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बार इतने विषण्ण हो गये थे कि श्री जगन्नाथजी के रथ के नीचे प्राण त्यागने का निश्चय किया परन्तु महाप्रभु चैतन्य के समझाने पर ये वृंदावन लौटे तथा भजन, श्रीकृष्ण की पूजा-अर्चा एवं ग्रंथ-लेखन में लीन रहने लगे। कहते हैं कि इनके पास प्रसिद्ध पारसमणि था जो इन्होंने किसी दरिद्री ब्राह्मण-याचक को दे डाला। इनके भक्तिमय जीवन की अनेक विलक्षण बातें भक्तजनों में प्रसिद्ध हैं। ___ रूप और सनातन ये दो भाई, चैतन्य-मत के शास्त्रकर्ता माने जाते हैं। रूपजी ने इस मत के लिये भक्तिशास्त्र के गूढ सिद्धांतों की विवेचना की और सनातनजी ने इस मत के आदरणीय नियमों एवं आचारों का विस्तृत विवेचन ग्रंथ-बद्ध किया। इस प्रकार सनातन गोस्वामी, चैतन्य संप्रदाय के कर्मकांड के निर्माता है। आज भी उन्हीं के नियमानुसार चैतन्य संप्रदाय के मंदिरों में पूजा-अर्चा की जाती है और मठ के साधुओं के जीवन की व्यवस्था का निर्धारण होता है।
सनातनजी का एतद्विषयक ग्रंथ है "हरिभक्तिविलास"। इनके अन्य ग्रंथों में बृहत्तोषिणी है जिसमें भागवत की मार्मिक व्याख्या की गई है। इन्होंने अपने भागवतामृत ग्रंथ में भागवत के सिद्धांतों का सुंदर विवरण प्रस्तुत किया है। इन्होंने "मेघदूत" पर "तात्पर्यदीपिका" नामक टीका भी लिखी है। ___ रूपजी तथा सनातनजी की भक्ति एवं विद्वत्ता से आकृष्ट होकर राजा-महाराजा तक दर्शनों के लिये वृंदावन आया करते थे। सन् 1573 में अकबर बादशाह भी इनसे मिलने वृंदावन गये थे।
अपने बंधु रूपजी के समान ही इनके मृत्यु-संवत् के विषय में विद्वानों में मतभेद है किन्तु आचार्य बलदेव उपाध्याय तथा डा. डी.सी. सेन द्वारा प्रस्तुत प्रमाणों के आधार पर इन्हें शतायुषी मानना उचित प्रतीत होता है। सन्मुख - मूल रचना अप्राप्य । संग्रहचूडामणि नामक इनकी रचना में प्राचीन लेखकों के मतों का विवरण तथा सदानन्द
और शाङ्गदेव का उल्लेख है। अतः समय ई. 14 वीं शती के बाद। अन्य रचना संगीत-चिन्तामणि। ये दोनों संगीत विषयक रचनाएं हैं। सप्तगू आंगिरस - ऋग्वेद के दसवें मंडल के 47 वें सूक्त के द्रष्टा। वैकुंठ इंद्र नामक इंद्रावतार की इसमें स्तुति है। सप्तवधी आत्रेय - अत्रि-कुल के एक सूक्त-द्रष्टा। ऋग्वेद के पांचवें मंडल का 78 वां एवं आठवें मंडल का (विकल्प का) 72 वां सूक्त आपके नाम है। ऋग्वेद (10.39.9), अथर्ववेद (4.29.4) तथा बृहद्देवता में आपका उल्लेख है।
सायणाचार्य के अनुसार असुरों ने इन्हें पेटी में बन्द कर पत्नी से भेट भी असंभव कर दी थी। अश्विनीकुमारों ने इन्हें मुक्त किया। फिर इन्हें पुत्रप्राप्ति हुई।
समंतभद्र - ई. पांचवीं सदी। दक्षिण भारत के चोलवंश के राजकुमार । पिता-कावेरी नदी के तटवर्ती नगर उरगपुर (आधुनिक त्रिचनापल्ली) के क्षत्रिय राजा थे। जन्मनाम-शान्विवर्मा। कनड कवि आपका उल्लेख अत्यंत आदर के साथ करते हैं।
बिहार, मालवा, सिंध, पंजाब में जाकर, आपने अन्य मतों के आचार्यों से शास्त्रार्थ कर विजय प्राप्त की। आप जैन-वाङ्मय के प्रथम संस्कृत कवि और प्रथम दार्शनिक स्तुतिकार हैं। जिनसेन द्वारा वादित्व, वाग्मित्व, कवित्व और गमकत्व जैसे
गुणसूचक विशेषणों से अलंकृत। ____ एक कथा के अनुसार राजबलिकथा के अनुसार मुनि-दीक्षा
के बाद मणुवकहल्ली नामक नगर में भस्मक-व्याधि से पीडित हुए। गुरु की आज्ञानुसार व्याधि से मुक्त होने का प्रयन्त किया। फलतः वाराणसी में शिवकोटि के राजा भीमलिंग नामक शिवालय में शिवजी को अर्पण किए जाने वाले नैवेद्य को शिवजी को ही खिला देने की घोषणा की और राजा की आज्ञा से शिवालय के किवाड बंद कर उस नैवेद्य को स्वयं खाकर क्षुधा शान्त करने लगे। शनैः शनैः व्याधि शान्त होने लगी और फलतः नैवेद्य बचने लगा। तब संदेहग्रस्त होकर राजा ने समन्तभद्र से शिवपिण्डी को प्रणाम करने का आग्रह किया। प्रणाम करने के लिये समन्तभद्र ने "स्वयंभू-स्तोत्र"
की रचना की और आठवें तीर्थकर चन्द्रप्रभु की स्तुति करते हुए वन्दना की। वन्दना करते ही शिवपिण्डी फट गई और उसमें से चन्द्रप्रभ भगवान की मूर्ति प्रकट हुई। इस आश्चर्यकारी घटना को देखकर राजा प्रभावित हुआ और जैनधर्म में दीक्षित हो गया। सेनगण पट्टावली तथा श्रवण बेलगोला-शिलालेख के अनुसार यह घटना कांची में हुई। भारतीय इतिहास में शिवकोटि नाम का कोई राजा नहीं हुआ। लगभग प्रथम शताब्दी में शिवस्कन्धवर्मन नामक राजा अवश्य हुआ। यदि शिवकोटि और शिवस्कन्धवर्मन का व्यक्तित्व एक रहा हो तो इस कथा का संबंध समन्तभद्र के साथ घटित हो सकता है। कांची को दक्षिण काशी कहा जाता रहा है।
चत्रराय पट्टण ताल्लुके के अभिलेख में समन्तभद्र को श्रुतकेवली के समान कहा गया है। वे कुन्दकुन्दान्वयी थे। तत्त्वार्थसूत्र के मंगलाचरण "मोक्षमार्गस्य-नेतारम्" पर "आप्तमीमांसा" नामक दार्शनिक ग्रंथ लिखने वाले समन्तभद्र का समय ई. द्वितीय शताब्दी माना जाता है।
रचनाएं- बृहत्-स्वयम्भू-स्तोत्र, स्तुति-विद्या-जिनशतक, देवागम-स्तोत्र, आप्तमीमांसा, युक्त्यनुशासन, रत्नकरण्डश्रावकाचार जीवसिद्धि, तत्त्वानुशासन, प्राकृत-व्याकरण, प्रमाणपदार्थ, कर्मप्राभृत-टीका तथा गन्धहस्ति-महाभाक्य। इनमें से प्रथम पांच ग्रंथ ही उपलब्ध होते हैं जिन के द्वारा जैन-दर्शन के क्षेत्र में समन्तभद्र का विशेष योगदान रहा है। समयसुन्दरसूरि . खरतरगच्छीय सकलचन्द्र सूरि के शिष्य।
482 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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