प्रामाणिक मानी जाती है। श्री. चैतन्य महाप्रभु, सनातन गोस्वामी, जीव
गोस्वामी तथा विश्वनाथ चक्रवर्ती ने अपने अपने ग्रंथों में श्रीधर स्वामी के प्रति श्रद्धा एवं कृतज्ञता व्यक्त की है।
आचार्य बलदेव उपाध्याय ने अपने ग्रंथ "वैष्णव संप्रदायों का साहित्य एवं सिद्धांत" में श्रीधर के समय-निर्धारण हेतु जो आधार प्रस्तुत किये है, तदनुसार उनका समय बोपदेव
और विष्णुपुरी के बीच का (अर्थात् 1300 ई. और 1350 ई. के लगभग) होना चाहिये। श्रीधराचार्य - ई. आठवीं-नौवीं सदी। कर्नाटक-निवासी। आपका गणितसार (या त्रिंशतिका) नामक ग्रंथ प्रसिद्ध है। ज्योतिर्ज्ञानविधि एवं जातकतिलक ग्रंथ ज्योतिष संबंधी है। भास्कराचार्य ने ये नियम वैसे-के-वैसे उठाये हैं। आपका 'लीलावती'नामक ग्रंथ कन्नड भाषा में है। उसमें गणित का विवेचन है। श्रीनारायण - ई. 15 वीं शती। इन्होंने कुल 60 ग्रंथ लिखे हैं जिनमें नारायणचरितम् विशेष उल्लेखनीय है। श्रीनिवास - ई. 12 वीं शती। 'राजपंडित' व चूडामणि'की उपाधियों से अलंकृत । बंगाल के निवासी। गणितज्ञ। कृतियांगणित-चूडामणि और शुद्धिदीपिका (मुहूर्त-शास्त्र-विषयक)। श्रीनिवास - ई. 13 वीं शती। वेद के भाष्यकार और निरुक्त के टीकाकार । ग्रंथ अनुपलब्ध, फिर भी वेदभाष्यकार देवराज यज्वा द्वारा श्रीनिवासाचार्य का वेदभाष्यकार और निरुक्त-टीकाकार के रूप में उल्लेख हुआ है। श्रीनिवास - मुष्णग्राम के निवासी। वरदवल्ली- वंश । वरद के पुत्र। रचना- 'भू-वराहविजय' (वराहविजय) । श्रीनिवास - वेंकटेश के पुत्र । रचना- श्रीनिवास-चम्पू: (तिरुपति क्षेत्र के माहात्म्य का वर्णन)। श्रीनिवास - रचना- 'सत्यनाथ-विलसितम्'। इसमें माध्व-सांप्रदायी, द्वैत-सिद्धान्ती सत्यनाथतीर्थ (जिनका देहान्त सन् 1674 में हुआ) का चरित्र वर्णित है। श्रीनिवास कवि - "आनंदरंग-विजय-चंपू' के रचयिता। पितागंगाधर। माता- पार्वती। श्रीवत्सगोत्रोत्पन्न ब्राह्मण। अपने चंपू-काव्य में इन्होंने प्रसिद्ध फ्रेंच शासक डुप्ले के प्रमुख सेवक आनंदरंग के जीवन-वृत्त का वर्णन किया है। विजयनगर तथा चन्द्रगिरि के राज-वंशों का वर्णन इस काव्य की बहुत बडी विशेषता है। इसका रचना-काल ई. 18 वीं शताब्दी है। ऐतिहासिक दृष्टि से इस काव्य का महत्त्व है। यह मद्रास से प्रकाशित हुआ है। श्रीनिवास कवि डुप्ले के भाषण-सहायक थे। श्रीनिवासदास - ई. 14 वीं सदी। एक विशिष्टाद्वैती आचार्य । देवराज के पुत्र एवं वेंकटनाथ के शिष्य। वेंकटनाथ के न्यायपरिशुद्धि ग्रंथ पर आपने 'न्यायसार' नामक टीका लिखी है। विशिष्टाद्वैतसिद्धांत, कैवल्यशतदूषणी, दुरुपदेशधिक्कार, न्यायविद्या-विजय, मुक्तिशब्दविचार, सिद्ध्युपाय-सुदर्शन,
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 477
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