Book Title: Pravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia
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Page #1 --------------------------------------------------------------------------  Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्य विरचित श्री प्रवचनसार टीका दूसरा खण्ड अथवा ज्ञेयतत्वदीपिका | टीकाकार श्रीमान् जैनधर्मभूषण धर्मादिवाकर ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी, 66 ऑ० सम्पादक "जैनमित्र " सूरत । -- प्रथमावृत्ति ] जैनमित्र " के २५वें वर्ष के ग्राहकोंको सेठ इच्छाराम कम्पनोवाले ला० बद्रीप्रसादजीके सुपुत्र - सेठ चिरञ्जीलालजी जैन रईस बैंकर पानीपत ( पञ्जाब) की तरफसे भेट । मूल्य १||) एक रुपया वारह अना । वैसाख वीर स० २४५१ [ प्रति १३०० Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक मूलचन्द किसनदास कापड़िया, ऑ० प्रकाशक जैनमित्र व मालिक | दिगम्बर जैन पुस्तकालय, चन्दावादी- सूरत । मुद्रक - मूलचन्द किसनदास कापडिया, ÷ " जैन विजय " प्रेस स्वपाटिया चकला सूरत Swrat. 1. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका। - - - इस श्री प्रवचनसार परमागमको श्री वर्धमान भगवानके समान प्रमाणीक दिगम्बर जैन पट्टावलीके अनुसार विक्रम संवत ४९ में प्रसिद्ध श्री कुंदकंदाचार्यजी महाराजने प्राकृत गाथाओंमें रचकर जो धार्मिक तथा अध्यात्मीक रस भर दिया है उसका स्तवन वाणीसे होना अशक्य है। इसकी एक संस्कृतवृत्ति दशम शताब्दीमें प्रसिद्ध श्री अमृतचन्द्र आचार्यने की है। उसीके पीछे प्रायः उसी समयमें दूसरी संस्कृतवृत्ति परम अनुभवी श्री जयसेनाचार्यजीने रची है। प्रथम वृत्तिका कुछेक अंश लेकर हिन्दी भाषाटीका श्रीयुत आगरा निवासी विद्वान पंडित हेमराननीने की है। यद्यपि संस्कृत वृत्तिके शब्दोंक अनुसार भाषाटीका लिखनेका प्रयास जहांतक विदित है अभीतक किसी जैन विद्वानने नहीं किया है। दूसरी संस्कृतवृत्तिकी भाषाटीका अभीतक किसी विद्वान् द्वारा देखनेमें नहीं आई । श्री जयसेनाचार्यछत वृत्ति सरल, विस्तारयुक्त तथा विशेष अध्यात्मिक है इस लिये हमने अपनी शक्ति न होनेपर भी केवल धर्मभावनाके हेतु हिन्दी भाषा लिखनेका उद्यम किया है। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस ग्रंथके तीन अधिकार हैं जिनमें ज्ञानतत्वदीपिका प्रथम अधिकार प्रकाशित हो चुका है । यह शेयतत्वदीपिका दूसरा अधिकार है । तीसरा चारित्रतत्वदीपिका भी लिखा जाचुका है । केवल मुद्रण होना शेष है। इस अधिकारको वि० संवत १९८०की वर्षातमें पानीपत जिला करनालमें ठहरकर पूर्ण किया था। . इसको प्रकट कराकर जैनमित्र के ग्राहकोंको उपहार में देनेका उत्साह श्रीयुत इच्छाराम कम्पनीवाले लाला बद्रीदासजीके सुपुत्र लाला चिरंजीलालजीने दिखलाया है । इसलिये उनकी शास्त्रभक्ति सराहनीय है। ग्रंथके पाठकोंको उचित है कि इसे रुचि व विचारके साथ पढें, सुनावें तथा इसका मनन करें और यदि कहीं कोई भूल अज्ञान तथा प्रमादसे हो गई हो तो सज्जन पत्र व्यवहार करके हमें सूचित करें हम उनके अत्यन्त आभारी होगे। सात शहर, चदावाडी ) वीर सं० २४५१ माघ सुदी 3 ता० १३-१-२५ मगलवार ) जैन धर्मकी उन्नतिका पिपासुब्रह्मचारी सीतलप्रसाद Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ rrn v४ १ सूचीपत्र। श्री ज्ञेयतत्वदीपिका। गाथा १ सम्यक्त कथनकी प्रतिज्ञा व मंगलाचरण २ द्रव्य गुण पर्याय निरूपण ३ स्व समय पर समय .... ४ द्रव्यका तीन रूप लक्षण ५ स्वरूप अस्तित्त्वका लक्षण ६ सादृश्य अस्तित्त्वका लक्षण ७ द्रव्यके समान सत्ता स्वभाव सिद्ध है ८ सत्ता उत्पाद व्यय ध्रौव्य रूप है.... ८-१० ४२ ९ उत्पाद व्यय ध्रौव्यका एक समय... ११ ५४ १० पर्यायकी अपेक्षा उत्पाद व्यय धौव्य १२-१३ ५८ ११ सत्ता और द्रव्यका अभेद है ... १४ ६५ १२ पृथक्त्व और अन्यत्वका लक्षण . . १५-१७ ६९ १३ गुण और पर्यायोका द्रव्यसे अभेद १८-१९ ८४ १४ सत् उत्पाद, असत् उत्पाद कथन.... २०-२३ ९० १५ सप्तमंगीका कथन ... . २४ १०२ १६ नारकादि पर्यायें निश्चयसे जीवका २५-२७ ११२ ___ स्वरूप नहीं हैं १७ जीव नित्य भी है अनित्य भी है.... २८-२९ १२५ १८ कर्मबंधका कारण रागद्वेष मोह है ३०-३१ १३२ Bor or239 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा टट १९ जीवके ज्ञान चेतना, कर्म चेतना ३२-३४ १६९ कर्मफल चेतना २० भेदज्ञान भावनाका फल २१ जीव अजीवका लक्षण २२ लोकाकाश, अलोकाकाशका स्वरूप २३ द्रव्य सक्रिय नि क्रिय भेद वा अर्थ ३८ १६५ व्यजन पर्याय भेद २४ विशेष गुणों के भेदसे द्रव्योमें भेद है ३९-४० १७० २५ मूर्तिक पुद्गलके मूर्तिक गुण .... ४१ १७४ २६ अमूर्तिक द्रव्योंके गुण.... ४२-४३ १८१ २७ पांच अस्तिकाव .... ४४-१५ १८४ २८ द्रव्योंका स्थान लोकाकाश २९ प्रदेशोंका वर्णन ४७ १९३ ३० काल द्रव्यका वर्णन .... .... ४८-४९ १९४ ३१ प्रदेशका स्वरूप .... ५० २०१ ३२ तिर्यक् प्रचय ऊर्ध्वं प्रचयका स्वरूप ५१ २०४ ३३ कालका उत्पाद व्यय ध्रौव्य .... ५२-५३ २०८ ३४ काल एक प्रदेशी है .... .... ५४ २१४ ३९ ज्ञाता ज्ञेयकी भिन्नता.... .... ५५ २२० ३६ जीवके व्यवहार चार प्राण .... ५६-५७ २२२ ३७ व्यवहार प्राण पुद्गलमई हैं - .... ५८-५९ २२४ ३८ प्राण नवीन बंधके कारण हैं .... ६०-६१ २२८ . . . . Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९ प्राणोके नागका उपाय ४० जीव विभाव पर्याय कथन ४१ आत्मज्ञानी ही निर्मोही होता है .. 0000 ४२ आत्माके शुभ अशुभ उपयोग ... ४३ शुद्धोपयोगका कथन ४४ मन वचन काय व उनकी क्रियाएं आत्मा से भिन्न है **** ५० अमूर्तीक जीवका मूर्तीक पुगलोंसे सब कैसे होता है .. • **** ४५ पुद्गलोका परस्पर वध कैसे होता है ४६ आत्मा पुगलके स्कधोका कर्ता नहीं है ४७ यह जगत सर्वत्र पुद्गलोसे भरा है ... ४८ जीव कर्म स्कंधोंका उपादान कर्ता नही है। ४९ जीवका असाधारण स्वरूप क्या है ६१ भाववन्धका स्वरूप.... ५२ वधके तीन भेट ५३ रागी कर्मोंको बांधता है ५४ रागद्वेप, मोहके शुभ अशुभ भेद ५५ शुद्धोपयोग मोक्षका कारण है ५६ आत्मा छः जीव कार्यों से भिन्न है ५७ आत्मा अपने ही परिणामोंका कर्ता है ५८ कर्मवर्गणांए आप ही कर्मरूप होती हैं BORD ... .... गाथा पृष्ठ ६२ २३९ ६३-६४ २३८ ६५ २४३ ६६-६९ २४६ ७० २५९ ७१-७३ २६२ .. ७४-७७ २७१ ७८ २८१ ७९ ८० ८३, ८४ २८४ २९२ ३०२ ३०६ ८६-८७ ३१३ ८८-८९ ३१७ ३२२ ३२४ ३२६ ९३-९४ ३३० ९६-९७ ३३३ ९८ ३४० ९० ९१ ९२ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९९ कमका अनुभाग भेद ६० आत्मा व्यवहारनयसे बन्धरूप है ६१ निश्चय और व्यवहारका अविरोध ९९ १०० १०१ ६२ अशुद्ध नय से अशुद्ध आत्माका लाभ होता है १०२ ६३ शुद्धनयसे शुद्ध आत्माका लाभ होता है १०३ ६४ ज्ञानी शुद्ध आत्माकी भावना करता है १०४ ६५ शरीरादि भिन्न हैं इनकी चिता न करनी चाहिये १०५ १०६ १०७ ६८ आत्मध्यान ही आत्मशुद्धिका साधक है १०८ ६९ परमात्मा क्या ध्याते हैं ? ७० शुद्धात्माकी प्राप्ति ही मोक्ष मार्ग है ७१ आचार्य स्वयं निर्ममत्वभावको स्वीकार करते हैं ६६ शुद्धात्माके लाभका फल ६७ मोहकी गाठ कटनेका फल ७२ अंतिम मंगलाचरण ७३ ज्ञेयाधिकारका सार ७४ भाषाकारका परिचय गाथा 6080 ३५५ ३५८ ३६० ३६२ १०९-११० ३६६ १११ ३७२ ११२ १५३ ... 吧 ३४२ ३४४ ३४५ ३४९ ३५१ ३५३ ३७५ ३७८ ३८१ ३९२ Page #10 --------------------------------------------------------------------------  Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . A बोमनाला------ -anes - - Port. x 1434 . ५ . स 7 Patna x .- 5 MAR - LateTELammargamMeriAIIRAM ISATNA , L anuarthianmarati ........ in neuds TA- ~ xii __ • श्रीमान् जैनधर्मभूषण धर्मदिवाकर पूज्य ब्रशीतलप्रसादजी। (समयसोर, नियमसार, समाधिशतक, प्रवचनसार आदिके टीकाकार व गृहस्थधर्म, आत्मधर्म आदिके रचयिता तथा ऑ० सम्पादक "जैनमित्र" सूरत ।) Jain Vijaya Press, Surat Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ maamanamaanwarmiamanamamamurammammimamamumanit Tain lijnza Press, Surat Are-KAC मालिक-फर्म इच्छाराम एण्ड कम्पनी, मेरठ लाला बद्रीदासजी रईस एण्ड बैंकर्स, श्रीमान् खर्गीय WECARE ERTAL inanmmmmmmmmm SARAL १७ Hot Matauranasite थोड्याला. संधी मोतीलाल .......... . .... . .. ... . . .. Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीरीज में ॐ गई रही 0000000000000000000 १०२ 4 _\_p Jain Vijaya Press, Surat. upre 10000000 0000000000506*********6000 श्रीमान् लाला चिरंजीलाल जैन रईस, पानीपत । ( सुपुत्र लाला वद्रीदासजी रईस ) Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सक्षिप्त परिचय । लाला चिरंजीलालजी चैंकर पानीपत पानीपत-यह युधिष्ठिरादि पाचो पाडवोमेंसे किसी अन्यतम पांडवका वसाया हुआ एक अति प्राचीन ऐतिहासिक प्रसिद्ध स्थान है । यह पंजाब प्रान्तमें देहलीसे ५५ मील उत्तरकी दिशामें ई० आई० आर० रेलवेकी लाइनपर स्थित है। पानीपतसे कुछ दूरपर कुरुक्षेत्रके मेदानमें कौरव और पाडवोका महाभारत युद्ध हुआ था और इसी मैदानमें विक्रम संवत १६०० से अबतक दो तीन बादशाहोके इतिहास प्रसिद्ध युद्ध हो चुके हैं। • वर्तमानमें इस नगरकी जनसंख्या अनुमान तीसहनार (३००००) के है। निसमें तीन हिस्से मुसलमान और एक हिस्सेमें जैन तथा हिन्दू हैं। ___ यहांपर अनुमान ३०० घर अग्रवाल जैनियोके हैं और चार श्री जिनमदिर हैं। इनमें बडे मदिरकी बिल्डिंग अति विशाल है। वृद्ध जनोसे यह जनश्रुति चली आरही है कि पूर्व समयमें यहां पर २२ चाईस मंदिर तथा चैत्यालय थे, पूर्वजनोंने उनका ह्रास देखकर सब जीर्ण मंदिरोकी प्रतिमायें उठवाकर बडे मंदिरजीमें विराजमान करवा दी । यह बड़ा मंदिर वर्तमान समयमें विशाल दुर्गके समान बना हुआ है । दूसरे वाजारवाले मदिरमें सुनहरी तथा मीनाकारीका काम भी दर्शनीय है। उसमें अनुयोगोंके अनुसार क्षेत्रोंके नक्शे तथा पौराणिक भावोंके चित्र बड़ी मनोहरतासे चित्रित किये गये हैं । यहांके पीतलके वर्तन और उनी कम्बल प्रसिद्ध हैं जो यहांसे बहुत दूर देशान्तरोको जाते हैं । यहांके जैनी भाई Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रचार मा मध्यम स्थितिके व्यवहार कुशल, उद्योगी, धर्मात्मा तथा विद्याप्रेमी हैं । यहांकी जैन समाजके सामाजिक सगमके प्रेम और उत्साहसे १२००) रुपये माहवारी खर्चसे चलनेवाली जेन हाईस्कूल और श्रीमान् ब्रह्मचारी शीतलप्रशादनीके करकमलोंसे स्थापित संस्कृत धर्म विद्यालय नामकी संस्थायें बरावर काम कर रही हैं। ___मंदिरोंका प्रबंध भी अत्युत्तम है । गत वर्षके चौमासेकी उप स्थितिमें उक्त ब्रह्मचारीनीकी ही प्रेरणासे पानीपतके खिरनीसरायके मुहल्लेमे पंचायतकी तरफसे एक चैत्यालय बन रहा है। गत साल यहांकी जैन समाजने करनाल जिलेके ग्रामवासी जैनियोंका अज्ञानरूप अंधकार हटानेके लिये उपदेशको द्वारा जैन धर्मका प्रचार भी कराया था। इसी नगरमें अग्रवाल वशके सिंहल गोत्रमें लाला इच्छारामजीके घर लाला कुसुंभरीदासजी उत्पन्न हुए जिनके पुत्ररत्न लाला बद्रीदासनी हुए इन्होंने अपने पुण्योदय तथा उद्योगालसे वर्तमान गवर्नमेन्टसे-पेशावर, नौसेरा, रिसालपुर, रावलपिड़ी, स्यालकोट, लाहौर, फीरोजपुर, जालंघर, अम्बाला, मेरठ, मथुरा, लखनऊ, कानपुर, फैजावाद, इलाहाबाद, दानापुर, कलकत्ता, मऊ छावनी, नसीराबाद और नीमच शहरके सेनाविभागकी कोषाध्यक्षता प्राप्त की जिससे बहुत कुछ द्रव्य और यशका उपार्जन किया । आप धर्मात्मा और दानशील भी थे। आपने विक्रम सं० १९६२में विरादरीके अनुमान साईसौ ६५० आदमियोंको साथ लेकरके तीर्थक्षेत्र श्री गिरनारनीका संघ चलाया था और उसके कुछ . वर्ष बाद संवत् १९६६ में तीर्थक्षेत्र श्री हस्तिनापुरजीका भी अग्रवाल वशक जिनके पुत्ररत्न Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ चलाया था। उनकी स्त्री श्रीमती श्री मुन्नीबाईसे शुभ मिती आश्विन शुल्ला २ विक्रम संवत १९४८ ईस्वीको लघु पुत्र लाला चिरंजीलालजीका शुभ जन्म हुआ। चिरंजीलालनीके इस समय छोटी स्त्रीसे उत्पन्न १ एक पुत्री और ५ पुत्ररत्न विद्यमान हैं । ऊपर वर्णन किये गये वाजारवाले मंदिरकी बिम्बप्रतिष्ठा संवत १९६५ में हुई थी। उस समय लाला बद्रीदासनीकी तरफसे प्रतिष्ठामे आये हुए अनुमान वीसहनार भाइयोका ज्योनारादिकसे पाच दिनतक बराबर जैनधर्मके प्रभावनार्थ सत्कार किया गया था। आपने बानारके मंदिरमे सुनहरी तथा चित्रकारीका काम करानेके लिये अच्छी सहायता की थी। वर्तमानमे चलती हुई "जैन हाईस्कूल " और सस्कृत धर्मविभाग नामकी संस्थाओंमे भी आप मासिकरूपमे अच्छी सहायता टेरहे है व आपने स्कूलमें एक कमरा भी अपनी तरफसे वनवा दिया है। और यथावसर धार्मिक तथा पंचायती कामोमे द्रव्यादिककी सहायता देनेमें भी कमी नहीं करते है। आप पानीपतके खिरनीसरायके मुहल्लेमें रहते हैं। वह शहरसे अनुमान एक मील दूर है ! ____ उस मुहल्लेमे जैनियोंके दश या बारह घर हैं। वे शहरमे दर्शन करनेसे वंचित रहते थे। इसलिए गत साल चौमासेकी स्थितिमे श्रीमान् ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीने प्रेरणा करके वहांपर चैत्यालय बनानेकी आवश्यकता दिखाई थी। उस समय आपने अपना असीम धर्मप्रेम प्रदर्शित कर चैत्यालय बननेके लिये २५९०) रुपयेकी रकम चिट्ठमें लिख दी थी। अब वह चैत्यालय बन रहा है। . Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ सन् १९२१ में जो संघ श्री जैनवद्री मूलबद्रीजीका लाला हुकमचन्द जगाधरमल दिल्लीवालोंने चलाया था उनके साथ आप भी दर्शन के लिये सकुटुम्ब गये थे । उस मौकेपर श्री जेनबद्वीजीमें रथयात्रा हुई थी उसमें आप ९००) नौसो रूप देकर श्री जिनेन्द्र भगवानकी खवासी में बैठे थे । आप आजकल नेशनल बैंक ऑफ इन्डिया कानपूर तथा इम्पीरियल बैंक ऑफ इंडिया स्यालकोटके बडे खजानची हैं । पंजाब गवरमेन्टने आपको स्यालकोट जिलेमें नोटेरी पबलिक भी बनाया हुवा है । गत वर्ष ० शीतलप्रसादजीके यहां ( पानीपत ) चौमासा करने की खुशी में आपने तमाम विरादरीको अपनी तरफसे प्रीतिभोज भी दिया था । J इस साल यहां चैत्रके वार्षिक रथोत्सवके समयपर पंजाब प्रांतिक सभाका अधिवेशन हुआ था । उस समय श्रीमान् ब्रह्मचारीजीकी प्रेरणासे लाला चिरंजीलालजीने प्रवचनसारकी ज्ञेयतत्वमदीपिकाको हिन्दी टीकाके प्रकाशनार्थ तथा वह ""जैनमित्र" के ग्राहकों को उपहारार्थ देनेके लिये नवशत ९००) रु० देनेकी स्वीकारता दे दी थी । उन्ही धर्मात्मा महोदयकी सहायता से यह ग्रन्थ आप पाठक महानुभावोके दृष्टिगोचर होरहा है । शुभमिति । विनीत लेखक - फुलजारीलाल जैन ट्रेंड शास्त्री; जैन: हाई स्कूल, पानीपत | Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्ध ४० ला. १८ १७ ३३ २ ४२ ६ ४४ १४ ४६ ३ ४७ १३ ५४ ११ ६५ ९ ७६ १४ शुद्धाशुद्धिपत्र । অম্বু, होने होते हुए लायग्ग लोयग्ग उनको उनकी अवस्थामई अवस्था भई जटल अटल यहां अरहंत.... (यहां अरहंत पनेसे मतलब है) ध्रौव्य व्यय ध्रौव्य प्रत्यभिज्ञान प्रत्यभिज्ञाद्य होती है- होता हैकरण कारण ऐसी ऐसा पर्याव पर्याय तद् भाव तदभाव अतदमाव अतदभाव सो द्रव्यकी.... पर्यायकी सत्ता है सो। द्रव्यकी सत्ता इन द्रव्य द्रव्य स्येत स्य स्येतरस्य सदसदभाव सदसद्भाव शुद्धोपयोग शुद्धोपयोग ७८ २२ ९४ १६ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृ० १०५ ११९ " १२३ १२५ ला० २२ ७ of १९ < १२९ १२ १६८ २३ १४६ १५ १४८ ११ १५२ १३ १५६.१० १९८ १५ १५८ १७ १६१ २२ १६६ २२ १६७ १२ १६८ ५ १७४ १५ १८० २४ १८४ ८ १९२ ७ १९९ १३ अशुद्ध अभेदखरू महत्व वकार मूल भवो वैसा नित्त्य थिरता क्योंकि १०४ आ कारण ३९ ३९ परिणमन १४ अन्नत अरुलघु समुदाय पुगळस्स: सयम सद्दा गंध है सूक्ष्म पदेश शुद्ध' अभेद स्वरूप महत्य विकार भूल भवो वैसा णोंसे शुद्ध ध्यानके बढ़ा नेवाले मनकी थिरता क्योंकि एकेन्द्रिय १९४ हुआ करण ३६ ३६ परिणाम अनंत. अगुरुलघु समुद्घात पुग्गलस्स सयमसद्दो गंध सूक्ष्मस्थूल प्रदेश Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० ला० २०३ १६ २१२ १५ २२३ १४ २२८ २ २३१ ५ २३४ १७ २३८ १९ अशुद्ध जगहमिल। जगह मिल सभव इन्द्रिय तेषां कथायः फारिण्या अत्थित्त शुद्ध जगहमिल संभव इंदिय तेषां कपाय: करिप्या अत्थित्तणिच्छिद पजाया कालिमा २० ___" २५० १३ कलिमा २५३ १९ २५८ २२ २६२ १६ २६८ १२ २७० ९ पुरुषाका संस्कार चित्तको योग 2 निणित पुरुषाकार संसार चित्त हो प्रयोग निमित च्छुद्ध सद्दो आकार लोक २७१ १७ २८३ १ २८४ २० २८५ ९ सडो आकर लोग बाथर बादर निष्ठ तिष्ठ वास्तव २९० १३ वाल Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशुद्ध ट० ला० २९७ २३ ३१२ २१ ३१७ ९ ३१८ १४ खयं कर्मबंधको अलगाहो वस्तु खरूपके सम्बन्धी पारि परमराग खयं हो जाती " कर्मबन्धकी अवगाहो वस्तु खरूपकी सम्बन्ध । ३२४ १ करे ३३४ २३ ३३६ • ३४७ २३ परिणामन पापात् ३९३ २ ३६१ १९ २६२ २३ ३६९ ११ " १३ १८ ३६८ ५ • ३७७ २३ प्रकाशा नोकर्म अपात ही छिपतं आण चडके व जाता ही हुआ हुआ अभिलाषी हुए हवाहीम शुभ राग करे परिणमन यायात् प्रकाश्या कर्म नोकर्म आपात होता है वही पिच्छयत झाण चउक्के तन जाता है वही हुआ अभिलापी ३८३ २३ ३९३ १२ इब्राहीम Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ said wit मामल संघी मोक्षाज ६ ॐ श्री कुंदकुंदस्वामी विरचित श्री प्रवचनसारटीका । द्वितीय खण्ड अथवा ज्ञेयतत्वदीपिका । दोहा - प्रथम नमो श्री आदिको अन्त नाम महावीर | तीर्थकर चौबीस ये, वर्तमान जुगवोर ॥ १ ॥ प्रगटायो जिन धर्मको, सम्यक् सुखदातार । भविजन पाच सुमार्गको, तिरे भवोदधि खार ॥ २ ॥ तिनकी वाणो रसभरी, आतम अनुभवकार । वन्दो मन वचकायले, पाऊ ज्ञान उदार ॥ ३ ॥ वृषभसेनको आदि दे, गौतम गणधर सार | भद्रवाहु श्रुतकेवली, कुंदकुद गुणधार ॥ ४ ॥ उमास्वामि महाराजवर, भद्र समन्त महान पूज्यपाद इत्यादि गुरु, वंदूं सिद्ध पर सुखके धनी, सत्य कृतारथ सूर | परमातम पावन परम, वढू त हो दूर ॥ ६ ॥ श्रीधरको आदि ले, वीस विदेह सुनाथ | राजत प्रगायत धरम, नमहं जोड जुग हाथ ॥ ७ ॥ पोड़श कारण भावना, दशलक्षण वर धर्म | रत्नत्रय हिंसा रहित, नमहुं धर्म हर कर्म ॥ ८ ॥ कार-वैशाख वदी ८० १९८० ता० ८-४-१९२३ सवेरा होते ह ते । उपजै ज्ञान ॥ ५ ॥ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] श्रीप्रवचनसारटीका । आगे इस द्वितीय अधिकार की सूची लिखते हैं Inte इसके आगे " सत्ता संबंधेदे " इत्यादि गाथा सूत्रसे जो पूर्वमे संक्षेपसे सम्यग्दर्शनका व्याख्यान किया था उसीको यहां विषयभूत पदार्थों के व्याख्यानके द्वारा एकसो तेरह गाथाओ में विस्तारसे व्याख्यान करते हैं । अथवा दूसरी पातनिका यह है कि पूर्व में जिस ज्ञानका व्याख्यान किया था उसी ज्ञानके द्वारा जाननेयोग्य पदार्थोको अब कहते है । यहां इन एकसौ तेरह गाथाओं के मध्यमे पहले ही " तम्हा तहम णमाइ " इस गाथाको आदि लेकर पाठके क्रमसे ३३ पैतीस गाथाओ तक सामान्य ज्ञेय पदार्थका व्याख्यान है । उसके पीछे " दव्व जीवमजीवं " इत्त्यादि १९ उनीस गाथाओ तक विशेष ज्ञेय पदार्थका व्याख्यान है । उसके पीछे " रूपदेसेहि रुमग्गो लोगो " इत्यादि आठ गाथाओ तक सामान्य भेदकी भावना है फिर “अत्थित णिच्छिदस्त्र हि” इत्यादि ५१ इक्यावन गाथाओतक विशेष भेटकी भावना है । इस तरह इस दूसरे अधिकार मे समुदाय पातनिका है । अब यहां सामान्य ज्ञेयके व्याख्यानमे पहले ही नमस्कार गाथा है फिर द्रव्य गुण पर्यायकी व्याख्यान गाथा है । तीसरी स्वसमय परसमयको कहनेवाली गाथा है । चौथी द्रव्यकी सत्ता आदि तीन लक्षणको सूचना करनेवाली गाथा है - इस तरह पीठिका नाम के पहले स्थलमे स्वतंत्ररूप से गाथाए चार हैं। उसके पीछे " भावो हि सहावो " इत्यादि चार गाथाओ तक सत्ताके लक्षण के व्याख्यानकी मुख्यता है । फिर ' णभवो भंग दिठीण" इत्यादि तीन गाथाओतक उत्पाद व्यय श्रव्य लक्षणके Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड | [ ३ कथनकी मुख्यता है फिर " पाडव्भवदि य अण्णो " इत्यादि दो गाथाओ द्रव्यकी पर्यायके निरूपणकी मुख्यता है । फिर " 1 हवदि जदि सहवं" इत्यादि चार गाथाओमे सत्ता और द्रव्यका अभेद है इस सम्बन्धमे युक्तिको कहते है । फिर "जो खलु दन्त्रसहाओ" इत्यादि सत्ता और द्रव्यमे गुण गुणी सम्बन्ध है ऐसा कहते हुए पहली गाथा, द्रव्यके साथ गुण और पर्यायोका अभेद है इस मुख्यतामे " णत्थि गुणोति य कोई" इत्यादि दूसरी ऐसी दो स्वतंत्र गाथाए है | फिर द्रव्यका द्रव्यार्थिक नयसे सत्का उत्पाद होता है तथा पर्यायार्थिक नयसे असत्‌का उत्पाद होता है इत्यादि कथन करते हुए " एवं विहं " इत्यादि गाथाएं चार है । फिर " अतिथत्ति य" इत्यादि एक सूत्रसे सप्तभगीका व्याख्यान है। इस तरह समुदायसे चौनीस गाथाओंसे और आठ स्थलोसे द्रव्यका निर्णय करते है । आगे सम्यक्त्वको कहते है - गाथा- तम्हा तस्स णमाइ, किच्चा णिवपि तं मणो होज । वोच्छामि संगहादो; परमहविणिच्छनाधिगनं ॥ १ ॥ संस्कृत छाया तरमात्तस्य नमस्या, कृत्वा नित्यमपि तन्मना भूत्वा । पश्यामि सग्रहात् परमार्थविनिश्चयाधिगम ॥ १ ॥ सामान्पार्थ. - इसलिये उस सानुको नमस्कार करके तथा नित्य ही उनमें मन लगाकर संक्षेपसे परमार्थको निश्चय करानेवाले सम्यक्त भावको अथवा सम्यक्तके विश्यभूत पदार्थको कहूंगा । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 ] श्रीप्रवचनसारटीका | अन्वय सहित विशेषार्थः -- क्योकि सम्यग्दर्शन के विना साधु नही होता है (तम्हा) इस कारणसे ( तस्स) उस सम्यक्त सहित सम्यचारित्रसे युक्त पूर्व में कहे हुए साधुको (णमाई किच्चा ) नमस्कार करके ( णिचंपित मणो होज्ज) तथा नित्य ही उन साधुओमें मनको धारण करके (परमट्टविणिच्छयाधिगमं ) परमार्थ जो एक शुद्ध बुद्ध एक स्वभाव रूप परमात्मा उसको विशेष करके संशय आदिसे रहित निश्चय करानेवाले सम्यक्तको अर्थात् जिस सम्यक्तसे शका आदि आठ दोष रहित वास्तवमे जो अर्थका ज्ञान होता है उस सम्यक्तको अथवा अनेक धर्मरूप पदार्थ समूहका अधिगम जिससे होता है ऐसे कथनको (सगहादो) संक्षेपसे (वोच्छामि ) कहूगा । भावार्थ यहां पर श्री कुंदकुंदाचार्य देव पहले ज्ञानतत्त्व अधिकारको कहकर अब ज्ञेयतत्त्व अधिकारके कहनेकी प्रतिज्ञा करते है । सम्यक् दर्शन यथार्थ पदार्थोंके ज्ञान तथा श्रद्धानसे होता है इस लिये सम्यक्तके विषयभूत पढार्थोका कथन इस अधिकार मे किया जायगा । क्योकि जबतक स्वपर पढ़ार्थका भेद ज्ञान नही होता है तबतक सम्यग्दर्शनका लाभ नही हो सक्ता । सम्यक्तकी प्राप्तिका राजमार्ग अधिगम है । शास्त्र व गुरुके उपदेश द्वारा पदार्थोंका जब ग्रहण होकर उनका मनन किया जाता है तब देशनालब्धि होती है । इसी ही लब्धिके द्वारा कर्मोकी स्थिति घटती है । और प्रायोग्य लब्धि होकर सम्यक्त के लिये साक्षात् कारणरूप 1 परिणामोको प्रगट करनेवाली करणलब्धि होती है। जब लोकमे सत्ताको रखनेवाले द्रव्योके स्वभावका निश्चय किया जाता है तब सर्व द्रव्य भिन्नर भासने लगते है और तब ही अपना शुद्धात्मा भी Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। अपनेको भिन्न अलकता है। इस सम्यक्तके विपयभूत पदार्थमालिकाको कहने हुए आचार्यने उन साधुओको द्रव्यभावसे नमन करके जिन्होंने सम्यक सहित चारित्रका यथार्थ पालन किया है उन साधुओंके द्वारा प्राप्त धर्मोपदेशको चित्तमे धारण किया है । आचार्य उसी उपदेशमें तन्मई होकर संक्षेपसे जीवादि पदार्थीका व्याख्यान करने है । हम पाठकोको भी योग्य है कि हम अपने उपयोगको सब तरफसे सींचकर इसी ज्याग्यानके विचारमे तन्मय करें तब हमको भी यथार्थ बोध होगा और हमारे भीतर भी वही भाव झलकेगा जो श्री कुढकुंद गहाराजके अंतग्गमें उन सूत्रोंके व्याख्यानकालमें था। विना एकाग्र भावके ज्ञानका विकाश नहीं होता है ॥ १ ॥ उत्थानिका-आगे पदार्थके द्रव्य गुण पर्याय स्वरूपको कहते है:अत्यो पलु दव्यमओ, दन्याणि गुणप्पगाणि भणिदाणि । तेहिं पुणो पज्जाया, पज्जयमृदा हि परसमया ॥२॥ अर्थ: मा द्रव्यमयो अध्याणि गुणामकामि भणितानि । नु पुन पर्यायाः पर्ययदा हि परसगयाः ॥ २ ॥ सामान्यार्थ-निश्चयने पदार्थ द्रव्य स्वरूप है। द्रव्य गुण स्वरूप कहे गए है। उन द्रव्य व गुणोंके ही परिणमनसे पर्यायें होती है । जो पर्यायोमे मोही है चे ही निश्चयसे परसमय रूप अर्थात् मिथ्याटष्टि हैं। ___अन्वय सहित विशेपार्थ-(ग्वल) निश्रयसे (अत्थो) ज्ञानका विषयभूत पदार्थ ( द्रव्यमओ) द्रव्यमई होता है। क्योंकि वह पदार्थ तिर्यक् सामान्य तथा ऊर्द्धता सामान्यमई द्रव्यसे निप्पन्न होता है अर्थात् उसमें तिर्यक सामान्य और ऊर्द्धता. सामान्य Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीप्रवचनसारटीका। रूप द्रव्यका लक्षण पाया जाता है । इन दो प्रकारके सामान्यका खरूप ऐसा है। एक ही समयमें नाना व्यक्तियोमे पाया जानेवाला जो अन्वय उसको तिर्यक् सामान्य कहते है । यहां यह दृष्टांत है कि जैसे नाना प्रकार सिद्ध जीवोमें यह सिद्ध है, यह सिद्ध हैं ऐसा जोड़ रूप एक तरहके स्वभावको रखनेवाला सिद्धकी जातिका विश्वास है-इस एक जातिपनेको तिर्यक् सामान्य कहते है तथा भिन्न २ समयोमें एक ही व्यक्तिका एक तरहका ज्ञान होना सो अवंता सामान्य कहा जाता है । यहां यह इप्टात है कि जैसे जो कोई केवलज्ञानकी उत्पत्तिके समय मुक्तात्मा है दूसरे तीसरे आदि समयोमे भी वही है ऐसी प्रतीति होना सो उर्वता सामान्य है। अथवा दोनो सामान्यके दो दूसरे दृष्टात है-जैसे नाना गौके शरीरोमे यह गौ है, यह गौ है ऐसी गो जातिकी प्रतीति होना सो तिर्यग्सामान्य है । तथा जो कोई पुरुष वालकुमारादि अवस्थाओमें था सो ही यह देवदत्त है ऐसा विश्वास सो उर्ध्वता सामान्य है। (दव्याणि) द्रव्य सब (गुणप्पगाणि) गुणमई (भणिदाणि) कहे गए हैं । जो द्रव्यके साथ अन्वयरूप रहे अर्थात् उसके साथ साथ वते वे गुण होते हैं-ऐसा गुणका लक्षण है। जैसे सिद्ध जीव द्रव्य है सो अनन्तज्ञान सुख आदि विशेष गुणोसे तथा अगुरु लघुक आदि सामान्य गुणोंसे अभिन्न है- अर्थात् ये सामान्य विशेष गुण सिद्ध आत्माके साथ सदा पाए जाते हैं तैसे ही सर्व द्रव्य अपने२ सामान्य विशेष गुणोसे अभिन्न हैं इसलिये सब द्रव्य गुणरूप होते हैं। (पुणो) तथा (तेहि पजाया) उन्ही पूर्वमे कहे हुए लक्षण Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड । [७ स्वरूप द्रव्य व गुणोसे पर्याये होती है । जो एक दूसरेसे भिन्न अथवा क्रमक्रमसे हो उनको पर्याय कहते हैं यह पर्यायका लक्षण है। जैसे एक सिद्ध भगवानरूपी द्रव्यमे अंतिम शरीरसे कुछ कम आकारमयी गति मार्गणासे विलक्षण सिद्धगति रूप पर्याय है तथा अगुरुलघु गुणमे षट्गुणी वृद्धि तथा हानिरूप साधारण स्वाभाविक गुण पर्यायें है तेसे सर्व द्रव्योमे स्वाभाविक द्रव्य पर्यायें, स्वजातीय विभाव द्रव्य पर्याय तेसे ही खाभाविक और वैभाविक गुण पर्यायें होती हैं। "जेसि अस्थिरहाओ" इत्यादि गाथामे तथा “भावा जीवादीया " इत्यादि गाथामे श्री पचास्तिकायके भीतर पहले कथन किया गया है सो वहांसे यथासभव जान लेना योग्य है। (पञ्जय मूढा ) जो इस प्रकार द्रव्य गुण पर्यायके जानसे मूढ है अथवा मै नारकी आदि पर्यायरूप नही हू इस भेदविज्ञानको न समझकर अज्ञानी हैं वे (हि) वास्तवमे (परसमया ) परात्मवादी मिथ्यादृष्टी है । इसलिये यही जिनेन्द्र परमेश्वरकी करी हुई समीचीन द्रव्यगुण पर्यायकी व्याख्या कल्याणकारी है यह अभिप्राय है||२|| भावार्थ-ज्ञानके विषयभूत पदार्थ होते है । पदार्थ निश्चयसे द्रव्यरूप होते है । द्रव्यमे सामान्यपना होता है । कालकी अपेक्षा हरएक भिन्नर समयमे भी यह वही है ऐसी प्रतीतिको कराता है इसको उता सामान्य कहते है। यही द्रव्यका स्वभाव द्रव्यकी नित्यताका बतानेवाला है। तथा जो द्रव्य अनेक हैं जैसे जीव, पुद्गल और कालाणु उनमें हरएक समयमे सबको एक जाति रूपसे प्रतीति करानेवाला तिर्यक् सामान्य है। जितने जीव हैं उन सवको हम जातिकी अपेक्षा एक समझेंगे क्योकि जीवपना उन Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८] श्रीप्रवचनसारटीका । सवोमें हरएक समयमें पाया जाता है। जो द्रव्य जगतमें एक एक ही हैं जैसे धर्म, अधर्म और आकाश इनमे अर्ध्वता सामान्यपना तो सहजमे समझमे आता है क्योंकि साभाविक परिणमन हरममय होते हुए भी धर्म, अधर्म या आकागका वोध बना रहता है। तिर्यक सामान्यपना सिद्ध करनेके लिये यदि हम इनके प्रदेशोंकी कल्पना करके विचार करें और एक एक प्रदेशको एक एक व्यक्ति मान लें तो एक ही समयमे सर्व प्रदेशोमें यह धर्म, अधर्म या आकाश ही है ऐसी प्रतीति हो जायगी क्योकि जितने गुण एक प्रदेशमे है उतने ही सर्व प्रदेशोमे है। द्रव्य गुणमई होते है इसका भाव यह है कि द्रव्य एक प्रदेशी या बहु प्रदेशी जितने बड़े आकागके प्रदेशोकी अपेक्षासे होते हैं उतना बडा उनका आकार होता है । जिस वस्तुकी सत्ता इस जगतमे मानी जायगी उस वस्तुका कोई न कोई आकार अवश्य होगा। जितने आकाशमे जो वस्तु पाई जाती है उतना ही उस वस्तुका आकार है। एक परमाणु छुटी हुई अवस्थामें बहु प्रदेशी होनेकी शक्ति को रखते हुए भी तथा एक कालगणु सदा ही एक प्रदेशी रहनेके कारणसे एक प्रदेशी द्रव्य हैं जब कि हरएक जीव हरएक पुद्गलका स्कध, धर्मद्रव्य, अधर्म द्रव्य तथा आकाश द्रव्य बहु प्रदेशी हैं। जितना बड़ा जो द्रव्य है उतनेमें उस द्रव्यके सर्वसामान्य और विशेष गुण व्यापक होते है। जहां एक गुण है वही सर्व गुण हैं । जैसे एक जीव असख्यात प्रदेशी है उसके हरएक प्रदेशमे हरएक सामान्य और विशेष गुण व्यापक है इसी ' लिये द्रव्यको गुणोका अखंड पिड या समुदाय कहते हैं। अस्तित्व, Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. द्वितीय खंड | [ वस्तुत्व, द्रव्यत्व, अगुरुलघुत्व, प्रदेशत्व तथा प्रमेयत्व ये सामान्य गुण हैं जो सर्व द्रव्योमें साधारणतासे पाए जाते है। विशेष गुण वे हैं जो हर एक द्रव्यमे भिन्न होते हैं । जीवके विशेष गुण पुद्गलमें नही, पुद्गल विशेष गुण जीवमे नही । जीवके विशेष गुण चेतना, सुख, वीर्य्य, सम्यक्त, चारित्र हैं, पुद्गलके विशेष गुण स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण हैं, धर्मका विशेष गुण जीव पुद्गलको गति हेतुपना, अधर्मका स्थिति हेतुपना, आकाशका सबको अवगाह हेतुपना तथा काल द्रव्यका सबको वर्तना हेतुपना विशेष गुण हैं । यद्यपि द्रव्यमे अनंतगुण होते हैं परंतु ग्रन्थकारोने थोडेसे ही गुण वर्णन किये है जिनसे हरएक द्रव्य भिन्न २ करके पहचाना जा सके । जब द्रव्योकी पहचान होजाती है और उनका र्ता होने लगता है तब अन्य भी शक्तियां या गुण अनुभवमें आने लगते है । एक द्रव्यके सब गुण सब गुणोमे परस्पर व्यापक होते है । जीव जहां चेतना है वही अन्य सर्व गुण हैं । जो 1 द्रव्य अनेक है जैसे पुद्गल, जीव और कालाणु वे सदा अनेक रूप रहते हैं - कभी भी मिलकर एक रूप नही होजाते हैं । पुद्गलके परमाणुओमे इतनी विलक्षणता है कि वे अलग भी रहते है तथा परस्पर स्निग्ध रूक्ष गुणके कारणसे मिल भी जाते है और तब वे स्कंध कहलाते है | ऐसे स्कधोसे परमाणु छूटते भी रहते हैं और I उनमे मिलते भी रहते है । ऐसा मिलना और विछुडना जीवोंमें तथा कालाणुओमे कभी न था, न है, न होगा । सर्व जीव सदासे 1 जुदे जुदे हैं व रहेंगे-ऐसे ही सर्व कालाणु सदासे जुदे २ हैं व रहेंगे । पुद्गलका हरएक परमाणु अपने गुणोकी समानताकी अपेक्षा Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] श्रीप्रवचनसारटीका। दूसरे परमाणुसे, हरएक जीव दूसरे जीवसे व हरएक कालाणु हरएक कालाणुसे सदृश है । इसीलिये जहां शुद्ध द्रव्य स्वभावकी अपेक्षासे देखकर कहा गया है वहाँ "सब्बे जीया सुद्धा" अर्थात सर्व जीव शुद्ध हैं ऐसा कहा गया है क्योंकि भिन्नर होनेपर भी स्वभाव एकका दूसरेके बराबर है। द्रव्य तथा गुणोंमे परिणमन सदा हुआ करता है क्योकि द्रव्यत्व नामका सामान्य गुण सब द्रव्योंमें व्यापक है जिसके कारण कोई द्रव्य तथा उसके गुण कूटस्थ नित्य नही रह सक्ते किन्तु उनमे सदा पर्यायें या अवस्थाएं होती रहती है। पर्यायें एक दूसरेके पीछे नवीन २ होती रहती हैं। उनके दो भेद हैं-व्यंजन पर्याय या द्रव्यपर्याय, दूसरी अर्थपर्याय या गुणपर्याय । द्रव्यके प्रदेशोंमे परिणमनको अर्थात् आकार परिवर्तनको व्यंजन या द्रव्य पर्याय तथा अन्य गुणोमे परिणमनको अर्थ या गुणपर्याय कहते है। इन दोके भी दो दो भेद हैं-स्वभाव द्रव्य या व्यजन पर्याय । और विभाव द्रव्य या व्यंजन पर्याय तथा स्वभाव अर्थ पर्याय और विभाव अर्थ पर्याय । स्वभाव पर्यायें हरएक द्रव्यमे अपने स्वभावसे हुआ करती है। विभाव पर्याय अशुद्ध जीव और पुद्गलमे ही होती है। धर्म, अधर्म, आकाश, काल, सिद्ध आत्मा, तथा शुद्ध अवध परमाणुका जो आकार है वह स्वभाव व्यजन या द्रव्य पर्याय है। इनके आकारका प्रति समय एकसा रहना अन्य रूप न होजाना यही सहश परिणमन स्वभाव पर्याय है। ससारी जीवका नामकर्मके उदयके कारणसे नर, नारक, देव, तिर्यंच चार गतियोमे भ्रमण करते हुए नाना प्रकार अपने आकारका शरीरके प्रमाण बदलना सो Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड | [ १९ विभाव द्रव्य या व्यजन पर्याय है । तथा पुद्गल के स्कंधोका परमाओके मिलने या विछुडनेसे आकारका बदलना सो विभाव व्यंजन या द्रव्यपर्याय है । स्वभाव अर्थ या गुणपर्याय अगुरुलघु गुणके द्वारा सब शुद्ध द्रव्यो सब गुणोमे होती है-इस स्वभाव परिणमनमे भी गुणोका सपना रहता है। जैसे सिद्ध आत्मामे जो अनन्त ज्ञान दर्शन वीर्य आदि है वे हरएक समय उतने ही बने रहते, कम व बढती नहीं होते । यदि कम व बढती होजावें तो उस परिणमनको विभाव परिणमन कहेंगे, स्वभाव परिणमन नही कह सक्ते हैं। गुणोंके एक समान रहनेपर भी परिणमन इसीलिये मानना होगा कि वस्तुका स्वभाव द्रवण या परिणमन रूप है । हम अल्पज्ञानि - योको इस परिणमनका अनुभव अशुद्ध पुद्गल तथा जीवोमे प्रत्यक्ष दीखता है । कपडा रक्खा रक्खा जीर्ण हो जाता है । ज्ञान अनुभव होते होते बढता जाता है । यदि परिणमन शक्ति गुण या द्रव्यमे न होती तो अशुद्ध द्रव्योमे भी परिणमन न होता - जब होता है तब वह शक्ति शुद्ध द्रव्योंमे भी काम करती रहेगी। इसी अनुमानसे हम स्वभाव अर्थ या गुणपर्यायोका अनुमान कर सक्ते है । विभाव अर्थ या गुणपर्यायें ससारी जीन तथा स्कधोमे होती है जैसे जीवके मतिज्ञान, श्रुतज्ञानादि व असयम या सयमके स्थानोका परिणमन तथा कधोमे रससे अन्य रस, गघसे अन्य गध, वर्णसे अन्य वर्ण, जैसे खट्टे आमका मीठा हो जाना । यहापर एक बात और जाननेकी है कि यद्यपि शुद्ध परमाणु जवन्य स्निग्धता रूक्षताकी अपेक्षासे अवध है परन्तु उसमें परिणमन होता रहता है। जिससे कालातरमे जब उसमें अधिक अश स्निग्धता या रूक्षता के Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] श्रीप्रवचनसारटीका । होते तब वह परमाणु बंध योग्य होजाता है । यह बात आत्माके स्वभावमें नहीं होती है क्योकि आत्माके बंध रागद्वेप भोहके कारणसे होता है सो भाव शुद्धात्मा के विना मोहनीय कर्मके सम्बन्धके कभी सभव नही है । जो कोई इन द्रव्यगुण पर्यायोको नहीं समझते अथवा जो नर नारकादि अशुद्ध पर्यायोमे आशक्त हैअपनेको नर नारकादि रूप ही मानकर वेठा किया करते हैनिरंतर उस शरीरके योग्य क्रियाओमे ही रत रहते है और अपने शुद्ध आत्माके स्वभावको नहीं पहचानते हैं वे ही परसमयरूप मिथ्यादृष्टी बहिरात्मा हैं । तात्पर्य आचार्यका यही है कि इस परसमयपने से इस जीवने अपने आपको ससारमे पराधीन रखकर दुःख उठाया है । इसलिये सुखके अर्थी प्राणीको उचित है कि वह भेद विज्ञानके द्वारा अपने आत्माको जैसा उसका स्वभाव है वैसा जाने, माने और वैसा श्रद्धान करे, अपना मृढपना, मेटकर चतुर यथार्थ ज्ञानी बने । यही कल्याणका मार्ग है । जो देहमे आसक्त हैं वे ही पुनः पुनः देहको धारण करते है, जैसा स्वामी पूज्यपादने समाधिशतकमें कहा है ――― देहान्तरगतेनज देहेऽस्मिन्नात्मभावना | बीज विदेहनिष्पत्तेरात्मन्येवात्मभावना ॥ ७४ ॥ अर्थात् - शरीरमे आत्माकी भावना ही अन्य देह प्राप्तिका बीज है जब कि आत्मामे ही आत्माकी भावना करनी देहसे रहित होनेका बीज है । जब भेदविज्ञान होजाता है तब अपने खभावको सिद्ध • परमात्माके समान अनुभव करता है जैसा समाधिशतकमे कहा है Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड | य परात्मा स एवाह योऽर स परमनन. । अहमेव मयोपाध्यां नान्य: कश्चिदिनि स्थिति ॥ ३१ ॥ अर्थात् - जो परमात्मा है सो ही मैं हूं, जो मै हू सो ही परमात्मा है इसलिये मेरेद्वारा में ही उपासनाके योग्य हूं अन्य नही ऐसा वस्तुका खभाव है । तात्पर्य यह है कि निज स्वभावको जानकर सम्यग्दष्टि होना चाहिये । यही हितका मार्ग है ॥ २ ॥ उत्थानका- आगे यहा प्रसग पाकर परसमय और स्वसमयकी व्यवस्था बताते है - [ १३ जे पज्जयेसु गिरदा जीवा परसमयिगत्ति णिद्दिट्टा | आदसावम्मि विदा ते सगसमया मुणेदव्वा ॥ ३ ॥ ये पर्याये निरता जीवा परसमयिका इति निर्दिष्टा । आत्मस्वभावे स्थितास्ते स्वकममना म तव्या ॥ ३ ॥ सामान्यार्थ - जो जीव शरीर आदि अशुद्ध कर्मजनित अवस्थाओमे लवलीन है वे परसमय रूप कहे गए है तथा जो जीव अपने शुद्ध आत्माके स्वभावमे ठहरे हुए हैं वे स्वस्मयरूप जानने चाहिये । अन्वय सहित विशेषार्थ - ( जे जीवा ) जो जीव (पज्जयेसु णिरदा) पर्यायोमे लवलीन है । अर्थात् जो अज्ञानी जीव अहकार तथा ममकार सहित है वे ( परसमयिगत्ति णिद्दिट्टा ) परसमयरूप कहे गए हैं। विस्तार यह है कि मैं मनुष्य, पशु, देव, नारकी इत्यादि पर्याय रूप हू इस भावको अहंकार कहते है व यह मनुष्य आदि शरीर तथा उस शरीर के आधारसे उत्पन्न पचेद्रियो के विषय I Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४] श्रीप्रवचनसारटीका। रूप सुख मेरे हैं इस भावको ममकार कहते हैं। जो अज्ञानी ममकार और अहंकारसे रहित परम चैतन्य चमत्कारकी परिणतिसे छुटे हुए इन अहंकार ममकार भाबोसे परिणमन करते हैं वे जीव कर्मोके उदयसे उत्पन्न परपर्यायमे लीन होनेके कारणसे परसमय रूप मिथ्यादृष्टि कहे जाते हैं। (आदसहावम्मि ठिदा) जो ज्ञानी अपने आत्माके खभावमें ठहरे होते है (ते सगसमया सुणेदव्वा ) वे स्वसमयरूप जानने चाहिये । विस्तार यह है कि जैसे एक रत्न दीपक अनेक प्रकारके घरोमे घुमाए जानेपर भी एक रत्न रूप ही है इसी तरह अनेक शरीरोमें घूमते रहने पर भी मै एक वही शुद्ध आत्मद्रव्य हूं, इस तरह दृढ सरकारके द्वारा जो अपने शुद्धात्मामें ठहरते है वे कर्मोके उदयसे होनेवाली पर्यायमे परिणति न करते हुए अर्थात् कर्मोदय जनित पर्यायको अपनेसे भिन्न जानते हुए स्वसमयरूप होते है ऐसा अर्थ है । ॥ ३ ॥ भावाथ-इस गाथामे आचार्यने मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टीकी अपेक्षासे स्वसमय तथा परसमयका विचार किया है । जो जीव अपने आत्मस्वरूपको भूले हुए परमे आत्मबुद्धि करके जिस शरीरमें आप बसते हैं उम शरीररूप ही अपनेको मानते हैं और उस शरीरसे प्राप्त इन्द्रियोके विषयोके आधीन होकर उन हीके पोषणके लिने इष्ट मा के सचय करने व अनिष्ट सामग्रीसे बचे रहने में उद्यमी रहते हैं तथा इष्टके सयोगमे हर्पित और इष्टके वियोगमें शोकित होते हैं, धनादि स्वार्थक साधनेके निमित्त अन्याय व पर पीडाकारी कार्य करनेमे कुछ भी ग्लानि नही समझते है; जो स्त्री, Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड । [ १५ पुत्र, मित्र, गो, महिषादि चेतन पढार्थोंको तथा क्षेत्र, मकान, चादी, सोना आदि अचेतन पदार्थोंको अपना मानकर उनके लिये अति लालायित रहते हैं: ससार, शरीर, भोगोमें आशक्तवान होकर वैराग्य के कारणोंसे दूर भागते हैं वे इंद्रियोके सुखोंके लोलुपी पर समयरूप मिथ्यादृष्टी जानने । इसके विरुद्ध जो अपना अहकार और ममकार पर पदार्थोंसे हटाकर नित्य ही निज आत्माके स्वरूपके ज्ञाता होकर उस आत्माको स्वभावसे शुद्ध, ज्ञाता, दृष्टा, आनन्दमई, अमूर्तीक, अविनाशी सिद्ध भगवान के समान जानते हैं, अनेक घरोके समान अनेक पर्यायो अपने आत्माने भ्रमण किया है तौ भी वह स्वभावसे छुटा नही है ऐसा निश्चय रखते है, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, रागद्वेषादि भावकर्म तथा शरीरादि- नोकर्म ये सब ही मेरे शुद्ध आत्मस्वभावसे भिन्न है व मैं अपने स्वभावोका ही कर्ता तथा भोक्ता हूं, पर भावोका व पर पदार्थोंकी अवस्थाओंका न कर्ता हूं न भोक्ता हू ऐसा जो वास्तवमे तत्त्वको जानते है और अपने आत्मस्वभावके मननसे उत्पन्न होनेवाले अतीन्द्रिय आनन्दके रुचिवत होगए है, निनको यह जगत् कर्मका जाल स्वरूप व पाप पुण्य कर्मोके द्वारा परिणमन करता हुआ एक क्रीडा- घरके समान दिखता है, जो स्त्री, पुत्र, मित्रादिके सयोगको एक नौका पर कुछ कालके लिये एकत्रित पथिको सयोगके समान जानते है उनके मोहमें अज्ञानी होकर उनके लिये अन्याय व पर पीडाकारी कार्य नही करते हैं, जो गृहमें रहते हुए भी गृहकी पाशीमे नही फसते हैं, जो स्वतंत्रताको उपादेय जानते है और कर्मकी पराधीनतासे मुक्त होना चाहते हैं Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीप्रवचनसारटीका। वे निज आत्मस्वभावमे आपा माननेवाले सम्यग्डप्टी स्वसमय रूप हैं। समयसारजीमे भी श्री कुंदकुंद महाराजने यही आशय सूचित किया है जीवो चरित्तदसणणाणष्ठिर त हि ससमय जाणे । पुग्गल म्मुवदे सहद च त जाग परसमय ॥ २ ॥ भावार्थ-जो जीव सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रमे तिष्ठनेवाला है उसे स्वसमय रूप जानो तथा पुद्गल कर्मके उदयसे होनेवाली अनेक अवस्थाओको लिये हुए नामोमे जो जीव तिष्ठता है उसे परसमयरूप जानो। श्री देवसेनाचार्यने श्री तत्वसारमे कहा है - देहमुहे पडिबद्धो जे णय सो तेण लहइ गहु सुद्ध । तच्च वियारर हेय णिच्च चिय आयमाणो हु ॥ ४७ ॥ मुक्खो विणासरुवो चेयणपरिवजिओ सयादेहो । तस्स ममत्ति कुणतो बहिरपा होइ को जीवो ॥ ४८ ॥ भावार्थ-जो शरीरके सुखोमे उलझा हुआ होता है वह चित्तमें ध्यान करता हुआ भी नित्य, शुद्ध, निर्विकल्प आत्मतत्वको नहीं प्राप्त करता है, यह शरीर सदा ही अज्ञानी, विनाशरूप, व अचेतन है। जो जीव इससे ममत्व करते हैं वे वहिरात्मा मिथ्यावष्टि है। सम्यग्दृष्टी अपने आपको कैसा समझता है इस विषयमे बल्लाणालोयणामे श्री अजित ब्रह्मचारीने इस तरह लिखा है Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड | [ १७ ret सहावसिद्धो सोह अना विपरिक्को । अण्णो ण मज्झ सरण सरगं सो एक्क परमाना || ३५ ॥ अरस अरुव अगधो अग्वावाही अणतणाणमओ । अणो ण मज्झ सरण सरण सो एकक परमप्पा ॥ ३६ ॥ नागाउ जो ण भिष्णो विभिष्णो सहावसुक्खमओ । अण्णो ण मज्झ सरण सरण सो एक्क परमया ॥ ४३ ॥ सुहअभाव वेगओ सुद्धसहावेण तम्मय पत्तो । अण्णो ण मज्झ सरण सरण सो एक्क परमना ॥ ४५ ॥ भावार्थ - मै एक स्वभावसे सिद्ध रूप, विकल्प रहित आत्मा हू, रस, रूप, गंध, स्पर्शसे रहित, अव्यावाध तथा अनतज्ञानमई हू, मै अपने ज्ञानादि गुणोसे भिन्न नहीं है किंतु अन्य विकल्पोसे भिन्न हूं तथा स्वभावमे ही आनदमई हू मै शुभ अशुभ भावोसे दूर हू, तथा शुद्ध स्वभावसे तन्मय हू । वही शुद्ध व परम आत्मा मेरे लिये शरण है, अन्य कोई शरण नहीं है । वास्तवमे खसमय ही संतोषप्रद है ऐसा जानकर इसी भावका ग्रहण कार्यकारी समझना चाहिये || ३ ॥ । उत्थानिमा- आगे द्रव्यका लक्षण सत्ता आदि तीनरूप है ऐसा सूचित करते है - अपरिच्चत्तसहावेणुप्पादव्वयधुवत्तसंवद्ध । गुणवं च सपजाय, जत्त दव्यत्ति बुच्चति ॥४॥ अपरित्यक्तत्वभावेनोत्पादव्ययवत्वसबद्धम् । गुणवच्च सपर्याय यत्तद्द्रव्यमिति ब्रुवति ॥ ४ ॥ सामान्यार्थ - जो नहीं छोडेहुए अपने अस्तित्व रवभावसे Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ ] श्रीप्रवचनसारटीका। उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्य संयुक्त है और गुणरूप व पयाय सहित है उसको द्रव्य ऐसा कहते है। अन्वय सहित विशेपार्थ-(जत् ) जो (अपरिचत्तसहावेण) नहीं त्यागे हुए खभाव रूपसे रहता है अर्थात् अपने अस्तित्व या सत् स्वभावसे भिन्न नहीं है, (उप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्तं ) उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य सहित है । (गुणवं च सपनाय) गुणवान होकर पर्याय सहित है इस तरह सत्ता आदि तीन लक्षणोको रखनेवाला है (तं ढव्वत्ति) उसको द्रव्य ऐसा (बुञ्चति) सर्वज्ञ भगवान कहते हैं। यह द्रव्य उत्पाद व्यय ध्रौव्य तथा गुण पर्यायोके साथ लभ्य और लक्षणकी अपेक्षा भेद रूप होने पर भी सत्ताके भेदको नहीं रखता है। जिसका लक्षण या स्वरूप कहा जाय वह लक्ष्य है। और जो उसका विशेष स्वरूप है वह लक्षण है । तब यह द्रव्य क्या करता है ? अपने स्वरूपसे ही उस विधपनेको आलंबन करता है। इसका भाव यह है कि यह द्रव्य उत्पाद व्यय ध्रौव्य स्वरूप तथा गुणपर्याय रूप परिणमन करता है, शुद्धात्माकी तरह, जैसे केवलज्ञानकी उत्पत्तिके समयमे शुद्ध आत्माके खरूप ज्ञानमई निश्चल अनुभवरूप कारण समयसार रूप पर्यायका विनाश होने शुद्धात्माका लाभ या उसकी प्रगटता रूप कार्य समयसारका उत्पाद, या जन्म होता है, कारण समयसारका व्यय या नाश होता है और इन दोनो पर्यायोके आधार रूप परमात्म द्रव्यकी अपेक्षाले ध्रुवपना या स्थिरपना रहता है । तथा उस परमात्माके अनत ज्ञानादि गुण होते हैं । गति मार्गणासे विपरीत सिद्ध गति व इन्द्रिय मार्गणासे विपरीत अतीद्रियपना आदि लक्षणको रखनेवाली शुद्ध पर्यायें Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [१९ होती हैं अर्थात वह परमात्म द्रव्य जैसे अपनी शुद्ध 'सत्तासे भिन्न नहीं है एक है, पूर्वमे कहे हुए उत्पाद व्यय ध्रौव्य स्वभावोसे तथा गुण पर्यायोसे संज्ञा लक्षण प्रयोजन आदिकी अपेआसे भेद रूप होनेपर भी उनके साथ सत्ता आदिके भेदको नहीं रखता है, स्वरूपसे ही उसी प्रकारपनेको धारण करता है अर्थात उत्पाद व्यय ध्रौव्य रूप तथा गुणपर्याय म्वरूप रूप परिणमन करता है तेसे ही सर्व द्रव्य अपने अपने यथायोग्य उत्पाद व्यय ध्रौव्य'पनेसे तथा गुण पर्यायोके साथ यद्यपि संना लक्षण प्रयोजन आदिकी अपेक्षा भेट रखते हैं तथापि सत्ता खरूपसे भेद नहीं रखते हैं, खभावसे ही उन प्रकार रूपपनेको आलम्बन करते है, अर्थात् उत्पाद व्यय प्रौव्य खरूप या गुणपर्याय स्वरूप परिणमन करते हैं। ___अथवा जैसे वस्त्र जब स्वच्छ किया जाता है तब अपनी निर्मल पर्यायमे पैदा होता है, मलीन पर्यायसे नष्ट होता है और इन दोनोके आधार रूप वस्त्र स्वभावमे ध्रुव या अविनाशी है तैसे ही अपने ही श्वेतादिगुण तथा मलीन यथा म्यच्छ पर्यायोंके साथ मंज्ञा आदिकी अपेक्षा भेट होनेपर भी सत्ता रूपमे भेद नहीं रखता है, तब क्या करता है? स्वरूपसे ही उत्पाद आदि रूपसे परिणमन करता है तसे ही सर्व द्रव्य परिणमन करते है यह अभिप्राय है । भावार्थ----इस गाथामें आचार्यने द्रव्यके तीन लक्षण बताए है । सतरूप, उत्पाट व्यय ध्रौव्यरूप और गुणपर्याय रूप । अमेढकी अपेक्षा द्रव्य जैसे अपने सत स्वभावसे एक है वैसे वह उत्पाद व्यय ध्रौव्य या'गुण पर्यायोसे एक है । भेदकी अपेक्षा वह जैसे सत्रनेको रखता है वैसे वह उत्पादादिको रखता है। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०] श्रोप्रवचनसारटीका । जिस स्वरूपसे कोई पदार्थ अन्य पदार्थोंसे भिन्न करके जाना जा जासके उसको लक्षण कहते है और जिसको पृथक् करके जाना जावे वह लक्ष्य होता है । यहां द्रव्यका असली स्वरूप समझाना है उसीके लिये पहले तो एक यही लक्षण कहा है कि जो सत है वह द्रव्य है अर्थात् जो अपने अस्तित्वको सदा रखता है वह द्रव्य है इस लक्षणसे यह बताया है कि हरएक द्रव्य अपने अस्तित्व या होनेपनेको या मौजूदगीको रखनेवाला है इसकारण सदासे है व सदा चला जायगा । न कभी पैदा हुआ था और न कभी नाश होगा । यह सत्पना द्रव्यमे नहीं होता तो हम किसी जीवको बालक अवस्थासे वृद्ध अवस्था तक व उसी जीवको नर नारकादि पर्यायोमे घूमता हुआ व शुद्ध होनेका यत्न करके शुद्ध था मुक्त होकर शुद्ध अवस्थामे सदा रहता हुआ नहीं जान सक्ते। मट्टीको पिड, घड़ा, कपाल, खड, ठिकरे व चूर्ण अवन्थामे हम सदा पाते है । इस जगतमे कोई पदार्थ अकस्मात न पैदा होता है न बिलकुल विना किसी अवस्थाको उत्पन्न किये हुए नष्ट होता है जितनी भी अवस्थाए वह धारण करे उन सबमे उसकी सत्ता बनी रहती है । एक सुवर्णकी डलीको लेकर हम उसकी बालियां बनावें, बालियोको तोड़कर अंगूठिये बनावें, अगूठिगेको तोड़कर कंठी बनाने, कंठीको तोड़कर भुजवध वनावे-चाहे जितनी सूरतोंमें बदलें वह सुवर्ण अपने अस्तित्वको कभी त्याग नहीं सक्ता, यह एक दृष्टांत है इसी तरह जो जो द्रव्य जगतमे अपनी सत्ताको रखता है वह सदा ही बना रहता है । जगतमें जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल, आकाश ये छः द्रव्य है । ये सव सदासे है व सदा ही Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A द्वितीय खंड । [ २१ रहेगे | इनमे सत्ता लक्षण प्राप्त हैं इसीसे ये द्रव्य है । हमारा जीव जो इस पर्यायमें इस शरीरमे है वह इस शरीर में आने के पहले भी किसी न किसी अवस्थामे था तथा इस शरीरको छोड देने पर किसीन किसी अवस्थामें रहेगा । यही जीवका सपना है । यही वस्तुका स्वभाव है । ऐसा सत् स्वरूप जीव है ऐसा समझने से ही परलोक या पुनर्जन्मकी सिद्धि होती है । यदि जीव अकस्मात् पैदा होता होता तो हम एक मट्टीके पुरुषमें जीव पैदा कर देते परन्तु जगत में कोई पदार्थ नवीन नहीं पैदा होता है । सत्रका अस्तित्व सदासे है । हम एक नदीके मध्यमें कुछ पृथ्वी बनी हुईं पाते है, दो वर्ष पहले वहापर वह पृथ्वी नही थी । विचार किया जायगा तो वह पृथ्वी अकस्मात् नहीं बन गई है किन्तु नदीके पानी के साथ कहींकी मिट्टी बहकर आई है सो यहां जमती गई है। जब अधिक टकट्टी होगई तब एक पृथ्वी रूपमें दिखने लगी । कोई कोई ऐसा कहते है कि कभी इस जगतमें कुछ भी न था, एक कोई ईश्वर अमूर्तीक था फिर उसीसे सर्व होगया और यह सर्व कभी नाश होकर ईश्वरमय हो जायगा । ऐसा माननेवालोने भी अकस्मात् जगतको नही माना है । किंतु जगतको सत् रूप ही कहा है। केवल यह अपना मत प्रगट किया है कि एक ईश्वरकी एक अवस्थाविशेष यह जगत है, कभी उसमें से प्रगट हो जाता है तथा कभी उसमें लय हो जाता है। अब यह शका अवश्य खड़ी हो जाती है कि क्या वास्तवमें एक ईश्वर ही द्रव्य है या जैन मतमे माने हुए अलग २ जीवादि छः द्रव्य है ? इस प्रश्नपर गंभीरतासे विचार किया जायगा तो यह प्रगट होगा कि जगतमे जो कोई अवस्था होती है वह मूल Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२] श्रीप्रवचनसारटीका । द्रव्यके सदृश होती है । जब ईश्वर एक अखण्ड अमूर्तीक है तब उसके खंड नही होसक्ते । जब खंड नहीं होसक्ते तब पृथक् २ जीव या परमाणु या स्कंध जो जगतमें प्रगट हैं वे नहीं बन सक्ते। यदि अखंड ईश्वरके खंड होना भी मानले तो उस अखडके खंड भी उसी तरहके होगे । जैसे शुद्ध चांदीके खण्ड भी शुद्ध ही होते हैं ऐसी दशामें शुद्ध ज्ञानमय अमूर्तीक ईश्वरके सब ही खंड शुद्ध ज्ञानमय अमूर्तीक होगे । यदि ऐसा होता तो जगतमे कोई भी जीव अशुद्ध रागी द्वेषी या अज्ञानी नहीं मिल सका । तथा अमूर्तीकसे मूर्तीक जडका बनना तो विलकुल असंभव है और जगतमे हम जड़ अचेतनको प्रत्यक्ष देखरहे हैं। हमारा शरीर ही जिन परमाणुओसे बना है वे जड़ अचेतन है। जगतमे यह भी नियम है कि जो नष्ट होता है उसमे भी पहलेके ही गुण रहते हैं-एक मिट्टीके घडेको फोडकर चूराचूरा करने पर भी मिट्टीका ही स्वभाव बना रहता है । इससे प्रत्यक्ष प्रगट जड़ व जीव सब एक समय ईश्वरमय अमूर्तीक चेतन हो जायगे यह बात असंभव है। यदि ईश्वर रूप जगत होता तो जैसे ईश्वर आनन्दमय है वैसे यह जगत भी आनन्दमय होता-कहीं पर भी दुःख, क्लेश या शोकका कारण न बनता। इस तरह विचार करनेसे एक ही ईश्वरकी अनादि सत्ता सिद्ध नहीं होती किन्तु सर्व ही जीव व सर्व ही परमाणु व अन्य आकाशादि ये सर्व ही द्रव्य सत्रूप हैं, सदासे है व सदा ही रहेंगे, यही बात समझमे आती है। इसी सत् लक्षणको विशेष स्पष्ट करनेके लिये आचार्यने दूसरा लक्षणबताया है कि द्रव्यमे सदा उत्पाद व्यय ध्रौव्यपना होता है। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [२३ किसी अवस्थाकी उत्पत्तिको उत्पाद वकिसी अवस्थाके नाशको व्यय तथा जिसमे ये अवस्थाए नाग या उत्पन्न हुई उसका सदा बना रहना सो ध्रौव्य है। ये तीन स्वभाव हरएक द्रव्यमे सदा पाए जाते है। ये तीन स्वभाव ही द्रव्यकी सत्ताको सिद्ध करते है। इसका दृष्टात यह है कि हमारे हाथमे एकसुवर्णकी मुद्रिका है। जब हम उसको तोडकर बालिया बनाते तब मुद्रिकाकी अवस्थाका नाश या व्यय होता है व वालियोकी अवस्थाका उत्पाद या जन्म होता है परंतु दोनो ही अवस्थामे वह सुवर्ण ही रहा है। गेहूके दानोको जव चक्कीमें पीसा जाता है तब वहा तीनो ही स्वभाव एक समयमे झलकते है। जब गेहूंका दाना मिटता तब ही उसका चूर्ण आटा बनता तथा जो परमाणु गेहके दानेमे थे वे ही परमाणु आटेमे हैं इस तरह उत्पाद व्यय ध्रौव्य एक समयमे सिद्ध होगया । एक आदमी सोया पड़ा था जब जागा तब उसकी निद्रा अवस्थाका नाश हुआ, जागृत अवस्थाका उत्पाद हुआ तथा मनुष्यपना बना रहा । यही उत्पाद व्यय ध्रौव्य है । एक मनुष्य शातिसे बैठा था किसी स्त्रीको देखकर रागी होगया। जिस समय रागी हुआ उसकी राग अवस्थाका उत्पाद हुआ, शांतिकी अवस्थाका व्यय हुआ, मनुप्यका जीवनपना ध्रौव्य है। इन तीन खभावोसे हरएक वस्तु परिणमन करती है। यही परिणमन सत्ताका द्योतक है । जब हम किसी वृद्ध मनुष्यको देखते हम उसकी इस अवस्थाको देखकर यही समझते है कि यह वही मनुष्य है जो २० वर्ष पहले युवान था। द्रव्य उसे कहते है जो द्रवणशील हो अर्थात् जो कूटस्थ नित्य न रहकर सटा परिणमन करता रहे। द्रव्यमे द्रव्यत्त्व नामका सामान्य गुण इसी भावका द्योतक है। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ] श्रीप्रवचनसारटीका। द्रव्यमें एक वस्तुत्त्व नामका सामान्य गुण है निसमे हरएक द्रव्य व्यर्थ न रहकर कुछ कार्य करता रहता है। कार्य तब ही होता है जव द्रव्यमें परिणमन होगा अर्थात् उसकी अवस्था बदलेगी । अर्थात पुरानी अवस्था नष्ट होकर नवीन अवस्था उत्पन्न होगी और वह जिसमे अवस्था हुई बना रहेगा। यदि उत्पाद व्यय ध्रौव्यपना सत्पदार्थमे न होता तो न कोई जन्मता न मरता न किसीके कर्मबंधसे अशुद्धता होती, न कोई कर्मबंध तोडकर शुद्ध मुक्त होता, न परमाणुओके स्कंध बनते न स्कधके परमाणु बनते. न बीजसे वृक्ष होता न वृक्षसे फल होते व इधन होता और न जीव बदलते हुए भी अपने जीवत्त्वको कायम रख सक्ता और न पुद्गल बदलते हुए अपने पुद्गलपनेको ध्रुव रख सक्ता इससे यह बात निःसन्देह ठीक है कि हरएक सत् द्रव्य उत्पादादि तीन स्वभाव रूप है । इन्ही , स्वभावोके कारण ही जगतमे नाना प्रकारके कार्य दीखते हैं। रोगी होकर निरोग होना, इसी तीन रूप स्वभावसे ही बन सक्ता है। शिप्योको विशेषपने द्रव्यका लक्षण स्पष्ट करनेके लिये आचार्यने तीसरा लक्षण भी किया है कि जिसमे गुण हो और पर्यायें हो सो द्रव्य है। द्रव्य सदा गुण और पर्यायोसे शून्य नहीं होता। जो द्रव्यके सदा साथ रहे और द्रव्यकी प्रशंसा करें वे गुण हैं । गुण द्रव्यके आश्रय रहते है और स्वय किन्हीं और गुणोको अपनेमे नही रखते, गुण और गुणी या द्रव्यका तादात्म्य अविनाभावी सम्बंध है यह वात दूसरी गाथामे समझा दी गई है । गुणोमे ही जो परिणमन होकर अवस्था समय समय होती है उसको पर्याय कहते हैं । हरएक पर्याय एक समय मात्र ठहरती है फिर दूसरी Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड [२५ पर्याय हो जाती है। स्थूल दृष्टिवालोको पर्याय स्थूलरूपसे कुछ देरतक ठहरी हुई मालूम होती है। जैसे वृक्षमें एक हरे आमको सवेरे देखा था फिर संध्याको देखा तव भी हरा ही दीखा परन्तु जब उसको आठ दिन पीछे देखा तब उसे पीला दीखा । वास्तवमें आमके भीतर वर्ण नामके गुणका परिणमन हर समय होता रहा है हर समय वह बदलता रहा है तब ही वह ८ दिनमे पीला हुआ है, परन्तु म्थूल दृष्टिमें सूक्ष्म परिणमन समझमें नहीं आता । मध्म ज्ञानी इस सूक्ष्म समय समयकी हरएक पर्यायको समझ सक्ते है द्रव्यमे गुणोफी ही ध्रुवता या नित्यता रहती है तथा पर्यायोका ही उत्पाद और व्यय होना है इसी बातको यह गुण पर्यायवान द्रव्यका लक्षण द्योतित करता है। इसीसे यह सिद्ध है कि द्रव्य नित्यानित्त्यात्मक है। हर समय उसमें नित्यपना और अनित्यपना दोनो स्वभाव हैं । गुणोंके कारण नित्यपना और पर्यायोके कारण अनित्यपना है। यद्यपि ये दो खभाव विरोधी माटम पडते है परन्तु यदि द्रव्यमें ये दोनों ही न हों तो द्रव्यसे कुछ भी अर्थ सिद्ध नही होसक्ता है । यदि हम सुवर्णको कूटस्थ नित्य मान लें तो सुवर्णकी कोई अवस्था नही हो सक्ती-उससे बाली, मुद्रिका, भुजबन्द आदि कोई आभूषण नहीं वन सक्ते और यदि सुवर्णको सर्वथा अनित्य मान ले तो वह एक समय मात्र ही ठहरेगा। जब वह ठहर ही नही सक्ता तब उसमेसे कोई पढार्थ कैसे बन सक्ता है ? इसलिये एक ही स्वभाव एकान्तसे माननेपर द्रव्यको सत्ता ही नही ठहर सक्ती है । वास्तवमे यही बात ठीक है कि द्रव्य कथंचित् या स्यात् नित्य है और Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ] श्रीप्रवचनसारटीका ! कथंचित या स्यात अनित्य है । कथचित् या स्यात्का अर्थ किसी अपेक्षासे है । अनेक विरोधी स्वभावोको एक द्रव्यमे समझने समआनेके लिये ही जैन दर्शनमे स्याद्वादका विधान किया गया है । किसी अपेक्षासे किसी स्वभावको जो कहे वह स्याद्वाद है । . इस तरह सतु, उत्पाद व्यय ध्रौव्य तथा गुणपर्यायवान ये तीनो ही लक्षण द्रव्यके वरूपको अच्छी तरह बता देते है । श्री उमास्वामी महाराजने भी तत्त्वार्थमूत्रमे द्रव्यके तीन लक्षण इन सूत्रो कहे है सत् द्रव्यलक्षणं ॥२९॥ उत्पादव्ययधौव्ययुक्त सत् ॥ ३० ॥ गुणपर्ययवव्यम् || ३८ || अ० ॥ ५ ॥ हम यदि सिद्धावस्था होते समय इन लक्षणोको देखें तब हम समझेंगे कि सिद्धात्मा सत् है, यह वही है जो पहले असिद्ध या कर्म सहित थे । इस समय सिद्ध अवस्थाका उत्पाद हुआ है, अर्हन्त अवस्थाका व्यय हुआ है तथा जीवपना धौव्य है तथा अर्हन्त आत्मा जो गुण थे वे ही गुण सिद्धात्मामे हैं, कर्मबंधके छूटनेसे उनकी पर्याय पलट गई है। पहले चार अघातिया कर्मोंसे अव्याबाधत्त्व, सूक्ष्मत्त्व, अवगाहत्त्व व अगुरुलघुत्त्व प्रगट न थे, उन चारोके क्षय होते ही ये चार स्वभाव प्रकाशमे आगए । गुण और पर्यायें द्रव्यके ही प्रदेगोमें पाई जाती हैं इसलिये वे अभिन्न है परन्तु समझने समझानेके लिये उनका भेद करके मनन किया जाता है। सज्ञा, संख्या, लक्षण, प्रयोजनकी अपेक्षा गुण और द्रव्यका भेद है, प्रदेशकी अपेक्षा नही है । जैसे जीव द्रव्य और ज्ञान गुण । दोनोकी संज्ञा अलग २ है । ज्ञान गुणकी संख्या Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [२७ एक है जव कि एक जीव अनेक गुणोकी अपेक्षा अनेक रूप है। जीवका लक्षण उपयोगवान है जब कि ज्ञानका लक्षण विशेषाकार जानना है । जीवका प्रयोजन स्वात्मानदका लाभ है जब कि ज्ञानका प्रयोजन जेयोंको जानना है। द्रव्यका स्वभाव अच्छी तरह समझकर हमे निज आत्म द्रव्यको सतूरूप, उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप तथा गुण पर्यायरूप जानकर निज आत्माके स्वाभाविक शुद्ध ज्ञान दर्शन वीर्य आनन्दादि गुणोमे तन्मय होकर निज आत्माका अनुभव करना चाहिये जिससे चारित्रका लाभ हो और शुख शांतिका खाद आवे । इस तरह नमस्कार गाथा, द्रव्य गुण पर्याय कथन गाथा, खसमय परसमय निरूपण गाथा, सत्तादि लक्षणत्रय सूचन गाथा इस तरह स्वतंत्र चार गाथाओसे पीठिका नामका पहला स्थल पूर्ण हुआ। । उत्थानिका-आगे अस्तित्त्व या सत्के दो प्रकार स्वरूप अस्तित्त्व व सादृश्य अस्तित्त्वमेसे स्वरूप अस्तित्त्वको बताते है सम्भावो हि सहावो गुणेहि सगपजएहिं चित्तहि । दव्यस्स सव्यकालं उप्पादच्वयधुवत्तेहिं ॥५॥ सद्भायो हि स्वभावो गुण स्थापयश्चित्रै । द्रव्यस्य सर्वकालमुत्पादध्ययध्रुवत् ॥ ५॥ सामान्यार्थ-अपने गुण और नाना प्रकारकी अपनी पर्यायो करके तथा उत्पाट व्यय ध्रौव्य करके द्रव्यका सर्व कालमे जो सद्भाव है वही निश्चय करके उसका स्वभाव है। अन्वय सहित विशेषार्थ-(चित्तेहि गुणेहि सगपजएहि ) नाना प्रकारके अपने गुण और अपनी पर्यायोंके साथ अर्थात् सिद्ध नाना प्रकारकी से व्यय धौव्य सद्भाव है Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ] श्रीप्रवचनसारटोका । जीवकी अपेक्षा अपने केवलज्ञान आदि गुण तथा अतिम शरीरसे कुछ कम आकाररूप अपनी पर्याय तथा सिद्ध गतिपना, अतीन्द्रियपना, कायरहितपना, योगरहितपना, वेदरहितपना इत्यादि नाना प्रकारकी अपनी अवस्थाओंके साथ और (उप्पादव्वयधुवत्तेहि) उत्पाद व्यय धौव्यपने के साथ अर्थान सिद्ध जीवकी अपेक्षा शुद्ध आत्माकी प्राप्ति रूप मोक्ष पर्यायका उत्पाद, रागद्वेषाटि विकल्पोंसे रहित परमसमाधि रूप मोक्षमार्गकी पर्यायका व्यय तथा मोक्षमार्ग और मोक्षके आधारभूत चले आनेवाले द्रव्यपनेका लक्षणरूप ध्रौव्यपना इन तीन प्रकार उत्पाद व्यय ध्रौव्यके साथ (दव्यस्स ) द्रव्यका अर्थात् मुक्तात्मा रूपी द्रव्यका (सव्वकाल) सर्व कालोमे अर्थात् सदा ही ( सव्भावो ) शुद्ध अस्तित्त्व है या उसकी शुद्ध सत्ता है (हि') सो ही निश्चय करके (सहावो ) उसका निज भाव या निन रूप है, क्योकि मुक्तात्मा इनके साथ अभिन्न हैं इसका हेतु यह है कि गुण पर्यायोके अस्तित्त्वसे तथा उत्पाद व्यय प्रौव्यपनेके अस्तित्त्वसे ही शुद्ध आत्माके द्रव्यका अस्तित्त्व साधा जाता है और शुद्ध आत्माके द्रव्यके अस्तित्त्वसे गुण पर्यायोंका और उत्पाद व्यय ध्रौव्यपनेका अस्तित्त्व साधा जाता है । किस तरह 'परस्पर साधा जाता है सो बताते हैं जैसे सुवर्णके पीतपना आदि गुण तथा कुडल आदि पर्यायोका जो सुवर्णके द्रव्य क्षेत्र काल भावकी अपेक्षा सुवर्णसे भिन्न नहीं है, जो अस्तित्त्व है वही सुवर्णका अपना अस्तित्त्व है या सद्भाव है । तैसे ही मुक्तात्माके केवलज्ञान आदि गुण और अतिम शरीरसे कुछ कम आकार आदि पर्यायोंका जो मुक्तात्माके द्रव्य क्षेत्र काल भावोकी अपेक्षा परमात्मा द्रव्यसे भिन्न Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड | [ २९ www ww wwww नही है जो अस्तित्त्व है वही मुक्तात्मा द्रव्यका अपना अस्तित्त्व या सद्भाव है और जैसे सुवर्णके पीतपना आदि गुण और कुंडल आदि पर्यायोके साथ जो सुवर्ण अपने द्रव्य क्षेत्र काल भावोकी अपेक्षा अभिन्न है, उस सुवर्णका जो अस्तित्त्व है वही पीतपना आदि गुण तथा कुडल आदि पर्यायोका अस्तित्त्व या निज भाव है तैसे ही मुक्तात्मा केवलज्ञान आदि गुण और अतिम शरीरसे कुछ कम आकार आदि पर्यायोके साथ जो मुक्तात्मा अपने द्रव्य क्षेत्र काल भावोकी अपेक्षा अभिन्न है उस मुक्तात्माका जो अस्तित्त्व है वही केवलज्ञानादि गुण तथा अतिम शरीरसे कुछ कम आकार आदि पर्यायोका अस्तित्त्व या निजभाव जानना चाहिये । अब उत्पाद व्यय धौव्यका भी द्रव्यके साथ जो अभिन्न अस्तित्त्व है उसको कहते हैं। जैसे सुवर्णके द्रव्य क्षेत्र काल भावकी अपेक्षा सुवर्णसे अभिन्न कटक पर्यायका उत्पाद और कंकण पर्यायका विनाश तथा सुवर्णपनेका धौव्य इनका जो अस्तित्त्व है वही सुवर्णका अस्तित्त्व व उसका निज भाव या स्वरूप है । तैसे ही परमात्माके द्रव्य क्षेत्र काल भावकी अपेक्षा परमात्मा से अभिन्न मोक्ष पर्यायका उत्पाद और मोक्षमार्ग पर्यायका व्यय तथा इन दोनों के आधारभूत परमात्म द्रव्यपनेका धौव्य इनका जो अस्तित्त्व है वही मुक्तात्मा द्रव्यका अस्तित्त्व या उसका निजभाव या स्वरूप है। और जैसे अपने द्रव्य क्षेत्र काल भावकी अपेक्षा कटक पर्यायका उत्पाद और कंकण पर्यायका व्यय तथा इन दोनोके आधारभूत सुवर्णपुनेका धौव्य इनके साथ अभिन्न जो सुवर्ण उसका जो अस्तित्व है वही कटक पर्यायका उत्पाद, कंकण पर्यायका व्यय तथा इन . wwwwwwnnnn www.w vv ~~~~ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीप्रवचनसारटीका । दोनोंके आधारभूत सुवर्णपना रूप प्रौव्य इनका अस्तित्व या निजभाव या स्वरूप है । तेसे ही अपने द्रव्यक्षेत्र कालमावकी अपेक्षा मोक्ष पर्यायका उत्पाद, और मोक्षमार्ग पर्यायका व्यय तथा दोनोके आधारभूत मुक्तात्मा द्रव्यपनारूप धौव्य इनके साथ अभिन्न जो परमात्मा द्रव्य उसका जो अस्तित्त्व है वही मोक्ष पर्यायका उत्पाद, मोक्षमार्ग पर्यायका व्यय तथा इन दोनोके आधारभूत मुक्तात्मा द्रव्यरूप ध्रौव्य इनका अस्तित्त्व या निजभाव या स्वरूप है। इस तरह जैसे मुक्तात्मा द्रव्यका अपने ही गुण पर्याय और . उत्पाद व्यय ध्रौव्यके साथ स्वरूपका अस्तित्त्व या अवान्तर अस्तित्त्व अभिन्न स्थापित किया गया है तसे ही शेष सर्व द्रव्योका भी स्वरूप अस्तित्त्व या अवान्तर अस्तित्त्व स्थापित करना चाहिये। इस गाथाका यह अर्थ है । भावार्थ-इस गाथामे आचार्यने स्वरूप अस्तित्त्व या अवान्तर सत्ताका खरूप बताया है। हरएक द्रव्य अपने अखंड जितने प्रदेशोको लिये है चाहे वह एक प्रदेश हो व अनेक वह द्रव्य उतने प्रदेशोके साथ अपनी सत्तको दूसरे द्रव्यसे टथक् रखता है। तथा उसकी इस अवान्तर या पृथक् सत्तामें ही गुणपर्यायपना या उत्पाद व्यय ध्रौव्य रहते हैं। जिसका भाव यह है कि जहां द्रव्यका अस्तित्व है वहीं उसके गुणपर्याय है व वहीं उसके उत्पाद व्यय ध्रौव्य है । इन तीन लक्षणोकी अभिन्नता है, एकता है । ये तीनो लक्षण द्रव्यमें अविनाभावी हैं, न कोई द्रव्य कभी अपनी । सत्ताको छोड़ता है न गुणपर्यायोंसे रहित होता है न उत्पाद व्यय धौव्यको त्यागता है । द्रव्यमें हरसमय द्रव्यके ये तीनो ही लक्षण Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • द्वितीय खंड। [३१ पाए जाते हैं । यही द्रव्यका स्वभाव है। जैसे एक वस्त्रमें जहां उस वस्त्रकी सत्ता है वहीं उस वस्त्रकी गुण पर्यायें हैं वहीं उसका उत्पाद व्यय ध्रौव्य है । इसका खुलासा यह है कि वस्त्रमें स्पर्श, रस, गध, वर्ण हैं वे वस्त्रके गुण हैं उनमें समय समय जो परिणमन या वदलाव होरहा है वे ही समय समयकी वस्त्रकी पर्यायें हैं । जव गुणोकी पिछले समयकी पर्याय नष्ट होती है तब ही इस वर्तमान समयकी पर्याय पैदा होती है यह उत्पाद व्यय है। ध्रुवपना गुणोका व उसके समुदाय द्रव्यका स्थिर है ही। एक वस्त्र जो दो चार मास पीछे जीर्ण दीखता है सो एकदम जीर्ण नहीं हुआ वह हर समयमें पुराना पडता जाता है । जब बहुत पुराना होजाता है तब ही हम स्थूल दृष्टिवालोको मालूम पड़ता है । यहां वस्त्रको भी पुद्गल स्कध रूप द्रव्य ध्यानमे लेना चाहिये क्योकि यही वस्त्र अग्निका संवध पाकर राखकी पर्यायमें पलट सक्ता है तब भी पुद्गल द्रव्यकी सत्ताका नाश नहीं होता है । एक ससारी जीव सशरीर था वह जव एक शरीरको त्यागता है तब ही मनुष्य आयुका उदय समाप्त होकर यदि उसे देवगतिमें जाना हो तो देव आयुका उदय प्रारम्भ होनाता है। उसकी विग्रह गतिमें देवायुका उदय है । उसकी मनुष्य अवस्थाका व्यय विग्रह गतिका उत्पाद और जीव द्रव्य अपेक्षा ध्रुवपना एक कालमें मौजूद है तथा जीवके ज्ञानादि गुणोका सदभाव दोनो अवस्थाओमें रहते हुए भी इन गुणोका परिणमन बदला गया जो परिणमन मनुष्य देहमें था वह परिणमन विग्रह गतिमे नहीं है । विग्रह गतिमे विग्रहगतिके योग्य परिणमन है। इस तरह हरएक Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२] श्रीप्रवचनसारटोका। द्रव्य सदाकाल इन तीन लक्षणोको रखता है। यदि हम शुद्ध आत्माकी ओर ध्यान करें जिनको कुछ काल मुक्त हुए व्यतीत हो चुका है, तो शुद्ध आत्माके भीतर तीनो लक्षण,मिलेंगे। वे अपनी अवान्तर सत्ताको सदा रखते हैं। एक शुद्ध आत्मा दृसरी शुद्ध आत्मासे अपनी सत्ताको खो नहीं देता है। एक क्षेत्रमे अनेक दीपकोका प्रकाश मिला हुआ रहने पर भी हरएक दीपकका प्रकाश अपनी भिन्न २ सत्ताको रग्नता है। यदि उनमेने एक दीपकको वहासे अन्यत्र लेजावे तो उस दीपकके साथ उसका प्रकाश भी अलग चला जायगा, इसी तरह अनेक सिद्धात्मा एक क्षेत्रमे तिष्ठने हैं तौभी अपनी सत्ता भिन्न २ रखते है। इसी तरह शुद्धात्मामें , अनंत ज्ञान दर्शन सुख वीर्य, सम्यक्त चारित्र, अव्यावाध आदि गुण सदा पाए जाते है । तथा इन सव शुद्ध गुणोंमे क्षीर समुद्रमें जल कलोलकी तरह सामान्य अगुरुलघु गुण द्वारा पट् गुणी हानि वृद्धिरूप अवस्था होनेसे समय समय सदृश पर्यायें होती हैं। गुण । पर्यायपना शुद्ध आत्मामे हरसमय सत्ताके साथ अभिन्न रहता है। इसी तरह नवीन पर्यायोका उत्पाद होते हुए व पिछली पर्यायोका व्यय होते हुए तथा शुद्ध आत्माका अनंतगुण सहित, ध्रौव्य होते हुए उत्पाद व्यय ध्रौव्य भी शुद्ध आत्मामे हर समय पाया जाता है, यह भी सत्तासे अभिन्न है। सिद्ध भगवानकी सत्ता 'इस उत्पाद व्यय ध्रौव्यके साथ ही सदा बनी रहती है । श्रीनेमिचद्र सिद्धांत चक्रवर्तीने द्रव्यसग्रहमे सिद्धका स्वरूप इसी प्रकारका बताया है Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३२ wwwwwwww द्वितीय खंड। , णिकम्मा अहगुणा किंचूणा चरमदेहदा सिहा । लायगांठदा णिचा उप्पादवयेहिं सजुत्ता ॥ भावार्थ-जो कर्म कलक रहित है-मुख्य सम्यक्तादि आठ गुण सहित हैं, अतिम गरीरसे कुछ कम आकारवान है, लोकके अग्रभागमें विराजमान है तथा उत्पाद व्यय सहित है और नित्य या ध्रुव हैं वे सिद्ध है। इस तरह स्व पर द्रव्यका त्रिलक्षण समझकर तथा हरएककी सत्ताको अलगर निश्चय करके अपने आत्माको अपने ही द्रव्य क्षेत्र काल भावकी अपेक्षामे सर्व रागादि व पुद्गल विकारोंसे पृथक् अपनी शुद्ध सत्तामें सदा विरानमान जानकर सर्व विकल्पोंको त्यागकर निज आत्माका ही अनुभव करना योग्य हैद्रव्यके लक्षण पहचाननेका यह तात्पर्य है ॥१॥ ___ उत्थानिका-आगे सादृश्य अस्तित्त्व शब्दसे कहे जानेवाली महासत्ताका वर्णन करते हैं इह विविहलक्खणाण, लक्खणमेगं सदित्ति सब्वगयं उवदिसदा खलु धम्म, जिणवरक्सहेण पण्णत ॥६॥ इह विविधलक्षणाना लक्षणमेकं सदिति सवगतम् । उपादेशता खलु धर्म जिनवरभपेण प्रप्तम् ॥६॥ अन्वय सहित विशेपार्थ-(इह) इस लोकमे (विविहलक्खगाणं) नाना प्रकार भिन्न २ लक्षण रखनेवाले पदार्थोका (एग) एक (सव्वगय) सर्व पदार्थोमे व्यापक (लक्खणं) लक्षण (सदित्ति) सत् ऐसा (धम्मं ) वस्तुके स्वभावको ( उवदिसदा ) उपदेश करनेवाले (निणवरवसहेण) श्री वृषभ जिनेंद्रने (खलु) प्रगट रूपसे (पण्णत) कहा है।, । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Awm ३४] श्रीप्रवचनसारटीका । विशेपार्थ-इस जगतमे भिन्न २ लक्षणको रखनेवाले चेतन अचेतन मूर्त अमूर्त अनेक पदार्थ है, उनमेंसे प्रत्येक पदार्थकी सत्ता या स्वरूपास्तित्त्व भिन्न २ है तो भी इन सबका एक अखंड सर्वव्यापक लक्षण भी है । यह लक्षण मिलाप व भिन्नताके विकल्पसे रहित अपनी २ जातिमे विरोध न पड़ने देनेवाले शुद्ध संग्रह नयसे सर्व पदार्थोमे व्यापक एक सत् रूप है या महासत्ता रूप है ऐसा वस्तु स्वभावोके संग्रहको उपदेश करनेवाले श्री वृषभनाथ भगवानने प्रगटरूपसे वर्णन किया है। इसका विस्तार यह है कि जैसे जब हम ऐसा कहें कि सर्व मुक्तात्मा है तब उससे सर्व ही सिद्धोका एक साथ ग्रहण हो जाता है । यद्यपि वे सर्व सिद्ध अपने २ शुद्ध असख्यात प्रदेशोझी अपेक्षा जो लोकाकाश प्रमाण है और परमानदमई एक लक्षणको रखनेवाले सुखामृतके रसके खादसे भरे हुए है तथा अपने २ अंतिम गरीरके आकारसे कुछ कम व्यजन पर्यायकी अपेक्षा मिश्र व भिन्नताके विकल्पसे ' रहित अपनी अपनी जातिके भेदसे भिन्न २ हैं तो भी एक सत्ता लक्षणकी अपेक्षा उन सब सिड का ग्रहण होजाता है। वैसे ही 'सर्व सत्' ऐसा कहनेपर सग्रह नयसे सर्व पदार्थोका ग्रहण हो जाता है । अथवा यह सेना है ऐसा कहनेपर अपनी २ जातिसे भिन्न घोडे, हाथी आदि पदार्थोकी भिन्नता है तो भी सबका एक कालमे ग्रहण होजाता है अथवा यह वन है ऐसा कहनेपर अपनी२ . जातिसे भिन्न निम्ब, आम्र आदि वृक्षोंकी भिन्नता है तो भी सब वृक्षोका एक कालमे ग्रह्ण हो जाता है । तैसे ही सर्व सत् ऐसा कहनेपर सादृश सत्ता या महासत्ताकी अपेक्षा शुद्ध संग्रह नयसे Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - द्वितीय खंड। सर्व ही पदार्थोका विना उनकी जातिके विरोधके एक साथ ग्रहण होजाता है, ऐसा अर्थ है। भावार्थ-इस गाथामें श्री कुंढकुदआचार्यने महासत्ताका स्वरूप बताया है । सत्ता दो प्रकारकी है, एक अवान्तर सत्ता या स्वरूपास्तित्त्व, दूसरी महासत्ता या सादृश्यास्तित्त्व। हरएक द्रव्यके भिन्न २ खरूपको बतानेवाली अवान्तर सत्ता है तथा सर्व द्रव्योंमें एक सत्पनेका एक काल बोध करानेवाली महासत्ता है । सतपना था अस्तित्त्व सर्व चेतन अचेतन पदार्थोमे पाया जाता है इसलिये सत्पना सर्व पदार्थोमे व्यापक है उसकी अपेक्षासे महासत्ता या सादृश्यास्तित्त्व है । जो स्वभाव बहुतसोमें एकसा होता है उसकी अपेक्षा एक कहनेका व्यवहार जगतमें है । जेसे यह सेना भाग रही है। यहा भागना स्वभाव सर्व हाथी घोडे रथ पयादोंमे व्यापक है इसलिये सेना भाग रही है इतना ही वाक्य सबके भागनेका बोध करा देता है । अथवा यह बाग फूल रहा है इतना ही वाक्य इसका बोध करा देता है कि इस धागके सर्व ही वृक्षोमें फूल खिल रहे है। यहा फूलोका खिलना यह स्वभाव सब वृक्षोमे व्यापक है । जो - स्वभाव या कार्य एक समयमे अनेकोमें पाया जावे उनके एक साथ बोध करनेवाले ज्ञानको या बोध करानेवाले वचन प्रयोगको सग्रह नय कहते हैं । लडके खेल रहे है । यह सग्रह नयका वाक्य है क्योकि खेलना सबमें एक साथ व्याप रहा है। यद्यपि हरएक लडकेके खेलमें भिन्नता है तथापि खेलना मात्र सबमें सामान्य है। कोयलें मीठा बोलती हैं, इस वाक्यने भी मीठा बोलना अनेक कोयलोंमें व्यापक है इस बातको सग्रह नयसे वतलाया । इस ही तरह Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ ] श्रीप्रवचनसारटीका । जीव चेतन होता है यह वाक्य चेतनपनेको सब जीवोमें व्यापक झलकाता है और एक साथ इसका बोध संग्रह नयसे कराता है। पुद्गल मूर्तीक हैं यह वाक्य सर्व पुलोमं स्पर्श रस गंध वर्णकी सत्ताका बोध कराता है अर्थात मूर्तीकपना जो सब पुद्गलोमें व्यापक था उस व्यापक स्वभावको इस वाक्यने एकदम सामान्यपने बोध करा दिया। इस ही तरह जब हम कहें कि सर्व सत् है तब यह वाक्य यही बोध कराना है कि सत्ता सर्व पदार्थों में व्यापक है अथवा सर्व पदार्थोंमे सादृश्य अस्तित्त्व है । इस ही तरह यदि कहा जाय कि यह जगत परिवर्तनशील है, तब यह वाक्य यह बोध कराता है कि परिवर्तनपना या अवस्थाओंका बदलना यह स्वभाव सर्व पदार्थोंमें एक काल व्यापक है । निश्रयनयसे सब जीव शुद्ध है - यह वाक्य बोध कराता है कि स्वभावकी अपेक्षा शुद्धपना सर्व जीवोमे व्यापक है । महासत्ता सर्व जगतके पदार्थो मे अस्तित्त्व स्वभावकी व्यापकताको बताती है। इस तरह वस्तुका स्वभाव तीर्थंकरोंने प्रक्ट किया है । यहा आचार्यने श्री ऋषभदेव प्रथम तीर्थंकरका नाम इसी लिये लिया है कि इस भरतक्षेत्र मे इस कालमे भोगभूमिके पीछे तथा कर्मभूमिकी आदिमे सच्चे वस्तु स्वभावको प्रगट करनेवाले प्रथम ही श्री आदिनाथ भगवान हुए हैं। उनसे लेकर हमतक सर्वका यही मत है कि भिन्न २ द्रव्यकी सत्ता सो अवान्तर सत्ता है और सबकी एक सत्ता सो महासत्ता है । इस कथनको प्रगट करके आचार्यने यह तत्त्व प्रगट किया है कि यह जगत् सत्रूप होकर भी अनेक विचित्र रूप है । यह " Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड | [ ३७ NY 109,09 । न यह यह एक एक ब्रह्मखरूप ही नहीं है जैसा वेदान्तका कथन है एक जड रूप ही है जैसा चार्वाकका कथन है । न ब्रह्म व एक जडरूप है किन्तु यह जगत् अनन्तानंत जीव, अनन्तानन्त पुल, एक धर्म, एक अधर्म, एक आकाश, असंयात फालाणुरूप होकर भी इनकी अनेक अवस्था व स्वरूप नाना प्रकारका विचित्र है । इस तत्त्वको जाननेका तात्पर्य यह है कि हम अपने आत्माको सदा ही रहनेवाला सत् रूप जान तथा उसकी जो वर्तमान अवस्था रागद्वेप मोहरूप व अज्ञान रूप हो रही है हम अवस्थाको दूर करके इसको मिद्धकी अवस्थामें पहुचा देवें जिससे यह सदा ही निजानदका पान करे तथा इसी हेतुसे हमें निज आत्माका स्वरूप निश्रयसे शुद्ध जातादृष्टा ध्यानमेंकर उमहीका विचार तथा अनुभव करना चाहिये ॥ ६ ॥ उत्थानिका- आगे यह प्रगट करने है कि जैसे द्रव्य स्वभावसे सिद्ध है वैसे सत्ता भी स्वभाव सिद्ध है द्रव्य द सहावसिद्धं सदिति जिणा तच्चदो समक्खादो । सिद्ध तथ आगमटो, गेच्छदि जो मो हि परसमश्र ॥ ७ ॥ मानसिद्ध मंदिते विनात्तवत समाख्यातवन्तः । सिद्ध तथा आगमतो नेच्छनिय म हि परममय || ७ || अन्य गतिविशेषार्थ - ( दव्य ) द्रव्य ( सहावसिद्ध ) स्वभावसे सिद्ध है (सदिति) सत् भी प्रभाव सिद्ध है ऐसा (जिणा) जिनेन्द्रोने ( तच्चा ) तत्त्वसे (समखादो) कहा है (तध) तैसे ही (आगमदो) आगमसे (सिंह) सिद्ध है (जो ) जो कोई (णेच्छटि) नहीं मानता है ( सो हि परसमओ) वही प्रगटरूपसे परसमयरूप है । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८] - - श्रीप्रवचनसारटोका। विशेषार्थ यहां परमात्म द्रव्यपर घटाकर कहते है कि परमात्मारूपी द्रव्य स्वभावसे सिद्ध है क्योकि परमात्मा अनादि अनन्त, विना अन्य कारणकी अपेक्षाके भये अपने स्वतः सिद्ध केवलज्ञानादि गुणोंके आधारभृत है, सदा आनन्दमई सुगमृतरूपी परम समरसी भावमे परिणमन करते हुए सर्व शुद्ध आत्मप्रदेशोसे भरपुर हैं तथा शुद्ध उपादान रूपसे अपने ही स्वभावसे उत्पन्न है। जो खभावसे सिद्ध नही होता है वह द्रव्य भी नहीं होता है। जैसे द्विणुक आदि पुद्गलस्कंधकी पर्याय व मनुप्यादि जीवपर्याय । परमाणुओकी सत्ता स्वयंसिद्ध है तब ही उनके उपादान कारणसे द्विणुक आदि स्कंध बनते है । जीवकी सत्ता सदा सिद्ध है तब ही उसके उपादान कारणसे मनुष्यादि पर्यायें होती है। जैसे द्रव्य स्वभावसे सिद्ध है वसे उसकी सत्ता भी स्वभावसे सिद्ध है सत्ता किसी भिन्न सत्ताके समवायसे नही हुई है। क्योंकि सत्ता और द्रव्यमें सज्ञा, लक्षण, प्रयोजनादिसे भेद होनेपर भी जैसे दंड और दंडी पुरुषके प्रदेशोका भेद है ऐसी प्रदेशोकी भिन्नता सत्ता और द्रव्यमे नहीं है । सत्ता गुण है इस लिये द्रव्यमे सदा पाया जाता है । तथा वह सत्तागुण द्रव्यगुणीसे कभी पृथक् नही हो सक्ता है इस बातको निश्चयसे तीर्थकरोने वर्णन किया है तथा यही बात सन्तानकी अपेक्षा द्रव्यार्थिक नयसे अनादि अनत आगमसे भी सिद्ध है। जो ऐसा वस्तुकास्वरूप नही स्वीकार करता है वह मिथ्यादृष्टी है । इस तरह जैसा परमात्म द्रव्य स्वभावसे सिद्ध है तैसे ही सर्व द्रव्योको स्वभावसे सिद्ध जानना चाहिये । यहा यह अभिप्राय है कि द्रव्यको किसी पुरुपने रचा नहीं है और न द्रव्यका सत्ता Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [३९ गुण ही द्रव्यसे भिन्न है। भावार्थ-आचार्यने पूर्वमे त्रिलक्षणमई द्रव्यको बतलाया था। इस गाथामे पहला जो लक्षण सत् किया था उसके सम्बन्धमें कहा है कि वह सत् या अस्तित्व, या सत्ता द्रव्यमे सदा पाई जाती है। गुण और गुणी प्रदेशोकी अपेक्षा एक है परन्तु नाम आदि भेदसे विचारते हुए भिन्न२ झलकते है । सत्ता गुण है द्रव्य गुणी है । दोनो सदासे साथ है इसलिये जैसे द्रव्य स्वभावसे सिद्ध है और अनादि अनत है वेसे उसकी सत्ता स्वभावसे सिद्ध है और अनादि अनंत है । यद्यपि इस जगतमे अवस्थाए वनती और विगडती दिखलाई पडती है परतु जिसमे ये अवस्थाएं होती है वह द्रव्य न बनता दिखलाई पड़ता है न नष्ट होता मालूम होता है । परमाणुओंसे स्कथ बनते है, स्कधसे परमाणु बन जाते हैं । अकस्मात् कोई नहीं बनता है। मनुष्य शरीरमे जीव आता है तब मनुष्य जीव कहलाता है, वही जीव देव पर्यायमे जाता है तब देव जीव कहलाता है। वास्तवमे उस लोकमे जीव पुद्गल आदि छहो द्रव्य अनादि अनंत हैं इसीसे स्वभावसिद्ध है, किसीने बनाए नहीं है। किसीका किसीसे बनना तव ही माना जासक्ता है जब किसी समय या क्षेत्रमें पहले उसका अभाव या न होना सिद्ध हो जावे । यदि हम विचारते हुए चले जावेंगे तब किसी भी द्रव्यका कमी या कही अभाव था ऐसा सिद्ध नही होगा । जगतमें यही देखा जाता है कि पानीसे मेघ बनते है, मेघसे पानी बनता है, वृक्षसे वीज होता है बीनसे वृक्ष होता है-कभी भी विना वीजके वृक्षका होना व विना वृक्षके वीजका होना सिद्ध नही होसक्ता । मनुष्य माता पिताके Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8> ] श्रीप्रवचनसारटीका ! संयोगसे होता है यह क्रम अनादि है- कभी भी कोई मनुष्य विना माता पिता के नही हो सक्ता । जगतमे अवस्थाविशेषका उत्पाद व अवस्थाविशेषका ही व्यय होता है, मूल द्रव्य कभी न जन्मता है न नष्ट होता है । सिद्ध भगवान परमात्मा है वे भी खभावसिद्ध अनादि है । यद्यपि उनको सिद्ध अवस्था सादि है, परन्तु जिस 1 जीव द्रव्यमे यह अवस्थामई है वह अनादि है । जीव में सब ही केवलज्ञानादि गुण संदासे ही थे तथा उसके असख्यात प्रदेश सदासे ही थे। उनपर जब आवरण था तब वे अशुद्ध थे, जब आवरण चला गया तब वे शुद्ध हो गए तथा यह शुद्धता भी अपने ही उपादान कारणरूप निश्चय रत्नत्रयमई कारण समयसाररूप निर्विकल्प समाधिसे ही हुई है । द्रव्य जैसे स्वभावसिद्ध है वैसे उसका लक्षण जो स्वरूप अस्तित्त्व है वह भी स्वभावसे सिद्ध है । द्रव्यार्थिक नय या निश्चयनय गुणगुणीका भेद न करके अखंड द्रव्यको ग्रहण करती है । इस नयमे सत्ता और द्रव्य भिन्नर नही दिखते हैं - एक द्रव्य ही झलकता है। पर्यायार्थिकनय या व्यवहारनयसे जब उसके स्वरूपको समझा या समझाया जाता है तब द्रव्यमे जितने गुणोका आधार है उनका भिन्न २ नाम च स्वरूप या प्रयोजन समझाया जाता है । जैसे जो अग्निको जानता है उसके लिये अग्नि कहना ही बश है इसीसे ही वह अग्निको समझ जाता है, परन्तु जो कोई अज्ञानी अग्निको नही समझता है उसके लिये कोई ज्ञानी इस तरह समझाते हैं कि अग्नि उसे कहते है जिसमें दाहक अर्थात् जलानेका स्वभाव' हों, पाचक अर्थात् पकानेका स्वभाव हो, प्रकाशक अर्थात् उजाला देनेका स्वभाव हो इत्यादि ये तीनो ही स्वभाव अग्निमें Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [४१ सदा पाए जाते हैं इसीसे इनको भेद करके समझानेसे अग्निका बोध अज्ञानीको होनाता है। द्रव्य और उसकी सत्ता सदासे है यह कथन उन सब मिथ्या भ्रमोको दूर करता है जो किसी समय जीव और अजीवकी सत्ताका अभाव मानते है या इनको ब्रह्मसे पैदा हुआ व ब्रह्ममे लय होना मानते है । हरएक द्रव्य जीव हो या पुद्गल अपने स्वरूपके अस्तित्वको सदासे रखता है-सदासे ही जीवमें जीवपना है, सदासे ही पुद्गलमे स्पर्ग, रस, गध, वर्णपना है। न किसी एकसे ये अनेक हुए न जीवसे पुद्गल हुए न पुद्गलसे जीव हुए-सब ही द्रव्य सदासे परिणमन करते हुए बने रहते हैं। यह बिलकुल अकाव्य सिद्धात है कि सत्का नाश नही ब असत्का उत्पाद नहीं। सत रूप द्रव्यमें ही पर्यायका उत्पाद या विनाश होता है, असमें नहीं हो सक्ता । स्वामी समतभद्राचार्यने आप्तमीमांसामें यही कहा है कि सत् पदार्थमें ही विधि निषेध या अस्तिनास्तिकी कल्पना हो सक्ती है द्रव्याद्यन्तरमावेन निषेधः सगिनः सत. । असद्भेदो न भावस्तु स्थान विधिनिपधयो. ॥ ४७ ॥ भावार्थ-सत् पदार्थमे ही अपने स्वद्रव्यादि चतुष्टयकी अपेक्षा विधि या अस्तित्त्व तथा परद्रव्यादि चतुष्टयकी अपेक्षा निषेध या नास्तित्त्व कहा जा सक्ता है । जो पदार्थ अभावरूप है या असत् है उसमे अस्तित्त्व या नास्तित्त्वकी कल्पना हो ही नहीं सक्ती है इस लिये जगतमे सर्व ही द्रव्य सतरूप हैं। ___ 'द्रव्य और उसकी सत्ता स्वभावसिद्ध अनादि है यह बात तीर्थकरोने अपनी२ दिव्यवाणीसे प्रकाशित की है तथा यही बात आगमसे भी प्रगट है। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२] श्रीप्रवचनसारटोका। इस अनादि प्रवाहरूप जगतमें सदा ही तीर्थकर या केवली होते रहे हैं इसलिये उनका उपदेश भी होता रहा है। तथा सदासे ही गणधरोंने उसकी द्वादशांगरूप रचना करके उसे आगमरूप प्रगट किया है इसलिये प्रवाह या संतानकी अपेक्षा भगवानका उपदेश तथा शास्त्र दोनो अनादि है । इन दोनोंसे यही बात मान्य है, अतएव यह जटल सिद्धांत है कि द्रव्य स्वभाव सिद्धअनादि अनन्त है तैसे ही उसकी अभिन्न सत्ता भी स्वभावसिह सदा कालसे है व सदाकाल बनी रहेगी। यही यथार्थ वस्तुका स्वभाव है। जो इस तत्वको नही समझता है वह पर समयरूप मिथ्यादृष्टी अज्ञानी है । उसको अपनी आत्माकी सत्ताकी नित्यताका कभी श्रद्धान नहीं होगा तब वह आत्मा व उसका परलोक न मानता हुआ इस शरीरकी अवस्थाको ही आपा मानेगा और शरीरसुख हीमे लिप्त रहेगा । यही अज्ञान चेष्टा है। तात्पर्य यह है कि अपने आत्माको सदासे ही निश्चय नयसे शुद्ध परमात्माके समान वीतरागी तथा आनंदमई और ज्ञाता दृष्टा निश्चयकर उसके स्वभावके अनुभवमे लय होकर आत्माको कर्मबंधनसे छुडाना चाहिये और सुख शांतिका लाभ करना चाहिये ||७|| उत्थानिका-आगे कहते है कि उत्पाद व्यय ध्रौव्य रूप होते हुए सत्ता ही द्रव्य स्वरूप है अथवा द्रव्य सत् स्वरूप है सदवट्टिय सहावे, दबं दन्चस्स जो हि परिणामो। अत्थेसु सो सहावो, ठिदिसंभवणाससंवद्धो ॥ ८॥ सदवस्थितं स्वभावे द्रव्य द्रव्यस्य यो हि परिण मः । अर्येषु स स्वभावः स्थितसभवनाशरूबद्धः ॥ ८ ॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। - [४३ अन्वय सहित विशेपार्थ-(सहावे) स्वभावमें (अवट्ठिय) रहा हुआ (सत् ) सत् (ढव्व) द्रव्य है । (दव्वस्स) द्रव्यका (अत्थेसु) गुण पर्यायोंमे (जो) जो ( ठिदिसभवणाससबद्धो ) प्रौव्य, उत्पाद व्यय सहित (परिणामो) परिणाम है (सो) वह (हि) ही (सहावो) खभाव है। विशेषार्थ-यहा टीकाकार परमात्मा द्रव्यपर प्रथम घटाकर समझाते हैं। स्वभावमें तिष्ठा हुआ शुद्ध चेतनाका अन्वयरूप (बरावर) अस्तित्व परमात्मा द्रव्य है। उस परमात्मा द्रव्यका अपने केवलज्ञानादि गुण और सिद्धत्व यहा अरहंतपनेसे मतलब ( है ) आदि पर्यायोमे अपने आत्माकी प्राप्ति रूप उत्पाद उसी ही समयमे परमागमकी भाषासे एकत्ववितर्क अवीचार रूप दूसरे शुक्ल ध्यानका या शुद्ध उपादानरूप सर्व रागादिके विकल्पकी उपाधिसे रहित स्वसवेदन ज्ञानपर्यायका नाश तथा उसी ही समय इन दोनो उत्पाद व्ययके आधाररूप परमात्म द्रव्यकी स्थिति इस तरह उत्पाद व्यय ध्रौव्य सम्बन्धी जो परिणाम है वही निश्चयसे उस परमात्म द्रव्यका केवलज्ञानादि गुण वा सिद्धत्व आदि पर्यायरूप स्वभाव है। गुण पर्याय द्रव्यके खभाव हैं इस लिये उनको अर्थ कहते है। इस तरह उत्पाद व्यय प्रौव्य इन तीन खभावसे एक समयमे यद्यपि पर्यायार्थिक नयसे परमात्म द्रव्य परिणमन करते है तथापि द्रव्यार्थिक नयसे सत्ता लक्षण रूप ही है । तीन लक्षण रूप होते हुए भी सत्ता लक्षण क्यो कहते है इसका समाधान यह है कि सत्ता उत्पाद व्यय 'प्रौव्य स्वरूप है। जैसा कहा है " उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त सत् " जैसे यह परमात्म द्रव्य एक Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४] श्रीप्रवचनसारटीका | समयमे ही उत्पाद व्यय ध्रौव्यसे परिणमन करता हुआ ही सत्ता लक्षण कहा जाता है तैसे ही सर्व द्रव्योका स्वभाव है यह अर्थ है । भावार्थ - यहा इस गाथामे आचार्यने द्रव्यका स्वभाव स्पष्ट किया है कि सत्ता रूप वस्तु अपने स्वभावमे वर्तन करती हुई द्रव्य कहलाती है । तथा उस सत्ताका यह स्वभाव है कि वह सदा उत्पाद, व्यय, प्रोव्यरूप परिणमन करती है। जिस पदार्थकी सत्ता होगी उसमे पर्यायें होनी ही चाहिये। पूर्व पर्यायका नाश व्यय है, उत्तर पर्यायकी उत्पत्ति उत्पाद है, इव्यका सदा बना रहना धौव्य है, जो सत्ता है वह अवश्य तीन रूप रहेगी । वृत्तिकारने अरहंत परमात्मापर घटाकर कहा है कि जब अरहंत अवस्थाका उत्पाद व्यय होता है तब ही पूर्वमे जो बाहरवें गुणस्थानमे स्वसंवेदन परिणाम था उसका नाश होता है और आत्माका ध्रौव्य विद्यमान है । इस तरह जब पर्यायार्थिक नयसे भेद करके विचारते हैं तब उत्पाद धौव्यकी कल्पना करते हैं । परन्तु जब द्रव्यार्थिक नयसे विचार करते है तब इस भेदत्रयीको गौण करके सत्ता मात्र द्रव्य है ऐसा कहा जाता है। अभेद नयसे सत्ता एक रूप है, भेद नयसे वही तीन रूप है । इस कथनसे भी आचार्यने अनेकांत मतके गौरवको वताया है । उत्पत्ति, विनाश, धौव्य ये तीन अवस्थाएं पदार्थमे एक ही समय मे नित्त्यत्त्व और अनित्यत्वको झलकाते हैं । पर्यायका नाश व उत्पाद होना अनित्यपनका द्योतक है - तथा द्रव्यका धौव्यपना नित्यत्वका द्योतक है । इससे द्रव्य नित्य नित्त्यात्मक है । यही सिद्धात ठीक है । यदि एकातसे द्रव्यको नित्य ही माने उसमें अनित्य स्वभाव न माने तो क्या Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड | [ ४५ दोष होगा इसके लिये स्वामी समतभद्राचार्यने आप्तमीमासा में कहा है - HIN नित्यत्वका•तपक्षेsपि विक्रिया ने पपद्यते । are arretera: क प्रमाणं क नत्फलम् ॥ ३७ ॥ भावार्थ यदि पदार्थ मात्र नित्त्यपना ही है, अनित्त्यपना नहीं है ऐसा एकान्त पक्ष माना जायगा तो उसमे एक अवस्थासे दूसरी अवस्थामे पलटना नही होगा वस्तु सदा एक रूप ही बनी रहेगी उसमे कोई विकार नही होगा, तब कर्ता कर्म करण आदि कारकोका पहले ही अभाव होनेसे उसमे प्रमाण और उसके फलकी कल्पना नहीं हो सकेगी । और यदि वस्तुको सर्वथा अनित्य माना जायेगा तो क्या दोष होगा उसके लिये भी स्वामी वही कहते हैं --- 'क्षणिकेया तपोऽपि प्रेत्यभावाद्यसम्भव. । प्रत्यभिज्ञायभावान्न कार्यारम्भः कुतः फलम् ॥ ४१ ॥ भावार्थ - यदि वस्तुको सर्वथा क्षणिक माना जायगा कि पदार्थ क्षणक्षणमे बिलकुल नष्ट होता है तौ यह दोष आएगा कि जीवके परलोककी व ससार व मोक्षकी सिद्धि न होगी तथा प्रत्यभिज्ञान न होगा कि यह वही वस्तु है जिसको पहले देखा था न किसी पदार्थके लिये विचार या तर्क हो सकेगा और न घट पट बनानेके कार्यका आरंभ हो सकेगा न कार्य बनके उससे कोई फलकी साधना की जा सकेगी। परंतु यदि वस्तुको गुणोके सदा स्थिर रहने की अपेक्षासे नित्य माना जावे और उन गुणोंमें समय समय • पर्याय विनशती उपजती है इससे अनित्य माना जाये तब ही , 1 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ ] श्रीप्रवचनसारटीका। उसमेंसे कार्य हो सक्ते हैं। वास्तवमे यही अनेक धर्मात्मक सिद्धांत ठीक है । इसीसे हरएक सत्तारूप द्रव्यपर्यावकी अपेक्षा उत्पाद व्यय रूप और गुणोकी अपेक्षा थ्रीव्य रूप सिद्ध होती है। ऐसा ही सत्ताका स्वभाव है । द्रव्य सत् स्वरूप है और सत् उत्पाद व्यय ध्रौव्य खरूप है । यही बात यथार्थ है। इस तरह खरूप सत्ताको कहते हुए प्रथम गाथा, महासत्ताको कहते हुए. दूसरी गाथा, जैसे द्रव्य स्वतःसिद्ध है वेसे उसकी सत्ता गुण भी स्वत सिद्ध है ऐसा कहते हुए तीसरी गाथा, उत्पाद व्यय ध्रौव्य रूप होते हुए भी सत्ता हीको द्रव्य कहते हुए चौथी गाथा इस तरह चार गाथाओके द्वारा सत्ता लक्षणके व्याख्यानकी मुख्यता करके दूसरा स्थल पूर्ण हुआ ॥ ८॥ उत्थानिका-आगे उत्पाद व्यय ध्रौव्य इन तीनोमे परस्पर अपेक्षापना है ऐसा दिखलाते है ण भवो भंगविहीणो, संगो वा णत्थि संभवविहीणो। उप्पादो वि य भंगो, ण विणा धोम्वेण अत्येण ॥९॥ न भवो भगविहीनो मेंगो वा नास्ति संभवविहीनः । उत्पादोपि च भगो न बिना प्रौव्येणान ॥ ९ ॥ अन्वय सहित सामान्यार्थ-(भग विहीणो भवो ण) व्ययके विना उत्पाद नहीं होता है (वा) तथा (संभवविहीणो भगो णत्थि) उत्पादके विना मग या व्यय नहीं होता है (य) और (उप्पादो वि) उत्पद तथा ( भंगो ) व्यय ( धोव्वेण अत्थेण विणा ण ) प्रौव्यं पदार्थके विना नहीं होते। विशेषार्थ वृत्तिकार सम्यक्तकी उत्पत्तिका द्रष्टांत देकर इन Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४७ द्वितीय खंड। उत्पाद व्यय ध्रौव्यकी परस्पर अपेक्षाको बताते हैं-निर्दोष परमास्माकी रुचिरूप सम्यक्त अवस्थाका उत्पाद सम्यक्तसे विपरीत मिथ्यात्त्व पर्यायके नाशके विना नहीं होता है क्योकि उपादान कारणके अभावसे कार्य नहीं बन सकेगा। जब उपादान कारण होगा तब ही कार्य होसक्ता है। जैसे मिट्टीके पिडका नाश हुए विना घड़ा नहीं पेदा होसक्ता है। मिट्टीका पिड उपादान कारण है। दूसरा कारण यह है कि जो मिथ्यात्व पर्यायका नाश है वही सम्यक्तकी पर्यायका प्रतिभास है क्योंकि ऐसा सिद्धांतका वचन है कि "भावान्तरस्वभावरूपो भवत्यभाव " अन्य भाव रूप स्वभाव ही अभाव होता है अर्थात् सर्वथा अभाव नही होता-अन्य अवस्थारूप परिणमना ही अभाव है जैसे घटका उत्पन्न होना ही मिट्टीके पिडका भंग है। यदि मिथ्यात्व पर्यायके भग रूप सम्यक्तके उपादान करणके अभावमे भी शुद्धात्माकी अनुभूतिकी रुचिरूप सम्यक्तका उत्पाद हो जावे तब तो उपादान कारणसे रहित आकाशके पुप्पोंका भी उत्पाद हो जावे सो ऐसा नहीं हो सक्ता है । इसी तरह पर द्रव्य उपादेय है-ग्रहण योग्य है ऐसे मिथ्यात्वका नाश पूर्वमें कहे हुए सम्यक्त पर्यायके उत्पाद विना नहीं होता है क्योकि भगके कारणका अभाव होनेसे भंग नहीं बनेगा जैसे घटकी उत्पत्तिके अभावमे मिट्टीके पिडका नाश नही बनेगा। दूसरा कारण यह है कि सम्यक्त रूप पर्यायकी उत्पत्ति मिथ्यात्त्व रूप पर्यायके अभाव रूपसे ही देखनेमे आती है क्योकि एक पर्यायका अन्य पर्यायमे पलटना होता है। जैसे घट पर्यायकी उत्पत्ति मिट्टीके पिंडके अभाव रूपसे ही होती है। यदि सम्यक्तकी उत्पत्तिकी Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ ] श्रीप्रवचनसारटीका । अपेक्षाके विना मिथ्यात्त्व पर्यायका अभाव होता है ऐसा मानाजाय तो मिथ्यात्त्व पर्यायका अभाव हो ही नही सक्ता क्योंकि अभावके कारणका अभाव है अर्थात उत्पाद नहीं है । जैसे घटकी उत्पत्तिके विना मिट्टीके पिडका अभाव नहीं होसक्ता इसी तरह परमात्माकी रुचिरूप सम्यक्तका उत्पाद तथा उससे विपरित मिथ्यात्त्व 'पर्यायका नाश ये दोनो बाते इन दोनोके आधारभूत परमात्म रूप द्रव्य पदार्थके विना नहीं होती । क्योकि द्रव्यके अभावमे व्यय और उत्पादका अभाव है। मिट्टी द्रव्यके अभाव होनेपर न घटकी उत्पत्ति होती है न मिट्टीके पिडका भंग होता है। जैसे सम्यक्त और मिथ्यात्व पर्याय दोनोमे परस्पर अपेक्षापना है ऐसा समझकर ही उत्पाद व्यय ध्रौव्य तीन दिखलाए गए है इसी तरह सर्व द्रव्यकी पर्यायोमे देख लेना व विचार लेना चाहिये, ऐसा अर्थ है। भावार्थ-इस गाथामे आचार्यने उत्पाद व्यय ध्रौव्यको एक दूसरेकी अपेक्षासे अर्थात् एक दूसरेके आलम्बनसे होना सिद्ध, किया है । स्वतन्त्र न उत्पाद होतक्ता है न व्यय और न धौव्य ही रह सक्ता है । वास्तवमे वात इतनी है कि पदार्थमे समय समयमें कोई न कोई अवस्था होती रहती है। एक अवस्थाकी तरफ दृष्टि देकर यदि विचार करेंगे तो विदित होगा कि वहां ये तीनो ही हैं । जिस अवस्थाका व्यय होकर कोई अवस्था बनी है उसका तो नाश या व्यय हुभा है, जो अवस्था पैदा हुई है उसका उत्पाद है और दोनो अवस्थाओका आधारभूत पदार्थ बराबर विद्यमान है यही ध्रौव्य है । यदि उत्पाद न माने तो व्यय न होगा। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [४९ व्यय न माने तो उत्पाद न होगा । ध्रौव्य न माने तो उत्पाद व्यय किसमें होगा। इसलिये यह बात विलकुल यथार्थ है कि एक समयमें उत्पाद व्यय ध्रौव्य तीनोको ही किसी भी सत् पदार्थमे मानना होगा । अन्यथा कोई कार्य नहीं होसक्ता । जैसे नत्र एक काटकी चौकी बनी है तब काष्ठके तखतेकी दशाको बिगाडकर बनी है। नव तखतेका नाश हुआ तव ही चौकीकी उत्पत्ति हुई तथा तखते और चौकी दोनोका आधारभूत लकडी ध्रौव्य रूपसे मौजूद है ही। गोरसको विलोकर जब मक्खन बना तब मरखनका उत्पाद हुआ सो दूधकी दशाको नागकर हुआ है और गोरस दृधमे भी था और इस मक्खनमे भी है । वृत्तिकारने सम्यक्तकी उत्पत्तिका उदाहरण दिया है कि जब सम्यग्दर्शन गुण आत्मामे प्रगट होता है तब मिथ्यात्त्वके उदयका अभाव अवश्य होता है और आत्मा दोनो अवस्थाओमे विद्यमान रहता है । इस कथनसे यह बात दिखलाई है कि किसी पदार्थका सर्वथा नाग या अभाव नहीं होसक्ता है और न कोई पदार्थ अकस्मात् विना कारणके उत्पन्न होसक्ता है तथा जिसमें नाशपना और उत्पाद होता है वह पदार्थ बना रहता है। मूल पदार्थ यदि न बना रहे तो कोई भी अवस्था उसमें हो नहीं सक्ती । इस कथनसे और भी स्पष्टकर दिया गया है कि यह जगत् अनादिअनन्त और अकृत्रिम है | कारण यही है कि सत् पदार्थ सदा ही उत्पाद व्यय ध्रौव्य रूपसे रहता है । जिन पदार्थोका जगतमे समावेश है वे सब पदार्थ सत् हैं और उत्पाद व्यय ध्रौव्य रूप हैं । यह उत्पाद व्यय ध्रौव्यका कथन परस्पर सापेक्ष है इसी बातको स्वामी समंतभद्राचार्यने आप्तमीमांसामें इस भांति दर्शाया है Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०] श्रीप्रवचनसारटीका। कार्योलादः क्षयो हेतोनियमालक्षणात्पृथक् । न तो नात्याद्यवस्थानादनपेक्षाः खपुष्पवत् ॥ ५८ ॥ भावार्थ-जो जो कार्यका उत्पाद होता है वह नियमसे अपने उपादान कारणको क्षय करके होता है । यह नाश और उत्पाद अपने२ लक्षणकी अपेक्षा अलगर हैं परंतु जाति अर्थात् सत्तारूप द्रव्यकी अपेक्षा या प्रमेयपनेकी अपेक्षा वे दोनो भिन्न नहीं हैं-एक रूपका रूपान्तर हुआ है । यदि इनको एक दूसरेकी अपेक्षा विना खतंत्र माने तो ये उत्पाद व्यय ध्रौव्य तीनो ही आकाशके पुप्प समान हो जायेंगे अर्थात् कुछ भी नहीं रहेंगे । इसीके बतानेको लौकिक दृष्टान्त देते हैं घटमोलि सुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । शोकप्रमोहमाध्यस्थ्य जनो याति सहेतुकम् ॥ ५९ ॥ भावार्थ-जैसे कोई सुनार सुवर्णके घटको तोडकर उससे मौलि या मुकुट बना रहा था उस समय उसके पास तीन आदमी तीन अभिप्रायके आए । एक तो सुवर्णका घट लेना चाहता था वह इस सुवर्णके घटको नष्ट होते देखकर मनमे शोक करता है। दूसरा सुवर्णका मौलि लेना चाहता था वह अपनी इच्छानुकूल मौलिको बनते देखकर हर्ष करता है । तीसरा मात्र सुवर्ण चाहता था वह घटका नाश होते न खेद करता न मौलिके बनते हुए हर्ष करता किन्तु माध्यस्थ या उदासीन रहता है क्योकि उसको तो सुवर्ण मात्र चाहिये वह चाहे जिस अवस्थामे मिले । इस दृष्टांतसे आचायेने यह दिखलाया कि उत्पाद व्यय ध्रौव्य परस्पर अपेक्षा सहित हैं, स्वतंत्र अलग२ नहीं पाए जा सक्ते हैं। तथा स्वरूपके लक्ष Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [५१ णकी अपेक्षा तीनों भिन्न २ हैं परन्तु एक द्रव्यमें एक समयमें पाए जाते हैं इससे भिन्न नहीं हैं। इस कारण ये कथंचित् भिन्न व कथंचित् अभिन्न हैं। दूसरा दृष्टांत देते हैं पयो व्रतो न दध्यत्ति न पयोऽत्ति दधिवतः । अगोरसवतो नोभे तस्मात्तत्त्व त्रयात्मकम् ।। ६० ॥ भावार्थ-जिसको यह व्रत है कि मै दूधको खाऊंगा दही न खाऊंगा वह दहीको नही खाता है और निसको दही खानेका व्रत , है वह दही खाता है दूधको नही खाता है परन्तु जिसको यह व्रत , है कि मैं गोरसको नही खाऊगा वह न दहीको खाता है न दूधको पीता है इसलिये यह सिद्ध है कि पदार्थ उत्पाद व्यय धौव्यरूप है। नब दूधका दही बनता हो तब दूध चाहनेवालेको खेद, दही चाहनेचालको हर्ष व दोनो न चाहनेवालेको माध्यस्थ भाव रहेगा। ऐसा वस्तुका स्वभाव जानकर अपने आत्माको सत् पदार्थ निश्चय करके अपनी संसार अवस्थाको नाशकर मुक्तावस्थाके उत्पादका दृढ़ उद्योग हमको करना चाहिये और वह उद्योग एक साम्यभाव है जो रत्नत्रयकी एकतारूप आत्माकी परिणतिमे झलकता है इसलिये साम्य या स्वात्मानुभवका लाभ करना चाहिये ।। ९ ॥ उत्थानिका-आगे यह बताते है,कि उत्पाद व्यय ध्रौव्यका द्रव्यके साथ परस्पर आधार आधेय भाव है इसलिये अन्वयरूप द्रव्यार्थिक नयसे वे द्रव्य ही हैं उप्पादहिदिभंगा विज्जते पज्जएसु पजाया ॥ दम हि संति णियदं तम्हा दम हवदि सच ॥१०॥ उत्पादस्थितिभङ्गा विद्यन्ते पर्यायेपु पर्यायाः । द्रव्यं हि सन्ति नियत तस्माद्दा भवति सर्वम् ॥१०॥ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] MAN श्रीप्रवचनसारटीका । ___ अन्वयं सहित सामान्यार्थ-( उप्पादहिदिभंगा) उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य (पज्जएस) पर्यायोंमे (विजंते) रहते हैं। (पन्नाया) पर्यायें (णियदं हि) निश्चयसे ही (दव्व) द्रव्यमे (संति) रहती हैं। (तम्हा) इस कारणसे (सव्व) वे सब पर्यायें (डव्यं) द्रव्य (हवदि) हैं। विशेषार्थ-वृत्तिकार सम्यग्दर्शन पर्यायका दृष्टांत देकर बताते है कि विशुद्ध ज्ञान दर्शन खभावरूप आत्मतत्वका निर्विकार स्वसंवेदन ज्ञानरूपसे उत्पाद, उसी ही समयमें स्वसंवेदन ज्ञानसे विलक्षण अज्ञान पर्यायरूपसे व्यय तथा इन दोनोका आधारभूत आत्मद्रव्यपनेकी अवस्था रूपसे धौव्य ऐसे ये तीनों ही भेट पर्यायोंमे रहते है अर्थात् सम्यक्त पूर्वक निर्विकार स्वसवेदन ज्ञान पर्यायमे उत्पाद है तथा स्वसंवेदन रहित अज्ञान पर्यायरूपमे व्यय तथा इन दोनोका आधाररूप आत्मद्रव्यपनेकी अवस्था रूपसे ध्रौव्य अपनी अपनी पर्यायोमे रहते है । और ये ऊपर कहे हुए लक्षण सहित । ज्ञान, अज्ञान और इन दोनोका आधाररूप आत्म द्रव्यपना ऐसो ये पर्याय निश्चय करके अपने २ संज्ञा लक्षण प्रयोजन आदिके भैदसे भेदरूप है तथापि आत्माके प्रदेशोमे होनेसे अभेदरूप हैं इसलिये जब निश्चयसे ये उत्पाद व्यय ध्रौव्य आधार आधेय भावसे द्रव्यमे रहते है तब यह स्वसवेदन ज्ञान आदि पर्यायरूप उत्पाद व्यय ध्रौव्य तीनो अन्वय द्रव्यार्थिक नयसे द्रव्य हैं। पूर्वकथित उत्पाद आदि तीनोंका तैसे ही स्वसंवेदन ज्ञान आदि तीनो पर्यायोका अनुगत आकारमे व अन्वय रूपसे जो आधार हो सो अन्वय द्रव्य कहलाता है। अन्वय द्रव्य जिसका विषय हो, उसको अन्वय द्रव्यार्थिक नय कहते है । जैसे यहां ज्ञान अज्ञान पर्यायोमें तीन Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड | [ ५३ भेद कहे गए तैसे ही सर्व द्रव्यकी पर्यायोमे यथासंभव जान लेना चाहिये यह अभिप्राय है । भावार्थ - इस गाथामें आचार्यने यह बताया है कि उत्पाद व्यय धौव्य द्रव्यसे भिन्न नहीं हैं । ये तीनों ही द्रव्यमें होते हैं । इनके बिना द्रव्य नहीं और द्रव्यके विना ये नही । जैसे बीजका नाश अकुरका फूटना तथा वृक्षत्वका धौव्य वृक्षके विना नहीं और वृक्ष इनके बिना नहीं होता है। मिट्टीके पिडका नाश, घटकी उत्पत्ति तथा मिट्टीपनेका धौव्य मिट्टी द्रव्यके विना नही और मिट्टी इनके बिना नहीं । दूधका नाग घीका उत्पाद, गोरसपनेका धौव्य गोरस द्रव्यके बिना नहीं और गोरस इन तीनके बिना नहीं है। इसी तरह वृत्तिकार के अनुसार मिथ्यात्वका नाश, सम्यन्ककी उत्पत्ति, आत्मापका ध्रौव्य आत्म द्रव्यके विना नही और आत्मा इन विना नहीं ! ऐसा हरएक द्रव्यका अपने उत्पाद व्यय ध्रौव्यके साथ आधार आय भाव है। पर्यायार्थिक नयसे अर्थात् अंश भेद या अंश कल्पनाकी दृष्टिसे उत्पाद व्यय धौव्य दिखते हैं परन्तु द्रव्यार्थिक नयसे ये भेद नही दिखते - द्रव्य अखंड एकरूप बराबर झलकता है। जो अनेक समय में एकसा चला आवे उसको अन्वय कहते हैं । अभिप्राय कहने का यह है कि उत्पाद व्यय धौव्य द्रव्य ही निश्चयसे हैं द्रव्यसे किसी तरह बिलकुल भिन्न नही है | भेद दृष्टिमे संज्ञा, संख्या, लक्षण प्रयोजनकी, अपेक्षा भेद है परन्तु प्रदेशोकी अपेक्षा भेद नही है । श्री आप्तमीमांसा में श्री समतभद्राचाचार्यने इसी बात को बतलाया है- न सामान्यात्मनोदेति न व्येति व्यक्तमन्वयात् । व्येत्युदेति विशेषात्ते सदैकत्रोदयादि सत् ॥ ५७ ॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीप्रवचनसारटीका। भावार्थ-वस्तु सामान्यपने न उपजती है, न नष्ट होती है क्योकि प्रगटपने अन्वय स्वरूप है, बरावर बनी रहती है किन्तु विशेषपने अर्थात् पर्यायकी अपेक्षा उत्पन्न भी होती है व्यय भी होती है। भेदरूप एक समयमें देखा जावे तो एक साथ सतरूप द्रव्यमे उत्पाद व्यय ध्रौव्य दीखेंगे । सत्ता मात्र द्रव्यकी दृष्टिमें मात्र अभेदरूप एक द्रव्य ही दीखेगा । यदि द्रव्यका उत्पाद माना जाय तो असत्का उत्पाद हो जायगा सो असंभव है। यदि द्रव्यका नाश माना जाय तो सत्का नाश होजायगा सो भी नहीं होसक्का इसलिये पर्यायोमे ही उत्पाद व्यय होता है द्रव्यमें नही। द्रव्य सदा बना रहता है। द्रव्य उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप है। ये तीनो प्रत्येक विशेषण है द्रव्य विशेष्य है। ऐसी वस्तुका स्वरूप जानकर हमारा कर्तव्य है कि पर्यायोके उत्पाद विनाशमें हर्ष शोक न करके संसारकी अवस्थाओंमे साम्यभाव रक्खें और द्रव्य दृष्टिसे देखते हुए छः द्रव्योको पृथक् देखकर उनमेसे निज आत्म द्रव्यको खाभाविक शुद्ध स्वरूपमें तन्मय देखकर उसीके मननसे व अनुभवसे अपना हित करें। यह तात्पर्य है ॥ १० ॥ उत्थानिका-आगे फिर भी उत्पाद व्यय ध्रौव्यका अन्य प्रकारसे द्रव्यके साथ अभेद दिखाते हैं अर्थात् उत्पाद व्यय ध्रौव्यका समयभेद नहीं है ऐसा बताते हैं च जो समयभेद माने उसे निराकरण करते हैं या खण्डन करते है समवेद खलु दव संभवठिदिणाससपिणदट्टेहि । एकम्मि चेव समये तम्हा व्वं खु तत्तिदयं ॥ ११।। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड | समवेत खलु द्रव्य संभवस्थितिनाशस जितार्थैः । एकस्मिन् चैव समये तस्माद्द्रव्य खलु तत्रितयम् ॥ ११॥ अन्वय सहित सामान्यार्थ - ( दव्वं) द्रव्य (खल) निश्चयसे ( एकम्मि चेव समये) एक ही समयमे परिणमन करनेवाले (संभव - ठिदिणाससण्णिदद्वेहि) उत्पाद स्थिति व नाश नामके भावोसे (समवेद) एक रूप है अर्थात् अभिन्न है ( तम्हा) इसलिये (दव्व) द्रव्य (खु) प्रगट रूपसे (तत्तिदयं ) उन तीन रूप है । विशेषार्थ - यहा वृत्तिकार उत्पाद व्यय धौव्यको आत्मा द्रव्यके साथ लगाकर स्थापित करते है । आत्मा नामा द्रव्य जब सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान पूर्वक निश्चल और विकार रहित अपने आत्माके अनुभवमई लक्षणवाले वीतराग चारित्रकी अवस्थासे उत्पन्न होता है अर्थात् जब सम्यग्दृष्टी और ज्ञानी आत्मामे वीतराग चारित्र की पर्यायका उत्पाद होता है तब ही रागादिरूप पर्यायका जो परद्रव्योके साथ एकता करके परिणमन कररहा था - नाश होता है और उसी वक्त इन दोनों उत्पाद और व्ययका आधाररूप आत्म द्रव्यकी अवस्थारूप पर्यायसे ध्रौव्यपना है । इस तरह वह आत्मद्रव्य अपने ही उत्पाद व्यय धौव्यकी पर्यायोसे एक रूप है या अभिन्न है । यही बात निश्चयसे है । ये तीनो पर्यायें बौद्धमत की तरह भिन्न २ समय में नही होती हैं किन्तु एक ही समय में होती है । जैसे जब अंगुलीको टेढ़ा किया जावे तब एक ही समयमे टेढ़ेपनेकी उत्पत्ति और सीधेपनका नाश तथा अगुलीपनेका धौव्य है । इसी तरह जब कोई ससारी जीव मरण करके ऋजुगति से एक ही समय में जाता है तब जो समय मरणका है वही / [ ५५ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीप्रवचनसारटोका। समय ऋजुगति प्राप्तिका है तथा वह जीव अपने जीवपनेसे विद्यमान है ही । तैसे ही जब क्षीणकपाय नामके वारहवें गुणस्थानके अंतिम समयमे केवलज्ञानकी उत्पत्ति होती है तव ही अज्ञान पर्यायका नाश होता है तथा वीतरागी आत्माकी स्थिति है ही। इसी तरह जब अयोगी केवलीके अन्त समयमे मोक्ष होती है तब निस समय मोक्ष पर्यायका उत्पाद है तब ही चौदहवें गुणस्थानकी पर्यायका नाश है तथा दोनो ही अवस्थाओमे आत्मा ध्रुवरूप है ही। इस तरह एक ही समयमें उत्पाद व्यय प्रौव्य सिद्ध होते हैं । इस लिये जब पूर्वमे कहे प्रमाण एक ही समयमें तीन प्रकारसे द्रव्य परिणमन करता है तब संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदिसे इन तीन पर्यायोमें भेद होते हुए भी प्रदेशोंकी अपेक्षा अभेद है इसलिये द्रव्य प्रगट रूपसे उत्पाद व्यय ध्रौव्य खरूप हैं। जैसे यहां आत्मामें चारित्रपर्यायकी उत्पत्ति और अचारित्रपर्यायका नाश समझाते हुए तीनो ही भंग अभेदपने दिखाए गए हैं ऐसे ही सर्व द्रव्योंकी पर्यायोमे भी जानना चाहिये । ऐसा अर्थ है। भावार्थ-इस गाथामे आचार्यने द्रव्यका लक्षण और भी अच्छी तरह स्पष्ट किया है । सत्ता रूप द्रव्य एक ही समयमें उत्पाद व्यय ध्रौव्य स्वरूप है । ये तीनो भग द्रव्यमे ही होते हैं इनकी सज्ञा व द्रव्यकी सज्ञा जुदी है, इनका अभिप्राय व द्रव्यका अभिप्राय जुदा है तथापि जो द्रव्यके प्रदेश में वे ही इन उत्पाद व्यय प्रौव्यके प्रदेश है इस कारण द्रव्यके साथ इनकी अभिन्नता या एकता है। एकता होनेपर भी ऐसा नहीं है कि निस समय उत्पाद होता है उस समय व्यय तथा ध्रौव्य नही होते Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [५७ अथवा जिस समय व्यय होता उस समय उत्पाद और ध्रौव्य नहीं होते अथवा जब ध्रौव्य होता तव उत्पाद व्यय नहीं होते । किन्तु वस्तुका स्वभाव यह है कि ये तीनों द्रव्यमें एक ही समयमे होते है । द्रव्य अपने सामान्य द्रवण या परिणमन खभावसे सदाकाल परिणमन करता रहता है चाहे उसमें स्वाभाविक सदृश परिणमन हो, चाहे वैभाविक विसदृश परिणमन हो। हरएक समयमें द्रव्य जब जिस अवस्थाविशेषको झलकाता है तब ही पूर्व अवस्थाविशेषका नाश होता है और वह द्रव्य स्थिर रहता है । द्रव्यका ध्रौव्य रहते हुए किसी पर्यायका नाश सो ही किसी अन्य पर्यायका उत्पाद है अथवा किसी पर्यायका उत्पाद सो ही किसी पर्यायका नाश है । सूर्योदयका होना सो ही रात्रिका नाश है, अथवा रात्रिका नाश सो ही सूर्योदय होना है । दिशाओका ध्रौव्य है ही। चनेके दानेका नाश सो ही वेसनका उत्पाद है अथवा वेसनका उत्पाद सो ही चनेके दानेका नाश है तथा चनेके परमाणुओंका ध्रौव्य है ही। इसी तरह आत्मामें क्रोधका नाश सोही उत्तम क्षमाका उत्पाद है, मानका नाश सो ही उत्तम मार्दवका उत्पाद है, मायाका नाश सो ही उत्तम आर्जवका उत्पाद है, उत्तम शौचका उत्पाद सो ही लोभका नाश है, सम्यग्दर्शनका उत्पाद सो ही मिथ्यात्त्वका नाश है, पंचमगुणस्थानका नाश सो ही सप्तम गुणस्थानका उत्पाद है। अव्रतका नाश सो ही व्रतभावका उत्पाद है। इन उत्पाद व नाशोंके एक समयमें होते हुए आत्मा प्रौव्य रूप है ही, इस तरह आत्मा व अनात्मारूप सम्पूर्ण द्रव्य हरएक समयमें उत्पादं व्यय ध्रौव्य स्वरूप हैं । इसी तीनरूप स्वभावके होते हुए ही द्रव्य जगतमें कार्यको प्रगट Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ ] श्रीप्रवचनसारटोका। कर सकता है। यदि द्रव्यको ऐसा न माने और उसको बिलकुल नाश होनेवाला, फिर नए सिरेसे उत्पन्न होनेवाला मान लें तो सद द्रव्यका नाश व असत् द्रव्यका उत्पाद हो जायगा जो बिलकुल असंभव है। द्रव्यके भीतर पर्यायोंमें ही उत्पाद व्यय है। द्रव्य और उसके गुण सदा ध्रौव्य रहते है। इससे तात्पर्य यह है कि आत्माकी संसार पर्याय नष्ट होकर सिद्ध पर्याय होसक्ती है तथा दोनो पर्यायोंमें वही आत्मा वना रहेगा-इससे हम ससारी आत्माओंको उद्यम करके अपनी इस दुःखमय ससार पपर्यायका नाश करना चाहिये और परमानंदमई सिद्ध पर्यायको पैदा करना चाहिये। इसका उपाय सम्यग्ज्ञान पूर्वक साम्यभावका अभ्यास है। इस अभ्यासमें सदा लीन रहना चाहिये ॥ ११ ॥ इस तरह उत्पाद व्यय प्रौव्य रूप द्रव्यका लक्षण है। इस व्याख्यानकी मुख्यताके तीन गाथाओमें तीसरा स्थल पूर्ण हुआ। उत्थानिका-आगे इस वातको दिखलाते हैं कि द्रव्यकी पर्यायोकी अपेक्षा उत्पाद व्यय ध्रौव्य है, द्रव्यसे भिन्न नहीं है पाइन्भवदि य अण्णो पजाओ पजओ वयदि अण्णो । दव्वस्स तंपि दव्वं व पण ण उप्पण्णं ॥ १२ ॥ - प्रादुर्भवति चान्यः पर्याय पर्यायो व्येति अन्यः । द्रध्यस्य तदपि द्रव्य नैव प्रणष्टं नोत्पन्नम् ॥ १२ ॥ अन्वय सहित विशेषार्थ-( दन्वस्स) द्रव्यकी ( अण्णो पज्जाओ ) अन्य कोई पर्याय ( पाडुब्भवदि) प्रगट होती है (य) और (अण्णो पज्जाओ) अन्य कोई पूर्व पर्याय (वयदि) नष्ट होती Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [५९ है (तपि) तौभी (दव्वं) द्रव्य (णेव पणटुं ण उप्पण्णं ) न तो नाश हुआ है और न उत्पन्न हुआ है। विशेपार्थ-वृत्तिकार आत्म द्रव्यपर घटाकर कहते हैं कि शुद्ध आत्मा द्रव्यके जब कोई अपूर्व और अनन्त ज्ञान सुख आदि गुणोकी स्थान तथा अविनाशी परमात्म खरूपकी प्राप्तिरूप स्वभाव द्रव्य पर्याय अथवा मोक्ष अवस्था प्रगट होती है तब इस मोक्ष पर्यायसे भिन्न तथा निश्चय रत्नत्रयमई निर्विकल्प समाधिरूप मोक्ष. पर्यायकी उपादान कारणरूप पूर्व पर्याय नाश होती है । तथापि वह परमात्मा द्रव्य शुद्ध द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा न नष्ट होता है न उत्पन्न होता है। अथवा ससारी.जीवकी अपेक्षा जब देव आदि रूप विभाव द्रव्य पर्याय उत्पन्न होती है तब ही मनुष्य आदिरूप पर्याय नष्ट होती है । तथा वह जीव द्रव्य निश्चयसे न उपना है न विनशा है । इसी तरह पुद्गल द्रव्यपर जब विचार किया जाय तो मालूम होगा कि दो अणुका स्कंध, चार अणुका स्कंध आदि स्कन्धरूप स्वजातीय विभाव द्रव्य पर्याय जब कोई उत्पन्न होती. है तब पूर्व पर्यायको नाश करके ही पैदा होती है । तो भी पुद्गल " द्रव्य निश्चयसे न उपजता है न नष्ट होता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप होनेके कारण द्रव्यकी पर्यायोंका. नाश और उत्पाद होने पर भी द्रव्यका नाश नहीं होता है । इस हेतुसे द्रव्यंकी पर्यायें भी द्रव्य लक्षण या स्वरूप होती है अर्थात्, द्रव्यसे जुदी नहीं हैं ऐसा अभिप्राय है। भावार्थ- इस गाथामे आचार्यने द्रव्यके स्वरूपको और भी स्पष्ट प्रगट कर दिया है कि द्रव्य न कभी उपनता है न नष्ट होता. Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीप्रवचनसारटीका । है। जो आत्मा निगोदमें था वही आत्मा उन्नति करते २ सिद्ध अवस्थामे पहुंच जाता है। आत्म द्रव्यका न कभी उत्पाद है न कभी व्यय है। किन्तु द्रव्य अवस्थाओको पलटा करता है इसलिये जो जो पर्याय होती है उस हीका उत्पाद है और उससे पहले जो पर्याय थी उस हीका व्यय है। एक द्रव्य दो पर्यायोंमें नहीं रह सक्ता है । कोई संसारी जीव मनुष्य था मरकर देव हुआ। देव आयुका उदय होना सोही मनुष्य आयुका नाश होना है। देव अवस्था विना मनुष्य अवस्थाके नाश हुए कभी नही पैदा होसक्ती। इसी तरह जिस समय कोई साधु सर्व कर्म-बंधनोंको नाशकर मुक्त होता है और तब परमात्म पद या सिद्ध पद प्रगट होता है तब ही उससे पूर्वकी संसार पर्यायका नाश होता है। चौदहवें गुणस्थान तक इस जीवको संसारी कहेंगे क्योंकि वहांतक इसके साथ द्रव्य कर्मबन्ध भी है और शरीर भी है। इस गुणस्थानके छोड़ते ही सिद्ध पर्याय प्रगट होती है तब सिद्ध पर्यायका जन्म व संसार पर्यायका नाश कहा जाता है। इन दशाओंमें-पर्यायोंमें उत्पाद व्यय हुआ किन्तु आत्मा न कभी उपजा न नष्ट हुआ है। इसी तरह पुद्गल द्रव्यका एक स्कंध ५०. परमाणुओका था उसमेंसे ५ परमाणु निकल गए तथा ७ परमाणु मिल गए इस तरह जब वह स्कंध ५२ परमाणुओंका प्रगटा उस समयकी पर्यायका उत्पाद हुआ तब ही ५० परमाणुओंके स्कंधकी पर्यायका नाश हुआ। परमाणु सब अविनाशी हैं । परमाणु न उपजे न नष्ट हुए अथवा किसी विशेष • स्कधमे जो स्पर्श रस गंध वर्ण है वह पलटता रहता है। स्कंध बना रहता है। जैसे कोई आमका फल हरा था जब वह पीला हुआ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड । [ ६१ तब वह हरेपनेको नाश करके ही पीला हुआ है। इस तरह अब - स्था बदलते हुए भी आमका उस क्षण न नाश हुआ न उत्पाद । इस कथनसे आचार्य ने यह दिखला दिया है कि इस जगतके सर्व ही द्रव्य उत्पाद व्यय करते हुए भी सदा बने रहते हैं । यही जगतका स्वरूप है । यह जगत इसी कारण नित्यानित्त्य है । द्रव्योंकि बने रहने के कारण नित्य जब कि पर्यायोंकि उपजने व विनशनेकी अपेक्षा अनित्य है । न यह सर्वथा अनित्य है न सर्वथा नित्य है । श्री समंतभद्राचार्यने स्वयंभू स्तोत्रमे यही बात बताई है - स्थितिजनन 'नरोधलक्षण, चरमचर च जगत्प्रतिक्षणम् । इति जिन न लगलाइनं, धचनमिद वदला वरस्य ते ॥ भावार्थ - हे मुनिसुव्रतनाथ ! आप उपदेष्टाओमे श्रेष्ठ है । आपका जो यह उपदेश है कि यह चेतन व अचेतन रूप जगत प्रत्येक क्षण उत्पाद व्यय ध्रौव्य लक्षणको रखनेवाला है वह इस बातका चिह्न है कि आप सर्वज्ञ हैं। क्योकि जैसा वस्तु खरूप है वैसा आपने जाना है तथा वैसा ही उपदेश किया है । तात्पर्य यह है कि ससारकी क्षणभंगुर पर्यायोमे हमे मोही न होकर अपने आत्मद्रव्यके अविनाशी स्वभावपर ध्यान देकर उसकी शुद्धिके लिये जगतका स्वरूप समता भावसे विचारकर रागद्वेप छोड़ देना चाहिये और स्वचारित्रमे तन्मय होकर परम स्वाधीनताका लाभ करना चाहिये ॥ १२ ॥ उत्थानिका- आगे द्रव्यके उत्पाद व्यय ध्रौव्य स्वरूपको गुण . पर्यायकी मुख्यतासे बताते हैं । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwww श्रीप्रवचनसारटीका। परिणमदि सयं दव्यं गुणदो य गुणंतरं सदविसि । तम्हा गुणपजाया भणिया पुण दव्यमेवेत्ति ॥ १३ ॥ परिणमति स्वयं द्रव्य गुणतश्च गुणतर सदविशिष्टम् ॥ तस्माद्गुणपर्याया भणिताः पुनः द्रव्यमेवेति ॥ १३ ॥ अन्वय सहित सामान्यार्थ-( सदवसिट्ठ ) अपनी सत्तासे अभिन्न (दव्यं) द्रव्य (गुणदो) एक गुणसे (गुणंतर ) अन्य गुणरूप (सयं) स्वयं-आप ही (परिणमदि) परिणमन कर जाता है । (तम्हा ) इस कारणसे (य पुण) ही तब ( गुणपज्जाया) गुणोकी पर्यायें (दव्वमेवेत्ति) द्रव्य ही हैं ऐसी ( भणिया) कही जाती हैं। विशेषार्थ-वृत्तिकार समझाते हैं कि एक जीव द्रव्य अपने चैतन्य स्वरूपसे भिन्न न होकर अपने ही उपादान कारणसे आप ही केवलज्ञानकी उत्पत्तिका वीज जो वीतराग स्वसंवेदन गुणरूप अवस्था उसको छोड़कर सर्व प्रकारसे निर्मल केवलज्ञान गुणकी अवस्थाको परिणमन कर जाता है इस कारणसे जो गुणकी पर्यायें होती है वे भी द्रव्य ही है, पूर्व सूत्रमे कहे प्रमाण केवल द्रव्यकी पर्यायें ही द्रव्य नहीं हैं अथवा संसारी जीव द्रव्य मति स्मृति आदि विभाव ज्ञान गुणकी अवस्थाको छोडकर श्रुतज्ञानादि विभाव ज्ञान गुणरूप अवस्थाको परिणमन कर जाता है ऐसा होकर भी जीव द्रव्य ही है । अथवा पुद्गल द्रव्य अपने पहलेके सफेद वर्ण आदि गुण पर्यायको छोड़कर लाल आदि गुण पर्यायमें परिणमन करता है ऐसा होकर भी पुद्गल द्रव्य ही है । अथवा आमका फल अपने हरे गुणको छोड़कर वर्णगुणकी पीत पर्यायमें परिणमन कर Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [६३ जाता है तो भी आम्र फल ही है। इस तरह यह भाव है कि गुणकी पर्यायें भी द्रव्य ही है। . भावार्थ-आचार्य ने इससे पहलेकी गाथामें द्रव्यकी पर्यायें द्रव्यसे अभिन्न होकर द्रव्य ही हैं ऐसा बताया था। इस गाथामें यह बताते हैं कि द्रव्यमे नितने गुण होते है वे सब जुदे २ परिणमन करते हैं । उन गुणोकी जो जो अवस्थाए होती हैं उनको गुण पर्यायें कहते हैं । जैसे द्रव्यके गुण द्रव्यसे एक रूप द्रव्य ही हैं अथवा द्रव्यकी पर्याय द्रव्यसे एक रूप द्रव्य ही है तैसे गुणोकी पर्यायें भी द्रव्यसे एक रूप द्रव्य ही है। __द्रव्य अपने गुणोंसे और गुणोकी पर्यायोसे जुदा नहीं है क्योंकि गुण और पर्यायरूप ही द्रव्य है। इसीको वृत्तिकारने दृष्टान्त देकर बताया है कि ज्ञान गुण जब वीतराग खसवेदनरूप श्रुतज्ञानकी अवस्थासे वढलकर केवलज्ञानकी अवस्थामे आता है अथवा मतिज्ञानकी स्मृतिरूप अवस्थाको छोडकर श्रुतज्ञानकी पर्यायमें आता है तब इन गुण पर्यायोमे जीव द्रव्य बराबर मौजूद है अथवा एक आमका फल अपनी सत्तासे रहता हुआ ही अपने स्पर्शादि गुणोंकी पर्यायोमे पलटता है-हरे वर्णसे पीला होनाता है। - 'जैसे द्रव्यमे द्रव्य समस्तकी अपेक्षा उत्पाद व्यय ध्रौव्य है अर्थात् द्रव्यकी पूर्व पर्यायका व्यय, वर्तमान पर्यायका उत्पाद और द्रव्यकी थिरता, तैसे ही हरएक गुणमें उत्पाद व्यय ध्रौव्य हैं-पूर्व गुणकी पर्यायका व्यय, वर्तमान पर्यायका उत्पाद और गुणकी थिरता। द्रव्यकी पर्याय जैसे द्रव्यसे जुदी नही हैं वैसे गुणकी पीयें द्रव्यसे जुदी नहीं हैं। । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४] श्रीप्रवचनसारटोका। यहां तात्पर्य यह है कि द्रव्य अनेक गुणोंका समुदाय है। एक समयमें जैसे अनेक गुण द्रव्यमे होते हैं वैसे ही अनेक पर्यायें भी द्रव्यमे एक समयमें होती है। उन अनेक पर्यायोका द्रव्य ही आधार है । वे पर्याय द्रव्यसे जुदी नहीं है, किन्तु जैसे गुण समुदाय द्रव्य ही है तैसे पर्याय समुदाय द्रव्य ही है। अनेक गुणोंकी एक समयवर्ती पर्यायोको ही द्रव्यकी एक समयवर्ती पर्याय कहते हैं। पर्यायोंमें भेद अपेक्षा अनेकपना है अभेद अपेक्षा एकपना है। ऐसे ही गुणोमे भेद अपेक्षा अनेकपना है अभेद अपेक्षा एकपना है। जब हमने कहा कि यह जीव द्रव्य मनुष्यं पर्यायको छोडकर देव पर्यायमें बदला तव अभेदसे तो एक पर्याय बदली ऐसा झलकता है परन्तु भेदसे देखते हुए मनुष्य जीवमें जो अनेक गुणोकी पर्यायें थी वे ही देव जीवमें पलट गई हैं । अर्थात् जैसे मनुप्य पर्याय अनेक पर्यायोंका समूह है वैसे देव पर्याय अनेक पर्यायोका समूह है । अथवा जैसे गेहूके आटेसे रोटी बनाई, इसमे आटेकी पर्याय पलटकर रोटीकी पर्याय होगई । अभेदसे यह एक ही पर्याय है, परन्तु जब भेद द्वारा विचार करे तब जितने गुण आटेमे हैं वे सब अपनी पर्यायोसे पलटे हैं अर्थात् आटेमें जो अनेक पर्याये थी वे ही अनेक पर्यायें रोटीमें परिणमन कर गई । इसका भाव यह हुआ कि द्रव्यकी एक पर्याय गुणोकी अपेक्षा अनेक पर्यायरूप है। जिस समय एक जीव छद्मस्थ अल्पज्ञानीसे सर्वज्ञ परमात्मा अरहंत होता है, तब जीव द्रव्यकी अपेक्षा अन्तरात्माकी पर्याय पलटकर परमात्माकी पर्याय उत्पन्न हुई । जब उस जीव द्रव्यके अनेक गुणोंकी अपेक्षा विचार करें तब यह कहना होगा कि अंतरात्माके गुणोकी पर्यायें पलटकर Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड | [ ६५ .. परमात्माके गुणोकी अवस्थामें हो गईं। जैसे ज्ञान गुणमे मति | श्रुतादिसे पलटकर केवलज्ञान पर्यायका होना, दर्शनगुण में चक्षु | अचक्षु आदिको छोडकर केवल दर्शन पर्यायका होना, वीर्यगुणमें अल्प वीर्यको पलटकर अनत वीर्यरूप होना, सुख गुणमें परोक्ष सुखको छोडकर प्रत्यक्ष अनन्त सुखकी पर्यायमे होना इत्यादि । जिससे मतलब यह सिद्ध होता है कि जैसे अतरात्मा जीवकी पर्याय समुदायसे एक है तथापि अनेक गुणोकी अपेक्षा अनेक है ऐसे परमात्माजी की पर्याय समुदायसे एक है तथापि अनेक गुणोंकी अपेक्षा अनेक है । और जैसे परमात्मा द्रव्यकी पर्याव जीव द्रव्यसे अभिन्न है वैसे परमात्माके अनेक गुणोकी पर्यायें भी परमात्मा द्रव्यसे भिन्न नही है । इससे यही सिद्ध किया गया कि गुणोंकी पर्यायें भी द्रव्य ही हैं वे द्रव्यको छोडकर पृथक नही हो सक्ती है।' ऐसी द्रव्यकी महिमाको नाननेका मतलब यह है कि हम द्रव्यके स्वभावका मनन करके रागद्वेष त्यागें और वीतरागभावमे रहकर निजानन्दकी प्राप्ति करके संसार - भ्रमणका अभाव करें ॥ १३ ॥ 1 t इस तरह खभावरूप या विभावरूप द्रव्यकी पर्यायें तथा गुणोकी पीयें नयकी अपेक्षासे द्रव्यका लक्षण है । ऐसे कथनकी मुख्यतासे दो गाथाओ से चौथा स्थल पूर्ण हुआ । उत्थानिका- आगे सत्ता और द्रव्यका अभेद है इस सम्बन्धमे फिर भी अन्य प्रकारसे युक्ति दिखलाते है ण हवदि जदि सहव असद्धवं हवदि तं कथं दव्व । हवदि पुणो अण्णं वा तम्हा व्यं सयं सत्ता ॥ १४ ॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ ] श्रीप्रवचनसारटोका। न भवति यदि सद्व्यममध्रुवं भवति ताय द्रव्यम् । भवति पुनर-यद्वा तस्माद्व्य स्वय सत्ता ॥ १४ ॥ अन्वय सहित मामान्यार्थ-(नदि) यदि (सद्दव्यं) सत्तारूप द्रव्य (ण हवदि) नहीं होवे तो (तं दव्यं असद्धवं कधं वदि ) वह द्रव्य निश्चयसे असत्तारूप होता हुआ किस तरह होसक्ता है (वा पुणो अण्णं हवदि) अथवा फिर वह द्रव्य सत्तासे भिन्न हो जावे, क्योंकि ये दोनो वातें नहीं होसक्ती (तम्हा दव्यं सयं सत्ता) इसलिये द्रव्य स्वय सत्ता स्वरूप है ॥ १४ ॥ विशेपार्थ-यहां वृत्तिकार परमात्म द्रव्यपर घटाकर कहते हैं कि यदि वह परमात्म द्रव्य परम चैतन्य प्रकाशमई स्वरूपसे अर्थात अपने स्वरूप सत्ताके अस्तित्व गुणसे सत् रूप न होवे तव वह निश्चयसे नही होता हुआ किस तरह परमात्म द्रव्य होसके ? अर्थात् परमात्म द्रव्य ही न होवे । यह वात प्रत्यक्षसे विरोध रूप है, क्योंकि स्वसंवेदन ज्ञानसे परमात्मा है ऐसा अनुभवमें आता है। यदि कोई विना विचारे ऐसा माने कि सत्तासे द्रव्य जुदा है तो उसकी अपेक्षासे, यदि द्रव्य सत्ता गुणके अभावमे भी रहता है ऐसा माना जावे तो क्यार दोष आवेंगे उसका विचार किया जाता है। यदि केवलज्ञान, केवलदर्शन गुणोके साथ अवश्य रहनेवाले अपने खरूपकी सत्तासे जुदा ही द्रव्य ठहर सक्ता है ऐसा माना नावे तो जब उसके स्वरूपका अस्तित्त्व नहीं है तब अपने स्वरूपकी सत्ताके विना द्रव्य नही रह सक्ता अर्थात द्रव्यका ही अभाव मानना पड़ेगा। अथवा यदि ऐसा माना जाता है कि अपनेर खरूपके अस्तित्वसे सत्ता और द्रव्यमे संज्ञा, लक्षण प्रयोजनादिकी Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड । . [६७ अपेक्षा भेद होते हुए भी प्रदेशोंकी अपेक्षा भिन्नता नहीं है-एकता है तब तो हमको भी सम्मत है क्योकि द्रव्यका ऐसा ही स्वरूप है। इस अवसर पर बौद्धमतके अनुसार कहनेवाला तर्क करता है कि ऐसा मानना चाहिये कि सिद्ध पर्यायकी सत्तारूपसे द्रव्य उपचारमात्रं है, मुख्यतासे नहीं है ? इसका समाधान आचार्य करते हैंकि यदि सिद्ध पर्यायका उपादान कारणरूप परमात्म द्रव्यका अभाव होगा तो सिद्ध पर्यायकी सत्ता ही नहीं संभव है। जैसे वृक्षके विना फलका होना सम्भव नहीं है। इसी प्रस्तावमें नेयायिक मतके अनुसार कहनेवाला कहता है कि परमात्मा' द्रव्य है कितु वह सत्तासे भिन्न रहता है, पीछे सत्ताके समवाय ( संबन्ध ) से वह सत् होता है। आचार्य इस शंकाका भी समाधान करते हैं । पूछते हैं कि सत्ताके समवायके पूर्व द्रव्य सत् है या असत् है ? यदि सत् है तो सत्ताका समवाय वृथा है क्योकि द्रव्य पहले से ही अपने अस्तित्वमें है ? यदि सत्ताके समवायसे पहले द्रव्य नहीं था तब आकाश पुप्पकी तरह नं विद्यमान होते हुए द्रव्यके साथ किस तरह सत्ताका समवाय होगा ? यदि कहो कि सत्ताका समवाय हो जावेगा तब फिर आकाश पुष्पके साथ भी सत्ताका समवाय हो जावेगा, परन्तु ऐसा होना संभव नहीं है। इसलिए अगेद नयसे शुद्ध खरूपकी सत्तारूप ही परमात्म द्रव्य है जसे यहां परमात्म द्रव्यके साथ शुद्ध चेतना स्वरूप सत्ताका अभेद व्याख्यान किया गया तैसे ही सर्व चेतन द्रव्योंका अपनी२ सत्तासे' अभेद व्याख्यान करना चाहिये। ऐसे ही अचेतन द्रव्योंका अपनीर सतासे अभेद है ऐसा समझना चाहिये। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८] श्रीप्रवचनसारटोका। भावार्थ-इस गाथामें आचार्य सत्ता और द्रव्यका ध्रुव संबंध है इस बातको स्पष्ट करते हैं। सत्ता गुण है, द्रव्य गुणी है। इस लिये संज्ञादिकी अपेक्षा गुण गुणीमे भेद होते हुए भी प्रदेशोकी अपेक्षा भेद नहीं है । द्रव्य गुणका आधार है । जहां द्रव्य है वहां गुण है। यदि कोई तर्क करे कि सत्तारूप द्रव्य नहीं है तब यह बडा भारी दोष आवेगा कि द्रव्य असत् होकर द्रव्य ही नहीं रहसक्ता क्योकि जिसमें अस्तित्त्व नहीं वह कोई वस्तु नहीं हो सक्ती है। ऐसा माननेसे द्रव्यका नाश हो जायगा । और यदि सत्ता और द्रव्य दो भिन्न २ माने जावें तो भी दोनोका अभाव हो जावेगा, क्योकि द्रव्यके विना सत्ता कहां रहेगी और सत्ता विना द्रव्य कैसे ठहर सकेगा । सत्तारूप द्रव्य है इसीसे वह ध्रुव रहता है। इसलिये यही निश्चित है कि द्रव्य स्वय सत्तारूप है। यदि बौद्धमतके अनुसार द्रव्यको क्षणभर ठहरनेवाला माना जावे ध्रुव न माना जावे तो उस द्रव्यसे कार्य नही होसक्ता । तब फिर यह जीव संसारी है-दुखी है। इसको अपना संसार मेटकर , मुक्त होना चाहिये यह उपदेश नहीं बन सका । जो जीव संसारी है वही जीव मुक्त होता है। जीवकी सत्ता ध्रुव माननेसे ही संसार और मुक्ति अवस्था बन सक्ती है। . जैसा कि स्वामी समंतभद्राचार्यने आप्तमीमांसामें कहा है:. यद्यसत्सर्वथा कार्य तन्मानि खपुष्पवत् । मोपादान नियामो भून्माऽऽश्वास: कार्य जन्मनि ॥ ४२ ॥ . भावार्थ-यदि द्रव्यकी सत्ता ध्रुव न मानी जावे और द्रव्यको, सर्वथा असत् माना जावे तो उस द्रव्यसे कोई काम नहीं होसक्ता। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड । सुवर्णकी सत्ता ध्रुव होनेसे ही उसमेंसे अनेक आभूषण बननेका काम होसक्ता है और तब वह असत् द्रव्य आकाशके पुष्प,समान हो जावेगा। तथा उपादानकारणका नियम न रहेगा अर्थात् घड़ा मिट्टीसे बनता है यह नियम न रहेगा । जब मिट्टी अपनी सत्ता न रक्खेगी तब उससे धड़ा बनेगा ऐसा नियम नहीं ठहर सक्ता है । और न मनमें यह विश्वास होसक्ता है कि अमुक कार्य अमुक कारणसे होगा। रोटी गेहूंसे बनती है ऐसा विश्वास होनेपर ही लोग गेहूंको खरीदकर लाते हैं । इस विश्वासका कारण गेहूंकी सत्ता है । इसलिये बौद्धमतके अनुसार माननेसे द्रव्यकी सत्ता नहीं ठहर सकी। यदि नैयायिकके अनुसार पहले सत्ता और द्रव्यको जुदा जुदा माना जावे फिर समवाय द्वारा उनका मेल माना जावे तब भी द्रव्यकी सिद्धि नहीं होसकी। द्रव्यमें सत्ता नहीं हो तो वह कैसे ठहर सक्ता है । सत्ता विना द्रव्यका अस्तित्व ही नहीं होसक्ता ! और न सत्ता द्रव्यके विना पाई नासती है । इसलिये यही बात निश्रित है सत्ता गुण है। द्रव्य गुणी है । दोनोंका अभेद है।, - उत्थानिका-आगे आचार्य पृथक्त्व और अन्यत्वका लक्षण कहते हैं पविभत्तपदेसत्तं पुत्तमिदि सासणं हि वीरस्स । अण्णत्तमतभावो ण तब्भवं भवदि कधमेगं ॥ १५ ॥ प्रविभक्तप्रदेशत्व पृथक्त्वमिति शासन हि वीरस्य । अन्यत्त्वमतद् भावो न तद् भवत् भवति कथमेकम् ॥१५॥ अन्वय सहित सामान्यार्थ-(पविमत्तपदेसत्तं) जिसमें प्रदेशोंकी अपेक्षा अत्यन्त भिन्नता हो (पुचतमिदि) वह पृथक्व Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०] श्रीप्रवचनसारटीका। है ऐसी (वीरस्स हि सासणं) श्री महावीर भगवानकी आज्ञा है। (अतव्भावो) स्वरूपकी एकताका न होना (अण्णत्तम्) अन्यत्व है। (तब्भवं ण) ये सत्ता और द्रव्य एक स्वरूप नहीं हैं (कधमेगं भवदि) तब किस तरह दोनों एक हो सक्ते हैं। विशेषार्थ-जहां प्रदेशोंकी अपेक्षा एक दूसरेमें अत्यन्त जुदायगी हो अर्थात् प्रदेश भिन्न भिन्न हो जैसे दन्ड और दन्डीमें भिन्नता है । इसको पृथकत्वनामका भेद कहते है । इस तरहका पृथकत्त्व या जुदापना शुद्ध आत्मद्रव्यका शुद्ध सत्ता गुणके साथ नही सिद्ध होता है क्योकि इनके परस्पर प्रदेश भिन्न २ नहीं है। जो द्रव्यके प्रदेश हैं वे ही सत्ताके प्रदेश हैं । जैसे शुक्ल वस्त्र और शुक्ल गुणका स्वरूप भेद है परन्तु प्रदेश भेद नहीं है ऐसे ही गुणी और गुणके प्रदेश भिन्न २ नहीं होते। ऐसी श्रीवीर नामके अंतिम तीर्थकर परम देवकी आज्ञा है । जहां संज्ञा लक्षण प्रयोजन आदिसे परस्पर स्वरूपकी एकता नहीं है वहां अन्यत्व नामका भेद है ऐसा अन्यत्व या भिन्नपना मुक्तात्मा द्रव्य और उसके शुद्ध सत्ता गुणमे है । यदि कोई कहे कि जैसे सत्ता और द्रव्यमें प्रदेशोकी अपेक्षा भेद है वैसे संज्ञादि लक्षण रूपसे भी अभेद हो ऐसा माननेसे क्या दोष होगा? इसका समाधान करते हैं कि ऐसा वस्तु स्वरूप नहीं है। वह मुक्तात्मा द्रव्य शुद्ध अपने सत्ता गुणके साथ प्रदेशोकी अपेक्षा अभेद होते हुए भी सज्ञा आदिके द्वारा सत्ता और द्रव्य तन्मई नही है । तन्मय होना ही निश्चयसे एकताका लक्षण है कितु संज्ञादि रूपसे एकताका अभाव है। सत्ता और द्रव्यमे नानापना है। जैसे यहां मुक्तात्मा द्रव्यमें प्रदेशोके अभेद होने पर भी Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड | [ ७१. संज्ञादि रूपसे नानापना कहा गया है तैसे ही सर्व द्रव्योका अपने अपने खरूप सत्ता गुणके साथ नानापना जानना चाहिये ऐसा अर्थ है । भावार्थ - इस गाथामें आचार्यने भेदके दो भेद बताए हैंएक पृथकत्त्व, दूसरा अन्यत्त्व । जहां एक द्रव्यके प्रदेश दूसरे द्रव्यके प्रदेशोंसे भिन्न होते हैं वहां पृथकत्त्व नामका भेद है। जहां प्रदेश एक होनेपर भी गुण व गुणी या पर्याय व पर्यायवान में संज्ञा लक्षण प्रयोजनादिकी अपेक्षा भेद होता है वहां पर अन्यत्त्व नामका भेद होता है। जीव अनंतानंत है उन सबमें पृथकत्त्व है । हरएक जीव अपने २ प्रदेशको भिन्न रखता हुआ एक दूसरेसे पृथक् है। पुद्गलके परमाणु या बंध रूप स्कंध एक दूसरेसे प्रदेशों की अपेक्षा भिन्न भिन्न हैं इससे पृथक हैं। कालाणु द्रव्य असंख्यात है इनमे भी परस्पर प्रदेश भेद है इससे पृथक २ हैं । धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय एक एक ही अखण्ड द्रव्य हैं। अनंतानंतजीव, अनतानत पुद्गल, असख्यात कालाणु, धर्म, अधर्म, आकाश ये सच परस्पर पृथक्त्व नामके भेदको रखते हैं। ये सब सदा जुदे २ हैं । इससे यह सिद्ध होता है कि छः द्रव्य कभी एक द्रव्य न थे, न है, न होवेंगे। इन छ. में भी जो जो द्रव्य अनेक हैं वे भी अपने बहुपको कभी नही छोडेंगे । द्रव्यका दूसरे द्रव्यके साथ थ नामका भेद है । परन्तु जिन गुणोंको द्रव्य आश्रय देता है उनके, साथ द्रव्यका कभी थकत्त्व न था न है न होगा । गुणोके अमिट समुदायको द्रव्य कहते हैं- जो द्रव्यके आश्रय हो और अपने में ✓ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२] श्रीप्रवचनसारटोका। अन्य गुण न रखते हो वे गुण हैं-दोनोंका तादात्म्य सम्बन्ध है. जो कभी छूट नहीं सक्ता । ऐसा होनेपर भी स्वरूपकी अपेक्षा द्रव्यका स्वरूप गुणके स्वरूपसे एक नहीं है । संजादिकी अपेक्षा भेद है जैसे वस्त्र द्रव्यका शुक्ल गुण है । वस्त्र और शुल्लपनेका प्रदेशभेद नहीं है तथापि स्वरूपभेद है-संज्ञा संख्या लक्षण प्रयोजनसे भिन्नता है । वस्त्रकी संज्ञा वस्त्र है। शुक्ल गुणकी संज्ञा शुक्ल है । दोनोके नाम अलग २ हैं। वस्त्र किसी अपेक्षा एक व अनेक तंतुओकी अपेक्षा अनेक हैं। शुक्ल गुण एक है यद्यपि अशोकी अपेक्षा अनेक शुक्ल गुण भी होसक्ता है तथापि परस्पर सख्याकी रीति मिन्न २ है । वस्त्रका लक्षण तागोका समूह बंधनरूप है। शुक्ल गुणका लक्षण सफेदपनेको झलकाना है। वस्त्रका प्रयोजन शरीरको ढकना है-सर्दी मेटना है, लज्जा दूर करना है जब कि शुक्ल गुणका प्रयोजन उज्वलता रखकर मलीनता दूर रखना है । वस्त्रको जव हम आंखोसे देख सक्ते, हाथसे छूसक्ते, नाकसे सूंघ सक्ते, मुंह द्वारा स्वाद लेसक्ते तव शुक्ल गुणको हम केवल आंखसे ही देख सक्ते हैं। इस तरह गुण और गुणीमे स्वरूपकी अपेक्षा भेद होता है इस तरहके भेदको अन्यत्त्व कहते हैं। यहां द्रव्य गुणी व सत्ता गुणमें पृथकत्व भेद नहीं है मात्र खरूप भेद है इस लिये अन्यत्त्व है। द्रव्य और सत्तामें संज्ञाका भेद है ही। द्रव्य कोई एक कोई अनेक हैं जब कि सत्ता गुण एक है यह सख्या भेद है। द्रव्यका लक्षण गुण पर्यायवान हैं या उत्पाद व्यय प्रौव्यरूप है । सत्ता गुणका लक्षण अस्तित्व रखना है । द्रयका प्रयोनन किसी खास अर्थ क्रियाको Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [७३ करना है जैसे जीवका संसारीसे मुक्त होना, व पुद्गलका मिट्टीसे घड़ा ' बनना, सोनेसे आभूषण बनना, इंटोंसे मकान बनना, सत्ता गुणका प्रयोजन नित्य पदार्थको बनाए रखना है। इस तरह खरूप भेदसे अन्यत्त्व नामका मेद है तथापि प्रदेश 'भेद नहीं है इस तरह द्रव्यका सत्ता के साथ किसी अपेक्षा भेद हैव 'किसी अपेक्षा अभेद है। सर्वथा अभेद होनेपर भिन्न २ नाम व काम नहीं हो सक्त तथा सर्वथा भेद होनेपर दोनोका ही अभाव हो जावेगा जैसा पहले कह चुके है । सत्ताके विना द्रव्य नहीं ठहर सक्ता 'तथा द्रव्यके विना सत्ता नहीं रह सक्ती | जैसे द्रव्य और गुणका प्रदेशमेट नहीं है किंतु स्वरूपभेद है वैसे द्रव्य और पर्यायका प्रदेश भेद नहीं है किंतु खरूप भेट है ऐसा ही खामी समन्तभद्राचार्थने आप्तमीमांसामें कहा है द्रव्यपर्यायोरेक्य तयोरव्यतितः । परिणामविशेपाच, शक्तिमन्छक्ति भावतः ॥ ७१० ॥ भावार्थ-द्रव्य और पर्यायकी एकता है क्योकि दोनों भिन्नर नही मिलते। जहां द्रव्य है वहां पर्याय है । परिणामका विशेष है सो पर्याय है। परिणाम द्रव्यमें होता है, इस कारण भी एकता है, शक्तिमान द्रव्य है। जिसमें शक्तियें पाई जावें वह द्रव्य है। शक्तिये उसके गुण या पर्याय हैं इससे भी एकता है जैसे धीमें चिकनई, पुष्ठता आदि शक्तिये हैं । इस श्लोकमे द्रव्यकी गुण या गुणविकार ‘पर्यायके साथ एकता सिद्ध कीगई । आगे अनेकता बताते हैं सशासंख्याविशेषाञ्च स्वलक्षणविशेषतः । प्रयोजनादि भेदाच्च तनानात्व न सर्वथा ॥ ७२ ॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४] श्रीप्रवचनसारटीका। भावार्थ-द्रव्य और पर्यायमें संज्ञाके विशेषसे, संख्याके विशेषसे, अपने २ लक्षणके विशेषसे तथा अपने २ प्रयोजनके विशेपसे एकता नहीं है-अनेकता है जैसे वृक्ष और उसके पत्रोंमें विशेषता है । यद्यपि वृक्ष और उसके पत्तें एक ही हैं तथापि दोनोंक नाममें फर्क है, संख्यामें अंतर है, वृक्ष एक है, पत्ते अनेक है । वृक्षका लक्षण मूल, धड, शाखा, पत्रादि सहित फलना है। पत्तोका लक्षण शाखाको शोभितकर हरेपने आदिको प्रगट करना है । वृक्षका प्रयोजन फल फूल व छाया देना है। पत्रोका प्रयोजन वृक्षको पवन देना व उसको फलनेमे सहाई होना है। इस तरह द्रव्यमें गुण या पर्यायसे अनेकता है। द्रव्य और पर्यायका नाम अलगर है। द्रव्य एक है, पयायें अनेक हैं। यह संख्याका भेद है। द्रव्यका लक्षण गुण पर्यायवान है। पर्यायका लक्षण तद्भाव परिणाम है । द्रव्यका प्रयोजन एकपना या अन्यपनेका ज्ञान कराना है। पर्यायका प्रयोजन अनेकपना जुदापना बताना है। यहां श्लोकमे आदि शब्द है उससे मतलब यह है कि काल अपेक्षा भेद है द्रव्य त्रिकालगोचर है जब कि पर्याय वर्तमानकालगोचर है। द्रव्य और पर्यायका भिन्न २ प्रतिभास है यह प्रतिमास भेद है। इस तरह द्रव्य और गुण या पर्याय प्रदेशोंके अपेक्षा एक हैं किन्तु स्वरूपादिकी अपेक्षा अनेक रूप हैं। दोनोमे एकता और अन्यत्त्व भिन्न २ अपेक्षासे है। न सर्वथा एक हैं न सर्वथा भिन्न २ हैं। ___ स्याहादसे ही वस्तुका यथार्थ खरूप मालूम होताहै। वृत्तिकारके अनुसार मुक्तात्मा द्रव्यको और उसकी स्वरूप सत्ताको प्रदेशापेक्षा Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VA द्वितीय खंड। [७५ एक तथा स्वरूपापेक्षा भिन्न २ जानकर भावनाके समय भेदरूप. तथा एकरूप विचार करना इसी तरह अपने आत्माके भी खरूपको विचार करना इसी विचारकी प्रणालीसे खखरूपमें अनुभव प्राप्त होगा यही स्वानुभव रत्नत्रयमई मोक्षमार्ग है और निराकुल अतीन्द्रिय आनदका देनेवाला है। तात्पर्य यह है कि आत्मद्रव्यका सच्चा खरूप समझकर उसीके मननसे अपना हित करना चाहिये । उत्थानिका-आगे अन्यत्त्वका विशेष विस्तारके साथ कथन, करते है सहब सच्च गुणो सच्चेव य पजभोत्ति वित्थारो। जो खलु तस्स अभावो सो तदभावो भतभावो ॥१६॥ सदद्रव्यं सञ्चगुणः सञ्चैव च पर्याय इति विस्तारः । यः खलु तस्याभावः स तदभावेऽनद्भाव, ॥ १६ ॥ अन्वय महित सामान्यार्थ-(सहव्वं) सत्तारूप द्रव्य है । (सच्च गुणो) और सत्तारूप गुण है, ( सच्चेव पन्जओति ) तथा सत्तारूप पर्याय है ऐसा (वित्यारो) सत्ताका विस्तार है। (खल ) निश्चय करके ( तस्स-अभावो ) जो उस सत्ताका परस्पर अभाव, ' है (सो तदभावो) वह उसका अभावरूप (अतभावो) अन्यत्व है। विशेपाथ-जैसे मोतीके हारमे सत्ता गुणकी जगहपर जो उसमें सफेदीका गुण है सो प्रदेशोंकी अपेक्षा एक रूप है नौ भी उसको भेद करके इस तरह कहते हैं कि यह सफेद हार है, यह सफेढ मूत है, यह सफेद मोती है तथा जो हार सूत या मोती है इन तीनोके साथ प्रदेशोका भेद न होते हुए सफेद गुण कहा जाता है यह एकता या तन्मयपनाका लक्षण है। अर्थात् हार Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ ] श्रीप्रवचनसारटोका। सूत तथा. मोतीका शुक्ल गुणके साथ तन्मयपना है अर्थात प्रदेशोंका अभिन्नपना या एकपना है तैसे मुक आत्मा नामके पदार्थमें जो कोई शुद्ध सत्ता गुण है वह प्रदेशोंके अभेद होते हुए इस तरह कहा जाता है । सत्ता लक्षण परमात्मा पदार्थ, सत्ता लक्षण उसके केवलज्ञानादि गुण, सत्तालक्षण सिद्ध पर्याय । जो कोई परमात्म पदार्थ व केवलज्ञानादि गुण व सिद्ध पर्याय है इन तीनोके साथ शुद्ध सत्ता गुण एक कहा जाता है यह तद्भाव या एकताका लक्षण है। तदभावका प्रयोजन यह है कि परमात्मा पढार्थ, केवलज्ञानादि गुण, सिद्धत्व पर्याय इन तीनोका शुद्ध सत्ता नामा गुणके साथ संज्ञा संख्या लक्षण प्रयोजनकी अपेक्षा भेद होते हुए भी प्रदेशोकी अपेक्षा तन्मयपना ही है अर्थात् एकता ही है सत्ता गुण इन तीनोंमे व्यापक है। निश्चय करके जो इस तदभाव या एकताका संज्ञा संख्या आदिकी अपेक्षासे परस्पर अभाव है उसको तदभाव या उस एकताका अभाव या अतद्माव या अन्यत्व कहते हैं । इस अन्यत्त्वका संझा लक्षण प्रयोजनादिकी अपेक्षा जो स्वरूप है उसको दृष्टांत देकर बताते हैं। जैसे मोतीके हारमे जो कोई शुक्ल गुण है उसका वाचक जो शुक्ल नामका दो अक्षरका शब्द है उस शब्दसे हार, या सूत्र या मोती कोई वाच्य नहीं है अर्थात् शुक्ल शब्दसे हार, सूत्र या मोतीका ज्ञान नहीं होता है केवल सफेद गुणका ज्ञान होता है इसी तरह हार, सूत या मोती शब्दोंसे शुक्ल गुण नहीं कहा जाता है। इस तरह हार, सूत तथा मोतीके साथ शुक्ल गुणका प्रदेशोंकी Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। - [७७ अपेक्षा अभेद या एकत्त्व होनेपर भी जो सज्ञा आदिका भेद है वह भेद पहले कहे हुए तदभाव या तन्मयपनेका अभावरूप अतद्भाव है या अन्यत्त्व है अर्थात् सज्ञा लक्षण प्रयोजन आदिका भेद है ।। तैसे मुक्त जीवमे जो कोई शुद्ध सत्तागुण है उसको कहनेवाले सत्ता शब्दसे मुक्त जीव नहीं कहा जाता न केवलज्ञानादि गुण कहे जाते. न सिद्ध पर्याय कही जाती है । और न मुक्त जीव केवलज्ञानादि गुण या सिद्ध पर्यायसे शुद्ध सत्ता गुण कहा जाता है। इस तरह सत्ता गुणका मुक्त जीवादिके साथ परस्पर प्रदेशभेद न होते हुए भी. जो कोई संझा आदिकृत भेद है वह भेद उस पूर्वमे कटे हुए तद्भाव या तन्मयपनेके लक्षणसे रहित अतभाव या अन्यत्त्व कहा जाता है । अर्थात् संज्ञा लक्षण प्रयोजन आदि कत भेद है ऐसा अर्थ, है। जैसे यहां शुद्धात्मामें शुद्ध सत्ता गुणके साथ अभेद स्थापित. किया गया तैसे ही यथासभव सर्व द्रव्योंमें जानना चाहिये यह अभिप्राय है-अर्थात् आत्माका और सत्ताका प्रदेशकी अपेक्षा अभेद है, मात्र संज्ञादि स्वरूपकी अपेक्षा भेट या अन्यत्व है। ऐसा ही अन्य द्रव्योंमें समझना। भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने खरूपकी अपेक्षा गुण गुणीका अन्यत्व या भिन्नपना है इसको अच्छी तरह दर्शा दिया है। द्रव्य गुण पर्यायवान है सत्ता इनमें व्यापक है इससे हम ऐसा कह सक्ते हैं कि सत्तारूप द्रव्य, सत्तारूप गुण, सत्तारूप पर्याय । जो. प्रदेश द्रव्यकी सत्ताके है वे ही प्रदेश गुण और पर्यायकी सत्ताके हैं इस तरह सत्ताकी एकता द्रव्य गुण पर्यायके साथ है परन्तु जब गुण और गुणीको भेद. करके विचारते है तो सत्ताका द्रव्यगुण Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८] श्रीप्रवचनसारटीका । पर्यायके साथ भेद है । सत्ता नामकी संज्ञासे मात्र सत्पनेका बोध होता है द्रव्यगुण पर्यायका बोध नहीं होता है । इसी तरह द्रव्य गुण पर्यायसे द्रव्यगुण पर्यायका बोध होता है, सत्ताका बोध नहीं होता है। इस तरह संज्ञा लक्षण प्रयोजनादिकी अपेक्षा सत्ताका और द्रव्य आदिका अन्यपना है। इस तरह गुणगुणीका प्रदेशकी अपेक्षा - अभेद है, परन्तु स्वरूपकी अपेक्षा भेद है । यहां वृत्तिकारने मोतीकी मालाका दृष्टांत दिया है उसका खुलासा यह है कि मोतीकी माला, सूत, तथा मोती इन तीनोंमें सफेदी गुण व्यापक है । प्रदेशो की अपेक्षा सफेदी और मोतीके हारकी एकता है किन्तु संज्ञा प्रयोजनादिकी अपेक्षा भेद है । अर्थात् - सफेदी सिर्फ सफेदपनेको ही कहती है, यह नहीं बताती है कि हार सूत या मोती है - इसी तरह हार सृत या मोती अपने २ स्वरूपको बताते हैं, सफेदीको नहीं बताते है। इस तरह सफेदीका और हार, सूत, मोतीका अन्यपना है । यहां विशेषता यह झलकती है कि यदि सत्ताका विस्तार किया जावे तो द्रव्यकी सत्ता, गुणकी सत्ता और पर्यायकी सत्ता ऐसी तीन सत्ताएं हो जावेगीं । ये तीनों सत्ताएं भी परस्पर अपने स्वरूपसे भिन्न हैं यद्यपि प्रदेशोका भेद नही है। जहां द्रव्यकी सत्ता है वहीं उसके गुणकी सत्ता है, वहीं उसके पर्यायकी सत्ता है तथापि स्वरूपकी अपेक्षा द्रव्यदीमत्ता है सो गुणकी सत्ता नही है न पर्यायकी सत्ता है | गुणकी सत्ता है सो द्रव्यकी सत्ता नही है न पर्यायकी सत्ता है सो द्रव्यकी सत्ता नही है न गुणकी सत्ता है । द्रव्य तो - गुणका समुदाय परिणमनशील अन्वयरूप अर्थात् बराबर अखंड Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [७९ रूपसे रहनेवाला है, गुण द्रव्यके आश्रय अन्य गुण रहित नित्य ठहरनेवाला है, पर्याय गुणका विकार क्षणभंगुर एक समय मात्र ठहरनेवाला है इस तरह इन तीनोंके स्वरूपमें परस्पर भेद है, प्रदेशभेद नहीं है । इसलिये इन तीनोंमें भी एकत्व और अन्यत्व है । और जब हम इन द्रव्यकी सत्ताके साथ एकताका विचार करते हैं तब प्रदेशोंकी अपेक्षा एकता है किन्तु स्वरूपकी अपेक्षा अन्यपन है। द्रव्य गुणी है सत्ता गुण है-द्रव्य गुणपर्यायवानपनेका बोधक है सत्ता मात्र अस्तिपनेको बताती है । इसी तरह गुणकी सचाके साथ सत्ताकी प्रदेशापेक्षा एकता है परन्तु स्वरूपकी अपेक्षा भिन्नता है। इसी तरह पर्यायकी सत्ताके साथ सत्ताकी प्रदेशापेक्षा एकता है परन्तु' स्वरूपकी अपेक्षा भिन्नता है। जैसे मोतीकी सफेदी, सूतकी सफेदी, हारकी सफेदी इन तीनोमे अलग अलग एकत्व तथा अन्यत्व है जैसे मोतीका सफेदीके साथ प्रदेशभेद नहीं है इससे एकता है परन्तु नाम व प्रयोजनादिसे भेद है यही अन्यत्र है इसी तरह हारकी सफेदी व सुतकी सफेदीमें एकत्व और अन्यत्व जानना चाहिये । ऐसे ही सिद्धात्माकी सत्ता, केवलज्ञानादि गुणोकी सत्ता, सिद्धावस्थाकी सत्ता इन तीनोमें अलग २ एकत्व और अन्यत्व सिद्ध होसक्ता है । जैसे सिद्धात्माका और सत्ताका प्रदेशं भेद न होनेसे एकत्व हैं परन्तु संज्ञा आदिसे भेद है इससे अन्यत्व है इसी तरह ज्ञानादि गुण तथा सिद्ध पर्यायके साथ सत्ताका एकत्व और अन्यत्व जानना चाहिये । यहां यह बात समझ लेनी कि यद्यपि एक गुणमें दूसरा गुण नहीं रहता है तथापि जब द्रव्यमें सर्व ही सामान्य तथा विशेष गुण द्रव्यके सर्वस्वमें व्यापक हैं Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०] श्रीप्रवचनसारटीका । तब एक गुणमें भी अनेक गुणोका वैसा ही असर पड़ता है जैसे एक अखण्ड द्रव्यमे सब गुणोंका पड़ता है इसलिये यहां यह कहा गया कि द्रव्यकी सत्ता गुणकी सत्ता पर्यायकी सत्ता सो अपेक्षा, ठीक समझनेसे कोई विरोध नही होसक्ता। इस तरह वस्तुका स्वरूप समझकर एक मोक्षार्थी पुरुपको योग्य है कि वह निज आत्माके द्रव्य, गुण व पर्यायका भिन्न २ विचार करके व निजानुभव जगाकरके परमानन्दका लाभ करे। उत्थानिका-और भी गुण और गुणीमे प्रदेश भेद नहीं है परन्तु सज्ञादि क्त भेद हे इस तरह अन्यत्वको दृढ़ करते हैं जं दवंतण्ण गुणो जो विगुणो सो ण तच्चमत्थादो। एसो हि अतव्भावो णेव अभावोति णिहिट्ठो ॥ १७ ॥ यद्रव्य तन्न गुणो योपिगुणः स न तत्त्वमर्थात् ।। एष ह्यतद्भावो नैव अभाव इति निर्दिष्टः ॥ १७ ॥ __ अन्वय सहित सामान्यार्थ-(जं दव्व) जो द्रव्य है (तण्ण गुणो) वह गुण नहीं है (जो वि गुणो) जो निश्चयसे गुण है (सो अत्थादो ण तच्चम् ) वह स्वरूपके भेदसे द्रव्य नही है (एसो हि अतन्मावो) ऐसा ही स्वरूप भेदरूप अन्यत्व है (णेव अभोवोत्ति) निश्चयसे सर्वथा अभाव नहीं है ऐसा (गिदिट्ठो) सर्वज्ञ द्वारा कहा, गया है ॥ विशेषार्थ-वृत्तिकार मुक्त जीवपर घटाकर समझाते हैं कि जो द्रव्य है सो स्वरूपसे गुण नहीं है । नो मुक्त जीव द्रव्य है सो शुद्ध है वह मात्र गुण नहीं है । उस मुक्त जीव द्रव्य शब्दसे शुद्ध सत्ता गुण वाच्य नही होता है अर्थात नहीं कहा जाता है। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ [ 48 इसी तरह जो शुद्ध सत्ता गुण है वह परमार्थसे मुक्तात्म द्रव्य नहीं होता है। शुद्ध सत्ता शब्दसे मुक्तात्मा द्रव्य नहीं कहा नाता । इस तरह गुण और गुणी में स्वरूपकी अपेक्षा या संज्ञादिकी 'अपेक्षा भेद है- तौभी प्रदेशोंका भेद नहीं है इससे सर्वथा एकका दूसरे में अभाव नहीं है ऐसा सर्वज्ञ भगवानने कहा है । यदि गुणीमें गुणका सर्वथा अभाव माना जावे तो क्या २ दोष होंगे उनको समझाते हैं। जैसे सत्ता नामके वाचक शब्दसे मुक्तात्मा द्रव्यवाच्य नहीं होता वैसे यदि सत्ताके प्रदेशोंसे भी सत्तागुणसे मुक्तात्म द्रव्य मिल होजावे तब जैसे जीवके प्रदेशोंसे पुद्गल द्रव्य मिन्न होता द्वितीय खंड | + हुआ अन्य द्रव्य है तैसे सत्ता गुणके प्रदेशोसे सत्तागुणसे मुक्त जीव 1575 द्रव्यभिन्न होता हुआ जुदा ही दूसरा द्रव्य प्राप्त होजावे । तब यह सिद्ध होगा कि सत्तागुण रूप जुदा द्रव्य और मुक्तात्मा द्रव्य +13, जुदा, इस तरह दो द्रव्य होजायेंगे । सो ऐसा वस्तु स्वरूप नहीं है। "इसके सिवाय दूसरा दूषण यह प्राप्त होगा कि जैसे सुवर्णपना नामा गुणके, प्रदेशोंसे सुवर्ण भिन्न होता हुआ अभावरूप होजायगा तैसे ही सुवर्ण द्रव्यके प्रदेशोसे सुवर्णपना गुण भिन्न होता हुआ अभाव suff रूप हो जायगा तैसे सत्तागुणके प्रदेशोसे मुक्त जीवद्रव्य भिन्न होता हुआ अभावरूप हो जायगा, तैसे ही मुक्त जीव द्रव्यके प्रदेशोंसे सत्ता "भिन्न होता हुआ अभावरूप हो जायगा, इस तरह दोनोंका शून्यपना प्राप्त हो जायगा । इस तरह गुणी और गुणका सर्वथा मानने से दोष आ. जावेंगे। जैसे जहां मुक्त जीव द्रव्यमें सत्ता गुणके साथ सज्ञा आदि भेद अन्यपना है किन्तु प्रदेशोंकी है ऐसा व्याख्यान किया गया तैसे पक्षा प्रभेद या Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीप्रवचनसारटोका। ही सर्व द्रव्योंमें यथासंभव जान लेना चाहिये ऐसा अर्थ है। भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने गुण और गुणीके सबन्धको और भी साफ कर दिया है । गुणी द्रव्य है जो अनेक गुणोका समुदायरूप अखंड पिंड है । गुण वह है जो द्रव्यमें पाया जाता है अपने खरूपसे एक है। गुणी द्रव्यका नाम जुदा है, गुणका नाम जुदा है-लक्षण, संज्ञा, प्रयोजन भी दोनोका जुदा जुदा है इस तरह संज्ञा, संख्या लक्षण प्रयोजनकी अपेक्षा गुणी द्रव्यमें और गुणमें अन्यत्त्व है किन्तु जैसे एक द्रव्य दूसरे द्रव्यसे भिन्न है और ऐसी भिन्नता नहीं है । जैसे एक द्रव्य के प्रदेश दूसरे द्रव्यके प्रदेशोंसे बिलकुल भिन्न है ऐसी प्रदेशोकी भिन्नता द्रव्य और गुणमें नहीं है। जितने प्रदेश द्रव्यके है उतने ही प्रदेश गुणके हैं। जहां द्रव्य है वही गुण है। न द्रव्यके विना गुण कहीं पाया जाता है न गुणके विना द्रव्य कहीं पाया जाता है। दोनोंमें सदासे ही अमिट तादात्म्य सम्बन्ध है । मात्र खरूपमे भेद है । जैसे सोनेका पीलापन गुण है । दोनोमें एकता है। जहां सोना है वही उसका पीलापन है। सोनेके पीलापनसे जुदा सोना नहीं पाया जाता और न सोनेसे जुदा सोनेका पीलापन पाया जाता तथापि सोनेका नाम जुदा है पीलेपनका नाम जुदा है । सोनेका लक्षण पीलापन, भारीपन आदि अनेक गुणोका समूह है जब कि पीतपनेका लक्षण पीत वर्ण मात्रका बोध कराना है। सुवर्णकी संख्या एक व अनेक प्रकारकी खंडापेक्षा हो सक्ती है-पीतपनेकी संख्या अनेक सुवर्ण अंशोमें एक रह सक्ती है। सुवर्णका प्रयोजन शोभा आदिके लिये आभूषणादि बनाना है । पीतपनेका प्रयोजन Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A द्वितीय खंड । [a पीतता झलकाना है इस तरह संज्ञा, संख्या, लक्षण, प्रयोजनकी अपेक्षा सुवर्ण और पीतपने में भेद है ऐसे ही द्रव्य और गुणमें भेद या अन्यत्व है, प्रदेशोकी अपेक्षा भेद नहीं है। यदि द्रव्य और गुणमें सर्वथा भेद माना जावे तो जेसे कोई द्रव्य अपने प्रदेशोसे एक द्रव्य है वैसे गुण भी अपने प्रदेशोंसे एक दूसरा द्रव्य हो जावे तब दो द्रव्य हो जावें। सो यह वस्तुका खरूप नहीं है। गुण द्रव्यमें ही पाए जाते हैं अलग अपनी सत्तामें नहीं रह सक्ते । दूसरा दोष यह होगा कि जैसे द्रव्य गुणके विना नहीं होसक्ता वैसे गुण भी द्रव्यके विना नहीं होसक्ता । इस तरह सर्वथा जुदा माननेसे दोनोंका ही अभाव या शून्यपना होजायगा। तीसरा दोष यह होगा कि द्रव्यका अभाव सो गुण और गुणका अभाव सो द्रव्य जैसे घटका अभाव पट और पटका अभाव घट, इस दोपको अपोहरूपत्त दोप कहते है। इस तरह गुणी और गुणमें सर्वथा भेद माननेसे दोप प्राप्त होते है । ऐसा ही वस्तुका. खरूप निश्चय करना चाहिये । द्रव्य और गुग किप्ती अपेक्षा एक और किसी अपेक्षा अन्य हैं। इसी तरह जीव द्रव्य अपने ज्ञान सुख वीर्यादि गुणोसे खरूपापेक्षा भेद रखता हुआ भी प्रदेशोसे अभेद है। पुद्गल अपने स्पर्श रस गन्ध वर्ण गुणसे व खरूपसे भेद रखता हुआ भी प्रदेशोंसे अभेद हैं। ऐसे ही अन्य द्रव्योका स्वरूप निश्चय करना चाहिये । इस तरह द्रव्यके अस्तित्वको कथन करते हुए प्रथम गाथा, एककत्व लक्षण और अतद्भाव रूप अन्यत्व लक्षणको कहते हुए दूसरी, संज्ञा लक्षण प्रयोजनादिसे भेदरूप अतदभावको कहते Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीप्रवचनसारटोका। तीसरी, उसीके दृढ़ करनेके लिये चौथी । इस तरह द्रव्य और गुणमें अभेद है इस विषयमें युक्ति द्वारा कथनकी मुख्यतासे चार गाथाओंसे पाचमा स्थल पूर्ण हुआ ॥ १७ ॥ उत्थानिका-आगे कहते हैं कि सत्ता गुण है और द्रव्या गुणी है जो खलु दव्वसहावो परिणामो सो:गुणो सदविसिहो। ' सवद्वियं सहावे दवत्ति जिणोवदेसोय ॥१८॥ य खलु द्रव्यस्वभावः परिणामः स गुणः सदविशिष्टः । सदवस्थितं स्वभावे द्रव्यमिति जिनोपदेशोऽयम् ॥ १८ ॥ . - अन्वय सहित सामान्यार्थ-(खलु) निश्चयसे (जो दवसहावो परिणामों ) जो द्रव्यका स्वभावमई उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप यरिणाम है (सो सदविसिट्ठो गुणो) सो सत्तासे अभिन्न गुण है। (सहावे अवट्ठियं दव्वति सत् ) अस्तित्त्व स्वभावमे तिष्ठता हुआ द्रव्य सत् है या सत्तारूप है (जिणोवदेसोय) ऐसा श्री जिनेन्द्रका उपदेश है ॥ १८॥ विशेषार्थ-वृत्तिकार जीव द्रव्यपर घटाकर व्याख्या करते है कि जब आत्मामे पचेंद्रियके विषयोके अनुभवरूप मनके व्यापारसे पैदा होनेवाले सब मनोरथ रूप विकल्पजालोंका अभाव हो जाता है, तब चिदानंद मात्रकी अनुभूति रूप जो आत्मामें ठहरा हुआ भाव है उसका उत्पाद होता है और पूर्वमें कहे हुए विकल्पजालका नाश सो व्यय है, तथा इस उत्पाद और व्यय दोनोका आधार रूप जीवपना ध्रौव्य है। इस तरह लक्षणके धारी उत्पाद व्यय ध्रौव्य खरूप जीव द्रव्यका जो कोई स्वभावभूत परिणाम है वही सत्तासे Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। अभिन्न गुण है । जीवमें उत्पादादि तीन रूप परिणमन है सो ही संवगुण है जैसा कि कहा है "उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्" । ऐसा होने पर यह सिद्ध हुआ कि सत्ता ही द्रव्यका गुण है । इस तरह सत्ता गुणका व्याख्यान किया गया । परमात्मा द्रव्य अभेद नयसे अपने उत्पाद व्यय धौव्यरूप स्वभावमे तिष्ठा हुआ सत् है ऐसा श्री जिनन्द्रका उपदेश है। “सदवद्विंदं सहावे दव्वंदव्वस्स जो हु परिणामो" इत्यादि आठवी गाथामें जो कहा था वही यहां कहा गया । मात्र गुणका कथन अधिक किया गया यह तात्पर्य है । जैसा जीव द्रव्यमें गुण और गुणीका व्याख्यान किया गया वैसा सर्व द्रव्यमे जानना चाहिये। भावार्थ-इम गाथामें आचार्यने अच्छी तरह स्पष्ट कर दिया है कि द्रव्य गुणी है सत्ता गुण है, दोनोकी 'एकता है-सत्ताविना द्रव्य नहीं और द्रव्य विना सत्ता नहीं होती है-सत्ता गुण द्रव्यमें प्रधान है, द्रव्य सत्तामें सदा रहता है। क्योकि हरएक द्रव्यमें उत्पाद व्यय ध्रौव्य पाए जाते हैं इसलिये हरएक द्रव्य सत् है। द्रव्यमें अर्थ क्रिया होना तब ही संभव है जब द्रव्य परिणमन करे अर्थात् पूर्व पर्यायको छोड़कर उत्तर पर्यायको प्राप्त हो तो भी श्रौव्य रहे । मिट्टी अपने ढेलेपनकी हालतको छोडकर ही घडेकी अवस्थाको पदा करती है तो भी आप बनी रहती है । द्रव्यमें इन तीन प्रकार परिणामको होना ही द्रव्यके अस्तित्वका ज्ञान कराता है, क्योंकि हरएक द्रव्य सदा ही उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप रहता है इसलिये वह सदा ही सतरूप है। " ऐसा स्वरूप द्रव्यंका माननेसे ही संसार अवस्थाका नाश होकर सिद्ध पर्यायका उत्पन्न होना तथा आत्माका दोनों अवस्था में नित्य Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीप्रवचनसारटोका। बनारहना संभव है। इसी ही स्वरूपको माननेसे ही एक तत्वज्ञानी सविकल्प अवस्थाको नाशकर निर्विकल्प अवस्थामे पहुंच जाता है। इस तरह द्रव्य गुणी है, सत्ता गुण है। दोनोका प्रदेशोंकी अपेक्षा अभेद है और संज्ञादिकी अपेक्षा भेद है। उत्थानिका-आगे गुण और पर्यायोसे द्रव्यका अभेद दिखलाते हैं णत्थि गुणोत्ति व कोई, पजामोत्तोह वा विणा दव्व। दव्वत्स पुणभावो, तम्हा दव्वं सय सत्ता ॥ १६ ॥ नास्ति गुण इति वा कश्चित् पर्याय इतीह वा विना द्रयम् । द्रव्यत्व पुनर्भावस्तस्माद्व्य स्वय सत्ता ॥ १९ ॥ अन्वय सहित सामान्यार्थ-(इह) इस जगतमे (दव्वं विणा) द्रव्यके विना (कोई गुणोति व पन्जाओत्ति णत्थि) न कोई गुण होता है न कोई पर्याय होती है (पुण दव्वत्त भावो) तथा द्रव्यपना या उत्पाद व्यय ध्रौव्य रूपसे परिणमनपना द्रव्यका खभाव है (तम्हा दव्वं सयं सत्ता) इसलिये द्रव्य स्वयं सत्ता रूप है ।' विशेषाथ-यहां मुक्तात्मा द्रव्यपर घटाकर कहते हैं कि मुक्तात्मा द्रव्यमें केवलज्ञानादि रूप गुणोंके समूह तथा परमपदकी प्राप्ति रूप मोक्ष पर्याय ये दोनो ही परमात्मा द्रव्यके विना नही पाए जाते क्योंकि गुण और पर्यायोका द्रव्यके प्रदेशोसे भेद नहीं है कितु एकत्त्व है । तथा मुक्तात्मा द्रव्य उत्पाद व्यय ध्रौव्यमई शुद्ध सत्तास्वरूप है इस लिये अभेदनयसे सत्ता ही द्रव्य है या द्रव्य ही सत्ता है। जैसे मुक्तात्मा द्रव्यमें गुणपर्यायोंके साथ अभेद व्याख्यान किया तैसे यथासम्भव सर्व द्रव्योमें जान लेना चाहिये । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। भावार्थ-इस गाथामें इस बातको स्पष्ट किया गया है कि द्रव्य गुण पर्याय मय है। द्रव्यमे ही गुण होते हैं और द्रव्यमें ही ' पर्यायें होती है। गुण और पर्यायें द्रव्यको छोडकर स्वतंत्र नहीं हो सक्ते । वास्तवमे अनेक गुणोंका अखंड समुदाय द्रव्य है अर्थात् द्रव्यमे जितने गुण हैं वे सब द्रव्यके सर्व प्रदेशोमे व्यापक हैं। उन सर्व गुणोंके ऐसे समूहको द्रव्य कहते है । गुणोमें जो समय समय उत्पाद व्यय होता है इससे पर्यायें होती और नष्ट होती हैं-ये पर्यायें गुणोके ही विकार है। जब गुण द्रव्यमें ही पाए जाते है तब उन गुणोकी पर्यायें भी द्रव्यमें ही पाई जाती है । जो द्रव्यके प्रदेश हैं वे ही गुणोंके प्रदेश तथा वे ही पर्यायोके प्रदेश हैं। एक आम्रफलमे स्पर्श, रस, गंध, वर्ण गुण हैं उनकी चिकनी, मीठी, सुगंधित तथा पीत अवस्था पर्यायें है अथवा आम्रका छोटेसे बड़ा होना पर्याय है। ये गुण पर्यायें आम्र द्रव्यमें ही होती हैं । सुवर्णमें पीतपना भारीपना आदि गुण तथा उसकी कुडल व मुद्रिका आदि पर्यायें सुवर्णके बिना नही होसक्ती है । आत्मामें चेतना, आनन्द, वीर्य, सम्यक्त, चारित्र गुण तथा अशुद्ध या शुद्ध पर्यायें आत्मा विना नहीं होसक्ते हैं । इस तरह यह बात सिद्ध है कि हरएक द्रव्य अपने गुण और पर्यायोंसे अभेद है-ऐसा गुण पर्यायवान द्रव्य उत्पाद व्यय ध्रौव्य रूप है । क्योकि पर्यायें क्षण क्षणमें नष्ट होकर नवीन पदा होती रहती है और गुण सहभावी है-सदा ही द्रव्यमें नित्य या ध्रौव्य रहते हैं इसलिये द्रव्य उत्पाद व्यय ध्रौव्य स्वरूप है । तथा जिसमे उत्पाद व्यय ध्रौव्य होता है उसीको सत या सत्तारूप कहते हैं इसलिये द्रव्य स्वयं Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८] श्रीप्रवचनसारटोका। सत या सत्तारूप है अर्थात् द्रव्य गुणी है सत्ता उसका गुण है। द्रव्यका सत्तासे अभेद है । सत्तामई द्रव्य है इसीसे वह उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप होकर गुण पर्यायवान है । ऐसा द्रव्यका स्वरूप निश्चय करना योग्य है। श्री तत्वार्थसारमे श्री अमृतचंद्र महाराज कहते है:-- समुत्पादब्ययध्रौव्यलक्षण क्षणकल्मषाः । गुणपर्ययवद्रव्यं वदन्ति जिनपुङ्गवाः ॥ ५ ॥ द्रव्यस्य स्यात्समुत्पादश्चेतनस्येत स्य च । भावान्तरपरिप्राप्तिर्निजा जातिमनुज्झतः ॥ ६ ॥ स्वजातेरविरोधेन द्रव्यस्य द्विविधस्य हि । विगमः पूवभावस्य व्यय इत्यभिधीयते ॥ ७ ॥ समुत्पादव्ययाभावो यो हि द्रव्यस्य दृश्यते । । अनादिना स्वभावेन तद्वौष्पं ब्रुवते जिनाः ॥ ८ ॥ गुणो द्रव्यविधान स्यात् पर्यायो द्रव्यविक्रिया । द्रव्य ह्ययुतसिद्ध स्यात्ममुदायस्तयोर्द्वयोः ॥ ९ ॥ सामान्यमन्वयोत्सर्गौ शब्दाः स्युगुणवाचकाः ।। व्यतिरेको विशेषश्च भेदः पर्यायवाचका: || 10 ॥ गुणैविना न च द्रव्यं विना द्रव्याच्च नो गुणाः । द्रव्यस्य च गुणाना च तस्मादव्यतिरिक्तता . ॥११॥ न पर्यायादिना दन्यं विना द्रन्यान्न पर्ययः । वदन्त्यनन्यभूतत्व द्वयोरपि महर्षयः ॥ १२ ॥' न च नाशोऽस्ति भावस्य न चाभावस्य सभवः'। भावीः कुर्युर्ययोत्पादौ पर्यायेषु 'गुणेषु च ॥१३॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . । द्वितीय खंड। भावार्थ-वीतराग जिनेन्द्रोंने उत्पाद व्यय नौव्य लक्षणकाधारी गुण पर्यायवान द्रव्यको कहा है। जीव तथा अनीव द्रव्यका अपनी अपनी जातिको न छोड़ते हुए अन्य २ रूप अवस्थाको प्राप्त करना सो उत्पाद है। अपनी २ जातिमें विरोध न डालते हुए दोनों प्रकार द्रव्यका अपनी २ पूर्व अवस्थाका त्यागना उसको व्यय कहते हैं। अनादिसे अपने २ स्वभावकी अपेक्षा द्रव्यका उत्पाद और व्ययका जो अभाव है उसको श्री जिनेन्द्रोंने ध्रौव्य कहा है। अर्थात् द्रव्योंमें अवस्थाका उत्पाद व्यय होते हुए भी द्रव्योंके स्वभावाको स्थिर रहना ध्रौव्य है। द्रव्यका विधान या स्थापन करनेवाला गुण है । अर्थात् गुणोंका और द्रव्यका सदा होसे एक रूप तादात्म्य सम्बन्ध है। द्रव्यमें जो विक्रिया या अवस्था होती है वह 'पर्याय है । द्रव्य इन दोनों गुण पर्यायोंका अयुत सिद्ध समुदाय है अर्थात् अमिट अनादि समुदाय है। कभी गुण या पर्याय केहींसे 'आकर द्रव्यमें मिले नहीं । सामान्य, अन्वय, उत्सर्ग शब्द गुणके 'वाचक हैं तथा व्यतिरेक, विशेष, भेद शब्द पर्यायके वाचक हैं। गुणोंके विना" द्रव्य नहीं होता है न द्रव्यके विना गुण होते हैं 'इस लिये द्रव्य और गुणोंकी एकता है। पर्यायके विना भी द्रव्य नहीं होता ने द्रव्यके विना पर्याय होती है इसलिये महर्षियोंने द्रव्य और पर्यायुकी अविनाभावना या एकपना बताया है। संत रूप पदार्थका नाश नहीं होता असत् रूप पदार्थका जन्म नहीं होता । सत रूप पदार्थ ही अपने गुणपर्यायोंमें उत्पाद व्यय करते रहते हैं । इस तरह नि संदेह होकर ऐसा बयंका खरूप समझकर अपनी ही आत्माकी तरफ लक्ष्य देना चाहिये। अपनी आत्माकी Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९०] श्रीप्रवचनसारटीका। नो अशुद्ध संसार पर्याय है उसको त्यागने योग्य निश्चयकर उसकी शुद्ध पर्यायकी प्राप्तिका यत्न करना योग्य है जिसमें इस आत्माके सर्व गुण शुद्ध खभावमें परिणमन करते हुए अपनी सुन्दरतासे परमरमणीकताको विस्तारें । इस लिये अपने शुद्ध स्वभावपर लक्ष्य देते हुए व संसारमें रागद्वेष न करते हुए हमको साम्यभावरूफ वीतराग विज्ञानमय भावका मनन करना चाहिये। यही शुद्ध पर्याय होनेका मत्र है ॥ १९ ॥ इस तरह गुण और गुणीका व्याख्यान करते हुए प्रथम गाथा तथा द्रव्यका अपने गुण व पर्यायोंसे भेद नही है ऐसा कहते हुए, दूसरी गाथा इस तरह खतंत्र दो गाथाओंसे छठा स्थल पूर्ण हुआ। उत्थानिका-आगे द्रव्यका द्रव्यार्थिक नयसे सत् उत्पाद, और पर्यायार्थिक नयसे असत् उत्पाद दिखलाते हैं--- एवं विहं सहावे व्वं दध्वत्थपजयत्थेहि । सदसम्भावणिवद्ध पाडुभाव सदा लहदि ॥ २० ॥ एव विध स्वभावे द्रव्य द्रव्यार्थपर्यायार्थाभ्याम् । सदसदभावनिवद्धं प्रादुर्भावं सदा लभते ॥ २० ॥ अन्वय सहित सामान्यार्थ-(एवं विहं) इस तरहके (सहावे) स्वभावको रखते हुए (दव्वं ) द्रव्य (दव्वत्थ पज्जयत्थेहि) द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे (सदसम्भावणिबद्धं) सद्-' । भावरूप और असदभाव रूप (पाडुब्भावं) उत्पादको (सदा लहदी) सदा ही प्राप्त होता रहता है। विशेषार्थ:-जैसे सुवर्ण द्रव्यमें जिस समय द्रव्यार्थिक नयकी विवक्षा की जाती है अर्थात् द्रव्यकी अपेक्षासे विचार किया जाता, Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [११. है उस समय ही कटक रूप पर्यायमें जो सुवर्ण है वही सुवर्ण उसकी कंकन पर्यायमें है-दूसरा नहीं है । इस अवसरपर सद्भाव उत्पाद, ही है क्योंकि द्रव्य अपने द्रव्यरूपसे नष्ट नहीं हुआ किन्तु बराबर बना रहा। और जब पर्याय मात्रकी अपेक्षासे विचार किया जाता है तव सुवर्णकी जो पहले कटकरूप पर्याय थी उससे अब वर्तमानकी ककन रूप पर्याय भिन्न ही है। इस अवसरपर असत् उत्पाद है क्योकि पूर्व पर्याय नष्ट होगई और नई पर्याय पैदा हुई । तैसे ही यदि द्रव्यार्थिक नयके द्वारा विचार किया जावे तो जो आत्मा पहले गृहस्थ अवस्थामे ऐसा ऐसा गृहका व्यापार करता था वही पीछे जिन दीक्षा लेकर निश्चय रत्नत्रय भई परमात्माके ध्यानसे अनन्त सुखामृतमें तृप्त रामचंद्र आदि केवली पुरुष हुआ-- अन्य कोई नही-यह सत् उत्पाद है । क्योकि पुरुषकी अपेक्षा नष्ट नही हुआ। और जब पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा की जाती है तब पहली जो सराग अवस्था थी उससे यह भरत,. सगर, रामचंद्र, पांडव आदि केवली पुरुषोंकी जो वीतराग परमात्म पर्याय है सो अन्य है वही नहीं है-यह असत् उत्पाद है। क्योकिपूर्व पर्यायसे यह अन्य पर्याय है। जैसे यहां जीव द्रव्यमें सत् उत्पाद और असत् उत्पादका व्याख्यान किया गया तेसा सर्व द्रव्योमें यथासंभव जान लेना चाहिये। भावार्थ-इस गाथामें आचार्य उत्पादके दो भेद भिन्नर अपेक्षासे द्रव्यके यथार्थ खरूपको स्पष्ट करनेके लिये कहते हैं । एक सत् उत्पाद दूसरा असत् उत्पाद । जो थी वही उपजनी इसकोः सत् उत्पाद और जो न थी वह उपजनी इसको असत् उत्पाद कहते. Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] श्रीप्रवचनसारटोका। हैं । द्रव्यमें जितनी पर्यायें संभव हैं वे सब उसमें सत्तारूपसे या शक्ति रूपसे मौजूद रहती हैं उन्ही पर्यायोमेंसे कभी कोई कभी कोई पैदा , या प्रगट हुआ करती है, शेष पयायें उसमे शक्ति रूपसे रहती हैं। इससे द्रव्य अपनी समस्त पर्यायोका समुदाय है। द्रव्य अपनी किमी भी पर्यायमे हो वह द्रव्य ही है-द्रव्यपनेसे अलग नहीं है। द्रव्यने स्वंय ही अपनी पर्यायको धारण किया है इससे वह द्रव्य ही है. इंस द्रव्यकी अपेक्षा या दृष्टिको ध्यानमें लेकर जब देखा जायगा तव द्रव्य अपनी हरएक पर्यायमें द्रव्य ही दिखलाई पडेगा । इस इंष्टिसे द्रव्यके उत्पादको सत् या सद्भाव उत्पाद कहते हैं, परन्तु जब पर्याय मात्रका विचार करे तो द्रव्यमें एक पर्याय एक समयमें प्रगट रहेगी दूसरी अप्रगट रहेगी, तब जो प्रगट होगी वह वही प्रगट हुई जो पहले प्रगट नहीं थी तथा जब यह पर्याय प्रगट हुई तब पहली पर्याय नष्ट होगई या अप्रगट होगई इसलिये इस पर्यायकी दृष्टिमें जो द्रव्यकी पर्यायें होती हैं उनको असत् या असदभाव उत्पाद कहते हैं। जैसे मिट्टीके पिडसे घट बनाया। इसमें घटकी पर्यायकी प्रगटता मिट्टीकी अपेक्षा सत् उत्पाद है क्योकि मिट्टी ही घट रूप परिणमी है तथा पिडकी दशामे घट न था इस अपेक्षा घटका उपनना असत् उत्पाद है। एक जीव निगोदकी पर्यायमें था वही जीव भ्रमण करते करते पंचेंद्री पशु होगया यह पशु पर्याय उस जीवकी अपेक्षा संतु उत्पाद है परन्तु नवीन पर्यायकी अपेक्षा असत् उत्पाद है । द्रव्य नितनी भी पर्यायें धारण करे अपने स्वभाव या गुणको नहीं त्याग बैठता है। इसी बातको बतानेवाला संत उत्पाद है । जीवकी हरएक पर्यायमें चेतनपना बना रहेगा। पुद्गलकी Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. . .. . . N . .. द्वितीय खंड। हरएक पर्यायमें मूर्तिकपना बना रहेगा। अवस्था क्षणभंगुर हैसमय समय भिन्न २ होती है, इसको जतानेवाला असत् उत्पाद है। श्री रामचंद्रनी मुक्त हुए तव मोक्ष पर्याय में वही जीव है नोरामके शरीरमें था यह सत् उत्पाद है तथापि ससार अवस्थासे मोक्ष अवस्था हुई जो पहले प्रगट न थी सो असत् उत्पाद है। यहां तात्पर्य यह लेना, चाहिये कि हमारी आत्मामें भी मोक्ष पर्याय शक्तिरूपसे मौजूद है इसलिये हमको उसकी प्रगटताके लिये पुरुषार्थ करना चाहिये और साम्यभावके अभ्यासमें नित्य लवलीन रहना चाहिये ॥ २० ॥ , उत्थानिका-आगे पहले कहा हुआ मत् उत्पाद द्रव्यसे अभिन्न हैं ऐसा खुलासा करते हैं जीवो भवं भविस्सदि णरोऽमरो वा परो भवीय पुणो । किस व्वत्त पजहादि ण अहं अण्णो कहं होदि ॥ २१ ॥ जीवो भवन भविष्यति नरोऽमरो वा परो भूत्वा पुनः । "द्रदत्य प्रजाति न जहदन्यः कथ भवति ॥ २१ ॥ अन्वय सहित सामान्यार्थ-( जीवो) यह आत्मा (भवं) परिणमन करता हुआ (णरोऽमरो वा परो) मनुष्य, देव या अन्य लाइ भविस्सदि) होवेगा (पुणो भवीय) तथा इस तरह होकर (किं वित्त पलहँदि) क्या वह, अपने द्रव्यपनेको छोड़ बैठेगा ?, (गजहं यो कहे होदि नहीं छोड़ता हुआ वह भिन्न कैसे होवेगा ? अर्थात देव्यपनेसे अन्य नहीं होगा। विशेषार्थ यह परिणमन स्वभाव जीव विकार रहित शुद्धोपयोगसे विलक्षण शुभ या अशुभ उपयोगसे परिणमन करके मनुष्य, MERCI Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४] श्रीप्रवचनसारटीका । देव, पशु या नारकी अथवा निर्विकार शुद्धोपयोगमें परिणमन करके सिद्ध हो जावेगा । इस प्रकार होकरके भी अथवा वर्तमान कालमे होता हुआ भाविकालमें होगा व भूतकालमे हुआ था इस तरह तीनो कालोमे पर्यायोको बदलता हुआ भी क्या अपने द्रव्यपनेको छोड देता है ? द्रव्यार्थिक नयसे द्रव्यपनेको कभी नही छोड़ता है तब अपनी अनेक भिन्न २ पर्यायोंमें दूसरा कैसे हो सक्ता है ? अर्थात दूसरा नहीं होता कितु द्रव्यकी अन्वयरूप शक्तिसे सदभाव उत्पादरूप वही अपने द्रव्यसे अभिन्न है । यह भावार्थ है। भावार्थ-यहां आचार्यने सत् उत्पादका दृष्टांत देकर यह भी स्पष्ट कर दिया है कि द्रव्य नित्त्य है और सतरूप है कभी अपनी सत्ताको छोडता नही-अपनी त्रिकालवर्ती अनन्त पर्यायोमे वहीं हैअन्य कभी नहीं होता है । बौद्ध मतकी तरह क्षणिक नहीं है किन्तु द्रव्यपनेकी अपेक्षा नित्य है। यही जीव अपने अशुद्ध उपयोगसे चार गतिका कर्म बाध उस कर्मके उदयसे कभी मनुष्य, कभी देव, कभी पशु, कभी नारकी होजाता है तथा यही जीव अपने शुद्धोपयोगके बलसे कर्मोको नाशकर सिद्ध होजाता है। इन अनेक अवस्थाओंमें वही जीव प्रगट हुआ है यह सत् उत्पाद है। जीवने अपने गुणोंको किसी भी पर्यायमें नहीं छोड़ा है। इसी तरह पुद्गल पर भी लगा सके हैं । पुद्गलके परमाणु परस्पर मिलने या विछुड़नेसे नाना प्रकारके स्कंध बन जाते हैं कभी कार्माण वर्गणा रूप कभी तैनस वर्गणारूप, कभी आहार वर्गणारूप, कभी भाषा वर्गणारूप तथा कभी मनोवर्गणा रूप, तथापि पुद्गल रूप ही रहते है-वे परमाणु अपने स्पर्श, रस, गंध, वर्ण गुणोंको कभी नहीं Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [६५ त्यागते हैं। उनका हरएक यर्यायमे सत् उत्पाद ही होता है। इस कथनसे यह बात भी स्पष्ट कर दी है कि जीवकी सर्व पर्यायें जीव रूप तथा पुगलकी सर्व पर्याय पुद्गल रूप होगी एक द्रव्यकी पर्याय अन्य द्रव्य रूप नहीं हो सक्ती हैं। जीव कभी पुद्गल नहीं होगा, पुद्गल कभी जीव नहीं होगा ऐसा वस्तुका स्वभाव समझकर हमको उचित है कि हम अपने आत्म द्रव्यको शुद्ध अवस्थामें रखनेके लिये साम्यभावका अभ्यास करें ॥२१॥ उत्थानिका-आगे द्रव्यके असत् उत्पादको पूर्व पर्यायसे भिन्न निश्चय करते हैं मणुओ ण होदि देवो, देवो वा माणुसो व सिद्धो वा। एव अहोजमाणो अणण्णभाव कधं लहदि ॥ २२ ॥ मनुजो न भवति देवो देवो वा मानुषो वा सिद्धो वा । एवममवन्ननन्यभाव कप लभते ॥ २२ ॥ अन्वय सहित विशेषार्थ-(मणुओं) मनुष्य (देवो ण होदि) देव नहीं होता है । (वा देवो) अर्थवा देव (मानुसो व सिद्धो वा) मनुष्य या सिद्ध नही होता है । (एवं अहोज माणो) ऐसा नहीं • होता हुआ (अणण्ण भावं कधं लहदि) एक पनेको कैसे प्राप्त हो 'सक्ता है? । विशेषार्थ-देव मनुष्यादि विभाव पर्यायोसे विलक्षण तथा • निराकुल स्वरूप अपने स्वभावमें परिणमन रूप लक्षणको धरनेवाला परमात्मा द्रव्य यद्यपि निश्चय नयसे मनुष्यपर्यायमें तथा देवपर्यायमें समान है तथापि व्यवहारनयसे मनुष्य देव नही होता है क्योंकि देव पर्यायके कालमें मनुष्य पर्यायकी प्राप्ति नहीं है तथा मनुष्य पर्यायके Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ ] श्रीप्रवचनसारटीका । कालमें देव पर्यायकी प्राप्ति नही है । इसी तरह कोई चार भेदोंसे देव है सो न मनुष्य है न अपने आत्माकी प्राप्तिरूप सिद्ध अवस्थामे रहनेवाला सिद्ध है क्योकि पर्यायोका परस्पर भिन्न २ काल है जैसे सुवर्ण द्रव्यमें कुन्डल कंकण आदि पर्यायोका भिन्न२ काल है । इस तरह एक दूसरे रूप न होता हुआ एकपनेको कैसे प्राप्त हो सक्ता है ? किसी भी तरह नहीं प्राप्त हो सक्ता है । इससे यह सिद्ध हुआ कि असद्भाव उत्पाद या असत उत्पाद पूर्व २ पर्यायसे भिन्न २ होता है । भावार्थ- पहली गाथामें सत् उत्पादको द्रव्यकी अपेक्षा I कहा था । यहां असत् उत्पादको पर्यायकी अपेक्षा कहते हैं । · यद्यपि द्रव्यमे शक्ति रूपसे उसमें होने योग्य अनंत पर्यायें वास करती हैं परन्तु उनमे से एक समय में एक ही पर्यायकी प्रगटता होती है । जब एक पर्याय प्रगट होती है तब ही पहली पर्याय नष्ट होजाती है इस तरह जब पर्यायकी अपेक्षा विचार किया जावे तो इस पर्यायको असत् उत्पाद कहेंगे । जो मनुष्य पर्यायमे जीव है वह पर्यायकी अपेक्षा मनुष्य पर्याय मे है न वह देव, नारकी या तियंच पर्यायमें है । इसी तरह जो देव है वह देव पर्याय हीमें हैं अन्य नरक, पशु व मनुष्य या सिद्ध पर्यायमे नही है क्योंकि देवगतिमें जो जो अवस्था शरीर व विभूतिकी होती है वह अवस्था अन्य गतिमें नहीं होती । - सिद्ध पर्यायमे शुद्ध अवस्था है । वह संसार पर्याय में नहीं होती है इस लिये सिद्ध नीवका पर्यायकी अपेक्षा असत् उत्पाद हुआ ऐसा समझना चाहिये । इस कथनका तात्पर्य यही है कि पर्याय बदलती है मूल द्रव्य नही बदलता है। · Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विताय खंड - } [ द्रव्य नित्य है, पर्याय अनित्य है, जिससे स्थूलपने यह भी समझना चाहिये कि अभी हमारा आत्मा जिस मनुष्य पर्यायमे है वह पर्याय कभी न कभी अवश्य बदल जायगी, यद्यपि हम नष्ट नहीं होंगे। इससे हमको इस पर्यीयमे जो कुछ तप संयम व्रतादि वन सक्ता है सो अच्छी तरह कर लेना चाहिये, जिससे भविष्यमे योग्य पर्यायकी प्राप्ति हो । . उत्थानका- आगे एक द्रव्यका अपनी पर्यायोंके साथ अनन्यत्व नामका एकत्व है तथा अन्यत्व नामका अनेकत्व है ऐसा नयोकी अपेक्षा दिखलाते है । अथवा पूर्वमे कहे गए सदभाव उत्पाद और असद्भाव उत्पादको एक साथ अन्य प्रकारसे दिखाते हैं दव्वट्ठिएण सव्वं सव्यं तं पज्जयट्टिपण पुणो । हवदि य अण्णमणण्णं तक्कालं तम्मयत्तादो ॥ २३ ॥ द्रव्यार्थिवेन सर्व द्रभ्य तत्पर्यायार्थिकेन पुनः | भवत चान्यदनन्य तत्कालं तन्मयत्वात् ॥ २३ ॥ अन्वय सहित सामान्यार्थ - (दव्यट्टिएण ) द्रव्यार्थिक नयसे (तं सव्वं ) वह सब (दव्व) द्रव्य (अणणं) अन्य नहीं है - वही है (पुणो ) परंतु (पज्जयट्ठिएण) पर्यायार्थिक नयसे (अण्णम् य) अन्य भी (हवदि) है - क्योकि ( तक्काले तम्मयत्तादो ) इस कालमें द्रव्य अपनी पर्यायसे तन्मई हो रहा है ॥ विशेषार्थ - वृत्तिकार जीव द्रव्यपर घटाते हैं कि शुद्ध अन्वय रूप द्रवार्थिक नयसे यदि विचार किया जाय तो सर्व ही कोई विशेष या सामान्य जीव नामा द्रव्य अपनी नारक, तिर्यच, मनुष्य, देव रूप विभाव पर्यायों के समूहोंके साथ तथा केवलज्ञान ७ " Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८] श्रीप्रवचनसारटीका। दर्शन सुख वीर्य रूप अनन्त, चतुष्टय शक्ति रूप सिद्ध पर्यायके साथ अन्य अन्य नहीं है किन्तु तन्मय है-एक है । जैसे कुंडल कंकण आदि पर्यायोंमें सुवर्णका भेद नहीं है। वही सुवर्ण है। परंतु यदि पर्यायकी अपेक्षासे विचार किया जावे तो वह द्रव्य अपनी अनेक पर्यायोके साथ भिन्नर ही है, क्योकि जैसे अग्नि तृणकी अग्नि, काष्ठकी अग्नि, पत्रकी अग्नि रूप अपनी पर्यायोंके साथ उस समय तन्मयी होकर एक रूप भी है और भिन्न २ रूप भी है । तैसे यह जीव द्रव्य अपनी पर्यायोके साथ अन्य अन्य होकर भी भिन्नर रूप भी है और एक रूप भी है। इससे यह बात कही गई कि जब द्रव्यार्थिक नयसे वस्तुकी परीक्षा की जाती है तब पर्यायोमे सन्तान रूपसे सर्व पर्यायोंका समूह द्रव्य ही प्रगट होता है । परंतु जब पर्यायायिक नयकी विवक्षा की जाती है तब वही द्रव्य पर्याय पर्याय रूपमें भिन्न२ झलकता है । और जब परस्पर अपेक्षासे दोनों नयोंके द्वारा एक ही काल विचार किया जाता है तब व द्रव्य एक ही काल एक रूप और अनेक रूप मालूम होता है । जैसे यहां जीव द्रव्यके सम्बन्धमे व्याख्यान किया गया तैसे सर्व द्रव्योमें यथासंभव जान लेना चाहिये-यह अर्थ है। भावार्थ:-इस गाथामे आचार्यने अभेद और भेद स्वभावोको जो हरएक द्रव्यमें पाए जाते है अच्छी तरह स्पष्ट कर दिया है। द्रव्य अपनी सर्व भूत, वर्तमान, भविष्यकी पर्यायोके साथ तन्मय रहता है-वही होता है-इस अपेक्षासे द्रव्यका अपनी पर्यायोंके साथ अभेद है। पतु हरएक पर्याय अपनी पूर्व या उत्तर पर्यायसे Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड | [ee भिन्न २ है इसलिये वह द्रव्य अपनी हरएक विशेष अवस्थामें एकरूप नहीं किन्तु भिन्न २ है - इस तरह पर्यायोंकी अपेक्षा भेद है। वास्तवमें द्रव्य में एक ही समयमें अभेद स्वभाव और भेद स्वभाव दोनों ही पाए जाते हैं । इन दो भिन्न २ स्वभावोंको जब हम अपनी पर्यायको देखने वाली दृष्टिको बन्द कर द्रव्य सामान्यको देखनेवाली दृष्टिसे अर्थात् द्रव्यार्थिक नयसे देखते हैं तब हमकों वह द्रव्य हरएक पर्याय में वही झलकता है अर्थात उस समय द्रव्यका अभेद स्वभाव प्रगट होता है । परन्तु जब हम द्रव्यको देखनेबाली दृष्टिको चंदकर पर्यायको देखनेवाली दृष्टिसे या पर्यार्थिक नयसे देखते हैं तब हमको वह द्रव्य हरएक पर्यायमें अन्य २ ही झलकता है अर्थात् उस समय द्रव्यका भेद स्वभाव ही प्रगट होता है। परंतु जब हम दोनो दृष्टियोसे एक काल देखने लगजावें तक वह द्रव्य एक काल द्रव्यकी अपेक्षा अमेद रूप और पर्यायकी अपेक्षा भेद रूप दिखता है। जैसे एक जीव जो निगोद पर्यायमें या वही एकेन्द्री, हेन्द्री, तेन्द्री, चौंद्री, पर्चेन्द्री होकर मनुष्य हो, रत्नत्रय धर्मका लाभ पाकर केवलज्ञानी हो, सिद्ध होजाता है - वही जीव है यह प्रतीत अभेद स्वरूपकी बतानेवाली है परंतु जब पर्याय पर्यायका मिलान करते हैं तो बडा भेद हैं- एकेन्द्रीकी जो अवस्था है वह द्वेन्द्रिय त्रस आदिकी नहीं, द्वेन्द्रिय सकी जो अवस्था है वह एकेन्द्रिय तेन्द्रिय आदिकी नहीं, पशुकी जो अवस्था है वह मनुष्यकी नहीं, मनुष्यकी जो अवस्था है वह देव आदिकी नही, मिय्यादृष्टीकी जो अवस्था है वह सम्यग्टष्टीकी नहीं, गृहस्थकी जो अवस्था है वह साधुकी नहीं, साधुकी जो Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० ] श्रीप्रवचनसारटीका । अवस्था है वह केवलज्ञानीकी नहीं, केवलज्ञानी अरहंतकी जो अवस्था है वह सिद्ध भगवानकी नहीं। इसतरह पर्यायकी अपेक्षा वही जीव अपनी भिन्नर पर्यायोमें भिन्नर ही झलकता है-अर्थात जीवका भेद स्वभाव प्रगट होता है। जब एक काल दोनोंका विचार करते हैं तो मिन्नर अपेक्षासे वही जीव अभेदरूप तथा भेदरूप मालूम होता है । इसी तरह मिट्टी अपने प्याले, गिलास, कलस, घड़े, थाली आदि अनेक अवस्थाओको रखती हुई भी मिट्टीके स्वभावकी अपेक्षा एक रूप मिट्टी ही है, परतु , जब अलग अलग हरएक मिट्टीकी अवस्थाको देखा जाता है तब प्याला है सो ग्लास आदि नहीं, ग्लास है सो प्याला आदि नही, कलस है सो प्यालाआदि नही, घडा है सो कलस आदि नही, थाली है सो घडा आदि नहीं । इसतरह हरएक मिट्टीकी पर्याय भिन्नर ही झलकती है, परंतु जब एक मिट्टी और उसकी प्याले आदि पर्यायोकी अपेक्षा एक साथ विचार किया जावे तब मिट्टीमें अभेद रूप और भेद रूप दोनो बातें दिखलाई पडती हैं। ___इन्ही तीनो भंगोका जव कथनकी अपेक्षा विचार किया जावे तब इसीके सात भंग बन जाते हैं जिसका वर्णन आगेकी गाथामे है । हरएक दो भिन्नर खभावोंको समझने समझानेमें सात भंगोका विचार हो सकता है । यहांपर द्रव्यके अभेद और भेद खभावको बताया गया है । ये दोनो ही खभाव द्रव्यमें एक काल याए जाते हैं। __ इसी बातका विशेष वर्णन स्वामी समंतभद्राचार्यने आप्तमीमांसामें किया है कि यदि द्रव्यमें सर्वथा भेद माना जावे तो इस Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड । तरह दोप आएगा । जैसा कहा है: 1 सन्तानः समुदायश्च साधर्म्य च निरङ्कुशः । प्रेत्यभावश्च तत्सर्वं न स्यादेकत्वनिहवे ॥ २९ ॥ [ १०१ भावार्थ - यदि द्रव्यको अपनी पर्यायोंसे भी एक रूप न माना जावे तो पर्यायोकी संतान न ठहरे। क्रम रूप होनेवाली पर्यायों में जो द्रव्य अन्वय रूप बराबर बना रहता है उसको संतान कहते है । तथा समुदाय कहना भी न बनेगा । अर्थात् यदि द्रव्यको अपने गुणोंसे तथा गुणके विकार पर्यायोंसे सर्वथा भेद मानें तो यह द्रव्य गुणोंका या पर्यायोंका समुदाय है ऐसा नहीं बनेगा। वैसे ही साधर्म भाव भी न बनेगा । जितनी पर्यायें जिस द्रव्यकी होती हैं उन पर्यायोंमें द्रव्यका समान जातीय खभाव 'पाया जाता है । जैसे जीवकी देव मनुष्यादि पर्यायोंमें ज्ञानपना, 'पुद्गलकी घटपट आदि पर्यायोंमें स्पर्श, रस, गंध, वर्णपना, सत्ताकी अपेक्षा सर्व द्रव्यों सत् पना, ऐसा साधर्मीपना नहीं ठहरेगा यदि सर्वथा भेद माना जावे। तैसे ही परलोक भी न बनेगा - मरकर नया जन्म धारना परलोक है । सो यदि एक आत्मा अपनी देव -मनुष्यादि पर्यायोंमें नहीं रहे तब यह नहीं मान सके कि अमुक जीवने पुण्य बाधके देव पर्याय पाई । परन्तु जय संतान • समुदाय, साधर्म्य और परलोक अवश्य हैं तब अवश्य द्रव्यमें अभेद स्वभाव मानना होगा । सर्वथा द्रव्यका भेट अपने स्वभाव या पर्यायोसे नहीं हो सक्ता है। इसी तरह यदि कोई द्रव्यका सर्वथा अभेद स्वभाव माने तो क्या दोष आवेगा उसके लिये स्वामी समंतभद्री वही कहते हैं Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीप्रवचनसारटीका । अद्वैतैकान्तपक्षेऽपि दृष्टो भेदो विरुध्यते । कारकाणा क्रियायाश्च नैकं स्वस्मात्प्रजायते ॥ २४ ॥ कर्मद्वैत फलद्वैत लोकद्वैत च नो भवत् विद्याऽविद्या द्वयं न स्यात् वन्धमोक्षद्वय तथा ॥ २५ ॥ भावार्थ - यदि सर्वथा अभेद या अद्वैतका एकान्त पक्ष लिया जावे तो जो कारक और क्रिया के भेद प्रत्यक्ष सिद्ध हैं सो नहीं रहेंगे । अर्थात् यह जीव कर्ता है, इसने अपने भाव किये इससे कर्म है, जीवने अपने ज्ञानसे जाना इससे करण है इत्यादि कारक नहीं बनेंगे और न अभेद एक रूप द्रव्यमें क्रिया कोई हो सक्ती है जैसे ठहरना, चलना, आदि और न अभेदसे कोई वस्तु पैदा हो सक्ती है । मिट्टीसे घडे, सुवर्णके कुंडल, जीवके क्रोधादि भाव नहीं पैदा हो सक्ते हैं । इसी तरह सर्वथा एक या अभेद रूप द्रव्यको माननेसे उसके द्वारा होनेवाले पुण्य या पाप कर्म, उनके सुख दुःख फल, यह लोक, परलोक, अज्ञानावस्था तथा सम्यज्ञानावस्था, तथा बन्ध और मोक्ष - इत्यादि कुछ भी नही बनेगा | इसी लिये द्रव्यका खभाव किसी अपेक्षा अभेद तथा किसी अपेक्षा भेद रूप है ऐसा निश्चय करना चाहिये ॥ २३ ॥ १०२ ] इसतरह सत् उत्पादको कहते हुए प्रथम, सत् उत्पादका विशेष कथन करते हुए दूसरी तैसे ही असत् उत्पादका विशेष वर्णन करते हुए तीसरी तथा द्रव्य और पर्यायोका एकत्व और अनेकत्व कहते हुए चौथी इसतरह सत् उत्पाद, असत् उत्पादके व्याख्यानकी मुख्यतासे गाथा चारमे सातवां स्थल पूर्ण हुआ है. उत्थानिका- आगे सर्व खोटी नयोके एकान्त रूप विवादको मेटने वाली सप्तभंगी नयका विस्तार करते हैं Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड | [ १०३ अस्थिति य णत्थित्ति य हवदि भवत्तव्यमिदि पुणो दव्वं । पजापण दु केण वि तदुभयमादिट्ठमण्णं वा ॥ २४ ॥ अस्तोति च नास्तोति च भवत्यवक्तव्यार्मात पुनर्द्वध्यम् । पर्यायेण तु केनापि तदुभयमादिष्टमन्यद्वा ॥ २४ ॥ अन्वय सहित सामान्यार्थ - (दव्व) द्रव्य ( केणवि पज्जाएण) किसी एक पर्यायसे (दु) तो ( अत्थित्ति) अस्ति रूप ही है (य) और किसी एक पर्यायसे ( णत्थिति य ) नास्ति रूप ही है तथा किसी एक पर्यायसे (अवत्तव्यमिदि) अवक्तव्य रूप ही ( हवदि ) होता है । (पुणो तदुभयम् ) तथा किसी एक पर्यायसे अस्ति नास्ति दोनो रूप ही हैं ( वा अण्ण ) अथवा किसी अपेक्षासे अन्य तीन रूप अस्ति एव अवक्तव्य, नास्ति एव अवक्तव्य तथा अस्ति नास्ति एव अवक्तव्य रूप (आदिम् ) कहा गया है । विशेषार्थ - यहा स्याद्वादका कथन है । स्यात्का अर्थ कथंचित है अर्थात किसी एक अपेक्षासे बाटके अर्थ - कथन करनेके हैं। वृत्तिकार यहां शुद्ध जीवके सम्बन्धमें स्याद्वादका या सप्तर्भगका प्रयोग करके बताते है। शुद्ध जीव द्रव्य अपने ही स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल, स्वभाव चतुष्टयकी अपेक्षा अस्तिरूप ही है अर्थात् जीवमे अस्तिपना है। शुद्ध गुण तथा पर्यायोका आधारभूत जो शुद्ध आत्मद्रव्य है वह स्वद्रव्य है, लोकाकाश प्रमाण शुद्ध असंख्यात प्रदेश है सो स्वक्षेत्र कहा जाता है। वर्तमान शुद्ध पर्यायमे परिणमन करता हुआ वर्तमान समय काल कहा जाता है । शुद्ध चैतन्य यह स्वभाव है इस तरह स्वद्रव्यादि चतुष्टयकी अपेक्षा शुद्ध जीव है अथवा शुद्ध जीव में अस्तित्व स्वभाव है । यह स्यात् Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ ] श्रीप्रवचनसारटीका । अस्ति एव प्रथम भंग है । तथा पर द्रव्य, पर क्षेत्र, पर काल व परभाव रूप परद्रव्यादि चतुष्टयकी अपेक्षा नास्तिरूप ही है। अर्थात् शुद्ध जीवमें अपने सिवाय सर्व द्रव्योंके द्रव्यादि चतुष्टयका अभाव है । यह स्यातू नास्ति एव दूसरा भंग है। एक समयमें ही जीव द्रव्य किसी अपेक्षासे अस्तिरूप ही है व किसी अपेक्षासे नास्ति रूप ही है तथापि वचनोंसे एक समयमे कहा नहीं जासक्ता इससे अवक्तव्य ही है । यह तीसरा स्यात् अवक्तव्य एव भंग है। वह परमात्म द्रव्य स्वद्रव्यादि चतुष्टयकी अपेक्षा अस्ति रूप है पर द्रव्यादि चतुष्टयकी अपेक्षा नास्ति रूप है ऐसे क्रमसे कहते हुए अस्तिनास्ति स्वरूप ही है यह चौथा स्यात् अस्तिनास्ति एव भंग है। इस तरह प्रश्नोत्तर रूप नय विभागसे जैसे ये चार भंग हुए तैसे तीन भंग और हैं जिनको संयोगी कहते हैं। स्व द्रव्यादि चतुष्टयकी अपेक्षा अस्ति ही है परन्तु एक समयमें स्व द्रव्यादिकी अपेक्षा अस्ति और पर द्रव्यादिकी अपेक्षा नास्ति होने पर भी अवक्तव्य है. इससे स्यात् अस्ति एव अवक्तव्य है यह पांचवां भंग है । पर द्रव्यादिकी अपेक्षा नास्ति रूप ही है परंतु एक समयमें स्व पर द्रव्यादिकी अपेक्षा अस्तिनास्ति होने पर भी अवक्तव्य है इससे स्यात् नास्ति एव अवक्तव्य है यह छठा भंग है। क्रमसे कहते हुए स्व द्रव्यादिकी अपेक्षा अस्ति रूप ही है तथा पर द्रव्यादिकी अपेक्षा नास्ति रूप ही है तथापि एक समयमें अस्तिनास्ति रूप कहा नहीं जासक्ता इससे स्यात् अस्तिनास्ति एव अवक्तव्य रूप है यह सातवां भंग है । पहले पंचास्तिकाय ग्रंथमें स्यात् अस्ति इत्यादि प्रमाण वाक्यसे प्रमाण सत्तभंगीका व्याख्यान Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 -द्वितीय खंड । [ १०५ किया गया. यहां स्यात् अस्ति एवके द्वारा जो एवका ग्रहण किया गया है वह नय सप्तभंगीके बतानेके लिये किया गया है । जैसे यहां शुद्ध आत्म द्रव्यमें सप्तभंगी नयका व्याख्यान किया गया ते यथा संभव सर्व पदार्थोंमे जान लेना चाहिये । भावार्थ - इस गाथामें आचार्यने सप्तभंग वाणीका स्वरूप इसी लिये दिखाया है कि इसकी पहली गाथामें जो द्रव्यमें द्रव्यकी अपेक्षा मे स्वभाव तथा पर्यायोंकी अपेक्षा भेद स्वभाव बताया है उसकी सिद्धि सात भंगों से शिष्य के प्रश्नवश होसती है उसको स्पष्ट कर दिया जाय । 7 - शिष्यने प्रश्न किया कि द्रव्यका क्या खरूप है ? आचार्य उत्तर देते हैं कि द्रव्य अपने गुण व पर्यायोंमें अन्वय रूप सदा चला जाता है इससे अमेद स्वरूप ही है, परन्तु पर्यायोंकी अपेक्षा मेद. स्वरूप ही है । तथापि यदि अभेद स्वरूपको और भेद स्वरूपको दोनोंको एक काल कहनेकी चेष्ठा करें तो कह नहीं मक्ते इससे अवक्तव्य स्वरूप ही है । इस तरह स्याद् अभेद: एव स्यात् सेदः एव स्यात् अवक्तव्यम् एव । तीन भंग हुए । शिष्यका प्रश्न - क्या ये अभेद तथा भेद दोनों स्वरूप है ? उत्तर - यह द्रव्य किसी अपेक्षासे अभेद व किसी अपेक्षा मेदः इस तरह दोनों स्वरूप ही है। यह चौथा भंग स्यात् अभेदः मेदः एव है । शिष्य - प्रश्न - तव फिर जो आपने अवक्तव्य कहा था, क्या यह अभेद स्वरूपको नहीं रखता है ? उत्तर -- अवश्य अभेद स्वरूको रखता है तथापि एक सम Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६] श्रीप्रवचनसारटोका। यमें कहनेकी अपेक्षा अवक्तव्य है। यह स्यात् अभेदः एव अवक्तव्य पांचवां भंग है। शिष्य प्रश्न-क्या अवक्तव्य होते हुए भेद स्वरूपको नहीं रखता है ? उत्तर-अवश्य भेद खरूपको रखता है परंतु एक समयमे कहनेकी अपेक्षा अवक्तव्य है । यह स्यात भेदः एव अवक्तव्यं छठा भंग है। शिष्य प्रश्न-क्या अवक्तव्य होते हुए ये दोनो स्वभावोको नही रखता है ? उत्तर-यह अवश्य दोनोस्वभावोंको रखता है परंतु एक समयमे कहनेके अभावसे अवक्तव्य है। यह स्यात् अभेद भेद एवं अवक्तव्यं सातवां भंग है। जहां एक पदार्थमे तीन स्वभाव पाए जायगे वहां उसके सात मंग वन सक्ते है जैसे यह कागज लाल, पीला, हरा है -एक तरफ लाल है, दूसरी तरफ पीला है और किनारेपर हरा है। ये तीन भंग तो ये हुए, चार इस तरहपर होंगे कि ये लाल और पीला है, लाल हरा है, पीला हरा है तथा लाल पीला हरा है। इसको इस तरह कह सक्ते है। किनारोको छोड़कर दोनो तरफकी अपेक्षासे देखो तो ये लाल और पीला है। एक एक तरफको अलग२ देखो तो यह लाल हरा है तथा पीला हरा है। यदि सब तरफकी बात एक साथ देखो तो यह कागज लाल पीला हरा है।। ___ अथवा हमारे पास नोन, मिर्च, खटाई हो तो इसको सात अवस्थाओमें रख सक्ते हैं १ अलग नोन २ अलग मिर्च २ अलग खटाई ४ नोन Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [१०७ मिर्च साथ ५ नोन खटाई साथ, ६ मिर्च खटाई साथ तथा ७ नोन मिर्च खटाई साथ | इससे अधिक भिन्न अवस्था तीन वस्तुओंकी नहीं होसक्ती। इसी तरह दो विरोधी स्वभाव और एक अवक्तव्य ये तीन स्वभाव द्रव्यमे होकर उसका कथन सात तरह से किया जासक्ता है, आठ तरहसे नहीं होसक्ता है। यदि छः तरहसे करें तो एक भेद शेष रह जायगा। दूसरा दृष्टान्त हम ले सक्ते है कि किसीने हमको शकर चने और बादाम तीन वस्तुएं दी और कहा कि इसकी मिश्रित मिठाइये ऐसी बनाओ जो एक दूसरेसे भिन्न हों। ऐसी दशामे हम चार प्रकारकी ही बना सक्ते हैं जैसे शकर और चनेके मिलानेसे एक प्रकारकी, शक्कर और बादामकै मिलानेसे दूसरे प्रकारकी, चने और वादामको मिलाकर तीसरे प्रकारकी तथा गकर चने और बादामको मिलाकर चौथे प्रकारकी इस तरह तीन अलग व चार मिश्र ऐसे सात भेद तीनके होसक्ते है । हरएक द्रव्यमें एक, अनेक, अस्ति, नास्ति, नित्य, अनित्य, इत्यादि दो दो विरोधी स्वभाव पाए जाते है। तीसरा. खभाव अवक्तव्य है । अवक्तव्य एक अनेक, अस्ति नास्ति, नित्त्य अनित्त्य, सबके साथ लगानेसे तीन स्वभाव होजावेंगे इनका खुलासा. करनेके लिये सात तरहका उपाय है जिससे शिष्यके दिलमे विना शकाके पदार्थ जम नावे। जैसे द्रव्य द्रव्यकी अपेक्षा नित्त्य है, पर्यायकी अपेक्षा अनित्य है । दोनोंको एक साथ एक समयमें नही. कह सके इससे द्रव्य अवक्तव्य है। शिष्यको समझानेके लिये इस तरह चार भंग कहेंगे । द्रव्य Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ ] श्रीप्रवचनसारटीका 1 नित्य और अनित्त्य दोनो स्वभाव है। जब नित्य है तब अवक्तव्य भी है । जब अनित्य है तत्र अवक्तव्य भी है । अनित्य दोनो रूप है तब अवक्तव्य भी है । इम हो जायगे । एक स्वभाव रूप पदार्थको माननेसे भी काम नही लिया जासक्ता । तथा जब नित्य स्वरूप बताया है: - तरह सात भंग पदार्थ से कोई श्री समन्तभद्राचार्यजीने आप्तमीमांसा में स्याद्वादका अच्छा सदेव सर्व को नेच्छेत् स्वरूपादिचतुष्टयात् । असदेव विसान्न चेन्न व्यवतिष्ठते ॥ क्रमार्पितद्वयाद् ' द्वैत सहावाच्यमशक्तितः । अवक्तव्योत्तराः शेषानयो भगा स्वहेतुतः || १६ | भावार्थ - अपने खरूपादि चतुष्टयकी अपेक्षासे सर्व वस्तु सत्रूप ही है इस बातको कौन बुद्धिमान न मानेगा तथा इसके विरुद्ध पर स्वरूपादि चतुष्टयकी अपेक्षा सर्व वस्तु परस्पर असतरूप ही है।" यदि द्रव्यमें अपने स्वरूपकी अपेक्षा सत् और पर स्वरूपकी अपेक्षा असत् न हो तो द्रव्य ठहर ही नहीं सक्ता है । जब हमने कहा कि घड़ा है तब घडेपनेके अस्तित्वको रखता हुआ वह घडा अपनेसे भिन्न कपड़ा, मकान आदि अन्य सर्व परके अभावको या नास्तित्वको भी रख रहा है । तब ही हम यह कह सक्ते है कि यह घड़ा है तथा घडेके सिवाय और कुछ नही है । इसी दो प्रकारके स्वभावको क्रमक्रमसे एक साथ बतानेके लिये तीसरा भंग यह कहा जायगा कि द्रव्य स्वस्वरूपसे अस्ति तथा पर स्वरूपसे नास्ति स्वरूप है यह तीसरा भंग अस्ति नास्ति बनता है । यद्यपि Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [१०६ द्रव्यमें दो स्वभाव है पन्तु एक साथ नहीं कहे जासक्ते क्योंकि वचनोंमे ऐसी शक्ति नहीं है. इसलिये चौथा भंग अवक्तव्य हो जाता है। इसी तरह अपनी २ भिन्न अपेक्षाके कारण अवक्तव्यके आगेके शेष तीन भग बन जायगे अर्थात् स्वरूपसे अस्ति है। तथापि दोनों अस्तिनास्तिको एक समय रखते हुए अवक्तव्य है। यह अस्ति च अवक्तव्य पाचवा भंग हुआ-पर स्वरूपसे नास्ति है तथापि दोनों अस्ति नास्तिको एक समय रखते हुए अवक्तव्य है यह नास्ति च अवक्तव्य नामका छठा भंग है । क्रमसे कहते हुए स्वरूपसे अस्ति तथा पर स्वरूपसे नास्ति है तथापि एक समय दोनोंको रखते हुए अवक्तव्य है यह अस्ति नास्ति च अवक्तव्य नामका सातवां भंग हुआ। आगे कहते हैं विधेय प्रतिध्यात्मा विशेष्यः शब्दगोचरः। साध्यधर्मों यथा हेतुरहेतुश्चाप्यपेक्षया ॥ १९ ॥ भावार्थ-जो कोई विशेष्य पदार्थ शब्दसे कहनेमे आवेगा वह साध्य असाध्य स्वरूप अवश्य होगा । जैसे साध्यका स्वभाव अपने लिये तो हेतु है परन्तु परके लिये अहेतु है । जहा अग्निपना साधन करेंगे वहां धूम हेतु है यही हेतु जलपना साधनेमें अहेतु है-हेतु नहीं है। किसी अपेक्षासे धूम हेतु है, किसी अन्य अपेक्षा धूम अहेतु है। इसी तरह जीव अपने स्वरूपसे साध्य है, परन्तु अनीवके स्वरूपसे असाध्य है अर्थात् जीवमे जीवकी अपेक्षा अस्तिपना तथा अजीवकी अपेक्षा नास्तिपना है । ऐसा यदि न हो तथा दोनों एक स्वरूप हो तब न जीव शब्द कह सके न अजीव शब्द कह सक्ते । स्वयंभूस्तोत्रमे भी खामीने श्री पुष्पदन्त, Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० ] श्रीप्रवचनसारटीका | भगवानकी स्तुति करते हुए कहा है Bhonsleilly तदेव च स्यान्न तदेव च स्यात्तथा प्रतोतेस्तव तत्कथंचित् । नात्यन्तमन्यत्वमनन्यता च विधेर्निषेधस्य च शून्यदोषात् ||४२ ॥ भावार्थ - जीवादि पदार्थ अपने स्वरूपादि चतुष्टयकी अपेक्षा अस्ति रूप हैं तथा पर स्वरूपादि चतुष्टयकी अपेक्षा नास्ति रूप हैं। आपके मतमें जो जीवादिका स्वरूप है वह एक समय में प्रमाण दृष्टिसे अस्ति नास्ति रूप प्रतिभासता है । भिन्न २ अपेक्षासे वस्तु तत् तथा अतत् स्वभावसिद्ध है । अस्ति तथा नास्ति धर्मकी सर्वथा भिन्नता नहीं है। यदि सर्वथा भिन्न माने जावे तौ दोनोंकी शून्यता आजावेगी क्योंकि अस्ति विना नास्ति नहीं । नास्ति विना अस्ति नहीं होते | और यदि दोनोकी सब तरहसे अभिन्नता या एकता मानी जायगी तव भी दोनोंका अभाव हो जायगा । एक द्रव्यमें रहते हुए अपेक्षाकी भी एकता माननेसे कुछ न रहेगा ।' इसलिये अस्तिधर्म नास्तिधर्मसे किसी अपेक्षा भेद रूप व किसी अपेक्षा अभेद रूप है । इस स्याद्वाद कथनसे ही अपना आत्मा सर्व अनात्म द्रव्योसे व सर्व रागादि नैमित्तिक भावोसे जुदा भासता है और उस आत्माका पृथक् अनुभव होता है । स्याद्वादका प्रयोजन यथार्थ वस्तु स्वभावका ज्ञान प्राप्त करना व अन्यको प्राप्त -कराना है । . तात्पर्य यह है कि स्याद्वादके द्वारा यथार्थ स्वरूप समझकर हमें निज हित में प्रवर्तना योग्य है । इस तरह सप्तभंगीके व्याख्यानकी गाथाके द्वारा आठवां स्थल पूर्ण हुआ । इस तरह जैसा पहले कह चुके है पहले एक Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। नमस्कार गाथा कही, फिर द्रव्य गुण पर्यायको कथन करते हुए दूसरी कही, फिर स्वसमय परसमयको दिखलाते हुए तीसरी, फिर द्रव्यके सत्ता आदि तीन लक्षण होते हैं इसकी सूचना करते हुए चौथी, इस तरह खतंत्र गाथा चारसे पीठिका कही । इसके पीछे अवान्तर सत्ताको कहते हुए पहली, महासत्ताको कहते हुए दूसरी, जैसा द्रव्य खभावसे सिद्ध है वैसे सत्ता गुण भी है ऐसा कहते हुए तीसरी, उत्पाद व्यय ध्रौव्यपना होते हुए भी सत्ता ही द्रव्य है ऐसा कहते हुए चौथी इस तरह चार गाथाओसे सत्ताका लक्षण मुख्यतासे कहा गया। फिर उत्पाद व्यय ध्रौव्य लक्षणको कहते हुए गाथा तीन, तथा द्रव्य पर्यायको कहते हुए व गुण पर्यायको कहते हुए गाथा दो, फिर द्रव्यके अस्तित्वको स्थापन करते हुए पहली, पृथक्त्व लक्षणधारी अतभाव नामके लक्षणको कहते हुए दूसरी, संज्ञा लक्षण प्रयोजनादि भेद रूप अतदभावको कहते हुए तीसरी, उसीके ही दृढ़ करनेके लिये चौथी इस तरह गाथा चारसे सत्ता और द्रव्य अभेद हैं इसको युक्तिपूर्वक कहा गया। इसके पीछे सत्ता गुण है द्रव्य गुणी है ऐसा कहते हुए पहली, गुण पर्यायोका द्रव्यके साथ अभेद है ऐसा कहते हुए दूसरी ऐसी स्वतत्र गाथाएं दो हैं। फिर द्रव्यके सत् उत्पाद असत् उत्पादका सामान्य तथा विशेष व्याख्यान करते हुए गाथाएं चार है । फिर सप्तभंगीको कहते हुए गाथा एक है, इस तरह समुदायसे चौवीस गाथाओंके द्वारा आठ स्थलोंसे सामान्य ज्ञेयके व्याख्यानमे सामान्य द्रव्यका वर्णन पूर्ण हुआ। इसके आगे इसी ही सामान्य द्रव्यके निर्णयके मध्यमें सामान्य भेदकी भावनाकी मुख्यता करके ग्यारह गाथाओ तक व्याख्यान Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२] श्रीप्रवचनसारटीकी । करते हैं । इसमे कमसे पांच स्थान हैं। पहले वार्तिकके व्याख्यानके अभिप्राय से सांख्यके एकांतका खंडन है । अथवा शुद्ध निश्श्रयनय से फल कर्म रूप है शुद्धात्माकी स्वरूप नहीं है ऐसी गाथा एक है। फिर इसी अधिकार सूत्रके वर्णन के लिये “ कम्मं णाम समक्खं " इत्यादि पाठ क्रमसे चार गाथाएं हैं। इसके आगे रागादि परिणाम ही द्रव्य कर्मोंके कारण हैं इसलिये भाव कर्म कहे जाते है इसतरह परिणामकी मुख्यतासे "आदा कम्म मलिमसो" इत्यादि सूत्र दो है । फिर कर्मफल चेतना, कर्म चेतना, ज्ञान चेतना इसतरह तीन प्रकार चेतनाको कहते हुए " परिणमदि चदेणाए ” इत्यादि तीन सूत्र हैं । फिर शुद्धात्माकी भेद भावनाका फल कहते हुए "कत्ताकरणं" इत्यादि एक सूत्रमें उपसंहार है या संकोच है - इसतरह भेद भाव - नाके अधिकारमे पांच स्थलसे समुदाय पातनिका है ॥ २४ ॥ . उत्थानिका- आगे कहते हैं कि नारक आदि पर्याय कर्मके' आधीन हैं इससे नाशवंत हैं। इस कारण शुद्ध निश्श्रयनयसे ये नारकादि पर्यायें जीवका स्वरूप नही है ऐसी भेद भावनाको कहते हैं: . यसोत्ति णत्थि कोई ण णत्थि किरिया सहावणिव्वत्ता । किरिया हि णत्थि अफला धम्मो जदि णिष्फलो परमो ॥२५॥३ एष इति नास्ति कश्चिन्न नास्ति क्रिया स्वभावनिर्वृत्ता । क्रिया हि नास्त्यफला धर्मो यदि निःफलः परमः ॥ २५ ॥ अन्वय सहित सामान्यार्थ - ( एसोत्ति णत्थि कोई ) कोई भी मनुष्यादि पर्याय ऐसी नहीं है जो नित्य हो ( ण सहावणिव्वत्ता किरिया णत्थि ) और रागादि विभाव स्वभावसे होनेवाली क्रिया नहीं है ऐसा नहीं है अर्थात् रागादि रूप क्रिया भी अवश्य है । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [११३ (किरिया हि अफला णस्थि ) यह रागादि रूप क्रिया निश्चयसे विना फलके नहीं होती है. अर्थात् मनुप्यादि पर्यायरूर फलको देती है (नदि परमो धम्मो णिप्फलो ) यदि उल्लष्ट वीतराग धर्म मनुप्यादि पर्यायरूप फल देनेसे रहित है। विशेषाय-जैसे टकोत्कीर्ण (टाकीसे उकेरेके समान अमिट ) ज्ञाता दृष्टा एक स्वभाव रूप परमात्मा द्रव्य नित्त्य है वैसे इस संसारमें मनुष्य मादि पर्यायोमेंसे कोई भी पर्याय ऐसी नहीं है जो नित्य हो । तत्र च्या मनुष्यादि पर्यायोंको उत्पन्न करनेवाली संसारफी क्रिया भी नहीं है ! इसके उत्तरमें कहते है कि मिथ्यादर्शन व रागहेयादिकी परिणति रूप सासारिक क्रिया नहीं है ऐसा नहीं है। इन मनुप्यादि चारों गतियोंको उत्पन्न करनेवाली रागादि क्रिया अवश्य है । यह क्रिया शुद्धात्माके स्वभावसे विपरीत होनेपर भी नर नारकादि विभाव पर्यायके स्वभावमे उत्पन्न हुई है। तब क्या यह रागादि क्रिया निष्फल रहेगी ?-इसके उत्तरमें कहते हैं कि वह मिथ्यात्व रागादिमें परिणतिरूप वभाविक क्रिया यद्यपि अनन्त सुखादि गुणमई मोक्षके कार्यको पैदा करनेके लिये निष्फल है तथापि नाना प्रकारके दुखोको देनेवाली अपनी अपनी क्रियासे होनेवाली कार्यरूप मनुप्यादि पर्यायको पैदा करनेके कारण फल सहित है, निष्फल नहीं है-इस रागादि क्रियाका फल मनुष्यादि पर्यायको उत्पन्न करना है। यह बात कैसे मालम होती है ? इसके उत्तरमें कहते है कि यदि वीतराग परमात्माकी प्राप्तिमे परिणमन करनेवाली क्रिया निमको आगमकी भाषामें परम यथाख्यात चारित्र रूप परमधर्म कहते है, फेवलज्ञानादि अनन्त चतुष्टयकी प्रगटता रूप Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११४ ] श्रीप्रवचनसारटीका। कार्य समयसारको उत्पन्न करनेके कारण फल सहित है तथापि नर नारक आदि पर्यायोंके कारणरूप ज्ञानावरणादि कर्मबंधको नहीं पैदा करती है इसलिये निष्फल है। इससे यह ज्ञात होता है कि नरनारक आदि सांसारिक कार्य मिथ्यात्व रागादि क्रियाके फल हैं। अथवा इस सूत्रका दूसरा व्याख्यान ऐसा भी किया जासका है कि जैसे शुद्ध निश्चयनयसे यह जीव रागादि विभाव भावोंसे नहीं परिणमन करता है तैसे ही अशुद्ध नयसे भी नहीं परिणमन करता है ऐसा जो सांख्यमत कहता है उसका निषेध है, क्योंकि जो जीव मिथ्यात्व व रागादि विभावोंमें परिणमन करते हैं उन्हींको नर नारक आदि पर्यायोकी प्राप्ति है ऐसा देखा जाता है। भावार्थ-इस गाथामें आचार्य इस बातको स्पष्ट करते हैं कि यह संसारी जीव अपने मिथ्यादर्शन व रागद्वेषादि भावोके फलसे ही मनुष्यादि पर्यायोंके फलको पाता है। जबतक जिस आयुका उदय रहता है तबतक ही यह जीव किसी मनुष्य या देव आदि पर्यायमें रहता है। ये नरनारकादि पर्याय नित्य नहीं हैं। इस संसारकी नर नारक देव मनुष्य चारों ही गतिरूप पर्यायें जीवके रागादिभावोंसे बांधे हुए कर्मों के आधीन है। इन रागादि भावोंका कर्ता यह संसारी जीव है। सांख्यमत जैसे इस जीवको सर्वथा रागादिका अकर्ता कहता है सो बात नहीं है । यह जीव परिणमनशील है । जब यह अपने वीतराग परम धर्ममें परिणमन करता है तब यह मनुष्यादि पर्यायोंमै जानेवाले कर्मोको नहीं बांधता है किन्तु अपने इस परम धर्ममई वीतराग भावसे अरहंत या सिद्ध परमात्मा होजाता है। जब वीतराग भावसे शुद्ध होता है तब रागादिभावोंसे अशुद्ध Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड । [ ११६ होता है अर्थात कर्म बाधता है यह बात सिद्ध है । 'कर्मके' फलसे मनुष्यादि गति पाकर सांसारिक दुःखसुखको भोगता है । जैसा कर्मका उदय क्षणिक है वैसे ये नरनारकादि पर्यायें भी क्षणिक हैं। तात्पर्य यह है कि संसारका भ्रमण अपने ही मिथ्यात्व व रागादि भावोकी क्रियाका फल है तथा संसारका नाश होकर पर - मात्मपदका लाभ वीतरागरूप परमधर्मसे होता है ऐसा जानकर ससारके नाशके लिये वीतराग धर्ममे वर्तन करना योग्य है । www इस कथनसे यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिये कि यह संसारी जीव अनादिकालसे रागादिरूप परिणमन कर रहा है इसीसे नाना प्रकार कर्मांध देव, मनुष्य, तिर्यञ्च तथा नरक गतिमें वारवार चक्कर लगाया करता है । जब अपने आत्माके श्रद्धान ज्ञान चरित्रमें तन्मई होगा तब आप ही अपने शुद्ध भावोसे कर्मबध काटकर मुक्त हो जायगा । यदि यह विभाव और स्वभावरूप परिणमन करनेकी शक्ति न रखता तौ न कभी संसारी रहता और न कभी संसारीसे सिद्ध होता । यह भी झलका दिया है कि वीतरागरूप धर्म में क्रिया करना संसाररूपी कार्य पैदा करनेके लिये निष्फल है। श्री योगेन्द्रदेवने अमृताशीतिमे बंध मोक्षके सम्बन्धमे अच्छा वर्णन किया है है इदमिदमतिरम्यं नेदमित्यादिभेदा - द्विदधति पदमेते रामरोपादयस्ते । तदल मलमेक निष्फलं निष्क्रियस्सन् भज भजसि समाधे: 'सत्फळ येन नित्यम् ॥ ६६ ॥ तावत्क्रियाः प्रवर्तन्ते यावद् द्वैतस्य गोचर । अद्वपे निष्फले जाने निष्क्रियस्य कुतः क्रिया ॥ ६७ ॥ T Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीप्रवचनसारटोको। अहमहमिह भावाद् भावना यावदन्तर्भवति भवति बंघस्तावदेषोऽपि नित्यः ।। क्षणिकमिदमशेषं विश्वमालोक्य तस्माद्वज शरणमवन्धः शान्तये त्वं समाधे:६८ . भावार्थः यह बहुत रमणीक है, यह बहुत सुन्दर है तथा यह अशोभनीक है, यह कुत्सित है इत्यादि भेदोके कारण तेरेमे ये रागद्वेषादि अपना पैर रखते हैं इससे आत्मकार्य सिद्ध न होगा। इसलिये तू रागादि क्रियाओंको छोडकर निष्क्रिय होता हुआ. सर्व शरीरादि पर पुद्गलसे रहित निर्मल एक आत्माको भन । इसी 'उपायसे तू समाधि भावका अविनाशी और सच्चा फल प्राप्त करेगा। जबतक तेरेमें द्वैतभाव हो रहा है अर्थात् तू रागद्वेपमें वर्त रहा है तबतक क्रियाएं हो रही हैं । जब तुझे अद्वेतरूप एक कर्मबन्धादि रहित शुद्ध आत्माकी प्राप्ति हो जावेगी तब तू निष्क्रिय हो जायगा और फिर कहां तेरेमें क्रिया मिल सक्ती है ? इस जगतमे मै ऐसा हूं, मैं ऐसा हूं इस भावसे जबतक अंतरगमें भावना रहती है तबतक यह बंध बराबर होता रहता है इसलिये तू इस सर्व लोकको क्षणभंगुर देखकर तथा निश्चल एकाग्र होकर अर्थात् पूना बन्दनाका भाव भी छोड़कर तू शांतिकी प्राप्तिके लिये समाधिकी शरणमें जा ॥२५॥ इस गाथामें यह बता दिया है कि नर नारकादि पर्यायें व उनके कारण रागादि भाव इस आत्माका निन स्वभाव नही है, शुद्ध निश्चय नयसे आत्मा इन सर्व अशुद्ध कारण तथा कार्योंसे भिन्न है। ऐसे प्रथम स्थलमें सूत्ररूप गाथा वर्णन की। उत्थानिका-आगे इसी सूत्रका विशेष कहते हुए बताते हैं कि ये मनुष्य आदि पर्यायें कर्मोके द्वारा पैदा होती हैं- ' Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड । [ ११७ कम्मं णामसमक्खं सभावमध अप्पणी सहावेण । अभिभूय परं तिरियं परस्य वा सुरं कुणदि ॥ २६ ॥ कर्म नामसमाख्यं स्वभावमथात्मनः स्वभावेन । अभिभूय नर तिर्यच नैरयिकं वा तुर करोति ॥ २६ ॥ अन्य सहित सामान्यार्थ - ( अघ) तथा (णामसमखं कम्म ) " नाम नामका कर्म (सहावेण ) अपने कर्म स्वभावसे (अप्पणी सभाव ) आत्माके स्वभावको (अभिभूय) ढककर ( णरं तिरिय णेरइय वा सुरं कुणदि) उसे मनुष्य, तिर्यञ्च, नारकी या देवरूप कर देता है । विशेषार्थ - कर्मोंसे रहित परमात्मासे विलक्षण ऐसा जो नाम नामका कर्म जो नामरहित गोत्ररहित परमात्मासे विपरीत है अपने ही सहभावी ज्ञानावरणादि कर्मों के स्वभावसे शुडबुद्ध एक परमा स्वभावको आच्छादन कर उसे नर, नारक, तिर्यञ्च या देवरूप में कर देता है। यहां यह अर्थ है - जैसे अग्नि कर्ता होकर तेलके स्वभावको तिरस्कार करके वत्तीके आधारसे उस तेलको दीपककी शिखारूप में परिणमन कर देती है तैसे कर्मरूपी अग्नि कर्ता होकर तेलके स्थान में शुद्ध आत्माके स्वभावको तिरस्कार करके बत्तीके समान शरीरके आधारसे उसे दीपककी शिखाके समान नर, नारकाढि पर्यायों के रूपसे परिणमन कर देती है। इससे जाना जाता है कि मनुष्य आदि पर्यायें कर्मो के द्वारा उत्पन्न हैं । भावार्थ - इस गाथामे आचार्यने इस बातको और भी स्पष्ट कर दिया है कि सिद्ध अवस्थाके सिवाय और सर्व ससारीक पर्यायें - इस जीवके कर्मोंके उदयसे होती हैं । सिद्धगतिरूप पर्याय जब कर्मोके क्षयसे होती है तब मनुष्यगति, देवगति, पशुगति, तथा Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ ] श्रीप्रवचनसारटीका । नरकगति-मनुष्यादि आयु तथा गति जाति शरीर अंगोपांग स्पर्श आदि नाम कर्मकी प्रकृतियोके उदयसे होती है। यदि नाम कर्मका उदय न हो तो आत्माके प्रदेशोमे कोई भी सकम्पपना या हलनचलन न हो। आकारके पलटनेरूप व्यजन पर्याय जिसमे आत्माक प्रदेश सकोच विस्ताररूप होजाते हैं, नामकर्मके त्यसे ही होती है। यह नाम कर्म अघातिया है-आत्माके ज्ञानादि गुणोका घातक नहीं है परन्तु नाम कर्मके साथमे जो मोहनीय, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय तथा अंतराय कर्म हैं उनका जितना उदय है उसके कारण आत्माके शुद्ध गुण ढकरहे है या क्लुपित होरहे है। इसलिये यह जीव नाम, गोत्र, वेदनी, आयु इन अघातिया कोके उदयसे जब मनुष्य आदि शरीरको व उसमें अच्छे या बुरे सम्बन्धोंको प्राप्त करता है तब वहां घातिया कीका उदय होनेसे आत्माकी शक्ति बहुभाग या अल्पभाग ढकी रहती है । इन घातिया कोमे मुख्य प्रवल मोह कर्म है। इस मोहके आधीन हो यह अज्ञानी आत्मा रागद्वेष, मोह भावोको कर लेता है। इन रागादि अशुद्ध भावोके कारण फिर भी कभी आठ कमी सात प्रकार कर्मोको वाध लेता है और उन कर्मकि उदयसे फिर नर, नारकादि गतियोमे जाता है। वहां फिर अच्छे बुरे संयोग पाकर राग द्वेष मोह करलेता है । इस तरह इस संसारमें अनादिकालसे प्रवाहरूप यह आत्मा कोको आप ही बाधकर आप ही उसके फलसे चार गतियोंमे दुःख उठाता है। जैसे तेल अग्निके सम्बन्धसे बत्तीके द्वारा दीपकी शिखारूप हो जाता है ऐसे यह ससारी आत्मा कीके उदयरूप अग्निके संबन्धंसे शरीर द्वारा मनुष्यादि Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [११९ पर्यायरूप प्रगट होता रहता है। यदि अग्निका सम्बन्ध न हो तो तेल अपने द्रवण व सचिक्कण स्वभावको बिगाड़कर कभी दीपशिखामे परिणमन न करे ऐसे ही जो कर्माका बन्ध न हो तो कभी आत्मा मनुष्यादि गतियोंको धारण न करे । वास्तवमे पुद्गल कर्म ही भवभवमें जीवको फिरानेवाले हैं श्री समयसारफलशमे श्री अमृतचंद्रनी कहते हैंअस्मिन्ननादिनि महत्त्वविवेकनाट्ये । वर्णादिमानटात पुद्गल एव नान्यः ॥ गगादिपुद्गल वकारविरुद्धशुद्ध चतन्यघावमयमूर्तिस्य च जीवः ॥ १२॥ भावाय-इस अनादिकालके महान अज्ञानके नाट्यरूप ससारमे वर्णादिरूप पुद्गल ही नृत्य कररहा है दूसरा कोई नहीं । अर्थात् पुद्गलके निमित्तसे ही जीव ससारचक्रमें घूम रहा है। यदि जीवके यथार्थ स्वभावका विचार करें तो यह जीव रागद्वेषादि पुद्गलके विकारोसे विरुद्ध शुद्ध चैतन्य धातुकी एक अपूर्व मूर्ति है। श्री अमितगति आचार्य सुभाषितरत्नसदोहमें कर्मोदयकी महिमा बताते है देवायत्त सर्व जीवस्य सुखासुख त्रिलोकेऽपि । बुवेति शुधिषणाः कुर्वन्ति मनः क्षति नात्र ॥३६॥ भावार्थ-तीन लोकमें सर्व ही जीवोके जो कुछ सुख या दुःखकी अवस्था होती है सो सर्व कर्मोके उदयसे होती है, ऐसा जानकर निर्मल बुद्धिवाले कभी मनमें खेद नही करते हैं-वस्तुका खरूप विचारकर समताभाव रखते हैं। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० ] . श्रीप्रवचनसारटीका। श्री समन्तभद्राचार्यजीने खयंमूस्तोत्रमें भी कहा है--- अलभ्य शक्तिर्भवितव्यतेय हेतुर्दयाविष्कृतकार्यलिंगा। अनीश्वरो नंतरहं क्रियातः संहत्य कार्येष्विति साध्ववादीः ॥३३॥ भावार्थ-कर्मके उदयकी शक्तिको लांघना बहुत कठिन है। नितने कार्य हैं वे बाह्य और अंतरंग निमित्तोके होनेपर होते हैं। एक अहंकारी पुरुष जिसको कर्मके उदयकी अपेक्षा नहीं है केवल अपने पुरुषार्थके अहंकारसे पीडित है, सुख आदिके लिये कार्योको करनेमें सहकारी कारणोको मिलाकर भी कार्यमे असफल होकर लाचार हो जाता है। श्री सुपार्श्वनाथ आपने ऐसा यथार्थ उपदेश दिया है। प्रयोजन यह है कि संसारी जीव अपने ही भावोंसे बांधे हुए कौके कारण ही चारो गतिमें भ्रमण करते हैं इस लिये संसारके भ्रमणसे बचनेके लिये कर्मबंधके कारण राग, द्वेष, मोहादि भावोंको दूर करना चाहिये ॥ २६ ॥ उत्थानिका-आगे शिष्यने प्रश्न किया कि नरनारकादि पर्यायोंमें किस तरह जीवके स्वभावका तिरस्कार हुआ है । क्या' जीवका अभाव होगया है ? इसका समाधान आचार्य करते हैं- . णरणारयतिरियसुरा जीवा खलु णाम कम्मणिवत्ता। ' ण हि ते लद्धसहावा परिणममाणा सकम्माणि ॥ २७॥ । नरनारकतिर्यक्सुरा जीवः खलु नामकर्मनिर्दृत्ताः । न हि ते लब्धस्वभावाः परिणममानाः स्वकर्माणि ॥ २७ ॥ अन्वय सहित सामान्यार्थ-( णरणारयतिरियसुरा) मनुष्य, । नारकी, तियच और देव पर्यायमें तिष्ठनेवाले (जीवा) जीव (खलु) प्रगटपने ( णाम कम्मणिव्वत्ता ) नाम कर्म द्वारा उन गतियोंमें रचे Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड | [ १२१ गए हैं। इस कारण (ते) वे जीव (सकम्माणि परिणममाणा ) अपने र कम उदयमें परिणमन करते हुए ( लडसहावा ण हि ) अपने स्वभावको निश्वयसे नहीं प्राप्त होते हैं। दिशेपार्थ-नर, नारक, तिर्यश्च, देव ये चारों गति जीव अपने अपने नर नारकादि गति शरीर आदि रूप नाम कर्मके उदयसे उन पर्यायो में उत्पन्न होते हैं, परन्तु वे अपने२ उदय प्राप्त कर्मेकेि अनुसार सुख तथा दुःखको भोगते हुए अपने चिदानंदमई एक शुद्ध आत्म स्वभावको नही पाते हुए रहते है । जैसे माणिकका रत्न सुवर्णके ककणमे जड़ा हुआ अपने माणिक्यपनेके स्वभावको पूर्णपने नहीं प्रगट करता हुआ रहता है उस समय मुख्यता कंकणकी है, माणिक्य रत्नकी नहीं है, उसी तरह इन नर नारकादि पर्यायो जीवके स्वभावकी मात्र अप्रगटता है । जीवका अभाव नहीं होजाता है । अथवा यह भाव लेना चाहिये कि जैसे जलका प्रवाह वृक्षोंके सीचनेमे परिणमन करता हुआ चदन व नीम आदि वनके वृक्षोंमे जाकर उन रूप मीठा, कडुवा, सुगंधित, दुर्गंधित होता हुआ अपने - जलके कोमल, शीतल, निर्मल स्वभावको नहीं रखता है, इसी तरह यह जीव भी वृक्षोके स्थानमे कर्मो के उदय के अनुसार परिणमन करता हुआ - परमानन्दरूप एक लक्षणमई सुखामृतका स्वाद तथा निर्मलता आदि अपने निज गुणोंको नही प्राप्त करता है । • भावार्थ - इस गाथामें आचार्यने यह बताया है कि कर्मेकि ' उदयके कारणसे जीवका अभाव नहीं होता न उसके भीतर पाए 'जानेवाले गुणों का अभाव होता है । कर्मके उदयके असरसे वे गुण प्रगट नही होते । ये संसारी जीव नामकर्मके उदयसे ही एक Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२] श्रीप्रवचनसारटोका। शरीरमें आकर अपने साथ बंधे हुए आठ प्रकारके फकि उदयके' अनुसार कर्मोका फल सुख दुःख भोगते हैं। उस दशामे जो मिथ्यादृष्टी अज्ञानी है उनको अपने स्वभावका शृद्धान तक नही होता है, परन्तु जो योग्य कारणोंको पाकर सम्यग्दृष्टी ज्ञानी हो जाते है उनको अपने स्वभावका लाभ हो जाता है । वे शृद्धावान व ज्ञानवान होकर अपने आत्मानन्दका अनुभव भी करते हैं तथा' चारित्रको बढ़ाते हुए वे चार घातिया कोको नाशकर केवलज्ञानी अहंत परमात्मा हो जाते हैं-वहां उनको साक्षात् आत्माका लाभ हो जाता है, क्योकि इस अनन्तानन्त संसारी जीवरागिमे सम्यग्हष्टी बहुत थोडे होते हैं इससे बहुतकी अपेक्षा लेकर आचार्यने कहा है कि चार गतिके जीव कोक उदयमें तन्मय होते हुए तथा कभी अपनेको सुखी व कभी दुःखी मानते हुए आकुलित रहते हैं-तब वे अपने आत्माके शुद्ध खभावको न पाते हुए संसार भ्रमणके कारण-बीज रूप रागद्वेप मोह भावोका अन्त नही कर पाते हैं। ऐसी दशामे यद्यपि अनादिकालसे जीव मिथ्यादृष्टी व अज्ञानी हैं तथापि जीवके स्वाभाविक गुणोका अभाव जीपकी सत्तासे नहीं होजाता है। सर्व ही ज्ञान दर्शन सुख वीर्य आदि गुण आत्मामे ही रहते हैं परंतु उनके ऊपर ज्ञानावरणीय आदेि घातिया कोका परदा ऐसा पड़ जाता है कि जिसके कारण इन गुणोका औपाधिक या हीन शक्तिरूप प्रगटपना रहता है। कर्मोमे यह शनि नहीं है कि जीवके गुणोंका सर्वथा नाश करके उसको गुण रहित अवस्तु करदें। जैसे एक अच्छा भला आदमी भंगको पीकर कुछ कालके लिये मदोन्मत्त होजाता है परतु जब भंगका नशा उतर जाता है तब्ब Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। . . [१२६ फिर जैसाका तैसा समझदार होकर अपना काम करने लगता है। वैसेही अनादिकालसे मोहके नशेमें चूर यह आत्मा अपने विभावमें वर्तन कर रहा है, मोहका नशा उतरते ही अपने स्वभावको प्राप्त कर लेता है। वृत्तिकारने दो दृष्टान्त दिये हैं एक तो माणिकरत्नकायह रत्न किसी अंगूठीमें जडा हुआ अपने कुछ भागको मात्र छिपा देता है । जब उसको अंगूठीसे अलग करो तब फिर वह सर्वाग स्वभावमें झलकता है, इसी तरह कर्म बन्धनमे पडा हुआ यह आत्मा अपने स्वभावको छिपाए रहता है। बन्धके हटते ही स्वभाव जैसेका तैसा प्रगट होनाता है। दूसरा पानीका, कि पानी स्वभावसे शीतल मीठा व निर्मल होता है परन्तु नीममें जाकर अपने स्वभावको छिपाकर कडुवा, नीबूमे जाकर खट्टा, आवलेमे जाकर कषायला, ईपमे जाकर बहुत मीठा इत्यादि रूप हो जाता है। कोई प्रयोग करे तो वही पानी फिर अपने स्वभावमें आसक्ता है। इसी तरह यह ससारी जीव जो स्वभावसे सिद्ध भगवानके समान है कर्मोके मध्यमें पड़ा हुआ अज्ञानी व रागी देषी हो रहा है। कर्मोके संयोगके दूर होते ही फिर स्वभावमें शुद्ध होजाता है । इससे यही सिद्ध किया गया कि कर्म हमारे स्वभावको तिरस्कार कर देते हैं परन्तु अभाव नहीं कर सक्ते हैं। श्री गुणभदाचार्य आत्मानुशासनमें कहते हैं कि यह प्राणी अपनी मूलसे ही संसारमे भ्रमण कर रहा है। मामन्यमय मा मत्त्वा भ्रान्तो भ्रान्तौ भवार्णवे । नान्योऽइमहमेवाइमन्योऽन्योऽ योऽहमस्तिः न ॥ २४३ ॥ तप्तोऽइ देहसयोगाजलं वानलसंगमात् । इह देहं परित्यज्य शीतीभूताः शिवैषिणाः ॥ २५४ । । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीप्रवचनसारटीका । अनादिचयसंवद्धो महामोहो हृदि स्थितः । सम्यग् योगेन यैर्वान्तस्तेषामू विशुद्धयति ॥ २५५ ॥ भावार्थ-यह भ्रममें पड़ा हुआ प्राणी अपनेको दूसरा- दूसरेको अपना मानकर संसारसमुद्रमें गोते खा रहा है। मैं वास्तवमें अन्य नहीं हूं, मैं मैं ही हूं, अन्य अन्य ही है, अन्य मेरे रूप नहीं है यही बुद्धि अपना उद्धार करनेवाली है। मैं इस शरीर के संयोग से उसी तरह संतापित रहा हूं जिस तरह अग्निके संयोगसे जल तप्त होजाता है। मोक्षके इच्छुकोंने इस देहके ममत्वको त्यागा है तब वे शांत हुए है । हृदयमें अनादिकालका संबद्ध किये हुए महामोहरूपी पिशाच चला आया है । जिन्होंने सम्यक् प्रकार ध्यानके बलसे उसे अन्त कर दिया है उनको पूर्ण शुद्धता प्राप्त हो जाती है । १२४ ] खामी समतभद्र खयंभूस्तोत्रमें श्री अनंतनाथकी स्तुति करते हुए कहते है अनन्तदोषाशयविग्रहो ग्रहो विषङ्गवान्मोहमयश्चिर हृदि । यतो जितस्तत्त्वरुचौ प्रसीदता त्वया ततोर्भूभगवाननन्तजित् ॥६६॥ भावार्थ - अनादिकालसे अनंत दोषोंके स्थान रूप शरीरको - रखनेवाला जो मोह रूपी पिशाच हृदयमें वास कररहा था उसीको आपने तत्वकी रुचिमें प्रसन्नता लाभ करके जीत लिया इसीलिये हे भगवान ! आप अनंतजित हैं । तात्पर्य यह है कि कर्मोंसे हमारा स्वभाव ढक रहा है उसीकी प्रगटता मोहके त्यागसे होने लगती है जिसका उपाय हमको करना चाहिये ॥ २७ ॥ उत्थानिका- आगे कहते हैं कि द्रव्यकी अपेक्षा जीव नित्य है तथापि पर्यायकी अपेक्षा विनाशीक या अनित्य है— Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ waman . द्वितीय खंड । [१२५ जायदि णेव ण णस्सदि, खणभंगसमुन्भवे जणे कोई। जो हि भवो सो विलओ, संभवविलयत्ति ते णाणा ॥२८॥ जायते नैव न नश्यति खणभगसमुद्भवे जने कश्चित् । यो हि भवः सो विलयः समवविलयाविति तो नाना ॥२८॥ अन्वय सहित सामान्यार्थ-(खणभगसमुन्भवे जणे ) क्षण क्षणमें नाश होनेवाले लोकमे (कोई णेव जायदि ण णस्सदि) कोई जीव न तो उत्पन्न होता है और न नाश होता है । कारण (जो हि मवो सो विलओ) जो निश्चयसे उत्पत्ति रूप है वही नाश रूप है। (ते संभव विलयत्ति णाणा ) वे उत्पाद और नाश अवश्य भिन्न २ हैं। विशेपार्थ-क्षण क्षणमें जहां पर्यायार्थिक नयसे अवस्थाका नाश होता है ऐसे इस लोकमें कोई भी जीव द्रव्यार्थिक नयसे न नया पैदा होता है न पुराना नाश होता है। इसका कारण यह है कि द्रव्यकी अपेक्षा जो निश्चयसे उपजा है वही नाश हुआ है। जैसे मुक्त आत्माओंका जो ही सर्व प्रकार निर्मल केवल ज्ञानादिरूप मोक्षकी अवस्थासे उत्पन्न होना है सो ही निश्चय रत्नत्रयमई निश्चय मोक्ष मार्गकी पर्यायकी अपेक्षा विनाश होना है। वे मोक्ष पर्याय और मोक्ष मार्ग पर्याय यद्यपि कार्य और कारण रूपसे परस्पर भिन्न २ हैं तथापि इन पर्यायोंका आधार रूप जो परमात्मा द्रव्य है सो वही है अन्य नहीं है। अथवा जैसे मिट्टीके पिडके नाश होते हुए और घटके बनते हुए इन दोनोंकी आधारभूत मिट्टी वही है। अथवा मनुष्य पर्यायको नष्ट होकर देव पर्यायको पाते हुए इन दोनोका अाधार रूप संसारी जीव द्रव्य वही है।। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६] श्रीप्रवचनसारटोका । पर्यायार्थिक नयसे विचार करें तो वे उत्पाद और व्यय परस्पर मिन्ने' २ हैं। जैसे पहली कही हुई बातमें जो कोई मोक्ष अवस्थाका उत्पाद है तथा मोक्षमार्गकी पर्यायका नाश है ये दोनो ही एक नहीं है किन्तु भिन्नर हैं। यद्यपि इन दोनोंका आधाररूप परमात्म द्रव्य भिन्न नहीं है अर्थात् वही एक है-इससे यह जाना जाता है कि द्रव्यार्थिक नयसे द्रव्यमें नित्यपना होते हुए भी पर्यायकी अपेक्षा नाश है। । भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने जगतमें द्रव्योका स्वभाव स्पष्ट किया है हरएक द्रव्य सत् है और नित्य है। न कभी पैदा होता है न नाश होता है। इसलिये जब द्रव्यको द्रव्यार्थिक नयसे देखा जावे तब यह द्रव्य सदाकाल अपनी सत्ताको प्रगट करेगा और यदि उस द्रव्यको पर्यायकी अपेक्षासे देखा जाये तो वह द्रव्य 'अपनी अनंत अगली व पिछली पर्यायोमें भिन्न २ दिखलाई देगा क्योकि द्रव्य नित्य होने पर भी समय समय एक अवस्थासे अन्य अवस्था रूप होता है। ये, पयायें हरएक समयमे ही नष्ट होती हैं । जब दूसरी पर्याय पैदा होती है तब पहली पर्याय नष्ट होती है। पर्यायदृष्टि से द्रव्य अनित्य है। यह सर्व लोक द्रव्योंका समुदाय है,। जब द्रव्योंकी पायें अनित्य या विनाशीक है तब यह लोक भी अनित्य, विना"शीक, या क्षणभंगुर है। , ' . इसी लोग हरएक जीव भी द्रव्यकी अपेक्षा नित्य है परन्तु पर्यायकी अपेक्षा अनित्य, है । एक ही, जीव अनादिकालसे-निगोद, पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, टेन्द्रिय, Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , द्वितीय खंड । [ ५२७ तेन्द्रिय, चौन्द्रिय, पंचेंद्रियरूप तिर्यच, मनुष्य, देव, नारकीकी पर्यायोंमें अनन्तवार उत्पन्न होकर मरा है वही जीव इस समय इस मेरी मनुष्य पर्याय में है। यहां भी यह बाल अवस्थासे बदलता युवा वस्थामें आता है फिर युवावस्थासे वृद्धावस्थामें समय समय बदलता जारहा है । इसकी हरएक पर्याय क्षणभंगुर है जब कि जीव नित्य है । मोक्षपर्याय या सिद्धपर्याय जब पैदा होती है तब ही ससार पर्याय जो चौदहवें अयोग केवली गुणस्थानके अत समयमें जहा शेष तेरह प्रकृतियें नाश होती हैं - समाप्त होती है । अर्थात मोक्षमार्ग बदलकर मोक्षरूप पर्याय हो जाती है। पुद्गलमें यदि सुवर्ण धातुको द्रव्य माना जावे तो उस सुवर्णके पहले कड़े बनाओ, फिर तोडकर भुजबध बनाओ फिर मुद्रिका बनाओ इत्यादि चाहे जितनी अवस्थाओं में बदलो वह सुवर्णका सुवर्ण ही रहेगा। सुवर्णकी अपे से नित्य है यद्यपि अपनी अवस्थाको बदलनेकी अपेक्षा अनित्य है । द्रव्यकी अपेक्षा हरएक द्रव्यकी पर्यायमें एकता है जब कि पर्यायी अपेक्षा अनेकता या भिन्नता है। ऐसा ही जगतका स्व-भाव है । यह पर्यायकी अपेक्षा अनित्य है । जो कुछ रचना नगर मकान, कपडे, वर्तन आदिकी व चेतन पुरुष, स्त्री, घोड़ा, हाथी, ऊट, बंदर, आदिकी देख रहे हैं सो सब क्षणभंगुर है-इन अवस्थाओंको नित्य मानना अज्ञान है व इनके मोहमें फस जाना मूढ़ता या मिथ्यात्व है । मोही प्राणी इन ही अवस्थाओंमें राग करके इनका बना रहना चाहता है परन्तु वे एकसी रह नही सक्ती हैंअवश्य बदल जाती है तब इस मोहीको महा कष्ट होता है। एक गृहस्थ अपनी पत्नी के शरीरकी सुन्दरतासे अधिक मोह कर रहा " " Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८] श्रीप्रवचनसारटीका । है। कालांतरमें रोगके कारण सुन्दरता बिगड़ जाती या शरीर छूट जाता है तब उसको महान कष्ठ होता है । संसारमें दुःखोका कारण पर्यायोमें राग द्वेष मोह है। जो ज्ञानी जगतकी क्षणभंगुरताका निश्चय करके द्रव्यको नित्य मानते हुए उसकी पर्यायोंको विनाशीक मानते हैं वे दिखनेवाली अवस्थाओंमे रागद्वेष नहीं करके समताभाव रखते हैं इसलिये चे ज्ञानी सदा शांत और संतोषी रहते है। यह जगत उत्पाद द्रव्य धौव्य खरूप है यही सत्य ज्ञान है । स्वामी समंतभद्र श्री मुनिसुव्रतनाथकी स्तुति करते हुए कहते हैं स्थितिजनननिरोधलक्षणं, चरमचर च जगत्प्रतिक्षणम् । इति जिन सकलज्ञलाछन, वचनामिद वदतां वरस्य ते ॥११॥ । हे मुनिसुव्रतनाथ जिनेन्द्र ! आप तत्त्वके उपदेशकर्ताओमें बड़े हैं। आपका जो यह वचन है कि यह चेतन अचेतनरूप जगत् प्रतिक्षण उत्पाद व्यय ध्रौव्यस्वरूप है सोही इस बातका लक्षण है कि आप सर्वज्ञ हैं-सर्वज्ञने ऐसा ही देखा सो ही कहा, वैसा ही हम इस जगतको अनुभव कर रहे हैं ॥ २८ ॥ तात्पर्य यह है कि पर्यायबुद्धि छोड़कर मूल द्रव्यपर ध्यान रख पर्यायोमें रागद्वेष त्याग तत्वक विचारमें संलग्न रहना चाहिये। उत्थानिका-आगे.इस विनाश स्वरूप जगतके लिये कारण क्या है उसको संक्षेपमें कहते हैं अथवा पहले स्थलमें अधिकार सूत्रसे जो यह सूचित किया था कि मनुष्यादि पर्यायें कौके उदयसे हुई हैं इससे विनाशीक हैं इसी ही बातको तीन गाथाओंसे विशेष करके व्याख्यान किया गया अब उसीको संकोचते हुए । कहते हैं Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड । [१२९ तम्हा दु णत्थि कोई, सहावसमवहिदोत्ति संसारे । संसारो पुण किरिया संसरमाणंस्स व्वस्स ॥ २६ ॥ तस्मात्तु नास्ति कश्चित् स्वभावसमवस्थित इति संसारे । संसारः पुनः क्रिया संसरतो द्रव्यस्य ॥ २९ ॥ अन्वय सहित सामान्यार्थ-(तम्हा दु) इसी कारणसे (संसारे) इस संसारमें (कोई सहावसमवट्ठिदोत्ति णत्थि) कोई वस्तु स्वभावसे थिर नहीं है। (पुण) तथा ( संसरमाणस्स दव्वस्स ) भ्रमण करते हुए जीव द्रव्यकी (क्रिया) क्रिया (संसारो) संसार है। विशेषार्थ:-जैसा पहले कह चुके हैं कि मनुप्यादि पर्याय नाशवन्त हैं इसी कारणसे ही यह बात जानी जाती है कि जैसे परमानन्दमई एक लक्षणधारी परम चैतन्यके चमत्कारमे परिणमन करता हुआ शुद्धात्माका स्वभाव थिर है, वैसा नित्य कोई भी जीव पदार्थ इस संसार रहित शुद्धात्मासे विपरीत ससारमे नित्य नहीं है। तथा विशुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभावके धारी मुक्तात्मासे विलक्षण संसारमें भ्रमण करते हुए इस संसारी जीवकी जो क्रिया रहित और विकल्प रहित शुद्वात्माकी परिणतिसे विरुद्ध मनुप्यादि रूप विभाव पर्यायमें परिणमन रूप क्रिया है सो ही संसारका स्वरूप है। इससे यह सिद्ध हुआ कि मनुप्यादि पर्यायस्वरूप संसार ही जगतके नाशमें कारण है। भावार्थ-पहले कह चुके है कि इस जगतमें द्रव्य दृष्टि से पदार्थ नित्य है परतु पर्यायोकी अपेक्षा अनित्य है । इसी वातसे यह फल निकाला जाता है कि इस चतुर्गतिमें भ्रमण रूप संसारमें कोई भी जीव अपने स्वभावमे स्थिर नहीं है। वास्तवमे संसार Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० ] श्रोप्रवचनसारटोका। ही उसीको कहते हैं जहां यह जीव द्रव्य मनुष्यादि पर्यायोंको धारण करकर उन पर्यायोके अनुकूल कार्य करता रहे । संसार ही विभाव क्रिया रूप है । यह जीव अनादिसे रागद्वेष मोहरूप परिगमन करता है इसी परिणमनसे गति आदि शुभ अशुभ कर्म बांधता है और उस कर्मके अनुसार चार गतिमें से किसी गतिमें कुछ कालके लिये जाता है। वहां फिर रागद्वेष मोहके द्वारा गति आदि कर्म बांधता है उस कर्मके अनुसार फिर किसी गतिमें चला जाता है, वहां फिर कर्म बांधता है, इस तरह संसारका प्रवाह वराबर चल रहा है । यह संसार रागद्वेष मई क्रियारूप है। जहां रागद्वेष रूप क्रियाका विलकुल अभाव है वहां ससारका भी अभाव है। मुक्तात्मामें रागद्वेष रूप क्रिया नहीं होती है । इसीसे सिद्ध भगवान सदाकाल अपने वीतराग परमानंदमई स्वभावमें स्थिर रहते हैं । वे कर्मबंध रहित है इसीसे क्रिया रहित हैं । संसारी जीव कर्मबंध सहित हैं, इसीसे क्रिया रूप हैं । इससे यह तात्पर्य है कि रागद्वेष मोहरूप क्रिया ही संसारके भ्रमणका हेतु है । वास्तवमे इसी रागद्वेष मोहके परिणमनको ही संसार कहते है । इसलिये निन अविनाशी ज्ञानानंदमई खभावके लाभके लिये हमको राग द्वेषके परिणमनको त्यागकर वीतरागमई समताभावमें ही वर्तन करना चाहिये । यही वर्तन संसारके नाशका उपाय है। खामी समंतभद्र स्वयंभूस्तोत्रमे संसारका खरूप कहते है: अनित्यमत्राणमहं क्रियामः प्रसक्तमिथ्याध्यवसाय दोषम् । इद जगजन्मजरान्तकात निरजना शातिमजोगमस्त्वम् ॥१२॥ हे श्री संभवनाथ ! यह प्रतीतिमें आनेवाला संसार अनित्य Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड | [ १३१ है तथा अशरण है और इस अहंकार के कारण कि मैं पर पदार्थका कर्त्ता हूं मिध्या अभिप्रायके दोपसे भरा हुआ है अर्थात् संसारी जीव अनित्य और अशरण होकरके भी रातदिन धनादिके उपार्जन, रक्षण आदि अहंकार रूप मिथ्या भावमें अत्यन्त लगे हुए हैं इसीसे यह जगत् अर्थात् जगतके प्राणी जन्म, जरा मरणसे पीड़ित हैं परन्तु आपने कर्मोके बन्धन से रहित परम शांतिरूप कल्याणके स्थान स्वाधीन पदको जगतके प्राणियोको प्राप्त कराया है अर्थात् आपका उपदेश ध्यानमे लेकर अनेक ससारी प्राणी भवसागरके पार पहुंचकर परम सुखी होगए हैं। श्री गुणभद्राचार्य आत्मानुशासन में संसारका स्वरूप बताते हैं । तादात्म्य तनुभिः सदानुभवन पाकस्य दुःकर्मणो । व्यापार: समय प्रति प्रकृतिभिगढ स्वयं बंधनम् || निद्राविश्रमण मृते प्रतिभय शमृतिश्च ध्रुव । जन्मिन् जन्मनि ते तथापि रमते तत्रैव चित्र महत् ॥५८॥ हे ससारी प्राणी ! यह ससार ऐना है कि जहां तू शरीरसे एकमेक होरहा है, पाप कर्मों के फलको भोगता है । समय २ स्वयं कर्मोकी प्रकृतियो से अच्छी तरहसे बन्धनमें पड़ना यही तेरा व्यापार है । निद्रासे विश्वाति लेता है । मरणसे सदा भय करता है तौमी 1 जहां सदा जन्म मरण होता रहता है तथापि तू ऐसे संसार में रमता है यही बड़ा आश्चर्य है । प्रयोजन यह है कि संसारको कष्टोंका मूल जानकर इससे उदासीन होना योग्य हैं ॥ २९ ॥ इस तरह शुद्धात्मासे भिन्न कसे उत्पन्न मनुष्यादि पर्याय Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NNNN २३२] श्रीप्रवचनसारटीका। नाशवंत हैं इस कथनकी मुख्यतासे चार गाथाओंके द्वारा दूसरा स्थल पूर्ण हुआ। उत्थानिका-आगे कहते हैं कि संसारका कारण ज्ञानावरण आदि द्रव्य कर्म है और इस द्रव्य कर्मके बंधका कारण मिथ्यादर्शन व राग आदि रूप परिणाम है आदा कम्ममलिमसो परिणाम लहदि कम्मस जुत्त । तत्तो सिलिसदि कम्म तम्हा कम्मतु परिणामो ॥३०॥ आत्मा कर्ममलीमसः परिणामं लभते कर्मसयुक्तम् । ततः श्लिष्यति कर्म तस्मात् कर्म तु परिणामः ॥३०॥ अन्वय सहित सामान्यार्थः-(आदा कम्ममलिमसो) आत्मा द्रव्य कर्मोसे अनादि कालसे मैला है इसलिये ( कम्मसंजुत्तं परिणाम ) मिथ्यात्व आदि भाव कर्म रूप परिणामको (लहदि) प्राप्त होता है । ( तत्तो ) उस मिथ्यात्व आदि परिणामसे (कम्मं सिलिसदि ) पुद्गल कर्म जीवके साथ वध जाता है ( तम्हा ) इसलिये (परिणामो) मिथ्यात्व व रागादि रूप परिणाम (कम्मं तु) ही भाव कर्म है अर्थात् द्रव्य कर्मके वन्धका कारण है। विशेषार्थ-निश्चय नयसे यह दोष रहित परमात्मा शुद्ध बुद्ध एक स्वभाव वाला होनेपर भी व्यवहार नयसे अनादि कर्म बन्धके कारण कर्मोंसे मैला होरहा है। इसलिये कर्म रहित परमात्मासे विरुद्ध कर्म सहित मिथ्यात्व वरागादि परिणामको प्राप्त होता है-इस परिणामसे द्रव्य कर्मोको बांधता है। और जब निर्मल भेद विज्ञानकी ज्योतिरूप परिणाममें परिणमता है तब कर्मोसे छूट जाता है, क्योंकि रागद्वेप आदि परिणामसे कर्म बंधता है। इसलियेराग आदि विकल्परूपः Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [१३३ जो भाव कर्म या सराग परिणाम सो ही द्रव्य कर्मोका कारण होनेसे उपचारसे कर्म कहलाता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि राग आदि परिणाम ही कर्म बंधका कारण है। भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने संसारके बीजको बताया है। यह आत्मा इस अनादि अनंत जगतमें यद्यपि अपने स्वभावकी अपेक्षा निश्चय नयसे सिद्ध परमात्माके समान शुद्ध बुद्ध आनन्दमई तथा कर्मबंधसे रहित है तथापि अपने विभावकी अपेक्षा व्यवहार नयसे अनादि कालसे ही प्रवाहरूप कर्मोसे मैला चला आरहा है । कभी शुद्ध था फिर अशुद्ध हुआ ऐसा कभी नहीं होसक्ता है। शुद्ध सुवर्ण अशुद्ध नहीं होसक्का वैसे ही मुक्तात्मा या परमात्मा कभी अशुद्ध अथवा संसारी नहीं होसक्ता । इस ससारी आत्माके ज्ञानावरण आदि आठ कर्मका बन्ध होरहा है । और इन्ही कोके उदय या फलसे यह ससारी जीव देव, मनुष्य, पशु या नरक इन चार गतियोमेंसे किसी न किसी गतिमें अवश्य रहता है। वहां जैसे बाहरी निमित्त होते है उनके अनुकूल यह मोही जीव रागद्वेष मोह भाव करता है । यह रागद्वेप मोह भाव भी मोह कर्मके असरसे होता है । यह अशुद्ध भाव उसी समय द्रव्य कर्म वर्गणाओको आश्रव रूप करके आत्माके प्रदेशोंसे उनका एक क्षेत्रावगाह रूप बन्ध करा देता है । यह निमित्त नैमित्तिक संबंध है। जैसे अग्निकी उष्णताका निमित्त पाकर जल स्वयं भापकी दशामें बदल जाता है ऐसे ही जीवके अशुद्ध भावोंका निमित्त पाकर कर्म वर्गणाएं स्वयं आकर कभी आठ कर्म रूपसे व कभी सात कर्म रूसे बंध जाती हैं। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ ] श्रीप्रवचनसारटीका । इस तरह पूर्ववद्ध कर्मके असरसे रागादि परिणाम होते हैं और रागादि भावसे नया कर्म बन्धता है। इस तरह रागी द्वेषी मोही जीवके सदा ही कर्म बंध हुआ करता है और उस बंधके कारण यह जीव चारों गतियो में सदा भ्रमण किया करता है। यदि यह सम्यग्दीनके प्रतापसे विबेक प्राप्त करे और अपने शुद्ध आत्मा के स्वभावका शृद्धान और ज्ञान करके उसीके अनुभवका प्रेमी होजावे तथा संसार शरीर भोगसे उदासीन रहे तो इसके पूर्ववद्ध कर्मोकी निर्जरा होने लगती है। ज्योज्यो शुद्ध भाव बढते है निर्जरा अधिक होती है, नया कर्मवध कम होता है। इसतरह बंध कम व निर्जरा अधिक होते होते यह आत्मा स्वय अरहंत और फिर सर्व कर्मरहित सिद्ध परमात्मा होजाता है । इससे यह सिद्ध हुआ कि जब बीतरागभाव मुक्ति का बीज है तब सरागभाव ससारका बीज है। सरागभावको ही कर्मो के बंधका कारण होनेसे भावकर्म कहते हैं । श्री अमृतचंद्रस्वामीने पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में कहा है:परिणममाणो नित्य ज्ञानविवत्तैरनादिस्तत्या | परिणामाना वेण स भवति कर्त्ता च भोक्ता च ॥१०॥ जीवकृतं परिणामं निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये । स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गलाः कर्मभावेन ||१२|| भावार्थ - अनादि परिपाटीसे नित्य ज्ञानावरणादि कर्मोंसे परिगमता हुआ अर्थात उनके उदयको भोगता हुआ यह जीव अपने ही रागादि परिणामोका आप ही कर्ता और भोक्ता होता है तब ' इस जीवके किये हुए रागादि परिणामका निमित्त पाकर फिर दूसरे इस लोकमे भरे हुए कर्म पुद्गल आप ही कर्मरूप परिणमन कर जाते हैं । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [१३५ श्री कुलभद्र आचार्य सारसमुच्चयमे कहते हैं रागद्वेषमयो जीवः कामक्रोधवशे यत । लोभमोहमदाविष्टः सारे ससरत्यसी ॥ २४ ॥ भावार्थः-क्योकि यह जीव रागद्वेष मई होरहा है, काम तथा क्रोधके आधीन है, लोभ, मोह व मदसे घिरा हुआ है इसीसे संसारमे भ्रमण करता है। अनादिकालजीवेन प्राप्त दु.ख पुन पुनः । मिथ्यामोहपरीतेन रूपाययशवर्तिना ॥ ४८ ॥. भावार्थ-इस मिथ्या मोह और कषायोके आधीन होकर इस जीवने अनादिकालसे बार वार दुख उठाये हैं। वास्तवमे भाव कर्म ही ससारके बीज हैं ॥३०॥ उत्थानिका-आगे कहते हैं कि निश्चयसे यह आत्मा अपने ही परिणामका कर्ता है, द्रव्य कर्मोंका कर्ता नहीं है। अथवा दूसरी उत्थानिका यह है कि शुद्ध पारिणामिक परम भावको ग्रहण करनेवाली शुद्धनयसे जैसे यह जीव अकर्ता है वैसे ही अशुद्ध निश्चय नयसे भी सांख्य मतके कहे अनुसार जीव अकर्ता है। इस बातके निषेधके लिये तथा आत्माके वन्ध व मोक्ष सिद्ध करनेके लिये किसी अपेक्षा परिणामीपना है ऐसा स्थापित करते है। इस तरह दो उत्थानिका मनमें रखके आगेका सूत्र आचार्य कहते हैपरिणामो सयमादा सा पुण किरियत्ति होइ जीवमया । किरिया कम्मत्ति मदा तम्हा कम्मस्ल ण दु कत्ता ॥३१॥ परिणामः स्वयमात्मा सा पुनः क्रियेति भवति जीवमयी । क्रिया कर्मेति मता तस्मात्कर्मणो. न तु कर्ता ॥ ३१ ॥ । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ ] श्रीप्रवचनसारटोका । अन्वय सहित सामान्यार्थ - ( परिणामो सयम् आदा ) जो परिणाम या भाव है सो स्वयं आत्मा है (पुण सा जीवमया किरियत्ति होइ) तथा वही परिणाम जीवसे की हुई एक क्रिया है ( किरिया कम्मत्ति मदा) तथा जो क्रिया है उसीको जीवका कर्म ऐसा माना है (तम्हा कम्मसण दुकत्ता ) इसलिये यह आत्मा द्रव्य कर्मका कर्ता नहीं है । विशेषाय - आत्माका जो परिणाम होता है वह आत्मा ही है क्योकि परिणाम और परिणाम करनेवाला दोनो तन्मयी होते हैं । इस परिणामको ही किया कहते हैं क्योकि यह परिणाम जीवसे उत्पन्न हुआ है । जो क्रिया जीवने स्वाधीनतासे शुद्ध या अशुद्ध उपादान कारण रूप से प्राप्त की है वह क्रिया जीवका कर्म है यह सम्मत है । यहां कर्म शब्दसे जीवसे अभिन्न चेतन्य कर्मको लेना चाहिये । इसीको भाव कर्म या निश्चय कर्म भी कहते हैं । इस कारण यह आत्मा द्रव्य कर्मोंका कर्ता नही है । यहां यह सिद्ध हुआ कि यद्यपि जीव कथंचित् परिणामी है इससे जीवके कर्तापना है तथापि निश्चयसे यह जीव अपने परिणामोंका ही कर्ता है, व्यहार मात्र से ही पुद्गल कर्मोंका कर्त्ता कहलाता है । इनमेंसे भी जब + यह जीव शुद्ध उपादान रूपसे शुद्धोपयोग रूपसे परिणमन करता है तब मोक्षको साधता है और जब अशुद्ध उपादान रूपसे परिणमता है तब बन्धको साधता है । इसी तरह पुद्गल भी जीवके समान निश्चयसे अपने परिणामोंका ही कर्ता है । व्यवहारसे जीवके परिणामोंका कर्त्ता है, ऐसा जानना । भावार्थ - इस गाथामें आचार्यने यह बतलाया है कि - आत्मा. Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड । [१३७ अपने परमाणोंका ही करनेवाला होसक्ता है-वह कभी भी ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्मका कर्ता नहीं है क्योंकि आत्मा चतन्यमई है जव कि द्रव्य कर्म पुद्गलके रचे हुए है। हरएक द्रव्य अपने स्वभावमें ही क्रिया या परिणमन कर सक्ता है और जो परिणमन होता है उसीको उस परिणमन रूप क्रियाका कर्म कहते हैं । जैसे जीवके रागादि भावोका निमित्त पाकर पुद्गलमई कार्माण वर्गणा ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्म रूप स्वयं अपनी परिणमन शक्तिसे परिणमन कर जाती हैं वैसे ही मोहनीय कर्मके उदयके असरके निमितसे जीवका उपयोग राग द्वेष मोह रूप परिणमन कर जाता है। इसलिये अशुद्ध उपादान या अशुद्ध निश्चय नयसे इन रागादि भावोंको जीवके परिणाम कहते है-ये ही भाव जीवकी अशुद्ध परिणमन क्रियासे उत्पन्न हुए भाव कर्म हैं । यदि शुद्ध उपादान या शुद्ध निश्चय नयसे विचार करें तो यह आत्मा कर्मके उदयके निमित्तकी अपेक्षा विना अपने शुद्ध उपयोगका ही करनेवाला है। वास्तवमें आत्मामें दो प्रकारके भावोके होनेकी शक्ति है-एक अपने स्वाभाविक भाव, दूसरे नैमित्तिक या वैभाविक भावकी । जब ज्ञानावरणादि कर्मोंके उदयका निमित्त होता है तब वैभाविक भाव रूप कर्म होता है और जब कर्मोका निमित्त नहीं होता तब स्वाभाविक ज्ञानानंद मई भावरूप कर्म होता है। यदि साख्यमतके अनुसार ऐसा माना जावे कि आत्मा सदा ही शुद्ध रहता है-उसमे नैमित्तिक भाव नहीं होता है तो आत्माके लिये संसारको दूरकर मोक्ष प्राप्त करनेका प्रयत्न निष्फल हो जायगा । कूटस्थ नित्य पदार्थमें किसी तरहका परिणमन नहीं होसक्ता है । सो यह बात द्रव्यके स्वभावके विरुद्ध है, Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८] श्रीप्रवचनसारटीका । द्रव्य अपने नामसे ही द्रवणपने या परिणमनपनेको सिद्ध करता है । जैसे स्फटिक मणिको लाल पीले डांकका निमित्त मिलता है. तब वह रवयं लाल पीली वर्णरूप कांतिमे परिणमन कर जाती है और जब कोई पर निमित्त नही होता है तब अपनी निर्मल कांतिमें ही परिणमन करती है । इसी तरह आत्मा मोह आदि कर्मोके निमित्तसे भाव कर्म रूप परिणमता है । यदि निमित्त न हो तो अपने शुद्ध भावमें ही परिणमन करता है । आत्माके ही अशुद्ध रागादि भावोका निमित्त पाकर द्रव्य कर्मका बंध होता है जिससे यह जीव चारो गतियोमें जन्म लेकर कष्ट उठाता है । संसारके वीन रागादिभाव कर्म है। इन बीजोको दग्ध कर देनेसे ही जीव संसारके भ्रमणसे मुक्त होकर परमात्मा हो जाता है । तात्पर्य यह है कि इस आत्माको अपने रागादि भावोके परिणमनको वीतराग परिणमनमे वदल देना चाहिये । यही साम्यभावकी प्राप्तिका या निज स्वरूपाचरण चारित्रकी प्राप्तिका उपाय है। श्री अमितिगति महाराजने वड़े सामायिक पाठमे कहा है:कामक्रोधविषादमत्सरमदद्वेपप्रमादादिभिः शुद्धध्यानविवृद्धकारिमनसः स्थैर्य यतः क्षिप्यते ॥ काठिन्य परितापदानचतुरैमो हुताशैरिव । त्याच्या ध्यानविधायिभिस्तत इमे कामादयो दूरतः ॥५३॥ , भावाथ -जैसे आताप देनेमें प्रवीण अग्निके द्वारा सुवर्णकी कठिनता नहीं रहती है-वह मुलायम व चलायमान हो जाता है, ऐसे ही काम, क्रोध, विषाद, मत्सर, मद, द्वेष व प्रमादादि कार थिरता नष्ट हो जाती है। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड | [ १३९ इस लिये ध्यान करनेवालोको उचित है कि वे इन कामादि भाव कर्मों को दूरसे ही त्याग देवें । और भी कहा है शूरोऽह शुभधीर पटुरह सर्वाधिक श्रीरह | मान्योऽहं गुणवानह विभुरहं पुंसामहमग्रणी ॥ इत्यात्मन्नपहाय दुष्कृतकरी व सर्वथा कल्पना | शश्वद्धयान तदात्मतत्वममले नै श्रेयसो श्रीर्यंतः ॥ ६२ ॥ ! भावार्थ- हे आत्मन् ! तू सर्वथा पापकर्मको लानेवाली इस कल्पनाको छोड कि मै शूर हूं, सुबुद्धि हूं, चतुर हूं, महान् लक्ष्मीवान हू, मान्य हू, गुणवान हूं, समर्थ हू, सव पुरुषोंने मुख्य हूं और निरन्तर उस निर्मल आत्म-तत्वका ध्यानकर जिसके प्रतापसे मुक्तिरूपी लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है ॥ ३१ ॥ इस तरह रागादि भाव कर्मवधके कारण हैं उन्हींका कर्ता जीव है, इस कथनी मुख्यतासे दो गाथाओमे तीसरा स्थल पूर्ण हुआ । उत्थानिका- आगे कहते है कि जिस परिणामसे आत्मा परिणमन करता है वह परिणाम क्या है - परिणमदि चेयणाए आदा पुण चेदणा तिधाभिमदा | सा पुण णाणे कम्मे फलम्मि वा कम्मणो भणिदा ॥३२॥ परिणमति चेतनया आत्मा पुनः चेतना त्रिधाभिमता । सा पुनः ज्ञाने कर्मणि फले वा कमणी भणिता ॥ ३२ ॥ अन्वय सहित सामान्यार्थ - ( आदा ) आत्मा ( चेयणाए ) चेतना के स्वभाव रूपसे ( परिणमदि ) परिणमन करता है (घुण ) तथा (चेदणा तिघा अभिमदा) वह चेतना तीन प्रकार मानी गई Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० ] श्रीप्रवचनसारटोका । है । (पुण ) अर्थात् (सा) वह चेतना ( णाणे ) ज्ञानके सम्बन्धमें (कम्मे ) कर्म या कार्यके सम्बन्धमें ( वा कम्र्म्मणो फलम्मि ) तथा कर्मेकेि फलमें (भणिदा) कही गई है । विशेपार्थ- हरएक आत्मा चेतनापनेसे परिणमन करता रहता है अर्थात् जो कोई भी आत्माका शुद्ध या अशुद्ध परिणाम है वह सर्व ही परिणाम चेतनाको नहीं छोड़ता है । वह चेतना जब ज्ञानको विषय करती है अर्थात ज्ञानकी परिणतिमें वर्तन करती है तब उसको ज्ञानचेतना कहते है । जब वह चेतना किसी कर्म के करनेमें उपयुक्त है तब उसे कर्म चेतना और जब वह कर्मों के फल की तरफ परिणमन कर रही है तब उसको कर्मफलचेतना कहते हैं । इस तरह चेतना तीन प्रकारकी होती है । भावार्थ- आत्माका स्वभाव चेतना है । जो चेते वह चेतना । यहां चेतनासे मतलब तन्मय होकर जाननेका है । उपयोग आत्माकी चेतना गुणकी परिणतिको कहते हैं । आत्मा उपयोगवान है । इससे वह अपनी चेतनाकी परिणतिमें या उपयोगमे सदा वर्तन करता रहता है । उसी चेतनाके तीन भेद किये हैं । जब आत्मा ज्ञान मात्र भावमें परिणमन कर रहा है तब उसके ज्ञान चेतना है क्योंकि उसका उपयोग किसी भी पदार्थकी तरफ रागद्वेषके साथ में उपयुक्त नहीं है, वह उपयोग मात्र ज्ञान स्वभावमें वर्तन कररहा "है । वह उपयोग जानता मात्र है परन्तु रागद्वेष सहित नही जानता है । उस चेतनाकी परिणतिमें न किसी रागद्वेष पूर्वक कार्य करनेकी ओर ध्यान है न सुख दुःखकी तरफ ध्यान है जो कर्मोंके फल हैं इसलिये ज्ञान चेतनाको शुद्ध चेतना भी कह सके हैं। नो चेत Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [१४१ नाकी परिणति किसी भी कार्यके करनेमें वर्तन कर रही है उसको कर्मचेतना और जो पूर्वकृत कोंके उदयसे प्रगट हुए सुख अथवा दुःखरूप फलोंके भोगनेमें वर्तन कर रही है उसको कर्मफलचेतना कहते हैं। इस तरह चेतनाके तीन भेद हैं-ज्ञानचेतना, कर्मचेतना और कर्मफलचेतना ॥३२॥ उत्थानिका-आगे तीन प्रकार ज्ञानचेतना, कर्मचेतना तथा कर्मफलचेतनाके स्वरूपका विशेष विचार करते हैंणाणं अत्थवियप्पो फम्म जीवेण जं समारद्ध । तमणेगविधं भणिदं फलत्ति सोपखं व दुषख वा ॥३॥ शानमर्थविकल्प कर्म जीवेन यत्समारब्धम् ॥ तदनेकविध भणित फलमिति सौख्य वा दुःखं वा ॥३३॥ अन्वय सहित सामान्यार्थः-(अत्थवियप्पो) पदार्थोके जाननेमें समर्थ जो विकल्प है (णाणं) वह ज्ञान या ज्ञानचेतना है। (जीवेण ज समारद्ध कम्म) जीवके द्वारा जो प्रारम्भ किया हुआ कर्म है ( तमणेकविध भणिद ) वह अनेक प्रकारका कहा गया है-इस कर्मका चेतना सो कर्मचेतना है (वा सोक्ख व दुक्खं फलत्ति) तथा सुख या दुःखरूप फलमें चेतना सो कर्मफल चेतना है । विशेपार्थ-ज्ञानको अर्थका विकल्प कहते है जिसका प्रयोजन यह है कि ज्ञान अपने और परके आकारको झलकानेवाले दपर्णके समान स्वपर पदार्थोंको जाननेमें समर्थ है । वह ज्ञान इस तरह नानता है कि अनन्तज्ञान सुखादिरूप मैं परमात्मा पदार्थ हूं तथा रागादि आश्रवको आदि लेकर सर्व ही पुद्गलादि द्रव्य मुझसे भिन्न हैं । इसी अर्थ विकल्पको ज्ञान चेतना कहते हैं। इस जीवने Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२] श्रीप्रवचनसारटोका ।, अपनी बुद्धिपूर्वक मन वचन कायके व्यापार रूपसे जो कुछ करना प्रारम्भ किया हो उसको कर्म कहते हैं । यही कर्म चेतना है । सो कर्मचेतना शुभोपयोग, अशुभोपयोग और शुद्धोपयोगके भेदसे तीन प्रकारकी कही गई है। सुख तथा दुःखको कर्मका फल कहते है उसको अनुभव करना सो कर्मफल चेतना है। विषयानुराग रूप जो अशु• भोपयोग लक्षण कर्म है उसका फल अति आकुलताको पैदा करनेवाला नारक आदिका दुःख है। धर्मानुराग रूप जो शुभोपयोग लक्षण कर्म है उसका फल चक्रवर्ती आदिके पंचेद्रियोके भोगोका भोगना है। यद्यपि इस सुखको अशुद्ध निश्चय नयसे सुख कहते हैं तथापि यह आकुलताको उत्पन्न करनेवाला होनेसे शुद्ध निश्चय नयसे दुःख ही है । और जो रागादि रहित शुद्धोपयोगमें परिणमन रूप कर्म है उसका फल अनाकुलताको पैदा करनेवाला परमानदमई एक रूप सुखामृतका खाद है। इस तरह ज्ञानचेतना, कर्मचेतना और कर्मफलचेतनाका स्वरूप जानना चाहिये। भावार्थ यहां आचार्यने तीन प्रकार चेतनाका खरूप बताया है-जहा न सुख तथा दुःखके भोगनेमे विकल्प है, न किसी कार्यको मन वचन कायके द्वारा करनेमे विकल्प है किन्तु जहां मात्र अपने स्वरूपका-कि मै परमात्म स्वरूप हूं तथा परके स्वरूपका कि पर 'पदार्थ मुझसे भिन्न हैं-यथार्थ और पूर्ण ज्ञान है ऐसा जो ज्ञान उसे ही अर्थ विकल्प कहते हैं । इसी ज्ञानको चेतना-ज्ञान चेतना है। तथा जहां अपनी२ बुद्धिपूर्वक मन, वचन, कायके द्वारा जो कुछ काम किया जाय चाहे वह अशुभ कर्म हो या शुभ हो या शुद्ध हो उसको कर्म कहते हैं उस कर्मको चेतना कर्मचेतना है । नहां सुख Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [१३ या दुःखका अनुभव किया नावे सो कर्मफल चेतना है। यहा कर्मके तीन भेद किये गए हैं-एक अशुभोपयोगरूप कर्म जिसका फल नारक, पशु, मनुष्यादि गतियोंमें दुःखोका भोगना है, दूसरा शुभोपयोग रूप कर्म जिसका फल पशु, मनुष्य या देवगतिमे पंचेन्द्रियोंके भोगोंको यथासम्भव भोगकर इन्द्रियजनित सुखका भोगना है। तीसरा आत्माका अनुभव रूप शुद्धोपयोग कर्म है इसका फल परमानन्दमई आत्मीक अतींद्रिय सुखका भोगना है। इस तरह जैसे कर्मचेतना तीन प्रकार है वैसे कर्मफल चेतना भी तीन प्रकार है। इस तरह यह बात समझमें आती है कि ज्ञानं चेतना उन्हींको है जिनको शुद्धोपयोगका फलरूप परमात्मपद प्राप्त हो गया है । वहां मन, वचन, कायके व्यापार बुद्धिपूर्वक नहीं होते हैं। सिद्ध भगवानके तो मन वचन कायका सम्बन्ध ही नहीं है तथा अरहंत भगवानके यद्यपि मन वचन कायका सम्बन्ध है तथा सयोग अवस्थामे उनका परिणमन भी है तथापि वह बुद्धिपूर्वक नही है इसीसे अहंत और सिद्ध भगवानके कर्मचेतना तथा कर्मफल चेतना नहीं है किन्तु एक मात्र ज्ञान चेतना है। परमात्म प्रभु विना जाननेका विकल्प उठाए स्वभावसे ही स्वपरके ज्ञाता होकर परम वीतराग हैं। अपने शुद्ध ज्ञानमें ही मगन है । इस लिये वे ही ज्ञानचेतना खरूप हैं। शेष जो छद्मस्थ संसारी जीव हैं उनके दो चेतना पाई जाती हैं। ससारी जीव दो प्रकारके हैं एक स्थावर दूसरे त्रस । जो एकेन्द्रिय स्थावर जीव हैं उनके ज्ञान अति मद है यद्यपि अशुभ तीन लेश्याओंके कारण तथा आहार, भय, मैथुन, परिग्रह चार सज्ञाओंके कारण उनके अशुभोपयोगरूप Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ ] श्रीप्रवचनसारटोका। कर्मचेतना है जिससे वे पापकर्मको बांधते हैं तथापि इस कर्मचेतनाकी उनमें मुख्यता नहीं है क्योकि वे बुद्धिमें अतिशय करके हीन हैंउनके बुद्धि पूर्वक कार्य प्रगट देखनेमें नही आते हैं। परंतु कर्मफल चेतना तो प्रधानतासे उनमे है ही क्योंकि वे दुःखोंका अनुभव कररहे है। ___ जो त्रस जीव हैं उनमे कर्मफलचेतना भी है और कर्मचेतना भी है। मिथ्यादृष्टी द्वेन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रिय पयत जीवोमें शुभोपयोग तथा शुद्धोपयोग बुद्धिपूर्वक नहीं होता है किन्तु अशुभोपयोग होता है इससे इनके अशुभोपयोग कर्म चेतना है परन्तु पूर्वबद्ध पुण्य पापकर्मके फलसे सुख तथा दुःख दोनों भोगते हैं इससे संसारीक सुख तथा दुःख भोगने रूप कर्म- फलचेतना दो रूप है-इनको शुद्धोपयोगरूपसे पैदा होनेवाला आत्मिकसुखकी चेतना नहीं है । जो सम्यग्दृष्टी जीव है वे शुभोपयोग, अशुभोपयोग तथा शुद्धोपयोग तीनों रूप कार्योमें यथासम्भव बुद्धिपूर्वक वर्तन करते है इससे उनके तीनो प्रकारकी कर्मचेतना है तथा वे इंद्रियजनित सुख, दुख तथा आत्मानंद तीनोको ही यथासम्भव भोगते हैं । यहां इतना और समझना चाहिये कि मिथ्यादृष्टी पंचेन्द्रिय सैनीमे यद्यपि व्यवहारमें दान, पुजा, जप, तप आदि शुभ कार्य देखनेमे आते हैं परन्तु उसके भीतरसे इन्द्रियसुखकी वासना नही मिटी है इससे सिद्धांतमे उसको अशुभोपयोग कहते है । शुभोपयोग तथा शुद्धोपयोग सम्यग्दृष्टीके ही होता है। गृहस्थ सम्यक्तीके यद्यपि शृद्धानकी अपेक्षा उपयोग अशुभ नहीं है तथापि चारित्रकी अपेक्षा जब विषयकषायोमे प्रवर्तन करता है तब Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AN द्वितीय खंड। । १४५ 'अशुभ उपयोग होता है । जब पूजा, पाठ, जप, तप आदिमें प्रवतन करता है तब शुभोपयोग होता है और जब बुद्धिपूर्वक अपने उपयोगको रागद्वेपसे दूरकर आत्माके शुद्ध स्वभावके विचारमे लगाता है और इस शुभ क्रियाके कारण जव उपयोग आत्मस्थ होजाता है अर्थात् खानुभवमें एकता रूप होनाता है तब शुद्धोपयोग होता है। यद्यपि इस शुद्धोपयोगका प्रारम्म सम्यक्तकी अवस्थासे होनाता है तथापि इसकी मुख्यता मुनि महाराजोके होती है । सातवें अप्रमत्त गुणस्थानसे क्षीणकषाय पर्यंत शुद्धोपयोग कर्म है, ध्यानमय अवस्था है। यदि कोई लगातार सातवें गुणस्थानसे बारहवें तक चला जाय तो अंतर्महूर्त काल ही लगेगा। क्योंकि सातवेंमे ध्याताने अपने उपयोगको बुद्धिपूर्वक आत्मामे उपयुक्त किया है इस लिये इस शुद्धोपयोगको कर्मचेतना कहते है । वास्तवमे यह शुद्धोपयोगका कारण है । साक्षात् कार्यरूप शुद्धोपयोग अरहत सिद्ध परमात्माको है। वे अपने ज्ञानमें मग्न है और आत्म स्वभावसे निष्कर्म है-उनके किसी प्रकारकी इच्छा नहीं पाई जाती है, इसलिये वहां ज्ञान चेतना ही है। इस कथनसे यही झलकता है कि ज्ञानचेतना अरहंत अवस्थासे प्रारम्भ होती है उमके पहले कर्मचेतना और कर्मफल चेतना दो ही है, क्योकि अप्रमत्त सातवेंसे बारहवें तकमे मैं सुखी या दुःखी ऐसी चेतना नहीं है इससे इद्रियजनित सुख दुखकी चेतना नहीं है, परन्तु जब शुद्धोपयोग कर्म है तब उसके फलसे आत्मीक सुखका भोग है । इस हेतुसे कर्मफलचेतना कह सक्त हैं । यद्यपि केवलज्ञानी भी आत्मानंदका भोग कररहे है परन्तु उनके Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ ] श्रीप्रवचनसारटीका । -कर्मफलचेतना इसलिये नही है कि वहां शुद्धोपयोगरूप कर्मचेतना भी नही है। इन तीन प्रकार चेतनाओं के स्वामी कौन कौन होते हैं इसका वर्णन महारान कुंद कुदाचार्यने श्री पंचास्तिकायमें इसतरह किया है: सब्वे खलु कम्मफल थावरकाया तसा हि कजजुई । पाणित्तमदिक्कता णाग विंदति ते जीवा ॥ ३९ ॥ टीका अमृतचंद्र कृत इस भांति है चेतयंतेऽनुभवन्ति उपलभते विदंतोत्येकाश्चितनानुभूत्युपलब्धिचेदनानामेकार्यत्वात् । तत्र स्थावराः कर्मफ चेतयंते, असाः कार्य चेतयते, केवलशानिनो जान चेतयंत इति । पं० हेमराजनीने इसकी भाषा इसतरह की है: निश्चयसे एथिवी काय आदि जे समस्त ही पांच प्रकार , स्थावर जीव हैं ते काँका जो दुःख सुख फल तिसको प्रगटपने रागद्वेषकी विशेषता रहित अप्रगट रूप अपनी शक्तिके अनुसार वेदते हैं । क्योंकि न य जीवोके केवल मात्र कर्मफलचेतना रूप ही मुख्य है । निश्चयसे द्वेन्द्रियादिक जीव है ते कर्मका जो फल सुख दुख रूप है तिसको राग द्वेष मोहकी विशेषता लिये उद्यमी हुए इष्ट अनिष्ट पदार्थोमे कार्य करते सते भोगते हैं । इस कारण वे जीव कर्मफलचेतनाकी मुख्यता सहित जान लेना और जो जीव दश प्राणोंसे रहित हैं, अतीन्द्रिय ज्ञानी है वे शुद्ध प्रत्यक्ष ज्ञानी जीव केवलज्ञान चैतन्यभाव ही को साक्षात् परमानन्द सुखरूप अनुभवै हैं। ऐसे जीव ज्ञानचेतना संयुक्त कहाते है। ये तीन प्रकारके नीव तीन प्रकारकी चेतनाके धरनहारे जानने ।। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwmarammam , द्वितीय खंड। [१४७ श्री जयसेनाचार्यने इसी गाथाकी जो संस्कृत वृत्ति दी है उसका अनुवाद यह है कि वे सर्व प्रसिद्ध पांच प्रकारके स्थावर जीव अप्रगट रूप सुखदुःखका अनुभवरूप शुभ अशुभ कर्मोंके ‘फलको अनुभव करते हैं। हेंद्रियादि त्रस जीव उसी ही कर्मफलको निर्विकार परमानंदमई एक स्वभावरूप आत्मसुखको नहीं प्राप्त करते हुए विशेष रागद्वेषरूप जो कार्यचेतना है उस सहित अनुभव करते हैं। और जो विशेष शुद्धात्माके अनुभवकी भावनासे उत्पन्न परम आनंदमई एक सुखामृतरूप समरसी भावके बलसे दश तरहके प्राणोंसे रहित जो सिद्ध जीव है वे केवलज्ञानको अनुभव करते हैं । इसका भाव यही है कि स्थावर जीव कर्मफलचेतना तथा त्रस जीव कर्मफलचेतना सहित कर्म चेतना तथा केवलज्ञानी ज्ञान चेतनाको अनुभव करते हैं। श्री समयसार आत्मख्यातिमे पं० जयचंदनीने प्रतिक्रमण, आलोचना तथा प्रत्याख्यान कल्पको वर्णन करके कर्म चेतना और कर्मफलचेतनाके त्यागकी भावनाका वर्णन किया है वहां यह लिखा है कि “जब सम्यग्दृष्टि होता है तब ज्ञान श्रृद्धान तो हो ही जाता है कि मै शुद्ध नयकर समस्त कर्मोंसे और कर्मोके फलसे रहित हूं । अविरत, देशविरत, प्रमत्तविरत अवस्थामे तो ज्ञान श्रृद्धानमें निरन्तर भावना है ही, परन्तु जब अप्रमत्त दशा हो एकाग्र चित्तकर ध्यान करे तब केवल चैतन्य मात्र आत्मामें उपयोग लगावे और शुद्धोपयोग रूप होय तब निश्चय चारित्ररूप शुद्धोपयोग भावसे श्रेणी चढ़ केवलज्ञान उपनाता है । उस समय इस भावनाका फल कर्मचेतना और कर्मफरचेतनासे रहित साक्षात् ज्ञान Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८] श्रीप्रवचनसारटीका। चेतनारूप होना है। फिर अनंतकाल तक ज्ञान चेतना रूप ही हुआ वह आत्मा परमानंदमें मग्न रहता है।" इस भावसे भी यही बात झलकती है कि ज्ञानचेतनाकी भावना तो केवलज्ञान पहले होती है परंतु ज्ञानचेतना केवलज्ञानीके ही होती है। श्री जयसेनाचार्यने इसीलिये शुद्धोपयोग कर्मचेतना केवलज्ञानके पहले वताई है। पंचाध्यायी ग्रंथमें इन चेतनाओके सम्बन्धमे श्लोक १९१ द्वि० खंडसे व्याख्यान प्रारंभ किया है वहां ज्ञानचेतना सम्यग्दृष्टीक लब्धिरूप सदा मानी है तथा साक्षात् तब मानी है जब वह स्वानुभव रूप होवे । जैसा कहा है ___ एकधा चेतना शुद्धा शुद्धस्यै कविधत्त्वतः । शुद्धाशुद्धोपल ,स्वाज्ञानत्वाज्ञानचेतना ॥१०॥ अर्थ-शुद्धचेतना एक प्रकार है क्योंकि शुद्ध एक प्रकार ही है। शुद्ध चेतनामें शुद्धताकी उपलब्धि होती है इसलिये वह शुद्ध है। और वह शुद्धोपलब्धि ज्ञानरूप है इसलिये उसे ज्ञानचेतना कहते हैं अशुद्धा चेतना द्वेधा तद्यथा कर्मचेतना ।' चेतनत्वात्फलस्यास्य स्थात् कमफलचेतना ॥ १९५ ॥ अर्थ-अशुद्ध चेतना दो प्रकार है-एक कर्मचेतना दूसरी कर्मफलचेतना । कर्मफल चेतनामे फल भोगनेकी मुख्यता है। ___सा ज्ञानचेतना नूनमस्ति सम्यग्हगात्मनः । न स्यान्मिथ्यादृशः क्वापि तदात्वे तदसभवात् ॥१९८॥ अर्थ-वह ज्ञानचेतना निश्चयसे सम्यग्दृष्टिको ही होती है। मिथ्याप्टिके कहीं भी नही होसक्ती क्योंकि वहां उसका होना असंभव है।। । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [१४६ विश्च सर्वस्य सदृष्टेनित्य स्याज्ञानचेतना । अव्युच्छिन्नप्रवाहेण यद्वाऽखण्डकधारया || ८५२ ।। हेतुस्तत्रान्ति सधीची सम्यक्त्वेनान्वयादिह । शानसचेतना लब्धनित्या स्वावर्णव्ययात् ॥८५३॥ कादाचित्काम्ति ज्ञानस्य चेतना स्वोपयोगिनी । नाल लब्धेविनाशाय समव्यातरसभवात् ॥ ८५४ ॥ अर्थ-सर्व सम्यग्दृष्टियोंके सदा ज्ञानचेतना रहती है वह निरन्तर प्रवाह रूपसे रहती है अथवा अखड एक धारारूपसे रहती है। निरंतर ज्ञानचेतनाके रहनेमें भी सहकारी कारण सम्यग्दर्शनके साथ अन्वय रूपसे रहनेवाली ज्ञानचेतना लब्धि है । वह अपने आवरणके दूर होनेसे सम्यग्दर्शनके साथ सदा रहती है। ज्ञानकी निन उपयोगात्मक चेतना कभी कभी होती है वह लब्धिका विनाश करनेमें समर्थ नहीं है। इसका कारण भी यही है कि उपयोगरूप ज्ञानचेतनाकी समव्याप्ति नहीं है। ____ इस कथनसे यह प्रगट होता है कि ज्ञानचेतनाका ज्ञानद्वान तथा उस रूप होनेकी शक्तिकी लब्धि तो सम्यग्दृष्टीको हो जाती है परन्तु चारित्रकी अपेक्षा जब वह शुद्धात्मानुभव करता है तब ज्ञानचेतना एकांशी रहती है। ज्यो ज्यो खरूप मग्नता बढ़ती जाती है ज्ञानचेतनाके अशोकी वृद्धि होती जाती है। केवलज्ञानीके सर्वाश ज्ञानचेतना हो जाती है। श्री जयसेनाचार्यने सम्यग्दृष्टीकी इस ज्ञानचेतनाको शुद्धोपयोग कर्मचेतना कही है सो मात्र अपेक्षाकृत भेद है, वास्तवमें कोई भेद नहीं है । शुद्ध आत्माकी प्रत्यक्ष चेतना वास्तवमें केवलज्ञानी हीके है जैसा पचाध्यायीकारने श्लोक १९४में कहा है। उसके नीचे खानुमत्रकी अपेक्षा ज्ञानचेतना तथा Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3५० ] श्रीप्रवचनसारटीका । अशुद्ध आत्माकी अपेक्षा अशुद्ध चेतना या शुद्धोपयोग कर्मचेतना कह सक्ते हैं । तात्पर्य यह है कि हमको ज्ञानचेतनाको ही उपादेय मानके उसी रूप रहनेकी भावना करनी चाहिये - सदा ही अपने आत्माको कर्म और कर्मफलचेतनासे भिन्न भावना चाहिए । श्री अमृतचंद्र खामीने समयसार कलशमे कहा है. - अत्यन्तं भावयत्त्वा विरतमविरतं कर्मणस्तत्फलाच्च । प्रस्पष्ट नाटयित्वा प्रलयनमखिला ज्ञानसंचेतनायाः । पूर्ण कृत्त्वा स्वभावं स्वरसपरिगत ज्ञानसचेतना स्वा । सानन्द नाटयन्त प्रशमरसमितः सवकाल पिवन्तु ||४०|| भावाथ - कर्म से व कर्मफलसे अत्यन्त विरक्तभावकी निरंतर भावना करके और सर्व अज्ञान चेतना के नाशको प्रगटपने नचाकके तथा अपने आत्मीकरस से भरे हुए स्वभावको पूर्ण करके अपनी ज्ञानचेतनाको आनन्द सहित नचाते हुए अबसे अनन्त कालतक शांतरसका पान करो अर्थात् केवलज्ञानी होकर निरन्तर ज्ञानचे - नाम हो । यहां व्याख्या में मिथ्यादृप्टीके मात्र अशुभोपयोग कहा है शुभोपयोग नही कहा है उसका प्रयोजन यह है कि धर्मध्यान जहां है वहीं शुभोपयोग है । निश्रयसे मिथ्यादृष्टी द्रव्यलिगी साधुके भी धर्मध्यान नही है । इसलिये वास्तव में तो शुभोपयोग नहीं है, 'किन्तु यदि कषायकी मन्दताकी अपेक्षासे विचार करें तो शुभोपयोग है और इस कारण उसके अतिशय रहित पुण्य कर्मका भी बन्ध होता है । क्योकि यह शुभोपयोग सम्यक्त रहित है इसीसे मोक्षमार्ग में अशुभोपयोग नाम पाता है । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [१५१ प्रयोजन यह है कि सम्यक्त विना सव असार है जब कि सम्यक्त सहित सब कुछ सार है ॥ ३३ ॥ उत्थानिका-आगे कहते हैं कि यह आत्मा ही अभेद नयसे ज्ञानचेतना, कर्मचेतना तथा कर्मफलचेतनारूप होजाता है। अप्पा परिणामप्पा परिणामो णाणकम्मफलभावी । तम्हा णाणं कम्म, फलं च आदा मुणेदवो ॥३४॥ आत्मा परिणामा परिणामो ज्ञानकर्मफलभावी । तस्मात् शान कर्म फलं चात्मा मंतन्यः ॥ ३४ ॥ अन्वय सहित सामान्यार्थ-(अप्पा परिणामप्पा) आत्मा परिणाम स्वभावी है। (परिणामो णाणकम्मफलभावी) परिणाम ज्ञानरूप कर्मरूप व कर्मफल रूप होजाता है (तम्हा) इसलिये (आदा) आत्मा (णाण कम्म च फल ) ज्ञानरूप कर्मरूप व कर्म फल रूप (मुणेदव्वो ) जानना चाहिये। विशेपाथ-आमा परिणमनस्वभाव है यह बात पहले ही "परिणामो सयमादा" इस गाथामे कही जाचुकी है। उसी परिणमन स्वभावमे यह शक्ति है कि आत्माका भाव ज्ञानचेतना रूप, कर्म चेतनारूप व कर्मफलचेतनारूप होजावे । इसलिये ज्ञान, कर्म, कर्मफलचेतना इन तीन प्रकार चेतनारूप अभेद नयसे आत्माको ही जानना चाहिये । इस कथनसे यह अभिप्राय प्रगट किया गया कि यह आत्मा तीन प्रकार चेतनाके परिणामोसे परिणमन करता हुआ निश्चय रत्नत्रयमई शुद्ध परिणामसे मोक्षको साधन करता है । तथा शुभ तथा अशुभ परिणामोंसे वधको साधता है। भावार्थ-इस गाथामे यह बताया गया है कि आत्मा स्वयं Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ ] श्रीप्रवचनसारटोका। . परिणमनस्वभाव है। जो परिणमन खभाव होता है उसीमें शुद्ध या अशुद्ध परिणमन होना संभव है । जब उस द्रव्यको पर द्रव्यका वैभाविक परिणमन करानेवाला निमित्त नहीं मिलता है तब वह द्रव्य अपने शुद्ध स्वभाव हीमें परिणमन करता है और जब उसको । परका निमित्त होता है तब वह अशुद्ध भावसे परिणमन करता है। __ आत्मा उपयोगमई है-यह स्वभावसे अपने शुद्ध ज्ञान दर्शन, स्वभावरूपसे परिणमन करनेवाला है, परंतु इस संसारमें यह संसारी प्राणी अनादिकालसे पुद्गलमई आठ प्रकार द्रव्यकर्मोसे प्रवाहरूपसे बंधा चला आरहा है-उनही कर्मोमें एक मोहनीय कर्म है । जब इस कर्मका उदय होता है तब उस कर्मके अनुभागक्री शक्तिके अनुसार आत्माका उपयोग भी राग, द्वेष, मोह रूप परिणमन कर जाता है । जब निज आत्माके ज्ञानानंदमें उपयुक्त है तब ज्ञानचेतनारूप आ परिणमन करता है। तब किसी कामके करनेका भाव करता है तव अपने भावानुसार कर्मचेतनारूप आप ही परिणमता है और जब साता या असाताके उदयके साथ मोहके' उदयमें परिणमन करता है तब मैं सुखी हूं या दुःखी हू इस विकरूपसे परिणमन करके कर्मफलचेतना रूप परिणमता है। इस तरह आत्मा ही इन तीन रूप परिणामोको करनेवाला है। दूसरा कोई द्रव्य नही । इनमे ज्ञानचेतना खाभाविक परिणमन है, कर्मचेतना कर्मफलचेतना वैभाविक परिणमन है। इनमे वैभाविक परिणाम त्यागनेके योग्य है और स्वाभाविक परिणामरूप ज्ञानचेतना ग्रहण करने योग्य है। जितना हमारेमें ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय कर्मके क्षयोपश Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। , १५३. मसे. ज्ञान दर्शन, व अंतरायके क्षयोपशमसे आत्मवीर्य, व मोहके उपशमसे वीतरागताके अंश प्रगट हैं, इस हीको पुरुषार्थ कहते हैं । इस पुरुषार्थके बलसे हमको मोहके उदयके चलको घटाना चाहिये । हमारा यह अभ्यास कुछ कालमें हमारे आत्माके परिणमनको वैभाविकसे हटाकर खभावमें परिणमन करने देगा। इसलिये हमें कर्मोके प्रबल निर्बलके विकल्पमे न पड़ अपना पुरुषार्थ खाभाविक भावोमें होनेके लिये करना चाहिये । पुरुषार्थके विना कार्यकी सिद्धिं नहीं हो सकी है। श्री कुलभद्र आचार्य सारसमुच्चयमें कहते हैं भवमोगशरीरेषु भावनीयः सदा बुधः । निर्वेदः परया बुद्धथा माराति जिगक्षुभिः ॥ १२७॥ यावन्न मृत्युवज्रेण देहौलो निगत्यते । नियुज्यता मनस्तावत् कर्मागतिपरिक्षये ॥ १२८ ॥ भावाथ-उन बुद्धिमानोको, जो कर्म शत्रुओंका नाश करना चाहते हैं उत्कृष्ट बुद्धिसे ससार शरीर भोगोमें सदा वैराग्यभावना भानी चाहिये । जबतक मरणरूपी वजसे शरीररूपी पहाड न गिरे तवतक अपने मनको कर्मशत्रुओके नाशमें लगाए रहो ॥३४॥ इस तरह तीन प्रकार चेतनाके कथनकी मुख्यतासे चौथा स्थल पूर्ण हुआ। उत्थानिका-आगे सामान्य ज्ञेय अधिकारकी समाप्ति करते हुए पहले कही हुई भेदज्ञानकी भावनाका फल शुद्धात्माकी प्राप्ति है. ऐसा दिखाते हैं: Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ ] श्रीप्रवचनसारटोका । कत्ता करणं कम्म फलं च अप्पत्ति णिच्छिदो समणो। परिणमदि णेव अण्णं जदि अप्पाणं लहदि सुद्धं ॥३५॥ कर्ता करण कर्मफलं चात्मेति निश्चित: श्रमणः । परिणमति नैवान्यद्यदि आत्मान लभते शुद्ध ॥ ३५ ॥ अन्वय सहित सामान्यार्थ -(कत्ता, करणं, कम्मफलं च अप्पत्ति ) कर्ता, करण, कर्म तथा फल आत्मा ही है ऐसा (णिच्छिदो ) निश्चय करनेवाला (समणो) श्रमण या मुनि (जदि) यदि (अण्णं) अन्य रूप (णेव परिणमदि ) नहीं परिणमन करता है तो (सुद्धं अप्पाणं लहदि) शुद्ध आत्मीक खरूपको पाता है। विशेषार्थ-मै एक आत्मा ही खाधीन होकर अपनी निर्मल आत्मानुभूतिका अपने विकार रहित परम चैतन्यके परिणामसे परिणमन करता हुआ साधन करनेवाला हूं इससे मै ही कर्ता हू।तथा मैं ही रागादि विकल्पोसे रहित अपनी खसंवेदन ज्ञानकी परिणतिके वलसे सहन शुद्ध परमात्माकी अनुभूतिका साधकतम हूं, अर्थात् अवश्य साधनेवाला हूं इसलिये मै ही करण स्वरूप हूं और मैं ही शुद्ध बुद्ध एक स्वभावरूप परमात्माके खरूपसे प्राप्ति योग्य हूं इसलिये मैं ही कर्म हूं। तथा मै ही शुद्ध ज्ञानदर्शन स्वभावरूप परमात्मासे साधने योग्य अपने ही शुद्धात्माकी रुचि, व उसीका ज्ञान व उसीमे निश्चल अनुभूतिरूप अभेद रत्नत्रयमई परम समाधिसे पैदा होनेवाले सुखामृतरसके आस्वादमे परिणमनरूप हू इससे मै ही फलरूप हू । इस तरह निश्चयनयसे बुद्धिको रखनेवाला परम मुनि जो सुखदुःख, जन्ममरण, शत्रु मित्र आदिमे समताकी भावनासे परिणमन कररहा है 1. यदि अपनेसे अन्य रागादि परिणामोमें नहीं परिणमन करता है तो Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय पंड। [१५५ भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्मसे रहित शुद्धबुद्ध एक खभावरूप आत्माको प्राप्त करता है। ऐसा अभिप्राय भगवान श्री कुदकुदाचार्य देवका है। भागार्थ हम गाथामें आचार्यने यह बात दिखलाई है कि हरएक कार्यमें कर्ता, करण, कर्म और फल ये चार बातें होती है। इन्हीं चार वातोफा भेटकी अपेक्षा विचार करें तो यह टप्टात होगा कि देवदत्तने अपने मुंहसे आम खाया जिससे वह बड़ा सतोपी हुआ। यहांपर कर्ता देवदत्त, मुह करण, आम साना कर्म तथा संतोप पाना फल है । इमी दृष्टातको यदि अमेदमें घटाए तो इस तरह कह सक्ने है कि देवदत्तने अपने ही शरीरके अग मुंहसे अपने ही मुखके व्यापाररूप कर्मको किया और आप ही सनोपी होगयाइसतरह निश्चयो देवदत्तही कर्ता, करण, कर्म और फरूप हुआ। इमी तरह जब भेद करके कहें तो इसतरह कह सक्ते है कि आत्माने अपने अशुद्ध परिणामोसे कर्म बाधकर दुःख उठाया । यहा आत्मा कर्ता, अशुद्ध परिणाम करण, कर्मवचन कर्म व दुख पाना फल है । इसी वातको अभेदसे विचार करें तो आत्माने अपने ही आत्माके अशुद्ध परिणामोंसे परिणमन करके रागादि भाव कर्म किये और आप ही दुःखी हुआ । इसतरह अशुद्ध निश्चय नयमे आत्मा ही कर्ता, करण, कर्म तथा फलरूप हुआ । अज्ञान दगामें भी उपादान कर्ता, करण, कर्म और फल यह आत्मा ही है अन्य कोई नहीं है । आप ही अपने सराग भावसे रागी हो आकुलतारूप होता है । जैसे मिट्टी अपनी मिट्टीकी परिणतिसे घटरूप होकरके घटके कार्यमे आप ही परिणमन करती है तेसे यह आत्मा अपनी परिणतिमें आपको ही परिणमन करके अपनेको आकुलित Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड | १७७ जायेंगे। इन स्कंधों की अनेक अवस्थाएं जगतमें होरही हैं। उन्हींका दिग्दर्शन करानेके लिये पुगलकी छः जातिकी अवस्थाएं बताई गई हैं(१) स्थूल स्थूल - जिसके खंड किये जावें तौ वे बिना किसी चीनका जोड़ लगायें स्वयं न मिल सके। जैसे कागज, लकड़ी, कपड़ा, पत्थर आदि । (२) स्थूल - जिसको अलग करनेपर बिना दूसरी चीजके जोड़के मिल जावें जैसे पानी, सरबत, दूध आदि बहनेवाले पदार्थ । (३) स्थून सूक्ष्म- जो नेत्र इंद्रियसे जाने जावें तथा 'जिनको हम पकड़ न सके जैसे छाया, आताप, उद्योत । (४) मक्ष्म स्थूल - जो नेत्र इंद्रियसे न जाने जावें किन्तु अन्य चार इंद्रियोंसे किसीसे जाने जाम जैसे शब्द, रम, गंध, स्पर्श । (५) सूक्ष्म स्कंध पांचों ही इंद्रियोंसे न जाने जासकें जैसे कार्माण वर्गणा आदि । (६) सूक्ष्म सूक्ष्म-अविभागी पुद्गल परमाणु । यहांपर पहले मूर्तीका लक्षण कर चुके हैं कि जो इंद्रियोंसे ग्रहण किया जावे सो मूर्ती हैं । सूक्ष्म या सूक्ष्म सूक्ष्म जब इंद्रियोंसे नहीं ग्रहण किये जा सके तब उनको मूर्तीक न मानना चाहिये ? इस शङ्काका समाधान यह है कि उन सबों में स्पर्श, रस, गंध, वर्ण हैं जिनको इंद्रियां ग्रहण कर सक्ती हैं परन्तु वे जिनको इंद्रिय अगोचर व्यवहारमें कहते हैं। संघात से परिणमते हैं तंत्र कालांतर में इंद्रियों के गोचर हो जाते हैं उनमें शक्ति तो है परन्तु व्यक्ति कालान्तरमें हो जायगी । इसलिये सूक्ष्म भी इंद्रियगोचर मूर्तीक कहे जाते हैं। यदि मूर्तीकपना ऐसी दशा में हैं वे ही जब भेद १२ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड | [ १५१ जिस ध्यान से यह आत्मा शुद्ध होता है वह ध्यान मी अभेद से आत्मा ही है । श्री तत्वानुशासन में मुनि नागसेन कहते है-स्वात्मानं स्वात्मनि वेन घ्यायेत्स्वस्मै रुग्तो यतः । पट्कारक मयस्तस्मादुद्ध्यानमात्मैव निश्चयात् ॥ ७४ ॥ भावार्थ- क्योकि यह आत्मा स्वस्वरूपसे ही अपने ही आत्मामें अपने ही आत्माको अपने ही द्वारा अपने ही लिये ध्याता है इसलिये पट् कारकमई यह आत्मा ही निश्रयसे ध्यान है । अतएव स्वावलम्बन द्वारा अपना उन्हार आप करना चाहिये || ३८ इस तरह एक सूत्र से पांचमा स्थल पूर्ण हुआ इस तरह सामान्य ज्ञेयके अधिकारके मध्य में पाच स्थलोंसे भेढ़ भावना कही गई । ऊपर कहे प्रमाण " तम्हा तम्स णमाइ " इत्यादि पैतीस सूत्रोंके द्वारा सामान्य ज्ञेषाधिकारका व्याख्यान पूर्ण हुआ । आगे उन्नीस गाथाओंसे जीव अजीव द्रव्यादिका विवरण करते हुए विशेष ज्ञेयका व्याख्यान करते हैं। इसमें आठ स्थान है । इन आठ से पहले स्थलमे प्रथम ही जीवत्व व अजीवत्वको कहते हुए पहली गाथा, लोक और अलोकपनेको कहते हुए दूसरी, सक्रिय और नि क्रियपनेका व्याख्यान करते हुए तीसरी इस तरह "ढव्वं जीवमजीवं” इत्यादि तीन गाथाओंसे पहला स्थल है। इसके पीछे ज्ञान आदि विशेष गुणोका स्वरूप कहते हुए "लिंगेहिं जेहि" इत्यादि ढो गाथाओसे दूसरा स्थल है । आगे अपने अपने गुणोसे द्रव्य पहचाने जाते है इसके निर्णयके लिये “ वण्णरसं " इत्यादि तीन गाथाओसे तीसरा स्थल है। आगे पचास्तिकायके कथन की मुख्यतासे " जीवा पोग्गल काया" इत्यादि दो गाथाओंसे चौथा Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ ] श्रीप्रवचनसारटीका । -स्थल है । इसके पीछे द्रव्योंका आधार लोकाकाश है ऐसा कहते हुए पहली, जैसा आकाश द्रव्यका प्रदेश लक्षण है वैसा ही शेष द्रव्योका है ऐसा कहते हुए दूसरी, इसतरह "लोयालोएसु" इत्यादि दो सूत्रोसे पांचवां स्थल है । इसके पीछे काल द्रव्यको अप्रदेशी स्थापित करते हुए पहली, समयरूप पर्याय काल है कालाणुरूप द्रव्यकाल है ऐसा कहते हुए दूसरी, इसतरह 'समओ दु अप्पदेसो' इत्यादि दो गाथाओसे छठा स्थल है । आगे प्रदेशका लक्षण कहते हुए पहली, फिर तिर्यक् प्रचय उर्ध्व प्रचयको कहते हुए दूसरी इसतरह "आयासमणु णिविटुं" इत्यादि दो सूत्रोंसे सातवां स्थल है । फिर कालाणुको द्रव्यकाल स्थापित करते हुए "उप्पादो पन्भंसो" इत्यादि तीन गाथाओंसे आठवां स्थल है इसतरह विशेष ज्ञेयके अधिकारमें समुदाय पातनिका है।। उत्थानिका-आगे जीव अजीवका लक्षण कहते हैंदव्य जीवमजीवं जीवो पुण चेदणोवयोगमयो । पोग्गलदव्वप्पमुहं अचेदणं हवदि य अजीवं ॥ ३९ ॥ द्रव्यं जीवोऽगीवो जीवः पुनश्चतनोपयोगमयः । पुद्गलद्रव्यममुखो चेतनो भवति चाजीवः ॥ ३९ ॥ अन्य सहित सामान्यार्थः-(दव्यं) द्रव्य (जीवमनीव) जीव और अजीव है (पुण) और (जीवो) जीव द्रव्य (चेदणा उपयोगमयो) चेतना सरूप तथा ज्ञान दर्शन उपयोगवान है (य पोग्गलदव्यप्पमुह) और पुद्गल द्रव्य आदि (अचेदणं) चेतना रहित (अनी) अजीव हैं ।। विशेषार्थः-द्रव्यके दो भेद हैं-जीव और अजीव, इनमेसे Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड | [ १५९ जीव द्रव्य स्वयं सिद्ध बाहरी और अन्तरङ्ग कारणकी अपेक्षा विना अंतरङ्ग व बाहरमें प्रकाशमान नित्य रूप निश्चयसे परम शुद्ध चेतनासे तथा व्यवहार में अशुद्ध चेतनासे युक्त होनेके कारण चेतन स्वरूप है तथा निश्चयनयसे अखंड व एक रूप प्रकाशमान व सर्व तरहसे शुद्ध केवलज्ञान तथा केवल दर्शन लक्षणधारी पदाथोके जानने देखनेके व्यापार गुणवाले शुद्धोपयोगसे तथा व्यवहारनयसे मतिज्ञान आदि अशुद्धोपयोगसे जो वर्तन करता है इससे उपयोगमई है । तथा पुद्गल धर्म, अधर्म, आकाश और काल यह पांच द्रव्य पूर्वमें कही हुई चेतनासे तथा उपयोगसे भिन्न अजीव हैं, अचेतन है, ऐसा अर्थ है । 7 भावार्थ- पहले आचार्यने संग्रहनयसे सामान्य द्रव्यका व्याख्यान किया। अब यहा व्यवहारयसे विशेष भेद द्रव्यका दिखाते हैं । जगतमें यदि प्रत्यक्ष देखा जावे तो जीवत्व और अनीवत्त्व झलक जाते हैं । जहा चेतना है- देखने जाननेका काम हो रहा है वह जीवत्व है । जहा यह नही है वह अजीवत्त्व है। एक सजीव • प्राणीमें इंद्रियों के व्यापारसे जानन क्रिया होरही है वही जत्र जीव रहित होकर मात्र शरीरको ही छोड़ देता है तब उस मृतक शरीरमें सब कुछ रचना बनी रहने पर भी जानन क्रिया इन्द्रियो के द्वारा नहीं होती है इसीसे सिद्ध है कि जानन क्रियाका करनेवाला जीव है और जिसमे जानन क्रिया नहीं वह यह शरीर है जो / पुद्गलसे, रचा है | प्रत्यक्षमे हरएक बुद्धिवान जीव अजीवको देख सक्ता है इस लिये आचार्यने प्रथम द्रव्यको दो भेद किये हैं- जीव और अज्ञीव । इस जीवमे निश्चय प्राण चेतना है वह इसमें सदा रहती है- वही Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६०] श्रीप्रवचनसारटोका । चेतना शुद्ध जीवमें शुद्ध है और अशुद्ध जीवमें अशुद्ध है। अथवा निश्चय नयसे हरएक जीवमे शुद्ध है व्यवहार 'नयसे अशुद्ध है। वही चेतना निश्चय नयसे केवलज्ञान और केवलदर्शनमई शुद्ध उपयोगसे वर्तन करती हुई खको और सर्व लोकालोक सम्बन्धी तीन काल वर्ती द्रव्यको उनके गुण और पर्यायोके साथ जानती है तथा व्यवहार नयसे मतिज्ञान आदि रूप व चक्षु अचक्षु आदि दर्शन रूप परिणमती हुई द्रव्योको परोक्ष रूपसे उनकी कुछ पर्यायोके साथ जानती है। इसी उपयोगसे जीव द्रव्यकी सत्ता पृथक् झलकती है। जिसमे न चेतना है न ज्ञान दर्शन उपयोगके शुद्ध या अशुद्ध व्यापार है वह अजीव है-उस अजीवके पांच भेद हैं अर्थात वे अजीव द्रव्य पांच प्रकारके भिन्न २ इस लोकमें पाए जाते है-वर्ण गध रस स्पर्शवान पुद्गल है, गति सहकारी धर्म द्रव्य है, स्थिति सहकारी अधर्म द्रव्य है, अवकाश सहकारी आकाश द्रव्य है, परिणमन सहकारी काल द्रव्य है । ये यांचों ही चेतना तथा उपयोगसे शून्य हैं इसलिये अचेतन और अनुपयोगमई अनीव हैं। इस जगतमे अपना आत्मा पुद्गलके साथ ऐसा मिल रहा है कि उसकी पृथक् सत्ता अज्ञानी जीवको नही जाननेमें आती है इसलिये वह भ्रमसे अपनी आत्माको क्रोधी, मानी, लोभी, मोही • आदि व मनुष्य शरीर रूप ही मान लेता है उसको जुदा अपना जीव नही मालूम होता है । इसलिये आचार्यने बताया है कि तुम जीव हो, तुम्हारा स्वभाव निश्चयसे शुद्धचेतनामय तथा परम शुद्ध केवलज्ञान व केवलदर्शन उपयोगमई है-तुम अपनेको ऐसा जान Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड | [१६१ कर अनुभव करो यही अनुभव एक दिन अजीवसे दूर करके तुम्हें स्वाधीन बना देगा । पुद्गल स्पर्श, रस, गंध, वर्णनान बनता, बिगड़ता, प्रत्यक्ष झलकता है इससे इसकी सत्ताको समझनेमे कोई कठिनता नहीं है । परतु धर्मादि चार द्रव्य अमूर्तीक है-अदृश्य हैं-प्रत्यक्ष नहीं है उनकी सत्ताको कैसे माना जावे ? इसलिये आचार्य कहते है कि युक्तिसे उनकी सत्ता भी प्रगट होजायगी। इस लोकमें नीव पुद्गल दो द्रव्य हलनचलन क्रिया करते तथा ठहरते हुए मालूम पडते हैं। इन क्रियाओंमे उपादान कारण वे स्वयं है परंतु उनकी इन क्रियाओमे कोई सर्वमाधारण तथा अविनाशी ऐसे निमित्त कारण भी चाहिये । केली भगवानने अपने ज्ञान नेत्रसे जानकर उपदेश दिया कि जो एक अमूर्तीक द्रव्य इम लोकाकाशमे सत्र अखड रूपसे व्यापक है वही धर्मद्रव्य व वैमा ही अधर्म द्रव्य है जिनका काम उदासीन रूपसे जीव व पुद्गलोकी गतिमें व स्थितिमे क्रमले सहाय करना है। सर्व द्रव्य अवकाश पारहे है व स्थानान्तर होते हुए भी अवकाश पा लेते है इमलिये जिसके विना द्रव्य अवकाग नही पा सक्के व जिसके होने हुए पा सक्ते है वह आकाश द्रव्य है । आकाश अनंत और सर्वसे बड़ा है उसीके मध्यभागमे नहातक हर जगह जीव पुद्गलानि च द्रव्य पाए जाते है उम भागको बोकाकाश शेषको अलो ।। कहते है । द्रव्योमे हल परिणमन भिया देव रहे है । जैसे रेरिणमन शातिमे छूटकर क्रोधमई कोगए व "हमारा कोई मा कुछ ज्ञानके होनेसे नष्ट होता है ना पुद्गल . . +uper Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ ] श्रीप्रवचनसारटोका । सुन्दरसे असुन्दर व वर्णसे वर्णान्तर होजाता है - इम अवस्थाके बदलने में सर्वसाधारण कारण कालद्रव्य है । इस तरह अमूर्तीक अचेतन धर्मादि चार द्रव्योकी सत्ता जानने योग्य हैं। इस कथनको जानकर एक अपना शुद्धात्मा ही ग्रहण करने योग्य है शेष सर्व हेय हैं ऐसा निश्चय करके निज स्वरूपका अनुभव करना योग्य है । श्री अमृतचंद्र आचार्यने तत्वार्थसार मे इन्ही द्रव्योको कहा है धर्माधर्माविथाकाश तथा कालश्च पुद्गलाः । अजीवाः खलु पचेते निर्दिष्टा सर्वदर्शिभिः ॥ २ ॥ एते धर्मादयः पत्र जीवाश्च प्रोक्तलक्षणाः । पद्रव्याण निगद्यते द्रव्ययाथात्म्यवेदिभिः ॥ ३ ॥ भावार्थ- सर्वदर्शीने धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गलोको अजीव कहा है तथा जीव अलग है इनको मिलाकर द्रव्यके यथार्थ स्वरूपको जाननेवालोंने छः द्रव्य कहे है ॥ ३६ ॥ उत्थानिका- आगे लोक और अलोकके भेदमे आकाश पदार्थके दो भेद बताते है: पुग्गलजीवणिवद्धो धमाधम्मत्थिकायकालड्ढो । वहृदि आयासे जो लोगो सो सवकाले दु ॥ ३७ ॥ ; पुद्ग वन्वा धर्माधर्मात कायकालाढ्य । + वर्तते श्राकाशे यो लोकः त सर्वकाले तु ॥ ३७ ॥ अन्य त सामान्यथ - (जो ) जितना क्षेत्र ( आयासे) इस आकाशमे ( पुग्गलजीवणिबद्धो ) पुद्गल और जीवोंसे भरा r 'हुआ तथा' (धम्मावम्मत्थिकाय कालडूढो ) धर्मास्तिकाय, अधम Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [१६३ स्तिकाय, और कालमे भराहुआ (वदि) वर्तन करता है (सो दु) वही क्षेत्र (सव्यकाले) सदा ही (लोगो) लोक है।। विशेषार्थ-पुद्गलके दो भेद हैं-अणु और स्कंध तथा जीव सब निश्चयसे अमूर्तीक अतीद्रिय ज्ञानमई तथा निर्विकार परमानन्द रूप एक सुखमई आदि लक्षणोके धारी हैं इनसे जितना आकाश भरा हुआ है व जिसमे धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और काल द्रव्य भी व्यापक हैं इस तरह जो पांचों द्रव्योंके समूहको रखता हुआ वर्तता है वह इस अनन्तानन्त आकाशके मध्यमें रहनेवाला लोकाकाश है । वास्तवमें आकाश सहित जो इन पांच द्रयोका आधार है वह छः द्रव्यका समूहरूप लोक सदा ही है उसके बाहर अनन्तानन्त खाली जो आकाश है वह अलोकाकाश है ऐसा अभिप्राय है। भावार्थ-आचार्य इस गाथामें छः द्रव्योंके क्षेत्रको बताते हैं। सबसे बडा आकारवाला अनन्त आकाश द्रव्य है । इसके मध्य में अन्य पांच द्रव्य भरे हुए हैं । नितनेमें ये पाच द्रव्य हैं उसको लोक या जगत् कहते हैं। इसके बाहरके आकाशको अलोक कहते हैं-धर्मास्तिकाय लोकाकाशके वराबर एक अखंड द्रव्य है-अधर्मास्तिकाय भी ऐसा ही है ये दोनों लोकाकाशमे व्यापक हैं। कालद्रव्य गणनामें असंख्यात हैं । वे एक दूसरेसे कभी मिलते नहीं परंतु लोकाकाशमें इसतरह फैल है कि कोई प्रदेश ' कालद्रव्यके , विना शेष नहीं है। यदि प्रदेशरूपी गजसे माप करें तो लोकाकाशके असंख्यात प्रदेश होगे इस तरह हरएक प्रदेश कालद्रव्यसे छाया हुआ है । जीव अनन्तानत हैं-सो लोकाकाशमें खचाखच भरे हैं Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ ] श्रीप्रवचनसारटीका। उनमे बहुत भाग ऐसे शरीरधारियोका है जो एक शरीरमें अनंतानंत एक साथ रह सक्ते हैं जैसे निगोद शरीरधारी जीव-सूक्ष्म एकन्द्रिय पृथ्वी, अप, तेज, वायु तथा वनस्पति जो किसी इंद्रियके गोचर नहीं हैं व जो पर्वतादिके भीतरसे भी निकल जाते है तथा निराधार हैं, इस सर्वलोकमें खचाखच भरे है तथा वादर एकेन्द्रियसे पंचेंद्री पर्यंत जीव जो आधारमें उत्पन्न होते हैं तथा यथासभव रुकते हैं व रोकते है वे भी यथासंभव यत्र तत्र पाए जाते हैं । प्रयोजन यह है कि कोई भी प्रदेश ऐसा नहीं है जहां संसारी जीव न हो । जीवोंसे भी अनन्तानंतगुणे पुद्गल हैं। परमाणु अविभागी पुद्गलके खडको कहते हैं । दो या अधिक परमाणुओसे बने हुए बंधरूप समुदायको स्कंध कहते हैं । इनमे बहुत भाग सूक्ष्म है वे एक दूसरेको अवकाश देते हुए रहते है इसतरह पुद्गलोंसे भी कोई आकाशका प्रदेश खाली नही है । छ. द्रव्य जहां हर जगह पाए जासके उसको लोकाकाश कहते हैं । इसके बाहर जहां केवल आकाश ही आकाश है वह अलोकाकाग है । श्री नेमिचंद्रसिद्धांतचक्रवर्तीने द्रव्यसंग्रहमे कहा है- । धम्माधम्मांकालो पुग्गलजीवा य सति जावदिये । आय से सो लोगो तत्तो परदो अलोगुत्तो ॥ अर्थात्-धर्म, अधर्म, काल, पुद्गल और जीव जितने आकाशमे हैं वह लोक है उसके बाहर अलोक है । ___ प्रयोजन यह है कि इस छः द्रव्यमई लोकमे निज आत्मा ही उपादेय है, अन्य सब ज्ञेय हैं । इस भावनासे ही वह साम्यभाव प्राप्त होता है जिसकी आवश्यक्ता सम्यक्चारित्रके लिये है॥३॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [१६५ उत्थानिका-आगे द्रव्योंमें सक्रिय और नि:क्रिय भेदको दिखलाते हैं यह एक पातनिका है। दूसरी यह है कि जीव और पुद्गलमें अर्थ पर्याय और व्यंजन पर्याय दोनो होती हैं जबकि शेष द्रव्योंमें मुख्यतासे अर्थपर्याय होती है इसको सिद्ध करते हैं उप्पादहिदिभंगा पोग्गलजीवप्पगस्त लोगस्स। परिणामा जायते संघादादो व भेदादो ॥ ३८॥ उत्पादस्थितिभगाः पुद्गलजीवात्मकस्य लोकस्य । परिणामा जायन्ते सघाताद्वा भेदात् ॥ ३८ ॥ अन्वयसहित सामान्यार्थ-(लोगस्स) इस छः द्रव्यमई लोकके (उप्पादविदिमंगा) उत्पाद व्यय धौव्यरूपी अर्थ पर्याय होते हैं तथा (पोग्गलजीवप्पगस्स ) पुद्गल और जीवमई लोकके अर्थात् पुद्गल और जीवोंके (परिणामा) व्यंजन पर्यायरूप परिणमन भी (संधादादो संघातसे (व) या (भेदादो) भेदसे (जायते) होते हैं। नोट-यहां वृतिकारकी अपेक्षा छोडकर अपनी समझसे अन्वय किया है। विशेषार्थ-यह लोक छः द्रव्यमई है। इन सब द्रव्योमें सत्पना होनेसे समय समय उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप परिणमन हुआ करते हैं इनको अर्थ पर्याय करते है। जीव और पुद्गलोमें केवल अर्थ पर्याय ही नहीं होती किन्तु संघात या भेदसे व्यजन पर्यायें भी होती हैं । अर्थात् धर्म, अधर्म, आकाश तथा कालकी मुख्यतासे एकसमयवर्ती अर्थ पर्यायें ही होती है तथा जीव और पुद्गलोंके अर्थ पर्याय और व्यंजन पर्याय दोनो होती हैं । किस तरह होती हैं सो कहते हैं । जो समय समय परिणमन रूप अवस्था है उसको Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६] श्रीप्रवचनसारटोको । अर्थ पर्याय कहते हैं । जब यह जीव इस शरीरसे छूटकर अन्य भवके शरीरके साथ मिला करता है तब जीवके प्रदेशोंका आकार बदलता है तब विभाव व्यंजन पर्याय होती है । इसी ही कारणसे कि यह जीव एक जन्मसे दूसरे जन्म जाता है इसको क्रियावाने कहते है । तसे ही पुगलोकी भी व्यंजन पर्याय होती है। जब कोई विशेष स्कंधसे छूटकर एक पुद्गल अपने क्रियावानपनेसे दूसरे स्कंधमें मिल जाता है तब आकार बदलनेसे विभाव व्यनन पर्याय होती है। मुक्त जीवोके स्वभाव व्यंजन पर्याय इस तरह होती है सो कहते है । निश्चय रत्नत्रयमई परम कारण समयसाररूप निश्चय मोक्षमार्गके वलसे अयोगी गुणस्थानके अंत समयमे नख केशोको छोड़कर परमौदारिक शरीरका विलय होता है इस तरहका नाश होते हुए केवलज्ञान आदि अनंत चतुष्टयकी व्यक्तिरूप परम कार्य समयसार रूप सिद्ध अवस्थाका स्वभाव व्यजन पर्यायरूप उत्पाद होता है यह भेदसे ही होता है संधातसे नहीं होता है क्योकि मुक्तात्माके अन्य शरीरके सम्बन्धका अभाव है। भावार्थ-यह लोक छ द्रव्योंका समुदाय है । हरेएक द्रव्य सामान्य और विशेष रूप गुणाका समुदाय है-गुणोमे सदा परिणमन या पर्याय हुआ करती हैं-इस परिणमनको अर्थ पर्याय कहते हैं । ऐसी अर्थपर्यायें छ' द्रव्योंमें होती रहती है। इनके भी दो भेद है-एक स्वभाव अर्थपर्याय, एक विभाव अर्थपर्याय | स्वभाव अर्थपर्याय अगुरुलघु नामके सामान्य गुणके विकार है। ये स्वभाव पर्यायें बारह तरहकी होती है-छः वृद्धिरूप छ. हानिरूप । अर्थात् अन्नत भागवृद्धि, असंख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागवृद्धि, संख्यात Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [ १६३' गुणवृद्धि, असख्यात गुणवृद्धि, अनतगुणवृद्धि, इसी तरह अनत भाग हानि, असंख्यात भाग हानि, संख्यात भाग हानि, सख्यात गुण हानि, असख्यात गुण हानि, अनतगुण हानि 1 श्री देवसेन आचार्य रुत आलाप पद्धतिमें कहा है: अनाद्यनिधने द्रव्ये स्वपर्यायाः प्रतिक्षाम् । उन्मनन्त निमन्ति अलारटोलवजले ॥ १ । _अर्थ अनादि अनत द्रव्यके भीतर स्वभाव पर्याये प्रति समयमे इस तरह होती रहती है जैसे जलके भीतर लहरें उठती हैं वैठती है । इस हटातसे यह भाव झलकता है कि जैसे निर्मल क्षीर समुद्रके जलमे जब तरंगें होती है तब कहीं पर पानी कुछ ऊंचा व कहीपर कुछ नीचा होजाता है परन्तु न पानी मढ़ होता न मेला होता है तैसे द्रव्योंके भीतर जो अरुलघुगुण है उसमें परिणमन होता है। केवल अवस्थामें परिणमन होते हुए भी गुण कम बढ़ नहीं होता है न विभाव रूप परिणमता है । इन स्वभाव पर्यायोंका स्वरूप क्या है सो अच्छी तरह नहीं प्रगटा है इसको आगम प्रमाणसे गृहण करना योग्य है । ये स्वभाव अर्थ पर्याय तो सब द्रव्योमे सदा होती रहती है । जीव और पुद्गलोमें विभाव अर्थ पर्याय भी होती है जैसे जीवोंमे मतिज्ञान, श्रुतज्ञान आदि ज्ञानगुणका विभावपरिणमन है । सरलेश रूप तथा विशुद्ध रूप चारित्र गुणका विभाव परिणमन है । पुद्गलोमे एक रससे अन्य रस रूप, एक गधमे अन्य गध रूप, एक स्पर्शसे अन्य स्पर्श' रूंप, एक वर्णसे अन्य वर्णरूप परिणमन विभाव गुणपर्याय है या' विभाव अर्थ पर्यायें है। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ f १६८ ] श्रीप्रवचनसारटीका । एक आकार में हलन चलन या बदलनेको व्यंजन पर्याय कहते हैं । ये पर्यायें धर्म अधर्म आकाश कालमें नहीं होती हैं । किन्तु जीव और पुद्गुलोमें होती है । जब यह जीव एक शरीरमें रहता हुआ भी हलन चलन करता है, मन वचन कायके कार्यके द्वारा सकम्प होता है, तथा समुदायके द्वारा फैलता है, और फिर शरीर प्रमाण होता है तथा एक शरीरको छोड़कर दूसरे शरीरमें जाकर उस शरीरप्रमाण होजाता है, उस शरीरमें रहते हुए शरीरकी वृद्धिके साथ फैलता है तब जीवके विभाव व्यंजन पर्याय होती है। जब यह जीव संसार अवस्थाको त्यागकर मुक्त अवस्थामें पहुंचता है तब इसका आकार अंतिम शरीर से कुछ कम रहता है - अरहंतका देह अयोगी गुणस्थानमे कपूर के समान उड़ जाता है केवल नख केश रह जाते हैं । इससे यह झलकता है कि जहा आत्मा प्रदेश व्यापक है वह है और जहां आत्मा प्रदेश नहीं हैं वह भाग पड़ा रहता है जैसे नख केश, क्योकि शरीर सहित आत्माकी माप करनेसे नखकेशों की भी माप होजायगी इसीलिये नखकेशो की कमीको निकालकर जो कुछ आकार आत्माका शरीर रहते हुए रहता है वही सिद्ध अवस्था में होता है इसीसे इस आकारको अंतिम शरीरसे कुछ कम कहते हैं, क्योकि अब सिद्धोंका आकार नहीं बदलेगा न हलन चलन करेगा इसलिये सिद्धोके आकारको स्वभाव व्यंजन पर्याय कहते है । पुद्गलोंमे परमाणुओंका परस्पर मेल होनेसे व कुछ परमाणुओका व कोई स्कंधके भागका किसी स्कंध से भेद होनेपर उन ही परमाणुओका व स्कंधके भागका व उनमेसे कुछका अन्य सब भाग उड़ जाता Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [१६९ स्कंधके साथ संघात या मेल होनेपर जो विशेष स्कंध होता है वह विभावव्यंजनपर्याय है। अविभागी परमाणु विना किसीके मिलापके जबतक है तबतक खभाव व्यंजन पर्यायरूप है । इस तरह व्यजन पर्यायें जीव और पुद्गलोंमें होती है । ऐसा ही आलापपद्धतिमें कहा है: धर्माधर्मनभः काला अर्थपर्यायगाचराः । व्यञ्जनेन तु सबद्धौ द्वावन्यौ जीवपुद्गलौ ॥ भावार्थ-धर्म, अधर्म, आकाश और कालमे अर्थ पर्यायें ही होती है किन्तु जीव पुद्गलोंमें अर्थ पर्याय भी होती है व व्यंजन पर्यायें भी होती हैं । इसी कारणसे चार द्रव्य किया रहित अर्थात् हलनचलन रहित निःक्रिय हैं और जीव पुद्गल क्रियावान अर्थात् हलनचलन सहित हैं। -प्रयोजन यह है कि अपने आत्माको संसार अवस्थामें आवागमनरूप क्रियाके भीतर चौरासी लाख योनियोंके हारा क्लेश उठाते नानकर उसको सिद्ध अवस्थामें पहुंचानेका यत्न करना चाहिये जिससे यह जीव भी निःक्रिय होनावे क्योकि सिद्धात्मा हलनचलन क्रिया रहित है। स्वभावमे लोकाग्र एक आकारसे विना सकम्प हुए विराजमान हैं। इसीलिये अभेद रत्नत्रय स्वरूप साम्यभावका आश्रयकर स्वानुभवका अभ्यास करना चाहिये ऐसा तात्पर्य है। इस तरह जीव और अजीवपना, लोक और अलोकपना, सक्रिय निष्क्रियपनाको क्रमसे कहते हुए प्रथम स्थलमे तीन गाथाएं समाप्त हुई ॥ ३८ ॥ __ उत्थानिका-आगे ज्ञानादि विशेष गुणोके भेदसे द्रव्योंके भेदोंको बताते हैं: Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७०] श्रीप्रवचनसारंटीकी । लिंगेहि जेहिं दव्वं जीवमजीवे च हवदि विष्णाद । ते तव्भावविसिट्ठा मुत्तामुत्ता गुणा णेयां ॥ ३ ॥ लिङ्गैयद्रव्य जीवोऽनीवश्च भवति विज्ञानम् । ते तद्भावविशिष्टा मूर्तामृर्ता गुणा शेयाः ॥ ३९ ॥ अन्वय सहित सामान्यार्थ-( जेहि लिगेहिं ) जिन लक्ष'णोसे ( जीवमजीवं दव्वं ) जीव और अजीव द्रव्य (विण्णादं हवदि) जाने जाते हैं (ते) वे लक्षण या चिन्ह (तभावविसिट्ठा) उनके साथ तन्मयताको रखनेवाले (मुत्तामुत्ता गुणा) मूर्तीक और अमूर्तीक गुण (णेया) जानने चाहिये। विशेषार्थ-खाभाविक शुद्ध परम चैतन्यके विलास रूप विशेष गुणोसे जीव द्रव्य तथा अचेतन या जरूप विशेष गुणोंसे अनीव द्रव्य पहचाने जाते हैं। ये चेतन तथा अचेतन गुण अपनेर द्रव्यसे तन्मय हैं । जैसे शुद्ध जीव द्रव्यमें जो केवल ज्ञान आदि गुण हैं उनकी शुद्ध जीवके प्रदेशोके साथ जो एकता, अभिन्नता तथा तन्मयता है उसको तदभाव कहते हैं । इस तरह शुद्ध जीव द्रव्य अपने प्रदेशोकी अपेक्षा अपने शुद्ध गुणोसे तन्मय है परन्तु जब गुणोंका और उन प्रदेशोका जहा वे गुण पाए जाते हैं संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदिसे भेद किया जाता है तब गुण और द्रव्यमें अतद्भावपना या भेदपना भी सिद्ध होता है। द्रव्य और गुण किसी अपेक्षा अभेदरूप व किसी अपेक्षा भेदरूप हैं । अथवा दूसरा व्याख्यान यह है कि जिस द्रव्यके जो विशेष गुण है वे अपने द्रव्यसे तो तद्भावरूप या तन्मय हैं परन्तु अन्य द्रव्योसे वे अतद्भावरूप या भिन्न हैं । ये चेतन अचेतन गुण दो प्रकारके जानने चाहिये--मूर्तीक और अमू Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड । ' 1 [ १७१ तक अर्थात् मूर्तीक द्रव्योके मूर्तीक गुण और अमूर्तीक द्रव्योंके अंमूर्तीक गुण समझने चाहिये । भावार्थ - इस गाथामे आचार्य यह बताते है कि जीव और अजीव द्रव्योंको किस तरह पहचाना जाता है । जो अस्तित्त्व, ! वस्तुत्त्व, द्रव्यत्त्व, अगुरुलघुत्व, प्रदेशत्त्व तथा प्रमेयत्त्व सामान्यगुण हैं वे तो सर्व छहो द्रव्योमें व्यापक है उनसे जीव और अजीव ' द्रव्योकी भिन्नता नहीं जानी जा सकती है । इसलिये भिन्न २ Į द्रव्योंमें भिन्न विशेष गुण है जिनसे वह विशेष द्रव्य जाना जा सक्ता है । वे विशेष गुण अपने २ द्रव्यसे तो तन्मयपना रखते हैं परन्तु अन्य द्रव्यसे बिलकुल भिन्न है । तथा अपने २ द्रव्यके साथ भी वे गुण प्रदेशोकी अपेक्षा अभेदरूप है परन्तु सज्ञा ढिकी. अपेक्षा भेदरूप या भिन्न है । जिन लक्षणोंसे द्रव्योको भिन्न २ जाने उन लक्षणोको किसी अपेक्षा मूर्तीक और अमूर्तीक गुण कह सक्ते हैं । अर्थात् जो मूर्तीक द्रव्य है उनके विशेष गुण मूर्तीक हैं तथा जो अमूर्तीक द्रव्य हैं उनके विशेष गुण अमूर्तक हैं । छः द्रव्योमे पुंगल द्रव्य मूर्तीक है इसलिये उसके विशेष गुण स्पर्श, रस, गंध, वर्ण भी मूर्तीक है। जीव. धर्म, अधर्म, आकाश, काल अमूर्तीक है इसलिये उनके विशेष गुण चैतन्यादि भी अमूर्तीक है। ये छहों द्रव्य अपने अपने विशेष गुणोसे ही भिन्न २ जाने जाते हैं। तात्पर्य यह है कि इनमे निज आत्मा ही उपादेय है । श्री योगेन्द्राचार्यने योगसारमे कहा है:-- Ju पुग्गल अष्णु जि अष्णु जिउ अण्ण वि सहु विवहारु । वय व पुंग्गल गहहि जिउ लहु पाहु भवपाई ॥ ५४ ॥ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२] श्रोप्रवचनसारटोका । भावार्थ-पुद्गलादि द्रव्य अन्य हैं, जीव अन्य है तथा जगतका सब व्यवहार भी अन्य है। यदि यह जीव पुद्गलादि सर्वको त्याग करके निज आत्माको ग्रहण करे तो शीघ्र मोक्षकी प्राप्ति करे ॥३९॥ इस तरह गुणोके भेदसे द्रव्यका भेद जानना चाहिये । उत्थानिका-आगे मूर्तीक और अमूर्तीक गुणोंका लक्षण और सम्बन्ध कहते है:मुत्ता इन्दियगेज्मा पोग्गलवप्पगा अणेगविधा । व्वाणममुत्तार्ण गुणा अमुत्ता मुणेदव्या ॥ ४० ॥ मूर्ता इंद्रियग्राह्याः पुद्गलद्रव्यात्मा अनेकविधा । द्रव्याणममूर्ताना गुणा अमूर्ती ज्ञातव्याः ॥ ४० ॥ अन्वय सहित सामान्यार्थ (इंटियगेज्झा) इंद्रियोके ग्रहण करने योग्य गुण ( मुत्ता ) मूर्तीक होते हैं वे गुण (अणेगविधा) वर्ण आदिके भेदसे अनेक प्रकार हैं तथा (पोग्गल दव्वप्पगा) पुद्गल द्रव्य सम्बन्धी हैं । (अमुत्ताणं दव्वाण) अमूर्तीक द्रव्योके (गुणा) गुण (अमुत्ता) अमूर्तीक (मुणेदव्वा) जानने योग्य है। विशेपार्थ-जो इन्द्रियोके द्वारा ग्रहण करने योग्य हैं वे मूर्तीक गुण हैं और जो इंद्रियोंके द्वारा नहीं ग्रहण किये जावें वे अमूर्तीक गुण हैं इसतरह मूर्तीक गुणोका लक्षण इद्रियोका विषयपना है जब कि अमूर्तीक गुणोंका लक्षण इंद्रियों का विषयपना नहीं है । मूर्तीक गुण अनेक प्रकारके पुद्गल द्रव्य सम्बन्धी होते हैं तथा केवलज्ञान आदि अमूर्तीक गुण विशुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभावधारी परमात्मा द्रव्यको आदि लेकर अमूर्तीक द्रव्योंके होते हैं। इसतरह मूर्त और अमूर्त गुणोंके लक्षण और सम्बन्ध जानने योग्य हैं । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ N द्वितीय खंड। [१७३ भावार्थ-इस लोकमें छः द्रव्य है उनमेसे केवल एक पुद्गल मूर्तीक है क्योंकि उसके वर्ण, गंध, रस, स्पर्श गुण चक्षु, घाण, रसना तथा स्पर्शन इद्रियोंके द्वारा क्रमसे जाननेमे आते है । और इसी लिये इस पुद्गलके वर्णादि गुणोको मूर्तीक गुण कहते है तथा जीव, धर्म, अधर्म, काल, आकाश ये पांच द्रव्य अमूर्तीक है क्योकि इनके विशेष गुण पाचो ही इद्रियोसे नहीं जाने जासक्ते । जीवके केवलज्ञानादि गुण, धर्मका गतिहेतुपना, अधर्मका स्थितिहेतुपना कालका वर्तना तथा आकाशका अवगाहं देना ये सर्व कोई भी इंद्रियोसे देखे, सूघे, चखे, स्पर्श तथा सुने नहीं जाते है इसलिये जैसे ये पाच द्रव्य अमूर्तीक है वैसे इनके विशेप गुण भी अमूर्तीक है । क्योकि गुण और गुणी तादात्म्य सम्बन्ध रखते है ता गुणोके अखंड सर्वाग व्यापक समूहका ही नाम द्रव्य है इसलिये मुर्तीक गुणधारी द्रव्य मूर्तीक होते है और अमूर्तीक गुणधारी द्रव्य अमूर्तीक होते है। यद्यपि पुद्गलके वहुतसे सुक्ष्म स्कंध तथा सर्व ही अविभागी परमाणु किसी भी इद्रियसे नहीं जानने में आते तथापि जव भेदसंघातसे वे सूक्ष्म स्कध स्थूल होजाते हैं तथा परमाणुओके संघातसे स्थूलस्कंध बन जाते हैं । तब वे किसी न किसी इद्रियके द्वारा जाननेमे आनाते है जैसे आहारक वर्गणाको हम देख नहीं सक्ते परन्तु उनसे बने हुए औदारिक शरीरको देखते हैं, भाषा वर्गणाको हम देख नही सकते व सुन नहीं सक्ते परन्तु उनके बने शब्दोंको हम सुन सक्ते है । यद्यपि ये सूक्ष्म स्तंभ तथा परमाणु इंद्रियगोचर नही है तथापि उनमें इद्रियगोचर होनेकी शक्ति है तथा वे सब पुद्गल है और उन ही स्पर्श, रस, गध, वर्ण Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ ] श्रीप्रवचनसारटीका । गुणको वे रखते हैं जिनको इंद्रियोंके द्वारा ग्रहण किया जासक्ता है इसलिये वे भी मूर्तीक हैं और उनके गुण भी मूर्तीक हैं। श्री तत्वार्थसारमें अमृतचंद्राचार्य कहते हैशब्दरूपरसस्पर्शगन्धात्यतव्युदामतः । पच द्रव्याण्यरूपाणि रूपिणः पुद्गलाः पुनः ॥ १६३ ॥ भावाथ-क्योकि पांच द्रव्योंमें मूर्तीक शब्द पर्याय वा वर्ण, गंध, रस, स्पर्श गुण नहीं होते है इसलिये वे अमूर्तीक हैं नन कि मात्र एक पुद्गल द्रव्यं मूर्तीक है क्योकि इनमे ये चार गुण होते है और शब्द इसी मूर्तीक पुदल द्रव्यकी पर्याय है । तात्पर्य -यह है कि इन मूर्त और अमूर्त द्रव्योंमें मात्र अमूर्तीक एक निज शुद्ध आत्मा ही ग्रहण करने योग्य है । इस तरह ज्ञान आदि विशेष गुणोके भेदसे द्रव्योंमें भेद होता है ऐसा कहते हुए दूसरे स्थलमें दो गाथाएं पूर्ण हुई ॥ ४० ॥ ' उत्थानिका-आगे मूर्तीक पुद्गल द्रव्यके गुणोको कहते हैंवण्णरसगंधफासा विज्जते पुगलस्स सुहुमादो ।' पुढवो परियतस्स य सद्दो सो पोग्गलो चित्तो॥४१॥ वणरसगंधस्पर्धा विद्यन्ते पुद्गल्स्य सूक्ष्मत्त्वात् । पृथिवीपर्यन्तस्य च शब्दः स पुद्गलचित्रः ॥ ४१ ॥ अन्वरसहित म म न्यार्थ-( सुहुमादो पुढवी परियंतस्स) -सूक्ष्म सूक्ष्म परमाणुसे लेकर पृथ्वी पर्यंत (पुग्गलस्स) पुद्गल द्रव्यके. (वण्णरसगंधफासा) वर्ण, रस, गंध, स्पर्श, (विजते ) मौजूद पाए जाते हैं । (य) और (सद्दो) शब्द है ( सो पोग्गलो चित्ता) सो पुद्गल है व नाना प्रकार है। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड ! [ 34 विशेषार्थ- पुद्गल द्रव्यके विशेष गुण स्पर्श रस गध वर्ण हैं। वे पुद्गल सूक्ष्म परमाणुसे लेकर पृथ्वी रूप रूप स्थूल तक है । जैसे इस गाथामें कहा है , पुढवी जल च छाया चउरिदिय विमय रुम्मपरमाणू | छवि भणिय पोग्गलदव्वं जिणवरेहिं ॥ जैसे सर्व जीवोंमें अनन्त ज्ञानादि चतुष्टय विशेष लक्षण यथासभव साधारण है तैसे ही वर्णादि चतुष्टय रूप विशेष लक्षण यथासम्भव सर्व पुद्गलो में साधारण है । और जैसे अनन्तज्ञानादि चतुष्टय मुक्त जीवमे प्रगट हैं सो अतीन्द्रिय ज्ञानका विषय है । हमको अनुमानसे तथा आगम प्रमाणसे मान्य है तैसे हीं शुद्ध परमाणु में वर्णादि चतुष्टय भी अतीन्द्रिय ज्ञानका विषय है । हमको अनुमान से तथा आगमसे मान्य है । जैसे यही अनंतचतुष्टय ससारी जीव में रागद्वेषादि चिकनाईके कारण कर्मवध होनेके वशसे अशुद्धता रखते है तैसे ही स्निग्ध रूक्ष गुणके निमित्तसे दो अणु तीन अणु आदिकी बंध अवस्थामे वर्णादि चतुष्टय भी अशुद्धताको रखते हैं। जैसे रागद्वेषादि रहित शुद्ध आत्माके ध्यानसे इन अनन्तज्ञानादिचतुष्टय की शुद्धता होजाती है तसे ही यथायोग्य स्निग्ध रूक्ष गुणके न होनेपर बन्धन न होते हुए एक पुद्गल परमाणुकी अवस्थामें शुद्धता रहती है। और जैसे नरनारक आदि जीवको विभाव पर्याय है तैसे यह शब्द भी पुद्गलकी विभाव पर्याय हैगुण नहीं है क्योकि गुण अविनाशी होता है परन्तु यह शब्द विनाशीक है । यहा नैयायिक मतके अनुसार कोई कहता है कि 1 , यह शब्द आकाशका गुण है इसका खंडन कहते हैं कि यदि शब्द Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ ] श्रीप्रवचनसारटोका। आकाशका गुण हो तो शब्द अमूर्तीक होनावे । जो अमूर्त वस्तु है वह कर्ण इंद्रियसे ग्रहण नहीं होसक्ती और यह प्रत्यक्ष प्रगट है कि शब्द कर्ण इंद्रियका विषय है। बाकी इद्रियोका विषय क्यों नही होता है ? ऐसी शंकाका समाधान' यह है ।' अन्य इंद्रियका विषय अन्य इंद्रिय द्वारा नहीं ग्रहण किया जासक्ता ऐसा वस्तुका स्वभाव है जैसे रसादि विषय रसना इन्द्रिय आदिके हैं। वह शब्द भाषारूप, अभाषारूप, प्रायोगिक और वैश्रसिकरूप अनेक प्रकारका है जैसा पंचास्तिकायकी “सद्दो खंधप्पभवो" इस गाथामें समझाया है यहां इतना ही कहना वश है। भावार्थ-इस गाथामे आचार्यने पुद्गलके विशेष गुणोको बताकर उसकी अवस्थाओको भी समझाया है । स्पर्श, रस, गंध, वर्ण ये चार पुद्गलके मुख्य गुण है-रूखा, चिकना, गर्म, ढंढा, हलका भारी, नरम, कठोर आठ तरहका स्पर्श होता है । स्वट्टा, मीठा, चर्परा, तीखा कषायला पाच तरहका रस होता है । सफेद, लाल, पीला, नीला, काला पांच तरहका वर्ण होता है । सुगंध, दुर्गंध दो तरहकी गंध होती । इनमे से एक समयमे ५ गुण पुद्गलके एक अविभागी परमाणुमे पाए जाते हैं जैसे स्पर्शके दो रूखा 'अथवा चिकना, गरम या ठता अथात् कोई परमाणु रूखा होगा कोई चिकना होगा, कोई गरम होगा कोई ठंढ़ा होगा । रस एक कोई, गंध एक कोई, वर्ण एक कोई इस नरह पाच गुण परमाणुमें पाए जायगे। दो परमाणुका या दोये अधिक सख्यात, असंख्यात, अनत परमाणु• ओका मिलकर स्कंब बन जाता है। स्कंधमें एक समयमे सात गुण + पाएं जायगे हलका या भारी, कोमल या कठोर ऐसे दो और बढ़ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ..... दिनीय गट (१७७ नांगगे । इन गोही अनेक अवस्था, नगतमें होरही है। उन्दीका हिमग करा लिये पुलकी । मानिकी अवस्थाएं बताई गई है 1) स्कूल स्म-निमफे राजरिये नावेही ये विना रिसी नीना मोर गाये सन मिल सके। नगे पागन, लकड़ी, पर पर मादि। ) स्त-निमको अन्नग करनेपर दिना दृमरी चीनके मोदगिन नाचे नगे पानी, मरस्त. दप लादि पानेवाले पटाय। स्थर सक्षम को नेत्र इटियने नाने ना तमा मिनतो हम पकन मेरे अया, मानार, उमौत । समन्च-नो नेत्र हिने न जाने ना किन्तु पन्य नामिसिनी गाने नापक मेना.रम, गध, गं। नन-पानों ही इंद्रियोग न माने जाके में पानी वर्गणा आदि। क्ष-अविभागी पुल परमाश | यापर परमानमाण कर चुके फिनो निन्याने प्राण दिया गाय मी क सम या गम मुम ना मागे नती ग्राण लिये ना सके तब उनले मृतक न मानना चाहिये ? उम माया नमाधान यह है कि उन सोम स्पर्श, रम, राध, वर्ण है निनकोटियां अटण कर मामी है परन्तु ये ऐसी दगा है मिनको :विध अगोचर व्यवहार में पहने है। वे ही जब भेद संघात परिणगते है तर कालांतरमें इंद्रियोंके गोचर हो जाने है उनमें शक्ति ता है परन्तु व्यक्ति कालान्तरमें हो जायगी । इसलिये सूक्ष्म भी इंद्रियगोचर मूर्तीक कहे जाते है। यदि मृतींकपना Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८] श्रीप्रवचनसारटोका। परमाणुओंमें नहीं होता तो इन्हीके बने हुए स्थूल स्कंध इन्द्रिय गोचर नहीं होते । पुद्गलकी सर्व रंचना परमाणुओंके मिलने . विछुड़नेसे हुआ करती है । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु ये सब परमाणुओके भिन्न २ प्रकारके बंधके संगठनकी अपेक्षा नाना प्रकार स्कंध हैं । ऐसा नहीं है कि इनके परमाणु अलग अलग ही हैं। क्योकि जगतमें देखनेमें आता है कि ये चारों परस्पर अदलते बदलते रहते है जैसे लकड़ीसे अगि बनती है, जौनामा अन्नसे पेटमें वायु पैदा होती है, चंद्रकांति मणि पृथ्वीकायसे चंद्रमाकी किरणका सम्बंध होनेपर जल झड़ने लगता है। सूर्यकांतिभणि पृथ्वीकाय है, सूर्य किरणका सम्बन्ध होनेपर उसमेसे अग्नि प्रगट " होनाती है, जलसे पृथ्वीकाय मोती पैदा हो जाता है, अग्निसे धूआं बन जाता है जिसको एक तरहकी वायु कहते हैं, वायुके मिलानेसे जल बन जाता है। जल जमकर बरफकी शिलारूप पृथ्वी बन जाती है, क्योंकि कठोरता आदि प्रगट हो जाते हैं। इसतरह परिवर्तन होते होते पुद्गल परमाणुओकी ही अनेक अवस्थाएं माननी चाहिये । यदि पृथ्वी जल आदिके भिन्न २ परमाणु होते तौ परिवर्तन नहीं होता। यदि यह कहा जाय कि यद्यपि पृथ्वीमें स्पर्श, रस, गंध, वर्ण चारों हैं क्योकि चारों इन्द्रियोंसे जाने जा सले हैं परन्तु जलमे गंध नहीं है, क्योकि नाक जलको नहीं सूंघ सक्ती, अग्निमे गंध रस नहीं है क्योकि घ्राण तथा जिल्हा ग्रहण नहीं कर सक्ती । पवनमे गंध, रस, वर्ण नहीं है क्योकि घ्राण, जिह्वा और नेत्र उसको ग्रहण नहीं करते हैं। इसका समाधान यह है कि पुद्गल Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [१९९ कभी भी स्पर्श, रस, गध, वर्ण गुणोंसे छूट नहीं सक्ता कितु अनेक प्रकारके स्कधोमें कोई स्कंध किसी गुणको प्रगट रूपसे दिखाते है कोई फिमी गुणको अप्रगटपने रखते है । गुण, गुणीसे कभी जुदे नही हो सक्ते। यदि सूक्ष्मतासे देखा जावे तो इन नलादिमें अन्य गुण भी प्रगट झलक जायगे । जलको हम सूप भी सक्त है परन्तु उसकी गंध स्पष्ट नहीं मालूम होगी। कभी किसी जलकी मालूम भी हो जायगी। एक वस्तु जल सयोगके विना भिन्न गंवको रखती है वही वस्तु जल सयोगसे गधको बदल देती है। सूखा आटा और गीला आटा मिन्न २ गंधको प्रगट करते हैं। यदि जलमें गंब न होती तो ऐमा नहीं हो सका। अग्निसे पकाए हुए भोजनोंमें भिन्न प्रकारका रस तथा गफ होनाता है । यदि अग्निमे रस या गध नहीं होते तो ऐमा नहीं हो सक्का था । पवनके सम्बन्धसे वृक्षादिमे भिन्न प्रकारका रस, गंध, वर्ण होनाता है । यदि पवनमें ये रस, गध, वर्ण न होते तो इसके सयोगसे विलक्षणता न होती। पुद्गलोमे अनेक जातिके परिणमन होते है । हम अल्पज्ञानी किसी स्कधको प्रगटपने चारों इद्रियोंसे न ग्रहण कर सकें परन्तु सूक्ष्मज्ञानी हरएक परमाणुमात्रमें भी चारों ही गुणोको जानते देखते है । हम शक्तिके अभावसे यदि न जाने तो क्या उन गुणोंका अभाव हो सक्ता है ? कदापि नहीं। शब्द भी पुद्गल की अवस्था विशेष है । दो पुद्गलोके एक दूसरेसे टक्कर खानेपर जो भापा वर्गणा तीन लोकमे फैली है उनमे शब्दपना प्रगट होजाता है । यह पुगलका गुण नहीं है, किन्तु बाह्य और अतरग निमित्तसे पैदा होनेवाली एक विशेष अवस्था है। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८०.] श्रीप्रवचनसारदोका | इस अवस्थाको पुगलकी व्यजन पर्याय कह सक्ते हैं। जो जो पर्यायें स्कंधोंकी होती हैं वे सब व्यंजन पर्याय हैं। आकार के पलटने को ही व्यंजन पर्याय कहते हैं । अमूर्तीक आकाशका गुण शब्द नहीं हो सक्ता क्योंकि शब्द मूर्तीक है इसीलिये कर्ण इंद्रियके गोचर है तथा अन्य पवन, आग, जल, पृथ्वीकी तरह रोका जा सक्ता है । शव्द सूक्ष्म स्थूल है इसीलिये कर्णके सिवाय और इंद्रियें, उसको ग्रहण नहीं कर सक्ती । शब्द अक्षर रूप भी होते हैं अनक्षर रूप भी होने हैं ! मनुष्योके शब्द अक्षररूप, पशुओके अनक्षररूप होते हैं । मनुष्यकी प्रेरणासे तरह तरहके बाजेके शब्द अनक्षर होते है, तथा स्वाभाविक बादलोंकी गर्जना होना, विजलीका तड़कना, अग्निका चटकना आदि अनक्षररूप शब्द होते है । वृत्तिकारने जैसा दिखाया है उसको समझकर पुलके भी शुद्ध अशुद्ध भेद समझ लेना । जो परमाणु बंध योग्य नही है वह शुद्ध है तथा जो बंधरूप है वह अशुद्ध है । जैसे स्निग्ध व रूक्ष गुण पुद्गल के बधका कारण हैं वैसे राग द्वेष मोह ससारी आत्माक बंधका कारण है । इसलिये जो जीव वधकी अवस्था से हटकर अबंध होना चाहते हैं उनको उचित है कि वे रागद्वेष मोहको, त्याग करके साम्यभावरूपी चारित्रको धारण करें। यह तात्पर्य है । श्री पंचास्तिकायमें आचार्य महाराजने पृथ्वी आदिका कारण परमाणु है तथा शब्द पुद्गलका गुण नहीं है किन्तु एक विशेषः जातिका पुद्गलोका परिणमन है, ऐसा बताया है अ.देशमत्तमुत्तो धादुन्दुकस्स वारणं जो दु । सो ओ परमाणू परणामगुणो सयम द्दा ॥७८॥ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । द्वितीय खंड | [ १८१ भावार्थ - जो संज्ञा आदि मेदसे मूर्तिमान है, प्रदेशापेक्षा वर्णादिमई मूर्ति से अभेद है; पृथ्वी, जल, तेज, वायु इन चार धातुओंका कारण है, परिणमन स्वभाव है, स्वयं शब्दरहित है सो परमाणु है । सद्दो धप्पभवो धो परमाणुस संघादो । 4 पुट्ठेसु तेसु जायदि सदो उप्पादगो णियदो ॥७९॥ भावार्थ - शब्द स्कंधोके द्वारा पैदा होता है, स्कंध परमाणुओ मेलसे बनते हैं और उन स्कंधोके परस्पर संघट्ट होने पर शब्द "पैदा होता है - भाषा वर्गणा योग्य सूक्ष्म स्कंध जो शब्दके अभ्यंतर कारण हैं लोकमें हर जगह हर समय मौजूद हैं । जब तालु, ओठ आदिका व्यापार होता है या घटेकी चोट होती है या मेघादिका मिलान होता है तब भाषा वर्गणा योग्य पुद्गल स्वयं शब्द रूपमें परिणमन कर जाते है । निश्वयसे भाषा वर्गणा योग्य पुद्गल ही शब्दों के उत्पन्न करनेवाले हैं ॥ ४१ ॥ उत्थानिका- आगे आकाश आदि अमूर्त द्रव्योंके गुणोंको बताते हैं. आगासस्तवगाहो धम्मद्दव्यस्स गमणहेदुत्त । धम्मेदरदवस्स दु गुणो पुणो ठाणकारणदा ॥ ४२ ॥ कालस्स चट्टणा से गुणोवओगोत्ति अप्पणो भणिदो ! या संखेवादो गुणा हि मुत्तिप्पहोणाणं ॥ ४३ ॥ आकाशस्यावगाहो धर्मद्रव्यन्य गमनहेतुत्वम् । धर्मतरद्रव्यस्य तु गुण पुनः स्थानकारणता ॥ ४२ ॥ कालस्य वर्तना स्यात् गुण उपयोग इति आत्मनो भणितः । शेया सक्षेपाद् गुणा हि मूर्तिप्रहीणानाम् ||४३|| ( युगलम् ) ' Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२] श्रीप्रवचनसारटोकां। अन्वय सहित सामान्यार्थ-( आगासस्सवगाहो) आकाश द्रव्यका विशेष गुण सर्व द्रव्योको जगह देना ऐसा अवगाह गुण है, (धम्मदव्वस्स गमणहेदुत्तं ) धर्म द्रव्यका विशेषगुण जीव पुनः लोके गमनमे कारण ऐसा गमनहेतुत्त्व है, (पुणो धम्मेदरदव्वरस दु गुणो ठाण कारणदा) तथा अधर्म द्रव्यका विशेष गुण जीव मुगलोंको स्थितिका कारण स्थानकारणता है, (कालस्स वट्टणा से) काल द्रव्यका विशेष गुण सभी द्रव्योमे समय२ परिणमनकी प्रवृत्तिका कारण वर्तना है और (अप्पणो गुणोवओत्ति मणिदो) आत्माका विशेप गुण उपयोग है ऐसा कहा गया है। (हि) निश्चयसे (मुत्तिप्पहीणाणं गुणा) मूर्ति रहित द्रव्योके विशेष गुण इस तरह (संखेवादो णेया) संक्षेपसे जानने योग्य है। विशेपार्थ- सर्व द्रव्योको साधारणरूपसे अवगाह देनेका कारणपना आकाशका ही विशेप गुण है क्योकि अन्य द्रव्योंमे वह गुण असंभव है इसलिये इस विशेष गुणसे आकाशका निश्चय होता है। एक समयमें गमन करते हुए सर्व जीव तथा पुगलोको साधारण गमनमे हेतुपना धर्म द्रव्यका ही विशेष गुण है क्योंकि अन्य द्रव्योमे यह असंभव है। इसी गुणसे धर्म द्रव्यका निश्चय होता है। इसी तरह एक समयमे स्थिति करते हुए जीव पुद्गलोको साधारण स्थितिमे कारणपना अधर्म द्रव्यका ही विशेष गुण है क्योकि अन्य द्रव्योमे यह असम्भव है। इसी गुणसे अधर्म द्रव्यका निश्चय होता है। एक समयमे सर्व द्रव्योनी पर्यायोके परिणमनमें हेतुपना काल द्रव्यका विशेष गुण है क्योंकि अन्य द्रव्योमें यह असम्भव है। इसी गुणसे काल द्रव्यका निश्चय होता है । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड ।। [१८३ सर्व जीयोमें सागरण ऐसा सर्व तरह निर्मल ऐसा केवलजान और पेयलदर्शन जीव द्रव्यका विशेष गुण है क्योकि अन्य पांच अचेतन द्रव्योंमें यह असम्भव है, इसी विशेष उपयोग गुणसे शुद्ध बुद्ध एक स्वभाव परमात्म द्वन्यका निश्चय होता है। यहां यह प्रयोजन है कि यद्यपि पाच द्रव्य जीवका उपकार करते है तो भी इनको दुखका कारण जान करके नो अक्षेय और अनन्त सुन्व आदिका कारण विशुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभावरूप परमान्म द्रव्य है उसीको ही मनसे ध्याना चाहिये वचनमे उमका ही वर्णन करना चाहिये तथा शरीरसे उसीका ही साधक नो अनुष्ठान या किया कर्म है उसो करना चाहिये। भावाय-इस गाथामें आचार्यने अमूर्तीक पाच द्रव्योके विशेष गुण बताये है । एक समयमे सर्व द्रव्योको साधारण अवकाग देनेवाला कोई द्रव्य अवश्य होना चाहिये यह गुण सिवाय आकाशके और किमी द्रव्यम नहीं हो सक्ता क्योकि आकाश अनन्त है, उसीके मध्यम अन्य पाच द्रव्य अवगाह पारहे है तथा लोकाकागमें नहा कही कोई जीव या पुद्गल जगहकी जरूरत रखते हैं उनको अवकाग देनेदाला उदासीन कारणरूप आकागका ही अवगाह गुण है। हरएक कार्यके लिये उपादान और निमित्त कारणकी जरूरत पड़ती है | धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य और कालके असंख्यात कालाणु तो क्रिया अर्थात् हलन चलनरहित है, अनादिकालसे लोकाकाश व्यापी है। जीव पुद्गल ही क्रियावान तथा हलन चलन करते है। ये दोनों द्रव्य अपनी ही उपादान शक्तिसे जगह लेते, चलते तथा ठहरते है। इनके इन तीन कार्योंके लिये सर्व जीव पुद्गलों के Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४] श्रीप्रवचनसारटोका। लिये एक साधारण निमित्त कारण अवकाश देनेमें आकाश द्रव्य है, गमन करने में धर्म द्रव्य है, स्थिति होनेमें अधर्म द्रव्य है । सर्व ही द्रव्य परिणमनशील हैं उनमे पर्यायकी पलटन अपनी ही उपादान शक्तिसे होती है परन्तु उनके परिणमनमें निमित्त कारण कालद्रव्य है । आत्मा ज्ञान दर्शन उपयोग रखता है यह आत्माका विशेष गुण है जो औरोंमे नहीं पाया जाता । आत्मा ज्ञाता भी है, ज्ञेय भी है जब कि सब द्रव्य मात्र ज्ञेय हैं, ज्ञाता नहीं है। ये पांच द्रव्य स्पर्श, रस, गंध है, वर्णसे रहित है इसी लिये अमूर्तीक हैं, पुद्गल मात्र मूर्तीक है । इन छहों द्रव्योंके भीतर एक निज आत्मा ही ग्रहण योग्य है ।। ४४ ॥ इस तरह किस द्रव्यके क्या विशेष गुण होते हैं ऐसा कहत्ते हुए तीसरे स्थलमे तीन गाथाएं पूर्ण हुई। उत्थानिका-आगे कालद्रव्यको छोड़कर जीव आदि पांच द्रव्योके अस्तिकायपना है ऐसा व्याख्यान करते हैं जोवा पोग्गलकाया धम्माऽधम्मा पुणो य आगासं। देसेहि असंखादा णत्थि पदेसत्ति कालस्स ॥ ४४ ॥ जीवाः पुद्गलाया धर्माधर्मों पुनश्चाकाशम् । प्रदेशैरसख्याता न संति प्रदेशा इति काल्स् ॥ ४४ ॥ अन्वयसहित सामान्यार्थ-(जीवा पोग्गलकाया) अनन्तानंत जीव और अनंतानन्त पुद्गल (धम्माऽधम्मा ) एक धर्मद्रव्य एक अधर्मद्रव्य (पुणो य आयास) और एक आकाशद्रव्य (देसेहि असंखादा) अपने प्रदेशोकी गणनाकी अपेक्षा संख्यारहित हैं, (कालस्स पत्थि पदेसत्ति) काल द्रव्यके बहुत प्रदेश नहीं हैं। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । द्वितीय खंड। . [१८५ विशेषार्थ-हरएक जीव संसारकी अवस्थामें व्यवहार नयसे. अपने प्रदेशोमें संकोच विस्तार होनेके कारणसे दीपकके प्रकाशकी तरह अपने प्रदेशोकी संख्या कमी व बढ़ती न होता हुआ शरीरके प्रमाण आकार रखता है तौभी निश्चयसे लोकाकाशके चरावर असंख्यात प्रदेशवाला है । धर्म और अधर्म सदा ही स्थित हैं उनके प्रदेश लोकाकाशके वरावर असंख्यात हैं । स्कंक अवस्थामें परिणमन किये हुए पुद्गलोंके संख्यात, असंख्यात और अनंत प्रदेश होते हैं, किन्तु पुद्गलके व्याख्यानमें प्रदेश शब्दसे 'परमाणु ग्रहण करने योग्य है, क्षेत्रके प्रदेश नहीं क्योकि पुद्गलोंका स्थान अनन्त प्रदेशवाला क्षेत्र नहीं है। सर्व पुद्गल असंख्यात प्रदेगवाले लोकाकाशमें हैं उनके स्कंध अनेक जातिके बनते हैंसख्यात परमाणुओके, असंख्यात परमाणुओंके तथा अनत परमाणुओंके स्कंध बनते है वे सूक्ष्म परिणमनवाले भी होते हैं इससे लोकाकाशमे सब रह सक्ते है । एक पुद्गलके अविभागी परमाणुमें अगटरूपसे एक प्रदेशपना है मात्र शक्तिरूपसे उपचारसे बहुप्रदेशीपना है क्योकि वे परस्पर मिल सक्ते हैं । आकाशद्रव्यके अनंत प्रदेश हैं। कालद्रव्यके बहुत प्रदेश नहीं है। हरएक कालाणु कालद्रव्य है सो एक प्रदेश मात्र है। कालाणुओमे परमाणुओकी तरह परस्पर सम्बन्ध करके स्कंधकी अवस्थामे बदलनेकी शक्ति नहीं है। भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने पाच अस्तिकायोको गिनाया है। जितने क्षेत्रको एक अविभागी पुद्गलका परमाणु रोकता है उसको प्रदेश कहते है यह एक प्रकारका माप है। इस मापसे यदि छः द्रव्योंको मापा जाता है तो अखंड एक जीव द्रव्यके, अखंड Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६] श्रोप्रवचनसारटोका। एक धर्मद्रव्यके, अखंड एक अधर्म द्रव्यके प्रत्येकके असंख्यात प्रदेश लोकाकाशके समान मापमे आते हैं तथा अखण्ड एक आकाशके अनन्त प्रदेश हैं । ससारी जीव गरीर प्रमाण सकुड़ने फैलनेकी अपेक्षा रहते हैं-जीवके प्रदेशोमें ऐसी शक्ति है कि नाम कर्मके उदयके अनुसार छोटे शरीरमें छोटे शरीर प्रमाण व बड़े शरीरमें बड़े शरीर प्रमाण हो जाते है तो भी असंख्यातकी मापको नहीं छोड़ते हैं । सिद्ध जीव अतिम शरीरसे कुछ कम आकारवान रहते है । क्योकि नामकर्मके विना मोक्ष होनेपर आत्माके प्रदेश न सकुड़ते हैं न फैलते हैं। पुद्गलद्रव्य जब एक अविभागी परमाणुरूपमें होता है तब तो वह एक प्रदेशवाला है, परन्तु उसमे मिलनेकी शक्ति है इस लिये उसको व्यवहारसे बहुपदेशवाला कहते हैं। इन परमाणुओके स्कंध रूक्ष चिक्कण गुणके कारण बन जाते हैं। स्कंधकी अपेक्षा पुदल संख्यात, असंख्यात और अनंत परमाणुओको रखनेसे संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेशी हैं। कालद्रव्य . रत्नके ढेरके समान लोकाकाशके एक एक प्रदेशमें अलग२ है वे कभी मिल नहीं सक्ते इससे हरएक कालद्रव्य एक प्रदेशी है-कायवान नहीं है, तब काल सिवाय पांच द्रव्य ही कायवान ठहरे। ऐसा ही श्री नेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्तीने द्रव्यसंग्रहमें कहा है: होति असंखा जीवे धमाधम्मे अणंत आयासे । मुत्ते तिविहपदेसा कालस्सेगो ण तेण सो काओ । अर्थात्-एक जीव, धर्म, अधर्ममे असंख्यात, असंख्यात, आकाशमे अनंत, मुद्गलमें सख्यात, असंख्यात, अनंत तीन प्रकार प्रदेश होते हैं जब कि कालका एक ही प्रदेश होता है इसलिये वह काय नही है ।-४४ ॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड | [ १८७ उत्थानिका- आगे ऊपर के ही भावको दृढ़ करते है - पदाणि पंच दव्वाणि उज्मियकालं तु अत्थिकायत्ति । भण्णं काया पुण वहुप्पदेसाण पचयतं ॥ ४५ ॥ एतानि पंचद्रव्याणि उज्झिनल तु अस्तिकाया इति । भण्यते कायाः पुनः बहुपदेशाना प्रचयच ॥ ४५ ॥ अन्चयसहित सामान्यार्थ - ( एदाणि दव्त्राणि ) ये छः द्रव्य ( उज्झिय काल तु ) काल द्रव्यको छोड़कर ( पंच अत्थिकायत्ति ) पाच अस्तिकाय है ऐसे (भण्णते) कहे जाते है (पुण) तथा ( बहुप्प - देसाण पचयतं कामा) बहुत प्रदेशोके समूहको काय कहते हैं । विशेषार्थ - इन पाच अस्तिकायोंके मध्यमे एक जीव अस्तिकाय ही ग्रहण करने योग्य है। उनमे भी अर्हत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु पाच परमेष्ठीकी अवस्था, इनमेसे भी अरहंत और सिद्ध अवस्था फिर इनमेसे भी मात्र सिद्ध अवस्था ग्रहण करनी योग्य है । वास्तवमे तो या निश्श्रयनवसे तो रागद्वेषादि सर्व विकपालोके त्यागके समयमें सिद्ध जीवके समान अपना ही शुद्धात्मा ग्रहण करने योग्य है यह भाव है । भावार्थ- सुगम है ॥ ४५ ॥ इस प्रकार पाच अस्तिकायकी सक्षेपमे सूचना करते हुए चौथेस्थलमे दो गाथाए पूर्ण हुई । उत्थानिका- आगे द्रव्योका स्थान लोकाकाशमे है ऐसा बताते है -- लोगालोगेसु णभो धम्माधम्मेहि आददो लोगो 1 सेसे पडुच्च कालो जीवा पुण पोग्गला सेसा ॥ ४६ ॥ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ ] श्रीप्रवचनसारटीका । लोकालोकयर्नभ धर्माधर्माभ्यामाततो लोकः । शेषो प्रतीच्य कालो जीवाः पुनः पुद्गलाः गेषौ ॥ ४६ ॥ अन्वयरहित सामान्यार्थ - (णमो) आकाश द्रव्य (लोगोलोगेसु) लोक और अलोकमे है ( सेसे पहुच ) शेष जीव पुगलको आश्रय करके (लोगो धमाधम्मेहि आददो) लोक धर्म और अधर्म द्रव्यसे व्याप्त है तथा (कालो) काल है । (पुण सेसा जीवा पुग्गला) और वे दो शेष द्रव्य जीव और पुद्गल हैं । विशेषार्थ :- लोकाकाश और अलोकाकाश दोनोका आधार एक आकाश द्रव्य है इनमेसे जीव पुगलोंकी अपेक्षासे धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय हैं जिनसे यह लोकाकाश व्याप्त है । अर्थात् इस लोकाकाशमे जीव और पुद्गल भरे हैं उन्ही को गति और स्थतिको कारण रूप ये धर्म अधर्म भी लोकमे है । काल भी इन जीव - पुलोंकी अपेक्षा करके लोकमे है क्योकि जीव पुगलकी नई - पुराणी अवस्थाके होनेसे काल द्रव्यकी समय घड़ी आदि पर्याय "प्रगट होती हैं । तथा जीव और पुदल तो इस लोकमें हैं ही । यहां यह भाव है कि जैसे सिद्ध भगवान यद्यपि लोकाकाश प्रमाण शुद्ध असंख्यात प्रदेशोंमें है जो प्रदेश केवलज्ञान आदि - गुणों के आधारभूत हैं तथा अपने २ स्वभावमे ठहरते हैं तथापि, व्यवहार नयसे मोक्षगिलामे ठहरते है ऐसे कहे जाते हैं तैसे सर्व पदार्थ यद्यपि निश्चयसे अपने अपने स्वरूपमे ठहरते हैं तथापि व्यवहार नयसे लोकाकाशमे ठहरते है। यहां यद्यपि अनन्त जीव द्रव्योसे अनन्त गुणे पुद्गल हैं तथापि एक दीपके प्रकाशमें जैसे - बहुत से दीपकों के प्रकाश समाजाते हैं तैसे विशेष अवगाहनाकी Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' द्वितीय ' खंड | tice. शक्तिके योगसे असंख्यात प्रदेशी लोकमे ही सर्व द्रव्योका स्थान पालेना विरोधरूप नहीं है। भावार्थ - इस गाथामे आचार्यने बताया है कि आकाश एक अखंड अनंत व्यापक है उसीके दो भाग कहे जाते है । जितने भागमे जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल द्रव्य है उसको लोकाकाश कहते है, शेषको अलोकाकाश कहते है। जीव और पुद्गल इस लोक में सर्व जगह भरे हैं । जीव अनन्तानत है । यद्यपि एक जीव लोकाकाशके प्रमाण असंख्यात प्रदेशी है तथापि केवल समुदघात के सिवाय कभी लोकभरमे व्यापता नहीं है । कषाय, वेदना, वैक्रियिक, तैजस, आहारक, मारणातिक समुदघातो मे भी शरीरसे बाहर फैलकर आत्माके प्रदेश जाने है और कुछ देर बाद शरीर प्रमाण हो जाते है तथापि इन सात समुद्रवात के सिवाय संसारी सब आत्माए अपने नाम कर्मके उदयसे प्राप्त शरोरके आकार प्रमाण आकार रखते हैं । आत्माके प्रदेशोंमें सकोच विस्तार शक्ति है, जो शक्ति नामकर्मके निमित्तसे परिणमन करनी हुई जीवके प्रदेशको सकोचित व विस्तारित कर देती है। लोक प्रमाण से अधिक एक प्रदेश भी विस्तार नही हो सक्ता है। मुक्त जीव अंतिम शरीरसे कुछ कम आकारमे रहते है । संसारी जीवोके शरीर सूक्ष्म और वादर दो प्रकारके है । सूक्ष्म शरीरधारी प्राणी तथा वादर शरीरधारी प्राणी साधारण वनस्पति अर्थात् निगोद राशि ऐसी है कि जिसके घनागुलके असंख्यातवें भाग शरीरमे अनन्त जीव परस्पर अवगाह देकर ठहर सक्ते हैं । वे एक साथ जन्मते, श्वास लेते, आहार करते Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० ] श्रीप्रवचनसारटीका । तथा मरण करते हैं। इनके सिवाय सूक्ष्म पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु कायिक जीव भी लोकभरमे व्याप्त हैं । सूक्ष्म जीव किसीको रोकते नही न किसीसे रोके जाते हैं, वे अग्निमे जलने नही तथा किसीसे मारे नही जाते हैं । बादर शरीरधारी एकेन्द्री पाँच प्रकार के, इन्द्री, तेहन्द्री, चौइन्द्री तथा पंचेन्द्रिय जीव भी लोक में यथासंभव सर्वत्र पाए जाते है ये चादर जीव आधार में पैदा होते हैं तथा यथायोग्य परस्पर रुकते और रोकते भी है और अन्यो द्वारा मरण भी प्राप्त करते हैं । इनमेसे भी नाडी में ही द्वेन्द्रियादि त्रस जीव हैं, त्रस नाड़ीके बाहर त्रस एक भी नही जन्मता है । स्थावर एकेंद्रिय जीव लोकमें सर्व जगह हैं । एक एक जीवके साथ अनंत पुद्गल वर्गणाए हैं इससे जीवोकी अपेक्षा पुल अनन्त गुणे है तथा जीवोके प्रदेशोंके बाहर अनन्त पुद्गल वर्गणाए हैं जिनमें बहुतसी सूक्ष्म है जो एक दूसरेको अवगाह देदेती है । स्निग्ध रूक्ष गुणोके कारण पुद्गल परस्पर मिलकर अनेक जातिके सूक्ष्म और बादर स्कध बना लेते है। ये पुदुल भी लोक भरमें जीवोकी तरह भौजूद है कोई स्थान लोकाकाशका ऐमा नहीं है कि जहां जीव और पुद्गल न हों। संसारी सर्व जीव और पुल क्रियावान रहते है अर्थात् हलन चलन शक्तिको रखते हुए गमन करते हैं और स्थिति करते हैं । इनके अवगाह देनेमे जैसे -लोकाकाश निमित्त कारण है वैसे इनके गमनमे धर्मद्रव्य और स्थितिमैं अधर्मद्रव्य उदासीन निमित्त कारण है। काद्रव्य भी जीव और पुद्गलोंकी अपेक्षासे लोकभरमे है । इनकी संख्या असख्यात कालाणु है । ये कालाणु सर्व द्रव्योंके नए पुराने होने " Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [११ रूप परिणमनमें उदासीन निमित्त कारण है । इन कालाणुओंकी ही समय समय जो परिणति होती है उससे जो समय नामका व्यवहारकालरूप पर्याय प्रगट होती है तो पुद्गलके निमित्तसे होता है। जब एक पुद्गल एक कालाणुको उलधकर निकटवर्ती कालाणुपर नाता है उतनी देरमें जो कुछ समय लगा उसीको कालद्रन्यकी समय पर्याय कहते है । जब एक जीव किसी क्षेत्रसे दूसरे क्षेत्रमें गया या एक पुगल किसी क्षेत्रसे दूसरे क्षेत्रमें गया तब उसके गमनमें मो घंटा, दो घंटा, चार घंटा, दिन, सप्ताह, पक्ष, मास आदि काल लगा उस सबको, व्यवहारकाल कहते है। ये सव व्यवहारकालके भेट समय नामा सूक्ष्मकालके समय समय वीतते हुए समयोंका समुदाय है । इस तरह इस लोकमें जीव पुद्गलोकी मुख्यतासे उपकारी धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, कालद्रव्य और आकाश द्रव्य है । इन छहोंके समुदायको लोक कहते हैं । वृत्तिकारने बताया है कि यद्यपि सिद्ध भगवान निश्चयसे अपने ही स्वभावमे तथा अपने ही प्रदेशोंमे तिष्ठते हैं तथापि व्यवहारसे वे सिद्धगिलाके ऊपर सिद्धक्षेत्रमे तनुवातवलयके भीतर लोकाय तिष्ठते हैं। इसी तरह सर्व ही द्रव्य निश्चयसे अपने अपने स्वभावमे अपनेर प्रदेशोंमें ठहरते है तथापि व्यवहारनयमे लोकाकाशमे ठहरते हैं ऐसा कहा जाता है क्योकि आकाश उन सबका आधार अनादिकालसे उदासीन रूपसे मौजूद है। लोकाकाशके सर्वसे छोटे. प्रदेश नामके भागमे जिसको एक अविभागी पुद्गलका परमाणु रोकता है इतनी शक्ति है कि अनंत परमाणु उसमें स्थान पानावें । मात्र स्थूल पुगल स्कंध, स्थूल तथा स्थूल स्थूलको और स्थूल स्यूल पुद्गल स्कंध, स्थूल Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२] श्रीप्रवचनसारंटोका ।' तथा स्थूल स्थूलको जगह नहीं देते किन्तु स्थूल सूक्ष्म और सूक्ष्म स्थूल, तथा सूक्ष्म और सूक्ष्म सूक्ष्म सभी प्रकारके पुद्गलोंको तथा स्थूल और स्यूल स्थूल पुद्गल स्थूल सूक्ष्म तथा सूक्ष्म स्थूल आदिको यथासंभव स्थान दे सक्ते हैं इनमें भी विशेष अवगाहना शक्ति है। जैसे स्थूल सूक्ष्म दीपका प्रकाश, चंद्रका प्रकाश, तथा धूप, छाया आदि है जहां ये हों वहां अनेक दीपकोंका प्रकाश व अनेक अन्य पुद्गल सुखसे जगह पालते हैं। शब्द, वायु आदि सूक्ष्म पुद्गल स्कंध हैं। जहां एक दो शब्द गूंज रहे हों वहां और अनेक शब्द आसक्ते हैं तथा अन्य पुद्गल स्कंध भी जहां वायु भरी हो वहां अन्य वायु व अन्य पुद्गल स्कंध भी 'आसक्ते हैं। इस तरह मूर्तीक पुद्गल एक दुसरेको स्थान देते हैं । इसमें कोई प्रकारका विरोध नहीं है जो असंख्यात प्रदेशी लोकाकागमे अन्य निर्बाधा अमूर्तीक द्रव्योके साथ साथ अनंत पुगल स्थान प्राप्त कर लें। इस तरह यह बात दिखाई गई कि यह लोक सर्वत्र छ. द्रव्योसे भरा हुआ है। यद्यपि छः द्रव्य परस्पर मिल रहे है तथापि कोई द्रव्य अपनेर स्वभावको नही छोड़ते है जैसा कि श्री पंचास्तिकाबमें कहा है:.. अण्णोष्ण पविसंता दिता ओगासमण्णमण्णस्स । मेलता वि य णिचं सगं समावं ण दिजइति ॥ ७ ॥ भावार्थ-ये छहो द्रव्य एक दूसरेमें प्रवेश करते हुए, व नित्य एक दूसरेको आवकाश देते हुए तथा नित्य मिलते हुए अपने २ खभावको नहीं छोड़ते हैं, क्योकि इनमे अगुरुलघु नामका एक साधारण गुण है जो हरएक द्रव्यको व उसके अनंत Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड [१६३ गुणोंको उसीरूप : वनाए रखता है। न कोई गुण किसी द्रव्यसे छूटकर दूमरेमें मिलता है न कोई द्रव्य अन्य द्रव्य रूप होता है। तात्पर्य यह है कि इन छहोद्रव्योंके मध्यमे पडे हुए अपने आत्माके खभावको सर्व पुद्गलादिसे भिन्न अपने निज शुद्ध खरूपमें अनुभव करना योग्य है ।। ४६ ॥ . उत्थानिका-जैसे एक परमाणुसे व्याप्त क्षेत्रको आकाशका प्रदेश कहते हैं वैसे ही अन्य द्रव्योके प्रदेश भी होते है, ऐसा कहते हैं जध ते णभप्पदेसा तधप्पदेसा हवंति सेसाणं । अपदेसो परंमागू तेण पदेसुमयो भणिदो ॥ ४ ॥ यथा ते नभःप्रदशा तथा प्रदशा भवन्ति शाणाम् । • अप्रदेश. परमाणु तेन प्रदेशोदभवो भणित ॥ ४७ ॥ अन्वयसहित सामान्यार्थ-(जध ) जेमे (ते णभष्पदेमा) आकाशद्रव्यके वे अनन्त प्रदेश होते है ( तधप्पदेसा सेसाणं हवति ) तैसे ही धर्मादि अन्य द्रव्योंके प्रदेश होने है । (पग्माणू अपदेसो) एक अविभागी पुद्गलका परमाणु बहुप्रदेशी नही है (तेण) उस परमाणूसे (पदेसुब्भवो भणिदो) प्रदेशकी प्रगटता कही गई है। विशेपार्थ-एक परमागु जितने आकाशके क्षेत्रको रोकता है उसको प्रदेश कहते है उस परमाणुके दो आदि प्रदेश नहीं है । इस प्रदेशकी मापसे आकाश व्यकी तरह शुद्ध बुद्ध एक ' स्वभाव,परमात्म द्रव्यको आदि लेकर शेष द्रव्योके भी प्रदेश होते हैं । इनका विस्तारसे कथन आगे करेंगे। । भावार्थ-इस गाथामें आचार्य ने यह बताया है कि द्रव्योके माप करनेका गन प्रदेश है । जितने आकाशके क्षेत्रको एक पुद्गल Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४] श्रीप्रवचनसारटोका । परमाणु रोकता है उसको प्रदेश कहते हैं। इस मापसे यदि द्रव्योको 'मापा जावे तो आकाशके अनंत, धर्म द्रव्यके असंख्यात, अधर्म द्रव्यके असंख्यात, पुद्गलके संख्यात, असंख्यात, अनंत व हरएक जीवके असंख्यात प्रदेश मापमें आवेंगे | काल द्रव्यका मात्र एक प्रदेश । ही रहता है । यद्यपि हरएक जीवके असख्यात प्रदेश हैं तथापि यह जीव शरीरके प्रमाण संकुचित रहता है। केवल समुद्घातमें प्रदेश लोकव्यापी होते हैं । यह जीव बालकके शरीरमें छोटे प्रमाणका होता है। ज्यों २ बालक बढ़ता जाता है जीवके प्रदेश भी फेलते जाते हैं । इसके शरीरप्रमाण व संकोचने 'फेलनेकी क्रिया हम सबको प्रत्यक्ष प्रगट है। शरीरप्रमाण आत्मा है इसीसे शरीरके हरएक भागमें ज्ञान है व दुःख सुखका अनुभव है ॥ ४७॥ इस तरह पांचवें स्थलमें स्वतंत्र दो गाथाएं कहीं। उत्यानिका-आगे काल द्रव्यके दो तीन आदि प्रदेश नहीं हैं मात्र एक प्रदेश है इसीसे वह अप्रदेशी है ऐसी व्यवस्था करते हैं समओ दु अप्पदेसो पदेसमेत्तस्स दव्यजादस्स । वदिवददो सो वदि पदेसमागासव्वस्स ॥ ४८ ॥ समयस्त्वप्रदेशः प्रदेशमात्रस्य द्रव्यजातस्य । व्यतिपततः स वर्तते प्रदेशमााशद्रव्यस्य ॥ ४८ ॥ • अन्वयसहित सामान्यार्थ-(समओ दु अप्पदेसो) काल द्रव्य-, निश्चयसे अप्रदेशी है (सो) वह काल द्रव्य (पदेशमेत्तस्स दव्वनादस्स) प्रदेश मात्र द्रव्यरूप परमागुके ( आगांसदव्वस्स पदेसम् ) आकाश द्रव्यके प्रदेशको (वदिवददो) उल्लंघन करनेसे ( वट्टदि), वर्तन करता है। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [१९५ विशेषार्थ:-समय नामा पर्यायका उपादान कारण कालाण है इसमे कालाणुको समय कहते हैं । वह कालाणु दो तीन आदि प्रदेगोंमे रहित मात्र एक प्रदेशवाला है इससे उसको अप्रदेशी कहते है । वह कालाणु पुद्गल द्रव्यकी परमाणुकी गतिकी परिणति रूप सहकारी फारणसे वर्तन करता है । हरएक कालाणुमे हरएक लोकाकागका प्रदेश व्याप्त है । जब एक परमाणु मदगतिसे ऐसे पास वाले प्रदेशपर जाता है तब इसकी गतिके सहायसे काल द्रव्या वर्तन करता हुआ समय पर्यायको उत्पन्न करता है | जैसे स्निग्ध रूम गुणके निमित्तसे पुगलके परमाणुओंका परस्पर बन्ध होजाता है इस तरहका बध कालाणुओका कमी नहीं होसक्ता है इसलिये कालाणुको अप्रदेगी कहते हैं। यहां यह माव है कि पुद्गल परमाणुका एक प्रदेश तक गमन होना ही सहकारी कारण है, अधिक दूर तक जाना सहकारी कारण नहीं है इससे भी ज्ञात होता है कि कालाणु द्रव्य एक प्रदेशरूप ही है। भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने काल द्रव्यकी वर्तनाको व उसके एक प्रदेगीपनेको समझाया है | श्री अमृतचन्द्र आचार्यकी सस्तवृत्तिका यह माव है कि कालाणु द्रव्य अपदेशी है, वह पुद्गल द्रव्यकी तरह व्यवहारसे भी बहुत प्रदेशी नहीं है क्योकि वह कालाणु द्रव्य आकाश द्रव्यके प्रदेशोके प्रमाण असंख्यात द्रव्य हैं, रत्नकी राशिके समान फेले हुए हैं तथापि वे परम्पर कभी मिलते नहीं हैं। एक एक आकाशके प्रदेगको व्याप्त करके कालाणु ठहरे हुए है। नए पुद्गल परमाणु मढ गतिसे एक कालाणु व्याप्त आकारा प्रदेशमे निकटवर्ती कालाणु व्याप्त आकाश प्रदेशपर जाता है तब Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीप्रवचनसारीका। काल द्रव्यकी वर्तना होती है अर्थात उसकी समय पर्याय प्रगट होती है। श्री जयसेनाचार्य और अमृतचन्द्राचार्य दोनोंकी वृत्ति-' योसे यही बात प्रगट होरही है कि जैसे आकाशादि पांच द्रव्योंकी परिणतियोंके या पर्यायोंके पलटनेमें काल द्रव्य सहकारी उदासीन कारण है । यद्यपि वे पांचों ही द्रव्य अपनी शक्तिसे ही परिअमन करते हैं तैसे ही काल द्रव्यकी वर्तना अर्थात् समय समय परिणमनेमें पुद्गल परमाणुका एक कालाणु व्याप्त आकाशके प्रदेशसे दूसरे कालाणु व्याप्त आकाशके प्रदेशपर मंदगतिसे जाना सहकारी कारण है। उपादान कारण तो स्वयं कालद्रव्यकी शक्ति है। हरएक कार्यके लिये दो कारणोकी आवश्यक्ता है'उपादान और निमित्त । पांचों द्रव्योंकी पर्यायोके होनेमे उपादान कारण वे स्वयं हैं परन्तु कालद्रव्य निमित्त सहकारी है। इसी तरह कालद्रव्यके वर्तमानमें उपादान कारण कालाणु है और सहकारी निमित्तकारण पुद्गल परमाणुका मंदगमन है। कालद्रव्यके वर्तनको ही समयकी प्रगटता या समय पर्याय कहते है । कालद्रव्यको यदि लोकाकाश प्रमाण अखंडद्रव्य माना जाता तो कालद्रव्यकी वर्तना नही हो सक्ती थी और न समय पर्याय ही उत्पन्न होती। आकाशद्रव्य तो अखंड है, उसके प्रदेश भिन्न २ नहीं हैआकाशमे प्रदेशोंकी कल्पना मात्र मापकी अपेक्षासे है। कालाणु अलग अलग होनेसे ही एक परमाणु मरगतिसे एक कालाणु व्याप्त प्रदेशसे दूसरे पर जा सक्ता है। अखंड कालद्रव्य लोकाकाशके बराबर मानते तो परमाणुझी नियमित मंदगति नहीं होती तब कालकी समय पर्य.य नही पैदा होसक्ती । दो Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विताय खड। [१७ खंभे भिन्न २ होने पर ही एक पग एकसे उठाकर दूसरेपर नियमित रूपसे रक्खा जा सक्ता है परन्तु यदि चौरस जमीन हो तो एक नियमित रूपसे पग नही पड़ सक्ता है-कभी अधिक क्षेत्र उल्लंघा नायगा कभी कम । इसी तरह कालाणु अलग अलग हैं तब ही परमाणुकी नियमित मंदगति संभव है । इस गतिकी सहायतासे ही कालको समयनामा पर्याय होती है। इसलिये काल द्रव्यका एक प्रदेशपना सिद्ध है । इस विचारसे यह बात भी समझमे आनाती है कि लोकाकाशमें परमाणु भी भरे हैं और वे सब हलनचलन करते रहते है। एक परमाणुका कुछ हिलना ही एक कालाणुसे अन्य कालाणुपर जाना है । यही सहायक कारण है जिससे लोकाकाश व्याप्त सर्व कालाणु सदा परिणमन करते रहते है। परमाणु हलन चलन करते कहते हैं अर्थात् चल हैं इसका प्रमाण श्री गोम्मटसार जीवकाडमें इसतरह दिया गया है-- पोगलदवम्हि अणू सखेज्जादी हवति चलिदा हु। चरिममहक्खधम्म य चलाचला होति हु पदेसा ॥५९२॥ भावार्थ-पुद्गलद्रव्यमे परमाणु तथा संख्यात असंख्यात आदि अणुके नितने स्कध है वे सभी चल है, किन्तु एक अतिम महा स्कंध चलाचल है क्योकि उसमें कोई परमाणु चल हैं, कोई परमाणु अचल है । परमाणुसे लेकर पुद्गल स्कधके २३ भेद हैं। उनमेंसे तेईसवा भेद महास्कंध हैं उसको छोडकर अणु, वं संख्याताणुवर्गणा, असंख्याताणुवर्गणा, अनन्ताणुवर्गणा, आहारदगणा, तैनसवर्गणा, भाषावर्गणा, मनोवर्गणा, कार्माणवर्गणा आदि वाईसवर्गणाएं सब चलरूप हैं-हलनचलन करती रहती हैं। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८] श्रीप्रवचनसारटीका । तात्पर्य यह यह है कि कालद्रव्यके स्वभावको अपने आमासे भिन्न जानकर अपने निज ज्ञानानन्दमई स्वभावमे ही अप. नेको निजानन्द लाभके लिये तन्मय होना योग्य है ।। ४८ ।। ___उत्थानिका-आगे पूर्व कहे हुए काल पदार्थके पर्याय स्वरूपको और द्रव्य स्वरूपको बताते हैं: वदिवददो तं देसं तस्सम समओ तदो परो पुच्चो । जो अंत्थी सो कालो समओ उप्पण्णपद्धसी ॥ ४६॥ व्यतिपततरत देश तत्समः समयरततः परः पूर्वः । योऽर्थः त काल: समय उत्पन्नप्रध्वंसी ॥ ४९ ॥ अन्वय सहित सामान्यार्थः-(तं देस) उस कालाणुसे व्याप्त आकाशके प्रदेशपर ( वदिवददो) मंदगतिसे जानेवाले पुद्गल परमाणुको (तस्सम समओ) जो कुछ काल लगता है उसीके समान समय पर्याय है । (तदो परो पुन्यो जो अत्थो) इस समय पायके आगे और पहले जो पदार्थ है (सो कालो) वह काल द्रव्य है । (समओ उम्पण्ण पद्धंसी) समय पर्याय उत्पन्न होकर नाश होनेवाली है। विशेषार्थः-जब तक एक पुद्गलका परमाणु मंदगतिसे एक कालाणुव्याप्त आकाशके प्रदेशसे दूसरे कालाणु व्याप्त आकाशके प्रदेशपर आता है तबतक उसमे जो काल लगता है उसीके समान कालाणु द्रव्यकी सूक्ष्म समय नामकी पर्याय होती हैयही व्यवहारकाल है। कालद्रव्यकी पर्यायका यह स्वरूप कहा गया। इस समय पर्यायके उत्पन्न होनेके पहले जो अपनी पूर्व पूर्व समय पर्यायोमे अन्वय रूपसे बराबर चला आरहा है व आगामी कालमे होनेवाली समय पर्यायोमें अन्वय रूपसे बरावरा चला Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड | [ gee जायगा वह कालद्रव्य नामा पदार्थ है । यद्यपि यह समय पर्याय 1 पूर्वकालकी और उत्तरकालकी समयोकी संतानकी अपेक्षा सख्यात असंख्यात तथा अनन्त समय रूप है तथापि वर्तमानकालका समय उत्पन्न होकर नाश होनेवाला है, किन्तु भो पूर्वमे कहा हुआ द्रव्यकाल है यह तीनो कालोमे स्थाई होनेसे नित्य है । इस तरह का द्रव्यको पर्यायस्वरूप और द्रव्यस्वरूप जानना योग्य है । - अथवा इन दो गाथाओसे समयरूप व्यवहार कालका व्याख्यान किया जाता है । निश्चय कालका व्याख्यान तो "उप्पाढो पव्भसो" इत्यादि तीन गाथाओसे आगे करेंगे । सो इस तरह पर है कि प्रदेशमात्र पुद्गल द्रव्यरूप परमाणुकी मदगतिसे किसी विवक्षित एक आकाशके प्रदेशपर जाते हुए जो वर्तन करती है वह निश्चय कालकी समय पर्याय अग रहित है । यह पहली गाथाका व्याख्यान है । वह परमाणु उस आकाशके पदेशपर जब पतन करता है तत्र उस पुद्गल परमाणुके मन्दगतिसे गमनमे जो काल लगा है उसीके समान समय है इसलिये एक समय अश रहित है । अर्थात् समय सबसे छोटा काल है । इस तरह वर्तमान समय कहा गया । अब आगे पीछेके समयोको कहते है कि इस पूर्वमे कहे हुए वर्तमान समयसे आगे कोई समय होयगा तथा पूर्वमे कोई समय हो चुका है इस प्रकार अतीत, अनागत, वर्तमानरूपसे तीन प्रकार व्यवहारकाल कहा जाता है । इन तीन प्रकार समयोमे जो कोई वर्तमानका समय है वह उत्पन्न होकर नाश होनेवाला है । अतीत और अनागत संख्यात, असख्यात और अनंत समय है । इस तरह स्वरूपके धारी कालके होते हुए भी यह जीव अपने Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २००] श्रीप्रवचनसारटीका। परमात्म तत्वको नहीं प्राप्त करता हुआ भूतकी अपेक्षा अनन्तकालसे. इस संसारसमुद्रमें भ्रमता चला आया है इसलिये ही अव इसके लिये अपना ही प्रमात्म तत्व सब तरहसे ग्रहण करने योग्य मानकर श्रद्धान करने योग्य है, व स्वसंवेदन ज्ञानसे जानने योग्य है तथा आहार, भय, मैथुन, परिग्रह संज्ञाको आदि लेकर सर्व रागादि मावोंको त्यागकर ध्यान करने योग्य है ऐसा तात्पर्य है। भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने स्पष्ट रूपसे काल द्रव्यकी सिद्धि की है । जिसमें उत्पाद व्यय ध्रौव्य हो उसीको द्रव्य कहते हैं। काल द्रव्यकी वर्तमान समय पर्यायका पुद्गल परमाणुकी निकटवर्ती कालाणुपर मंदगतिसे आने रूप सहकारीकारणसे उत्पन्न होना सो उत्पाद है । इस समयपर्यायके होते हुए पूर्व समयपर्यायका नाश होना सो व्यय है और जिसकी वह समयपर्याय थी व है व आगामी होगी वह कालद्रव्य प्रौव्य है। कालका गुण वर्तना है अर्थात् आप स्वयं बर्तन करके दूसरे द्रव्योके वर्तनेमें सहकारी कारण होना है-इस तरह कालद्रव्य सिद्ध है । वृत्तिकारने दूसरा अर्थ केवल व्यवहारकालकी अपेक्षासे किया है उसका भी भाव यह है कि वर्तमान समय पर्यायके सदृश अनंतानंत समय पर्याय भूतकालमे हो चुकी व अनन्तानन्त समय पर्याय भविष्यमें होंगी इन समस्त तीन कालवर्ती समयोंको व्यवहारकाल कहते हैं। समय पर्यायका उपादानकारण कालद्रव्य है निमित्तकारण पुद्गल परमाणुकी मंदगति है। इस मंदगतिमें जो कुछ समय लगता है वह सबसे छोटा समयरूप कालकी पर्यायरूप अंश है। यद्यपि एक परमाणुमें यह भी शक्ति है कि यदि वह शीघ्र गतिसे जावे तो Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [२०१ एक समयमें १४ राजू नासक्ता है तथापि उस समयके भाग नहीं हो सक्ते। जितना समय परमाणुको निकटके कालाणुपर आनेमें लगता है उतना ही समय उसको १४ राजू जानेमें लगता है। यह परमाणुकी विलक्षण शक्ति है। जैसे एक आकाशके प्रदेशकी यह विलक्षण शक्ति है कि एक परमाणुसे व्याप्त होनेपर भी अनंत अन्य परमाणुओंको स्थान दे सक्ता है और इस प्रदेशके अंश नहीं होते हैं वसे समयके अंश नहीं होसक्ते हैं। यह बात पहले भी कही गई कि कालाणुओको भिन्न २ माननेपर ही समय पर्याय होसक्ती है। मिन्न २ कालाणुओके होते हुए एक कालाणु परसे दूसरेपर जाते हुए समय पर्याय प्रगट होनी है। एक अखड लोकाकाग प्रमाण काल द्रव्य माननेसे नियमित गतिका अभाव होनेसे समय पर्याय नही होसक्ती । जैन आगममें जो काल द्रव्यका कथन है उसको अच्छी तरह निश्चय' करके यह काल अनादि अनन्त है ऐसा जानकर तथा अपने आत्माको अनादि कायसे संसारवनमें भटकता मानकर अब इसको मोक्ष मार्गमें चलानेके लिये निज शुद्धात्माका श्रद्धान, ज्ञान व अनुभव कराना चाहिये जिससे यह निज परमात्मस्वभावको पाकर कृतकृत्य और सिद्ध होजावे, यह अभिप्राय है ।। ४९ ॥ इस तरह कालके व्याख्यानकी मुख्यतासे छठे स्थलमे दो गाथाएं पूर्ण हुई। उत्थानिका-आगे जिसका पहले कथन किया है उस प्रदेशका स्वरूप कहते है: आगासमणुणिविट्ठ आगासपदेससण्णया भणिदं । । सव्वेसिं च अणूणं सकादि तं देदुमवकासं॥ ५० ॥ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M २०२] श्रीप्रवचनसारटोका। आकाशमनुनिविष्टमाकाशप्रदेशतरा भणितम् । . सर्वेषां चाणूना शनोति यहानुमक्काशम् ॥ ५० ॥ अन्वय सहित सामान्यायः-(अणुणिविटुं आगासम्) अविभागी पुद्गलके परमाणुद्वारा व्याप्त जो आकाश है उसको (आगासपदेससण्णया) आकागके प्रदेशकी संज्ञासे (भणिद) कहा गया है। तथा (त) वह प्रदेश (मव्वेसि च अणूण) सर्व परमाणु तथा सूक्ष्म स्कंधोंको (अवकास दे सक्कदि) जगह देनेको समर्थ है। विशेषार्थः-एक परमाणु द्वारा व्याप्त आकाशके प्रदेशमे यदि इतनी जगह देनेकी शक्ति नहीं होती कि वह अन्य परमाणुओंको व सूक्ष्म पदार्थोको जगह दे सक्ता है तो यह अनन्तानन्त जीवराशि और उससे भी अनन्तगुणी पुद्गल रागि किस तरह असंख्यात प्रदेशी लोकाकाशमे जगह पाते ?-इसको विस्तारसे पहले कह चुके है। यदि कोई शंका करे कि अखड आकाशद्रव्यके भीतर प्रदेशोका विभाग कैसे सिद्ध हो सक्ता है तो उसका समाधान करते हैं कि चिदानन्दमई एक स्वभावरूप निन आत्मतत्त्वमें परम एकाग्रता लक्षण समाधिसे उत्पन्न विकार रहित आल्हादमई एक रूप, सुख, अमृत रसके स्वादमें तृप्त दो मुनियोंके जोडेका ठहरनेका क्षेत्र एक है ग अनेक है ? यदि एक ही स्थान । है तब दो मुनियोका एकत्व हो जायगा सो ऐसा नहीं है । और यदि उनका क्षेत्र भिन्न२ है तव अखंड आकाशके भी प्रदेशोका विभाग करनेमे कोई विरोध नहीं आता है। भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने आकाशके प्रदेशकी सामर्थ्य बताई है । जिस आकाशको एक पुद्गलका परमाणु रोक सक्ता है। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड | [ २०३. उसे प्रदेश कहते हैं उसमें यह ताकत है कि अनन्त परमाणु छुटे हुए उतनी ही जगहमे आसते है इतना ही नही सूक्ष्म अनेक स्कंध भी समासक्ते हैं । उस परमाणुमे वाधा डालनेकी शक्ति नही है क्योकि परमाणु सूक्ष्मसूक्ष्म होता है । लोकाकाशके प्रदेश असख्यात हैं तथापि उसमें असख्यात कालाणु, धर्मद्रव्य, अधर्म द्रव्य, अनन्तानन्त जीव तथा उससे मी अनतगुणे पुद्गल समाए हुए है और सुखसे कार्य करते है । यह आकाशकी एक विलक्षण अवकाशदान शक्ति है तथा सूक्ष्म स्कध व परमाणुओमे भी यथासम्भव अवकाशदानशक्ति है। यह बात प्रत्यक्ष प्रगट है कि प्रकाशके पुद्गल स्थूल सूक्ष्म जातिके है। एक कमरेके आकाशमे यदि एक प्रकाश फैल जावे तो भी वहां हजारो दीपक जलाए जासक्ते हैं और उन सबका प्रकाश उतने ही कमरेमे समा जाता है । उस कमरेके आकाशने तथा स्थूल सूक्ष्म प्रकाशने अन्य प्रकाशके आने में कोई बाधा नही डाली । ऐसे प्रकाशसे गर्दा डालें तो भी समा जायगी । अनेक छोटे भी जगह मिल जगह मिल जायगी । मनुष्य - स्त्री तौ भी अवकाश मिल जायगा । यह कमरेका दृश्य ही इस बातका समाधान कर देता है कि लोकाकाशमे अनन्तानत द्रव्योंके अवकाश पानेमे कोई बाधा नहीं है । यद्यपि आकाश अखड है तथापि उसके पदार्थोकी अपेक्षा खंड कल्पना किये नासक्ते है जैसे घटाकाश, पटाकाश आदि । वृत्तिकारने युगल मुनियोको ध्यान मग्न अवस्था में दिखाया है कि उनके हरएकका क्षेत्र अलग २ ही माना जायगा तब ही वे दो भिन्न २ दीखेंगे | उन दोनोका एक क्षेत्र २ भरे हुए कमरेमे जन्तु घूमे उनको पुरुष बैठे उठे Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४] श्रीप्रवचनसारaai | नहीं होता । व्यवहारकी अपेक्षा असंख्यात प्रदेशोंकी कल्पना प्रयोजनभूत है । प्रदेशका स्वरूप श्री नेमिचन्द सिद्धान्त चक्रवर्तीने भी यही कहा है : जानदेय आयासं अविभागी पुग्गलावद्धं । त खु पदेस जाणे सत्यागृहाणदाणरिह || भावार्थ - जितने आकाशको अविभागी पुद्गल परमाणु रोकता "है वह प्रदेश है । उसमे सर्व परमाणुओको स्थान देनेकी सामर्थ्य है । ऐसा वस्तुका स्वरूप जानकर जगतके नाटकसे उदासीन रहकर निज आत्मतत्त्वके अनुभवमें अपनी परिणतिको तन्मय करना चाहिये । उत्थानिका- आगे तिर्थक प्रचय और ऊर्ध्व प्रचयका निरू'पण करते हैं एको व दुगे बहुगा संखातीदा तदो अनंता य । दव्वाणं च पसा संति हि समयत्ति कालस्स ॥ ५१ ॥ एकशे वा द्वौ बहवः सख्यातीतस्ततोऽनन्ताश्च । द्रव्याणा च प्रदेशाः सन्ति हि समया इति वालस्य ॥५१॥ अन्वय सहित सामान्यार्थ - ( दव्वाणं पदेसा ) काल द्रव्यके विना पांच द्रव्योके प्रदेश (एको व दुगे च बहुगा संख्यातीदा तदो अणता य संति) एक या दो या बहुत, या असंख्यात तथा अनन्त यथायोग्य होते हैं (कालस हि समयत्ति ) परन्तु निश्चयसे एक "प्रदेशी काल द्रव्यके समय एकसे अनन्त तक होते हैं । विशेषार्थ - मुक्तात्मा पदार्थ में एकाकार व परम समता रसके भावमें परिणमनरूप परमानन्दमई एक लक्षण सुखामृत से भरे हुए Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २०५ और केवलज्ञानादि प्रगटरूप अनन्त गुणोके आधारभूत, लोकाकाशप्रमाण शुद्ध असंख्यात प्रदेशोका जो प्रचय या समूह या समुदाय या राशि है उसको तिर्यक् प्रचय, तिर्यक सामान्य, विस्तार सामान्य या अक्रम अनेकान्त कहते है । यह प्रदेशोका समुदायरूप तिर्यक् प्रचय जैसे मुक्तात्मा द्रव्यमें कहा गया है तैसे कालको छोडकर अन्य द्रव्योंमें अपने अपने प्रदेशोकी संख्या के अनुमार यिक् प्रचय होता है ऐसा कथन समझना चाहिये । तथा समय समय वर्तनेवाली पूर्व और उत्तर पर्यायोकी सन्तानको ऊर्ध्व 'प्रचय, ऊर्ध्व सामान्य, आयत सामान्य या क्रम अनेकान्त द्वितीय खंड | " कहते है । जैसे मोतीकी मालाके मोतियोको क्रमसे गिना जाता है { इसी तरह द्रव्यकी समय २ मे होनेवाली पर्यायाको क्रमसे गिना जाता है । इन पर्यायोके समूहको ऊर्ध्व सामान्य कहते है । यह सत्र द्रव्योमे होता है । किन्तु कालके सिवाय पाच द्रव्योकी पूर्व उत्तर पर्यायों का सन्तान रूप जो ऊर्ध्व प्रचय है उसका उपादान कारण त अपना अपना द्रव्य है परंतु कालद्रव्य उनके लिये प्रति समयमे सहकारी कारण है । परतु जो कालद्रव्यका समय सन्तान रूप ऊर्ध्व प्रचय है उसका काल ही उपादान कारण है और काल ही सहकारी कारण है । क्योकि कालसे भिन्न कोई और समय नहीं है । कालकी जो पर्यायें है वे ही समय है ऐसा अभिप्राय है । भावार्थ - एक समयमे ही विना क्रमके अनेक प्रदेशोके समूहका बोध करानेवाला विस्तार तिर्यक् प्रचय है । अनत समयोमे क्रमसे होनेवाली पर्यायोकी राशिका बोध करानेवाला ऊर्ध्व प्रच है । जैसे एक मैदान है और एक सीढ़ी है। मैदानकी चौड़ाई 1 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ ] श्रीप्रवचनसारटोका । तियेक प्रचय है। सीढ़ीमें अनेक सीढ़ीयाँ ऊपर नीचे हैं, क्रम क्रमसे चली गई हैं । लम्बाई रूप हैं । इसको उच्च प्रचयका दृष्टान्त कहते हैं । कालद्रव्य एक प्रदेशवाला है इससे उसमें तिर्यक् प्रचय नही है । अन्य द्रव्य बहुप्रदेशी हैं। इससे उन प्रदेशोंके समुदायको तिर्यक् प्रचय कहते है। पुद्गलके स्कंध संख्यात, असंख्यात या अनेक प्रदेशी परमाणुओकी अपेक्षासे हैं, परमाणुमे मिलनशक्ति है इससे बहुप्रदेशी है । धर्म, अधर्म व एक जीव असंख्यात 1 प्रदेशी हैं। यद्यपि जीव संकोच विस्तार के कारण छोटे बडे शरीरप्रमाण रहते हैं तथापि असंख्यात प्रदेशोंके समूहसे अलग नहीं होते, आकाश अनन्त प्रदेशी है । एक ही समय में द्रव्योंके फैला - वका ज्ञान तिर्यक् प्रचयसे होता है । सब ही द्रव्य परिणमनशील हैं । उनमें क्रमसे पर्यायें होती रहती है, एक समय में एक पर्याय होती है पिछली नष्ट होजाती है। यदि तीन कालकी अपेक्षा अगली व पिछली पर्यायोका जोड़ अपने ध्यानमे लेवें तो अनंत पर्यायोका समूह बुद्धिमे झलकेगा, इस समूहको ऊर्ध्व प्रचय कहते हैं। कालके विना पांच द्रव्यों में ऊर्ध्वं प्रचय यद्यपि उन द्रव्योके ही उपादान कारणरूप परिणमनसे होता है तथापि उनका बोध काकी समय नामा पर्यायोंके द्वारा होता है । कालकी समय पर्यायें इसी सहकारी कारण से अन्य द्रव्योंकी पर्यायोका ज्ञान होता है । काल द्रव्यकी समय पर्यायोके समूहका जो ऊ प्रचय' है उसका उपादान कारण जैसे काल है वैसे उसका सहकारी कारण भी काल है। क्योंकि समय कालकी ही पर्याय है। 1 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [२०७ अर्थात् जब समयोको ध्यानमें लेकर ही ऊर्ध्व प्रचयका ज्ञान होता हैं तब यह स्वतः सिद्ध है कि अन्य द्रव्योंके ऊर्ध्व प्रचयको कालका ऊर्ध्व प्रचय सहकारी कारण है किन्तु काल द्रव्यके ऊर्च. प्रचयका ज्ञान करानेको कालके समय ही सहकारी कारण है इसलिये वही उपादान तथा वही निमित्त है । क्योंकि समय काल द्रव्यकी ही पोय हैं कालके सिवाय अन्य किसी द्रव्यकी पर्यायें नहीं हैं। ___यहां यह समझना चाहिये कि ऊर्ध्व प्रचयके भावके लिये ऐसा कहा गया है कि कालके ऊर्ध्व प्रचयके लिये काल ही उपादान य काल ही सहकारी कारण है। काल द्रव्यकी पर्याय जो समय है उसका उपादान कारण काल द्रव्य है किन्तु उस समय पर्यायका निमित्त कारण पुद्गल परमाणुका एक कालाणुसे दूसरे कालाणुपर मदतासे गमन है नैप्सा पहले कह चुके हैं। ____ कालमें कितनी समय पर्याय होती है इसकी कल्पनाके लिये परमाणुको कोई क्रियाकी आवश्यक्ता नहीं है। इसके लिये तो मात्र कालहीसे काम चल सक्ता है । जैसे और द्रव्योंकी पर्यायों के गिननेके लिये कालके समय कारण हैं वैसे कालके पर्यायोको गिननेके लिये कालके समय ही कारण हैं । इसलिये कालके उद्ये प्रचयके लिये कालको ही उपादान और निमित्त कहा गया है । भाव यह है कि सर्व द्रव्योमें उर्ध्व प्रचय और तिर्यक् प्रचय है, मात्र + काल द्रव्यमें तिर्यक् प्रचय नहीं है इसीसे-पाच द्रव्य अस्तिकाय हैं, साल अस्तिकाय नहीं है ॥५१॥ इसतरह सातवें स्थलमे स्वतंत्र दो माथाएं पूर्ण हुई। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ ] श्रीप्रवचनसारटीका । . उत्थानिका- आगे समय संतानरूप ऊर्ध्व प्रचयका अन्वयी - रूपसे आधारभूत काल द्रव्यको स्थापन करते हैं । उप्पादो पद्धसो विजदि जदि जस्स एकसमयम्मि । समयस्त - सोवि समओ सभावसमवहिदो हवदि ॥५२॥ उत्पाद ः प्रध्वसो विद्यते यदि यस्यैकसमयं । समयस्य सोऽपि समय: स्वभावसमवस्थितो भवति ॥ ५२ ॥ . 4 t अन्वय सहिन सामान्यार्थ - (जस्स समयस्स) समय पर्यायको उत्पन्न करनेवाले जिस कालाणु द्रव्यका (एक समयम्मि) एक वर्तमान समय में (जदि) जो (उप्पादो) उत्पाद तथा (पढ़सो) नाश (विज्जदि) होता है ( सो वि समओ) सो ही काल पदार्थ ( सभावसमवद्विदो हवदि) अपने स्वभावमें भले प्रकार स्थित कहता है । . विशेषार्थ - कालाणु द्रव्यमें पहली समय पर्यायका नाश, नई समय पर्यायका उत्पाद जिस वर्तमान समयमे होता है, उसी समय इन दोनो उत्पाद और नाशका आधाररूप कालाणुरूप द्रव्य धव्य रहता है । इसतरह उत्पाद व्यय श्रन्यरूप स्वभावमई श्रौव्य 5 1 सत्तारूप अस्तित्व इस काल द्रव्यका भप्रकार सिद्ध है । जैसे एक हाथ की अंगुलीको टेढ़ा करते हुए जिस 'वर्तमान क्षणमें ही वक अवस्थाका उत्पाद हुआ है उसी ही क्षण में उसी ही अंगुली द्रव्यकी पहली सीधीपनेकी पर्यायका नाश हुआ है परंतु इन दोनोकी आधारभूत अंगुली द्रव्य ध्रौव्य है । इसतरह द्रव्यकी सिद्धि होती है अथवा जिस किसी आत्मद्रव्य में अपने खभावमई सुखका जिस क्षण में उत्पाद है उसी ही क्षण में, उसके पूर्व अनुभव होनेवाले आकुलतारूप दुःख पर्यायका नाश है परंतु इन दोनोके Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड | २०६ आधारभूत परमात्म द्रव्यका धौव्य है । इसतरह द्रव्यकी सिद्धि है अथवा एक आत्मद्रव्यमे जिस समय मोक्ष पर्यायका उत्पाद है उस ही समय रत्नत्रयमई मोक्ष मार्गरूप पर्यायका नाश है परन्तु इन दोनोंके आधारभूत परमात्मद्रव्यका धौव्य है । इस तरह द्रव्यकी सिद्धि है । तैसे ही जिम काल द्रव्यकी जिस क्षण बर्तमान समयरूप पर्यायका उत्पाद है उसी काल द्रव्यकी पूर्व समयकी पर्यायका नाश है परन्तु इन दोनोंके आधाररूप अंगुली द्रव्यके स्थानमें कालाणु द्रव्यका ध्रौव्य है इस तरह काल द्रव्यकी सिद्धि है । / भावार्थ - इस गाथा की अमृतचद्र आचार्यकृत टीका भी बहुत उपयोगी है इसमे उसका सार यहा दिया जाता है, कि समय निश्चयसे काल पदार्थका वृत्यश अर्थात् वर्तनाका अश या पर्याय है । जब पुगलका परमाणु मंदगतिसे पूर्व कालाणुको छोडकर आगेकी कालाणुपर जाता है तब हम सहकारी कारणके निमित्तसे अवश्य कालाणु द्रव्यमे पूर्व समय पर्यायका नाश और वर्तमान समय पर्यायका उत्पाद होता है । संस्कृत शब्द हैं " समयोहि समयपदाI र्थस्य वृत्त्यंश तस्मिन् कस्याप्यवश्यमुत्पादप्रव्यसौ संभवत, परमाणोर्व्यतिपातोत्पद्यमानत्वेन कारणपूर्वत्वात् । " यदि कोई कहे कालाकी जरूरत नही है, उत्पाद और नाश समय पर्यायका ही होता है तो उसको विचारना चाहिये कि उस एक समय पर्यायके उत्पाद और नाश एक कालमें होते है कि क्रमसे होते हैं । यदि कहो कि एक कालमें एक साथ एक समय पर्यायके उत्पाद व्यय होते हैं तो यह बात ठीक नहीं है क्योकि एक समय पर्यायके भीतर दो विरुद्ध स्वभाव नही होसक्ते कि वही एक क्षणमे जन्मे .v 1 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१०] श्रोप्रवचनसारटोका । वही नाश हो । यदि कहो कि समय पर्यायमें उत्सद व्यय क्रमसे होते है तो यह भी संभव नहीं है क्योकि समय अत्यन्त सुक्ष्म है उसके विभाग नहीं होते और न वह स्थिर रहना है। इसलिये जिसमें जत्र-वर्तमान समय पर्यायका उत्पाद होता है तब ही पूर्व समय पर्यायका व्यय होता है। इन दोनो अवस्थाओंमें वर्तनेवाला कोई अवश्य मानना पड़ेगा । सो ही वह समय पदार्थ है । उस काल द्रव्यके. मीतर एक ही वर्तनाके अंशमे दोनों उत्पाद और व्यय संभव हैं अर्थात जब काल द्रव्यने वर्तन किया तब पूर्व ममय पर्यायका नास होना ही नवीन समय पर्यायका उत्पाद होना होगया इस तरह सहजमें उत्पाद व्यय सिद्ध होगए। जब ऐसा है तब काल पदार्थ निरन्वय नहीं माना जासक्ता अर्थात् कालद्रव्य अन्वय रूपसे सदामानना पडेगा, क्योकि जो पूर्व और उत्तर समयोसे विशिष्ट होगा उसीमें ही एक समयमें एक साथ पूर्व समयका नाश व उत्तर समयका उत्पाद होगा। यदि कालद्रव्य स्वभावसे नाश व व्यय नहीं होवे तो धौव्य भी न होवे, क्योंकि जिसमे पर्यायोंका परिणमन होगा वही प्रौव्य होगा, तथा जो धौव्य होगा उसीमें परिणमन होगा। इन तीनोंका एक काल होना सिद्ध है इसलिये काल द्रव्यके ध्रौव्य होते हुए ही उसमें पूर्व समयका नाश और उत्तर समयका उत्पाद भले प्रकार सिद्ध होसक्ता है। ऐसा ही काल पदार्थका स्वभाव मिद्ध है अर्थात् वह काल द्रव्य पूर्व उत्तर समयकी अपेक्षा उत्पाद व्यय करता हुआ ही ध्रौव्य रहता है । इसीमे काल वास्तविक द्रव्य है । इस गाथामें भले अगर गल द्रव्यकी सिद्धि है तथा वृत्तिकार श्री अमृतचन्द्राचार्यने यहां भी यह स्पष्ट कर दिया है कि समय पर्यायका सहकारी Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड । [२११. कारण पुद्गल परमाणुका हिलना है अर्थात् एक कालाणुसे निकटवर्ती कालाणुपर आना है। समय पर्याय कालद्रव्यके विना माने नहीं हो सक्ती है । जैसे आत्माको ध्रौव्य मानते हुए ही उसमें देव पर्यायका नाश और मनुष्य पर्यायका उत्पाद एक समयमें विग्रह गतिकी अपेक्षा मनुष्य आयु कर्मके उदयके कारण सिद्ध होते हैं तैसे ही कालद्रव्यको मानते हुए ही उसमें पूर्व समय पर्यायका नाश और वर्तमान पर्यायका उत्पाद सिद्ध होसक्ता है। वही पर्याय उपजे वही नष्ट हो यह असंभव है। किसी आधाररूप द्रव्यके होते ही उसमें अवस्थाएं होसक्ती हैं । जैसे सुवर्ण द्रव्यको मानते हुए ही सोनेकी दशा पलट सक्ती है, वह कुंडलसे कंकणकी पर्यायमें बदला जा सकता है अर्थात् सुवर्णके स्थिर रहते हुए कुंडल पर्यायको नाशकर कंकण पर्याय पैदा होती है । कुंडल पर्याय मात्रमें नाश और उत्पाद नही बन सक्ते। जब वह नाश होगा तब कुंडलका जन्म नहीं होगा । सुवर्णके रहते हुए ही जब कुन्डल नष्ट होता है तब कंकण पैदा होता है। वास्तवमें अन्वयरूपसे वर्तनेवाले सुवर्णके स्थिर होतेहुए ही उसमें दो भिन्नर समयोंकी अपेक्षा दो भिन्न पर्यायें होसक्ती हैं। एक क्षणमें तो एक ही पर्याय झलकेगी, दो नहीं रह सक्ती क्योंकि वर्तमानकी पर्याय पूर्व पर्यायको नाश कर ही प्रगट हुई है । वास्तवमें देखा जाये तो हरएक द्रव्य अपने भीतर अपनी अनन्त पर्यायोको शक्ति रूपसे रखता है उनमें से एक क्षणमें एक पर्याय प्रगट होती है तब और सब मात्र शक्ति रूपसे रहती हैं । पर्यायोंका तिरोभाव आर्विभाव हुआ करता हैजो नष्ट हुई उसका तिरोभाव जो प्रगटी उसका आर्विभाव होता Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ ] श्रीप्रवचनसारटोका । है । यही बात काल द्रव्य में है । वह कालद्रव्य रूप कालाणु अपने भीतर होनेवाली अनंत समयपर्यायोंको शक्ति रूपसे रखता है। उनहीमे से एक क्षणमे एक समयपर्याय प्रगट होती है अन्य सब अप्रगट रहती हैं। श्री तत्त्वार्थसूत्रमें भी कहा है कालश्च (५-३९), सो अनन्त समयः (५-४० ) । भाव यही है कि काल द्रव्य है सो अनन्त समयोंको रखता है । सारांश यही निकलता है कि कालद्रव्यकी सत्ता सिद्ध है । विना कालके अस्तित्वके समय आकाश फूलके समान अवस्तु है । जिस समयको व्यवहारकाल कहते हैं वह समय कालद्रव्यकी पर्याय है यही भले प्रकार सिद्ध है ||१२|| उत्थानिका- आगे यह निश्चय करते हैं कि जैसे पूर्वमे कहे प्रमाण एक वमान समयमे काल द्रव्यका उत्पाद व्यय धौन्य सिद्ध किया गया तैसे ही सर्व समयोमें होता है 1 एकम्मि संति समये संभवठिदिणाससण्णिदा अट्ठा । समयस्स सव्वकालं एस हि कालाणुसन्भावो ॥ ५३ ॥ एकस्मिन्सन्ति समये सभवस्थितिनाशसंज्ञिता अर्थ. । समयस्य सर्वकाल एष हि कालागुसद्भावः ॥ ५३ ॥ अन्वयसहित सामान्यार्थ - ( एकम्मि समये ) एक समयमें ( समयस ) कालद्रव्यके भीतर ( सभवठिदिणासस णिदा अट्टा ) उत्पाद, व्यय और प्रौव्य नामके स्वभाव ( सति ) हैं (एस हि ) निश्चय करके ऐमा ही (कालाणुसम्भावो) कालाणु द्रव्यका स्वभाव (सव्वकाल) सदाकाल रहता है । विशेषार्थ. - जैसे पहले अंगुली द्रव्य आदिके दृष्टातसे एक ' समयमे ही उत्पाद और व्ययका आधारभूत होनेसे एक विवक्षित वर्तमान समय में ही काल द्रव्यके उत्पाद व्यय धौव्यपना स्थापित X) Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - द्वितीय खंड। [२१३ किया गया तैसा ही सर्व समयोमें जानना योग्य है । यहां यह तात्पर्य निकालना चाहिये कि यद्यपि भूतकालके अनन्त समयोंमें दुर्लम और सब तरहसे ग्रहण करने योग्य सिद्धगतिका काललब्धिरूपसे बाहरी सहकारीकारण काल है तथापि निश्चय नयसे अपने ही शुद्ध आत्माके तत्वका सम्यक श्रद्धान, ज्ञान और चारित्र तथा सर्व परद्रव्यकी इच्छाका निरोधमई लक्षणरूप तपश्चरण इस तरह यह जो निश्चय चार प्रकार आराधना यही उपादान कारण है, काल उपादान कारण नहीं है इससे कालद्रव्य त्यागने योग्य है यह भावार्थ है। भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने स्पष्ट रूपसे कह दिया है कि काल द्रव्य नित्य है । एक कालाणु एक स्वतंत्र काल द्रव्य है। । इस तरह असंख्यात कालाणु असंख्यात काल द्रव्य है । द्रव्य उसे ही कहते हैं जो सदा ही प्रवाह रूपसे उत्पाद व्यय ध्रौव्य स्वभाचको रखता है । यह लक्षण भले प्रकार काल द्रव्यमें सिद्ध किया गया । काल द्रव्यका वर्तना गुण है उस वर्तना गुणकी पर्याय समय है। पर्याय एक समय मात्र रहती है । हरएक समयमें जब एक पर्याय पैदा होती है तव पुरानीको नाशकर ही पैदा होती है और पर्यायोका उत्पाद व्यय विना किसी आधार द्रव्यके नहीं हो सक्ता है। सुवर्णके रहते हुए ही उसकी ककणकी अवस्था बदलकर कुंटलरूप होसती है । इसी तरह कालाणु सदा ध्रुव बना रहता है । उसीमे समयपर्याय हर समय नई नई होती रहती है। इससे यह अच्छी तरह निश्चित है कि उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप काल द्रव्य है। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ ] श्रीप्रवचनसारटीका। ऐसे नित्य काल द्रव्यको स्वीकारकरके मात्र व्यवहार ही काल है निश्चय काल द्रव्य नहीं है इस वपनाको त्याग देना चाहिये । कोई स्वभाव या अवस्था क्सिी स्वभाववान या अवस्थावानके विना नहीं होसक्ते । समय नामका व्यवहार काल जब प्रसिद्ध है और वह क्षण क्षण नष्ट होनेवाला है तब वह अवश्य किसी द्रव्यकी पर्याय है ऐसा मानना होगा। जिसकी समयपर्याय है उस काल द्रव्यको अवश्य नित्य मानना पड़ेगा। इस तरह काल द्रव्यके कारण अनन्तानन्त समय वीत गए, अभीतक हमको सिद्ध समान शुद्ध आत्माका निज स्वभाव प्राप्त नहीं हुआ इसलिये हमको अपने इस मानव-जन्मके थोड़ेसे समयोको वहुत अमूल्य समझकर उनका उपयोग निश्चय सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप रूपी आत्मानुभव या आत्मध्यानमे लगाकर कर्मके बंधनोंको काटना और स्वतंत्र होनेका यत्न करना योग्य है ॥५३॥ उत्थानिका-आगे उत्पाद व्यय ध्रौव्यमई अस्तित्त्वमें ठहरे । हुए कालद्रव्यके एक प्रदेशपना स्थापित करते हैं जस्स ण संति पदेसा पदेसमेत्तं व तच्चदो णाहूँ। सुण्णं जाण तमत्थं अत्यंतरभूदमत्थीदो ॥ ५४ ॥ यस्य न संति प्रदेशाः प्रदेशमात्रं वा तत्त्वतो ज्ञातुम् । शून्यं जान हि तमथमर्थान्तरभूतमस्तित्वात् ॥ ५४ ॥ अन्वय सहित मामान्यार्थः-(जस्स पदेसा ण संति ) जिस किसी पदार्थके बहुप्रदेश नही है (व पदेसमत्तं तच्चदो णा९) अथवा जो वस्तु अपने स्वरूपसे एक प्रदेश मात्र भी नहीं जानी जाती है (तमत्थं सुण्णं जाण) उस पदार्थको शून्य जानो क्योंकि Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड | [ २१५ ( अत्थीदो अत्यंतर भूदम् ) वह उत्पाद व्यय ध्रौव्य रूप अस्तित्त्व से अर्थातरभूत अर्थात् भिन्न होजायगा क्योकि उसमे एक प्रदेश भी नही है जिससे उसकी सत्ताका बोध हो । विशेषार्थ. - जैसा पूर्व सूत्रोमे कहा है उस प्रकार काल पढार्थमे उत्पाद व्यय धौव्यरूप अस्तित्व विद्यमान है । यह अस्तित्व प्रदेशके बिना नही घट सक्ता है। जो प्रदेशवान है वही काल पदार्थ है । कोई कहे कि कालद्रव्य के अभाव मे भी उत्पाद व्यय धौव्य घट जायगा ? इसका समाधान करते है कि ऐसा नही हो सक्ता । जैसे अगुली द्रव्यके न होते हुए वर्तमान वक्र पर्यायका जन्म और भूतकालकी सीधी पर्यायका विनाश तथा दोनोंके आधाभूतका धौव्य किसका होगा ? अर्थात् किसीका भी न होगा तैसे ही कालद्रव्य के अभाव मे वर्तमान समय रूप उत्पाद व भूत समय रूप विनाश व दोनोंका आधार रूप ध्रौव्य किसका होगा ? किसीका नही होसकेगा । यदि सत्तारूप पदार्थको न माने तो यह होगा कि विनाश किसी दूसरेका उत्पाद किसी अन्यका व घ्रौव्य किसी औरका होगा | ऐसा होते हुए सर्व वस्तुका स्वरूप विगड जायगा । इसलिये वस्तुके नाशके मयसे यह मानना पडेगा कि उत्पाद व्यय धव्यका कोई भी एक आधार है । वह इस प्रकरणमे एक प्रदेश मात्र कालाणु पदार्थ ही है । वहा यह तात्पर्य समझना कि भूत अनन्त कालमे जितने कोई सिद्ध सुखके पात्र हो चुके हैं व भविष्यकाल मे अपने ही उपादानसे सिद्ध व स्वय अतिशयरूप इत्यादि विशेषणरूप अतीद्रिय सिद्ध सुखके पात्र होवेंगे वे सब ही काल लब्धिके वशसे ही हुए हैं व होगे । तौ भी Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६] श्रीप्रवचनसारटीका । अपना परमात्मा ही उपादेय है ऐसी रुचिरूप निश्चय सम्यग्दर्शन जहां वीतराग चारित्रका होना अविनाभावी है उसकी ही मुख्यतासे है न कि कालकी, इसलिये काल हेय है। जैसा कहा है कि पलविएणयहुणा जे सिद्धा णरवरा गये काले । सिझिहहिं जेवि भंविया त जाणह सम्ममाइप्प ॥' भाव र्थ-बहुत क्या कहें जितने उत्तम पुरुष भूतकालमें सिद्ध हुए हैं व जो भव्य जीव भविष्यमे सिद्ध होगे सो सब सम्यग्दर्शनकी महिमा जानो। वार्थ-इस गाथामें आचार्यने काल द्रव्यको एक प्रदेशी सिद्ध किया है और यह कहा है कि जिम निस पदार्थका हम अस्तित्व मानें उसमें प्रदेश अवश्य होने चाहिये तब ही उत्पाद व्यय धौव्य रूप अस्तित्व बन सका है। द्रव्यमे प्रदेशस्त्र नामका गुण होता है जिससे हरएक द्रव्य कोई न कोई आकार अवश्य रखता है । जिसमें कोई आकार न होगा वह शून्य होगा उसका सर्वथा अभाव होगा, क्योकि काल द्रव्यमें समय पर्यायका उत्पाद व्यय होता है तथा कालाणुका धौव्य है तब वह प्रदेशवान् अवश्य है। विना प्रदेशके वह शून्य होगा तब उसकी समय पर्याय भी न होगी । यदि कोई द्रव्यको प्रदेशरूप न मानकर उत्पाद व्यय धौव्य सिद्ध करेगा तो बिलकुल सिद्ध न होगा। जो वस्तु होगी उसीमे अवस्था होना संभव है। यहांपर श्री अमृतचंद्राचार्यने यह बात उठाई है कि काल द्रव्यके लोकाकाश प्रमाणे अखंड असंख्यात प्रदेश नहीं माने जा सक्ते। ऐसा यदि माने तो समय पयोयकी सिद्ध नहीं होगी, क्योंकि Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड | [ २११ जब कालाणु द्रव्य एक प्रदेश मात्र भिन्नर होगा तब ही एक पुद्गलका परमाणु एक कालाणुसे दूसरे कालाणुपर जायगा और तब ही समयपर्याय उत्पन्न होगी। दो कालाणु जुदे जुदे होनेसे ही समयपर्यायका भेद सिद्ध होगा। जो लोकाकाशप्रमाण अखण्ड एक कालद्रव्य होवे तो समयपर्यायकी सिद्धि कैसे हो सक्ती है ? यदि कोई कहे कि कालद्रव्य लोकाकाश प्रमाण असख्यान प्रदेशी है उसके एक प्रदेशसे दूसरे प्रदेशपर जब पुद्गल परमाणु जायगा तब समय पर्यायकी सिद्धि हो जायगी ? तो उसका उत्तर यह है कि ऐसा नही होता क्योकि एक प्रदेशरूप वर्तनेका सर्व प्रदेशों में वर्तनेसे विरोध है " एकदेशवृत्तेः सर्ववृत्तित्त्वविरोधात् " अर्थात् जब एक प्रदेशमात्र में बर्तन हुआ और शेषमें न हुआ तब काल द्रव्यका बर्तन ही न बना तथा अखंड कालद्रव्यमे परमाणुके जानेका नियम नहीं रहेगा कि वह इतनी दूर जावे क्योकि प्रदेशोकी भिन्नता नही है। इससे समय पर्यायका भेद नहीं होसकेगा, क्योंकि काल पदार्थका जो सूक्ष्म परिणमन है वही समय है वह भेद भिन्न २ कालाणुओके माननेसे ही सिद्ध हो सक्ता है, एकतासे नही । जैसा श्री अमृतचद्रजीने कहा है कि “सर्वस्यापि हि कालपदार्थस्य य. सूक्ष्मो वृत्यंश स समयो, न तत्तदेकदेशस्य " अर्थात् सर्व ही काल पदार्थका जो सूक्ष्म वर्तन है वह समय है उसके एक देशके वर्तनसे समय नही हो सक्ता । दूसरा दोष यह होगा कि जो तिर्यक् प्रचय है वही ऊर्ध्व प्रचय हो जायगा । जैसे आकाश तिर्यक् प्रचय है वैसे कालके तिर्यक् प्रचय होगा क्योंकि वह कालद्रव्य पहले एक प्रदेशमें वर्तेंगा फिर दूसरेमें फिर तीसरे में Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ ] श्रीप्रवचनसारटोका । फिर आगे | इस तरहका चर्तन यदि मानें तो यह तिर्यक् प्रचय ही ऊर्ध्वप्रचय हो जायगा । उर्ध्व प्रचयमें सर्व द्रव्यको क्रमसे वर्तना मानना चाहिये । सर्व प्रदेशोके एक साथ विस्ताररूप समूहको तिर्यक् प्रचय कहते हैं । यदि असंख्यात प्रदेशी कालके प्रदेश एक साथ वर्तन करे तो कालको और द्रव्योकी तरह तिर्यक् प्रचय प्राप्त हो जायगा । सो ऐसा नहीं है । कालको एक प्रदेशमात्र माननेसे ही समय पर्याय उत्पन्न होगी। क्रमवर्ती समयोके समुदायको ऊर्ध्व प्रचय कहते हैं। कालके उर्ध्व प्रचयसे ही और द्रव्योका ऊर्ध्वप्रचय माना जाता है । , पांडे हेमराजजी ने भी अपनी टीकामें ऐसा लिखा है कि जो अखंड काल द्रव्य होवे तो समयपर्याय उत्पन्न नहीं हो सक्ता । क्योकि पुद्गल परमाणु जब एक कालाणुको छोड़कर दूसरी कालाणुप्रति मंदगतिसे जाता है तब उस जगह दोनो कालाणु जुदे जुदे होनेसे समयका भेद होता है जो एक अखढ लोकपरिमाण काल द्रव्य होवे तो समय पर्यायकी सिद्धि किस तरह हो सकती है । यदि कहो कि "काल द्रव्य लोकपरिमाण असंख्यात प्रदेशी है उसके एक प्रदेशप्रति जब पुद्गल परमाणु जायगा तव समयपर्यायकी सिद्धि हो जायगी ?" तो उसका उत्तर यह है कि ऐसा कहने से बड़ा भारी दोष आवेगा वह इस प्रकार है - एक अखंड काल द्रव्यके एक प्रदेशसे दूसरे प्रदेश प्रति जानेसे समयपर्यायका भेद नहीं होता, क्योंकि अखंड द्रव्यसे एक प्रदेशमें समयपर्याय नही हो सक्ती | सभी जगह समय पर्याय होना चाहिये । कालकी एकतासे समयका भेद नहीं हो सक्ता । इस लिये ऐसा है कि सबसे सूक्ष्म Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [२१६ काल पर्याय समय है वह कालाणुके भिन्नरपनेसे सिद्ध होता है, एकतासे नही । और भी कालके अखंड माननेसे दोष आता. है। कालके तिर्यक् प्रचय नहीं है, उर्ध्व प्रचय है। जो कालको असंख्यात प्रदेशी माना जावे तो कालके तिर्यक् प्रचय होना चाहिये वही तिर्यक् , उर्ध्व प्रचय हो जावेगा। वह इस तरहसे होगा कि असख्यात प्रदेशी काल प्रथम तो एक प्रदेशकर प्रवृत्त होता है इससे आगे अन्य पदेशकर प्रवृत्त होता है । उससे भी आगे अन्य प्रदेशकर प्रवृत्त होता है इस तरह क्रमसे असंख्यात प्रदेशोसे प्रवृत्त होवे तो तिर्यक् प्रचय ही उर्व प्रचय हो जायगा। एक एक प्रदेश विष कालव्यको क्रमसे प्रवृत्त होनेसे कालद्रव्य भी प्रदेश मात्र ही सिद्ध होता है । इस कारण जो पुरुष तिर्यक् प्रचयको ऊर्ध्व प्रचय दोष नहीं चाहते है वे पहले ही प्रदेशमात्र कालद्रव्यको मानें जिससे कि कालद्रव्यकी सिद्धि अच्छी तरह होवै।" ____ भाव यही है कि यदि असंख्यात प्रदेशी कालको अखंड माना जावे तो उस अखंडकी एक साथ एक पर्याय होनी चाहिये उसके लिये निमित्त कोई हो नहीं सक्ता । पुद्गलका एक परमाणु भिन्नर निकटवर्ती कालाणु होनेपर ही एक कालाणुसे दूमरेपर मंद गतिसे ना सक्ता है तव समयपर्याय होती है। अखड द्रव्यमें कहांसे कहां कालाणु जावे यह नियम न रहेगा | इस लिये कालद्रव्यको एक प्रदेशमात्र मानना होगा। इस गाथामें आचार्यने यह बता दिया है कि कालद्रव्य है क्योंकि समय पर्यायका प्रगटपना है। एक समय-जब उदय होता है तब पिछला समय नष्ट होता है। यह समयकी अवस्थाके पलटनेका Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “२२० । श्रोप्रवचनसारटीका । जब तक कोई आधार न हो तबतक समयपर्याय हो नहीं सकी। इस लिये इस पर्यायका आधार एक प्रदेशी कालाणु द्रव्य है। ऐसे कालाणु लोकानागमें असंख्यात हैं। सर्व ही जगह पुद्गलके परमाणु चल हैं-हिलते रहते हैं इस लिये सर्व ही कालाणुओमें समयपर्याय हरक्षण होती रहती है। कालद्रव्यको माने विना न तो अन्य द्रव्योंका वर्तन हो सक्ता और न व्यवहार काल हो सका है। इससे काल द्रव्यकी सत्ता एक प्रदेशी सिद्ध है ।। ५४ ॥ - इस तरह निश्चयकालके व्याख्यानकी मुख्यतासे आठवें स्थलमें तीन गाथाएं पूर्ण हुई। इस तरह पूर्वमें कहे प्रमाण " दव्वं नीवमजीवं " इत्यादि उन्नीप्त गाथाओसे आठवें स्थलसे विशेषज्ञेयाधिकार समाप्त हुआ। इसके आगे शुद्ध जीवका अपने द्रव्य और भाव प्राणोके माथ भेदके निमित्त " सपदेसेहि समग्गो " इत्यादि यथाक्रमसे आठ गाथाओ तक सामान्य भेद भावनाका व्याख्यान करते है। उत्थानिका-आगे ज्ञान और ज्ञेयको बतानेके लिये तथा आत्माका चार प्राणोके साथ भेद है इस भावनाके लिये यह सूत्र कहते हैं सपदेसेहि समग्गो लोगो अहि णिविदो णिच्चो। जो तं जाणदि जीवो पाणचदुदाहिस्वो ॥ ५५ ॥ स्वप्रदेशैः समप्रो लोकोऽनिष्ठितो नित्यः । यस्तं जानाति जोवः प्राणचतुष्काभिसंवद्धः ॥ ५५ ॥ अन्वय सहित सामान्यार्थ-(णिचो) द्रव्यार्थिक नयसे नित्य अथवा किसी पुरुषविशेषसे नही किया हुआ सदासे चला आया Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने अपने प्रदेशका अन्य पदार्थों हुआ है ( द्वितीय खंड। [२२१ हुआ (लोगो) यह लोकाफाश (सपदेसेहि समग्गो) अपने ही असंख्यात प्रदेशोसे पूर्ण है और (अद्वेहिं णिट्ठिदो) सहज शुद्धबुद्ध एक स्वभावरूप परमात्म पदार्थको आदि लेकर अन्य पदार्थोंसे भरा हुआ है अथवा अपने अपने प्रदेशोको रखनेवाले पदार्थोसे भरा, हुआ है (जो त जाणदि) जो कोई इस ज्ञेय रूप लोकको जानता है (जीवो) सो जीव पदार्थ है तथा वह ( पाणचदुक्काहिसबहो). ससार अवस्थामे व्यवहारसे चार प्राणोंका सम्बन्ध रखता है। . विशेषार्थ-निश्चयसे यह जीव शुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभावधारी है इसलिये यह ज्ञान भी है और ज्ञेय भी है। शेप सब पदार्थ मात्र जेय ही हैं इस तरह ज्ञाता और ज्ञेयका विभाग है। तथा यद्यपि निश्चयसे यह स्वयसिद्ध परम चैतन्य खभावरूप निश्चय प्राणसे जीता है तथापि व्यवहारसे अनादिसे कर्मबन्धके वशसे आयु आदि अशुद्ध चार प्राणोसे भी सन्बन्ध रखता हुआ जीता है । यह चार प्राणोका सम्बन्ध शुद्ध निश्चयनयसे जीवका खरूप नहीं है, ऐसी भेद भावना समझनी चाहिये यह अभिप्राय है । भावार्थ-इस गाथामे आचार्यने यह बताया है कि यह अखंड असख्यात प्रदेशी लोकाकाश सब जगह अन्य पाच द्रव्योसे भरा हुआ है, कोई प्रदेश आकाशका ऐसा नहीं है जहां जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल न पाए जावे-ये पाच द्रव्य एक स्थलमें रहते हुए भी अपने२ प्रदेशोसे भिन्न२ रहते हैं तथा यह लोक अकत्रिम व अविनाशी है और अनन्त आकाशके मध्यमे ठहरा हुआ है। चैतन्य गुणधारी आत्मा अपनेको भी जानता है और इस लोकके सर्व पदार्थोको भी जानता है इस लिये यह आत्मा ज्ञाता भी है ज्ञेय Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ ] श्रीप्रवचनसारटोका। भी है । अपने शुद्ध स्वभावकी अपेक्षा यह एक ही समयमें अपनेको और सर्वको विना क्रमके जानता है । जीवमें ज्ञातापना और ज्ञेयपना दोनों हैं जब कि अन्य पुद्गलादि पदार्थ ज्ञाता नहीं हैं मात्र ज्ञेय हैं । ऐसा भेद जीवका अन्य पदार्थोके साथ समझना चाहिये। इस जीवके जो व्यवहारसे इंद्रिय, बल, आयु, श्वासोश्वास ऐसे चार प्राणका सम्बन्ध है सो भी संसार अवस्थामें होता है। ये प्राण कोके उदयके निमित्तसे होते हैं। तथा यह संसारी जीव अनादिसे ही संसारमें पड़ा है इसलिये हरएक शरीरमें इन प्राणोंक ही द्वारा जीता है। ये प्राण भी निश्चयसे जीवका स्वरूप नहीं है। जीव तो निश्चयसे शुद्ध चैतन्य प्राणका धारी है। ऐसा भेद विज्ञान करके निज खरूपको भिन्न अनुभव करना चाहिये ॥५६॥ उत्थानिका-आगे इन्द्रिय आदि चार प्राणोका स्वरूप कहते हैं इन्दियपाणो य तधा वलपाणो तह य आउपाणो य । आणप्पाणप्पाणो जीवाणं होति पाणा ते॥ ५६ ॥ इन्द्रियप्राणश्च तथा बलप्राणस्तथा चायुःप्राणश्च । आनपानप्राणो जीवानां भवन्ति प्राणास्ते ॥ ५६ ॥ अन्वय सहित मामान्यार्थ:-(इन्दिय पाणो) इन्द्रिय प्राण (य तधा) तथा गाणो) बल प्राण (तह य) तैसे ही (आउपाणो)आयु प्राण त्याचार (आणप्पाणप्पाणो) श्वासोश्वास प्राण (ते पाणा) ये प्राण ( जीवाणं ) जीवोके ( होंति ) होते है। विशेषार्थ-अतोंद्रिय और अनन्त सुखके कारण न होनेसे इंद्रिय प्राण आत्माके स्वभावसे विलक्षण है। मन, वचन, कायके Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड । [२२३ व्यापारसे रहित परमात्मा द्रव्यसे भिन्न बल प्राण है। अनादि और अनन्त स्वभावमई परमात्मा पदार्थसे विपरीत आदि और अंतसहित आयु प्राण है। श्वासोच्छ्वासके पैदा होनेके खेदसे रहित शुद्धात्मतत्वसे विपरीत श्वासोच्छास प्राण है। इस तरह आयु, इंद्रिय, बल, श्वासोच्छ्वासके रूपसे व्यवहारनयसे जीवोके चार प्राण होते हैं। ये प्राण शुद्ध निश्चयनयसे जीवसे भिन्न हैं ऐसी भावना करनी योग्य है। भावार्थ-इद्रिय, बल, आयु, आनपान ये चारों ही प्राण संसारी जीवमे व्यवहारसे हैं इसलिये यह संसारी जीव इन प्राणोंसे किसी शरीरमें जीता रहता है। ये प्राण शुद्धात्माके शुद्ध ज्ञानदर्शनमई स्वभावसे भिन्न हैं । मैं निश्चयसे इन प्राणोंसे भिन्न हूं। ऐसी भावना परमकल्याणकारिणी है ॥ १६ ॥ उत्थानिका-आगे कहते है कि भेद नयसे ये प्राण दस तरहके होते हैं:पंचवि इन्द्रियपाणा मणवचिकाया य तिणि वलपाणा। आणप्पाणप्पाणो आउगपाणेण होंति दसपाणा ॥ ५ ॥ पंगपि इन्द्रियमाणाः मनवचनकाया च त्रीणि बलप्राणाः । आनानप्राणाः आयुप्राणेन भवति दश प्राणाः ॥५७॥ अर्थ-स्पर्शन, रसना, ध्राण, चक्षु और कर्ण ये पांच इंद्रियः प्राण है । मन, वचन, काय ये तीन बल प्राण हैं । श्वासोश्वास तथा आयु प्राणको लेकर दश प्राण होते हैं । ये दसो प्राण चिदानन्दमई एक स्वभाव रूप परमात्मासे निश्चयसे भिन्न हैं ऐसा जानना चाहिये, यह अभिप्राय है। Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४] श्रीप्रवचनसारटोका । भावार्थ-संसारी जीव किसी भी शरीरमें जिन शक्तियों के द्वारा जीवित रहकर काम करसके उनको प्राण कहते हैं। सब प्राण दश होते हैं। उनमें से पृथ्वीकायिक आदि पांच तरहके एकेन्द्रिय जीवोके चार प्राण होते हैं। स्पर्शन इंद्रिय, कायवल, आयु, श्वासोस्वास । ल्ट आदि हेंद्रिय जीवोंके जिह्वा इंद्रिय और वचनवल मिलाकर छः प्राण होते है । चींटी आदि तेन्द्रिय जीवोंके घाण, इंद्रिय जोडकर सात प्राण होते हैं। मक्खी भौरे आदि चौइन्द्रिय जीवोके आख इन्द्रिय मिलाकर आठ प्राण होते है । पंचेन्द्रिय असैनीके कर्ण निलाकर नव प्राण तथा पंचेन्द्रिय सैनीके मनवल मिलाकर दश प्राण होते है । इन प्राणोके व्यापारसे जीवकी प्रगट शक्तिया जानी जाती हैं। क्योंकि ये प्राण नाम कर्म व आयुकर्मके उदयसे तथा ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, अंतरायके क्षयोपशम और मोहके उदयसे यथासंभव होते है इसलिये ये प्राण और इनका व्यापार सब कर्मपुद्गलके निमित्तसे होते है । शुद्ध आत्मामे या आत्माके अपने असली स्वभावमे ये प्राण व इनके व्यापार नहीं पाए जाते हैं। इसलिये हमको यह भावना भानी चाहिये कि हमारा आत्मा इनसे भिन्न अपने शुद्ध ज्ञान चेतना प्राणसे सदा ही जीवित रहता है । ये दस प्राण त्यागने योग्य हैं। परन्तु शुद्ध ज्ञान चेतना ग्रहण योग्य है। उत्थानिक-आगे प्राण शब्दकी व्युत्पत्ति करके जीवका जीवपना और प्राणोका पुद्गलस्वरूपपना कहते हैंपाणेहि चहि जीवदि. जीवस्सदि जो हि जोविदो पुन्छ । सो जीवो पाणा पुण, पोग्गलव हि णिवत्ता ॥५८ ॥ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [२२५ प्राणेश्चतुर्भिर्जीवत जीविष्यति यो हि जीवितः पूवम् स जीवः प्राणाः पुनः पुद्गलदव्यैनित्ताः ॥५८ ॥ .. अन्वय सहित सामान्यार्थ:-( जो हि ) जो कोई वास्तवमें (चदुहिं पाणेहि ) चार प्राणोसे (जीवदि) जीता है, (जीवस्सदि) जीवेगाव (पुल्वं जीविदो) पहले जीता था ( सो जीवो) वह जीव है (पुण) तथा (पाणा) ये प्राण ( पोग्गलदव्वेहि ) पुद्गल द्रव्योस्से (णिवत्ता) रचे हुए है। विशेषार्थ.-यह जीव निश्चय नयसै सत्ता, चैतन्य, सुख, ज्ञान आदि शुद्ध भाव प्राणोसे जीता चला आरहा है तथा जीता रहेगा तथापि व्यवहारनयसे यह ससारी जीव इस अनादि संसारमे जैसे वर्तमानमे द्रव्य और भावरूप अशुद्ध प्राणोसे जीता है ऐसे ही पहले जीता था व जबतक संसारमें है जीता रहेगा, क्योकि ये अशुद्ध प्राण उदयप्राप्त पुद्गल कोसे रचे गए है इसलिये ये प्राण पुद्गल द्रव्यसे विपरीत अनन्तज्ञान, अनन्त दर्शन, अनत सुख, अनन्त वीर्य आदि अनन्त गुण स्वभावधारी परमात्म तत्त्वसे भिन्न हैं ऐसी भावना करनी योग्य है यह भाव है। ___ भावार्थ-इस आत्माके निश्चय प्राण सुख, सत्ता, चैतन्य, बोध आदि हैं-ये कभी इस जीवसे भिन्न नहीं होते है । अशुद्ध अवस्थामे इनका परिणमन अशुद्ध होता है जबकि शुद्ध अवस्थामे शुद्ध परिणमन होता है । इद्रिय, बल, आयु, शासोच्छ्वास ये चार अशुद्ध प्राण पुद्गल कर्मके सम्बन्धसे है। पाच इंद्रियोकी रचना तथा कायका वर्तन, बचनका वर्तन व मनकी रचना, श्वासोच्छ्वासका वर्तन नामकर्मके उदयसे व आयु प्राण आयुकर्मके उदयसे होता है। ये Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ ] श्रीप्रवचनसारटोका | द्रव्य प्राण हैं । पांच इंद्रियोसे व मन वचन काय व श्वाससे कार्य लेने में जो आत्मामें ज्ञान और वीर्यकी प्रगटता है व योगोंका हलनचलन है वह आत्माके अशुद्ध भाव हैं - तथा आयु कर्मके उदयसे आत्माका किसी शरीरमें रुका रहना ये सब भाव प्राण हैं । ये द्रव्य और भाव प्राण मेरे आत्मस्वभावसे भिन्न है । मैं सदा ही' 1 अपने शुद्ध सुख सत्ता चैतन्य बोध आदि प्राणोका धारी हूँ यही भावना मोक्षमार्गमें सहायक है ||१८|| उत्थानिका- आगे प्राण पौगलिक हैं जैसा पहले कहा है उसीको दिखाते हैं जोवो पाणणिवद्धो वो मोहादिपहिं कम्मेहिं । उवभुंजं कम्मफलं वज्झदि अण्णेहि कम्मेहि ॥ ५६ ॥ " जीवः प्राणनिवद्धो बद्धो मोहादिकः कर्मभिः । उपर्भुजानः कर्मफलं बध्यतेऽन्यैः कर्मभिः ॥ ५९ ॥ अन्वय महित सामान्यार्थ - (मोहादि एहि कम्मेहि) मोहनीय आदि कर्मोसे (बद्धो) बंधा हुआ (जीवो) जीव (पाणणिबडो) चार प्राणोसे सम्बन्ध करता है ( कम्मफलं उर्वभुनं ) व कर्मो के फलको भोगता हुआ (अण्णेहि कम्मेहि वज्झदि) अन्य नवीन कमसे बंध जाता है । विशेषार्थ शुद्धात्माकी प्राप्तिरूप मोक्ष आदि शुद्ध भावोसे विलक्षण मोडनीय आदि आठ कर्मोंसे बंधा हुआ यह जीव इंद्रिय आदि प्राणोंको पाता है। जिसके कर्मबंध नही होते उसके यह चार पाण भी नही होते है इसीसे यह जाना जाता है कि ये प्राण पुद्गल के उदयसे उत्पन्न हुए हैं तथा जो इन ह्य णोंको ۳۱ " 1 Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [२२५ रखता है वही परम समाधिसे उत्पन्न जो नित्यानन्दमई एक सुखामृतका भोजन उसको न भोगता हुआ इन इंद्रियादि प्राणोंसे कड़वे विषके समान ही कोके फलरूप सुख दुखको भोगता है और वही जीव कर्मफल भोगता हुआ कर्म रहित आत्मासे विपरीत अन्य नवीन कर्मोसे बंध जाता है इसीसे जाना जाता है कि ये प्राण नवीन पुद्गल कर्मके कारण भी हैं। भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने स्पष्ट रीतिसे यह दिखलाया है कि जिन शरीर, वचन, मनकी क्रियाओंमें और इद्रियोंके विषयभोगमें यह ससारी जीव लुब्ध हो रहा है वे सब मन वचन काय और इंद्रिय रूपी प्राण तथा आयु और शासोच्छ्वासपूर्व बद्ध कोके फलसे पैदा होते हैं। जिन शुद्धात्माओके शरीर ही नहीं होते वहां ये प्राण नहीं पाये जाते है इसीसे प्रमाणित है कि ये कर्मबद्ध जीवमें कर्मोंके उदयसे पैदा होते है। पुद्गलमई ये प्राण है इसलिये इनका कारण भी कर्मपुद्गल है । इन पुलमई शरीरादि और इद्रियोके द्वारा यह नीव पुद्गलकर्मोके उदयसे प्राप्त ससारीक पराधीन सुखदुःखको भोगता रहता है। पुद्गलीक प्राणोसे ही पुद्गलीक भोग होता है । भोगोके भोगमें रागद्वेष करता हुआ जीव फिर नवीन पुद्गलकर्मोको बांध लेता है। सिद्ध यह किया गया है कि ये प्राण पुद्गलके कारणसे उपजे हैं व पुद्गलकों ही भोगते हैं नथा पुद्गल कर्मोको उपनाते हैं इमसे ये चार प्राण पौगलिक हैआत्माके निज स्वभाव नहीं हैं। इनको सदा अपने आत्माके शुद्ध स्वभावसे भिन्न जानना चाहिये । श्रीपूज्यपादस्वामीने समाधिशतकमें कहा भी है Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ફૅર૮ ] श्रीप्रवचनसारटोका । स्वबुद्धधा यावद्गृह्णीयात् कायवाक्चेतसां त्रयम् । संसारस्तावदेतेषां भेदाभ्यासे तु निर्वृतिः ॥ ६२ ॥ भावार्थ - जबतक मन वचन काय तीनोंको आत्माकी बुद्धिसे मानता रहेगा तबतक इस जीवके संसार है। जब इन तीनोंसे मैं भिन्न हूं ऐसी भेद, भावना करेगा तब ही मोक्षको प्राप्त कर सकेगा। मैं एक शुद्ध ज्ञान चेतनारूप प्राणका धारी हूं ऐसा ही अनुभवउन कर्मोंसे छुडानेवाला है जिनके उदयसे यह जीव पुनः पुनः प्राणोंको पाकर कष्ट पाता है ॥ १९ ॥ उत्थानिका- आगे प्राण नवीन कर्म पुद्गलके बन्धके कारण, होते हैं इसी ही पूर्वोक्त कथन को विशेषतासे कहते हैं:पाणावाधं जीवो मोहपदेसेहि कुणदि जीवाणं । दि सो हवदि हि बंधो णाणावरणादिकम्महि ॥६०॥ प्राण बाधे ज वो मोहप्रद्वेषाभ्या करोति जीवयोः । यदि सति हि बन्धो जनावरणादिकर्मभिः ॥ ६० ॥ अन्वयसहित सामान्पार्थ -: (जदि) जब ( जीवो) यह जीव (मोहपदेसेहि) मोह और द्वेषके कारण . ( जीवाणां पाणाबाधं ) अपने और पर जीवोके प्राणोको बाधा (कुणदि) पहुंचाता है तब (हि) निश्चयसे इसके ( सो बधो ) वह बन्ध ( णाणावरणादिकम्मे हि ) ज्ञानावरणीय आदि कर्मोंसे (हवदि) होता है। विशेषार्थ - जब यह जीव सर्व प्रकार निर्मल केवलज्ञानरूपी दीपक मोहके अधकारको विनाश करनेवाले परमात्मासे विपरीत मोहभाव और द्वेषभावसे परिणमन करके अपने भाव और द्रव्य प्राणोको घातता हुआ एकेन्द्रिय आदि जीवोंके भाव और आयु · आदि द्रव्य प्राणोको पीड़ा पहुचाता है तब इसका ज्ञानावरणादि Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड । [२२६ कौके साथ बंध होता है जो बंध अपने आत्माकी प्राप्तिरूप मोक्षसे विपरीत है तथा मूल और उत्तरप्रकृतियोंके भेदसे अनेक रूप है। इससे जाना गया कि प्राण पुद्गल कर्मबंधके कारण होते हैं। यहां यह भाव है कि जैसे कोई पुरुष दूसरेको मारनेकी इच्छासे. गर्म लोहेके पिंडको उठाता हुआ पहले अपनेको ही कष्ट दे लेता है फिर अन्यका घात हो सके इसका कोई नियम नहीं है तैसे यह अज्ञानी जीव भी तप्त लोहेके स्थानमें मोहादि परिणामोंसे परिणमन करता हुआ पहले अपने ही निर्विकार खसंवेदन ज्ञानस्वरूप शुद्ध प्राणको घातता है उसके पीछे दूसरेके प्राणोंका घात हो वन हो ऐसा कोई नियम नहीं है। भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने यह बताया है कि मन वचन काय व स्पर्शन आदि इंद्रियोंके द्वारा व्यापार करता हुआ यह संसारी जीव जब रागद्वेष मोह भावोंसे परिणमन करता है तब यह हिंसक हो जाता है। यह बात भी ठीक ही है कि बुद्धिपूर्वक इन प्राणोंसे काम लेते हुए इच्छा अवश्य होती है जो रागका अंग है। यह मोह राग या द्वेष जब जब थोडे या बहुत आत्माके परिणाममें झलकेंगे उसी समय आत्माके स्वाभाविक वीतराग ज्ञानभाव रूप भाव प्राणका और कुछ अंशमें शरीर बल आदि द्रव्य प्राणोका घात करेंगे। इसलिये इच्छापूर्वक इन प्राणोका व्यापार अपना घात करता है। इतना ही नही वह भाव यदि परकी हिंसारूप होता है तो एकेन्द्रिय आदि अन्य जीवोंके कष्ट पहुंचानेके व्यापारमे लगा हुआ अन्य जीवोको भी पीड़ा पहुंचाता है-अन्य जीवोके भाव और द्रय प्रागों का घात करता है। इस हिंसककी चेठा होनेपर भी कभी Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३०] श्रीप्रवचनसारंटीको। कभी अन्य प्राणी बच जाते हैं तथापि इस हिसकका हिसाभाव अवश्य ज्ञानावरणादि आठ कोक बंधका कारण होता है। जैसे हम यदि दूसरेके मारनेको गमे लोहा हाथमें उठावें तो उसके पास पहुंचनेके पहले हमारा हाथ तो अवश्य जले हीगा। दूसरेके पास हम फेंक सके व उसको लग ही जावे इसका कोई नियम नहीं है वैसे जब हम प्राणोके कारण हिसात्मक भाव करेंगे तब दूसरेकी हिसा हो व न हो, हम तो अवश्य हिंसाके भावोसे कर्मबन्ध करलेंगे। कर्मवन्धमें कारण जीव और अजीव दोनोंका आधार है। जीवका आधार उसके कषायसहित रुत, कारित वा अनुमोदनरूप मन्न वचन कायके व्यापाररूप संरंभ अर्थात् संकल्प, समारम्भ अर्थात् प्रबन्ध, आरम्भ अर्थात् कार्यमें परिणमन करते हुए योग और उपयोग हैं । अनीव अधिकरण शरीर, वचन, मनकी क्रियाएं व इंद्रियोका वर्तन आदि है । जैसा आधार होगा व अपनी शक्ति होगी उसके अनुसार कर्माका तीव्र या मठ बन्ध हो जायेगा। इसीसे यहां सिद्ध किया गया है कि इस संसारी जीवके आयु आदि प्राणोंका सम्बन्ध कर्मबन्धका कारण है अतएव इनका सम्बन्ध त्यागने योग्य है। हिसक भाव पहले अपना बिगाड़ करता है इस सम्बन्धमें स्वामी अमृतचंद्र आचार्यने पुरुषार्थसिद्धियुपायमे अच्छा कहा है यत्खलु व पाययोगात्प्राणाना द्रव्यभावरूपाणाम् । व्यपरोपणस्य करणं सुनिश्चिता भवति सा हिंसा ॥ ४३ ॥ अप्रादुर्भावः खलु रागादीना भन्त्यहिंसेति । वेषामेवोत्पत्तिहिसे ति जिनागमस्य सक्षेपः ॥ ४४ ॥ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [२३१ युक्ताचरणश सतो रागाद्यावेशमन्तरेणापि । न हि भवति जातु हिंसा प्राणव्यपरोपणादेव ॥ ४५ ॥ व्युत्यानापखामा गगादीना वशमवृत्तायाम् । निता जोनो मा या धावत्यो ध्रुव हिंसा || ४६ ॥ यस्मात्सक यायः सन टन्यात्मा प्रथममात्मनात्मानम् । पश्चानागत न वा हिंमा प्राण्य-तगगा तु ॥ ४७ ।। भाव यह है-कपायरूप मन, वचन, कायके योगोके द्वारा द्रव्य और भाव प्राणोको पीडित करना निश्चयसे हिसा है। अपने भावोमे रागादिभावोका प्रगट न होना ही अहिसा है तथा उनहीका पैदा हो जाना ही हिमा है, यह निनमतका सार है। रागद्वेपके विना योग्य आचरण करते हुए मात्र अन्य प्राणियोके प्राण घात होजानेसे फभी भी दिसाका दोप नहीं होता है। इसीके विपरीत नत्र प्रमादके द्वारा राग आदिके वश प्रवृत्ति की जायगी तब इस व्यापारसे कोई जीव मरो या न मरो हिंसा निश्चयसे होती रहती है, क्योकि कपायके आधीन होकर यह जीव पहले ही अपनेसे ही अपने आत्माकी हिसा करता है फिर दूसरे प्राणियोके प्राणोकी हिसा होय भी व न भी होय, नियम नहीं है। प्रयोजन यह है कि इस जीवके मोह रागद्वेषरूप भाव ही हिसक परिणाम हैं। जो भाव इन गरीर आदि प्राणोके निमित्तको पाकर हो जाते हैं, इन परिणामोसे ही कर्म पुगलोका बन्ध होता है जिस वधके कारण संसारमें जन्ममरणादि दुःखोको उठाता हुआ यह जीव भ्रमण करता है और स्वाधीन आत्मानन्दरूप मोक्षका लाभ नहीं कर सक्ता है इसलिये इन शरीरादि प्राणोका सम्बन्ध त्यागने योग्य है और Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ ] श्रtraचनसारीका | CARMAIN IN . Mera Vadan for ज्ञानचेतनारूप प्राण ग्रहण करने योग्य है-यही दिन दिनका साधन है ॥ ६० ॥ स्थानिक आगे इंद्रिय आदि माणकी उत्पतिका अंतरंग कारण उपदेश करते है- आदा कम्मममम श्रादि गाणी पृणी पुणी अण्णी । जदि जात्र मम हामि ॥ ६६ ॥ श्रात्मा मन्दीant श्राम्यति प्राणान, पुनः पुनग्न्यान | न] अधीन याम्यमचं देव || ६१ ॥ अन्य महित मामान्यार्थ (म्ममममी) मला (आदा) आत्मा (पुणी गुणी ) बार बार (अणी पाणे ) अन्य २ नवीन प्राणांक ( धारदि ) धारण करता रहता है। (नाव) नव तक (nearing fry ) शुगर आदि farain (ममतं ण जहदि ) ममताको नहीं छोड़ना है । विशेषार्थ:--जो आत्मा स्वगाव भाव, फर्म और arrier dea etc कारण अत्यन्त निर्म है तोनी व्यवहार नयमे अनादि कhasha होा है। ऐसा होता हुआ यह आत्मा समय तक बार बार इन आशु आदि प्राणीको प्रत्येक नवीन नवीन धारना कहता है जिस समय नक यह शरीर व इंद्रिय विषय रहित परमनन्यमटे प्रकाशकी परिणति विपरीत देह आदि पंचेद्रियकि विषयोग स्नेह रहिन चैतन्य चमत्कारी परिणति विपरीत ममताकी नहीं त्यागता है। इससे यह मिन्ह हुआ कि इंद्रिय आदि प्राणांकी उत्पत्तिका अंतरंग कारण देह आदिमत्त्व करना ही है । Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड । [२ भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने वतलाया है कि इस संसारी जीवके संसारमे भ्रमण करते हुए नो वारवार प्राणोंका धारण प्रत्येक नएर शरीरमें जाकर होता है उसका अन्तरंग कारण शरीर आदिमें मोह-ममत्त्व है। हरएक संमारी आत्मा अनादिकालसे ही प्रवाहरूपसे कोसे बन्धा चला आरहा है-उन कोंके उदयसे एक गतिको छोड़कर दूसरी गतिमें जाता है । जहा जाता है वहां जो शरीर व एक या दो या तीन या चार या पांच इद्रिये प्राप्त होती है उनहीके विषयभोगोंकी चाहनामें पडकर उस शरीरसे अत्यन्त रागी हो जाता है, जन्मभर इसी रागभावकी पूर्तिकी चेष्टा किया करता है, इच्छाके अनुसार भोग सामग्रीको पानेका उद्यम करके उनको एकत्र किया करता है। इसी ही उद्यममें एक क्षणमे आयु समाप्त होनेपर शरीर छोडता है और जैसी आयु वाधी होती है उसके अनुसार दूसरे गरीरमें पहुंच जाता है। वहां भी इसी तरह शरीरके विषयोमें फस जाता है । मोह या ममताभाव जवतक बना रहता है तबतक संसारके पार पहुंचनेका मार्ग ही नहीं मिलता है। वश मोही जीव यदि ममत्त्वको न त्यागे तो अनन्त कालतक भ्रमण ही करता रहेगा। और जब कभी भी श्री गुरुके सम्यक् उपदेशसे ससार शरीरभोगोंको असार जानकर इनसे मोह त्याग अपनी शुद्ध परिणतिमे प्रेम करेगा तब ही इसकी ममताकी टोरी टूट नायगी । वस मिथ्यात्व भावके जाते ही इसका ससारका पार निकट आ जायगा-थोडे ही कालमें शरीर रहित हो मुक्त हो जायगा । श्री पूज्यपाद स्वामीने " समाधिशतक " में कहा भी है देहान्तरगतेज देहेऽस्मिन्नात्मभावना । वीज विदेहनिष्पत्तेरात्मन्येवात्मभावना ॥ ७४ ॥ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ ] श्रीप्रवचनसारटोका । भावार्थ-इस देहमें आत्मापनेकी भावना करनी कि जो शरीर है सो मैं हूं, जो मैं हूं सो शरीर है यही ममत्त्व अन्य अन्य देह धारण करनेका कारण है जब कि आत्मामे ही आत्मापनेकी भावना करनी शरीर रहित होनेका कारण है। स्वामी अमितिगतिमहाराज बृहत सामायिकपाठमें कहते हैं माग मे मम गेहिनी मम गृहं मे बांधवा मेंऽगजास्तातो मे मम संपदो मम सुखं मे सजना मे जनाः ॥ इत्यं घोरममत्वतामसवशव्यस्तावबोधस्थितिः । शर्माधानविधानतः स्वहिततः प्राणी सनीश्रस्यते ॥ २५॥ भावार्थ-मेरी माता है, मेरी स्त्री है, मेरा घर है, मेरे भाई हैं, मेरा पुत्र है, मेरा पिता है, मेरा धन दौलत है, मेरा सुख है, मेरे सजन हैं, मेरे आदमी हैं इस तरह घोर ममतारूप अंधेरेके वशसे ज्ञानकी अवस्था जिसकी बंदसी होगई है ऐसा प्राणी सुख प्राप्तिके कारणरूप अपने हितसे दूर रहता है। और भी कहते है कि जबतक जैन बचनोंमें नहीं रमता है तब तक ममताकी डोरी नहीं टूटती है:कारियामोद कृतमिदमिदं कृन्यमधुना, क्रोमीति व्यग्र नयसि सकल कालमफलं । सदा रागद्वेषप्रचयगपरं स्वार्थविमुख, न जैनेऽविकृत्त्वे वचसि रमसे निवृतिकरे ॥५७ ॥ भावार्थ-मै ऐसा करूंगा, मैने ऐसा किया है, मै अब ऐसा करता हूं इस तरह आकुलतामें पडाहुआ तू अपना सर्व जीवनकाल निर्फल खोदता है तथा सदा अपनें आत्माके कल्याणसे विमुख । Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • द्वितीय खंड। - [२३६ होकर रागद्वेषके भीतर पड़ा रहता है और मुक्तिके कारण विकार रहित जिनेन्द्रके वचनोमें नहीं रमन करता है। इस तरह जबतक ममता है तबतक ससार है, ऐसा मानकर तथा इन शरीर आदि प्राणोको पुदलजनित व ससारके दुःखोके व भ्रमणके कारण जानकर इनसे ममता छोडकर अपने ही शुद्ध आत्मखरूपमें रत होकर साम्यभावरूप चारित्रमें तिष्ठकर निजानंदका लाभ करना चाहिये, यह तात्पर्य है ।। ६१ ॥ उत्थानिका-आगे इद्रिय आदि प्राणोके अन्तरंग नाशके कारणको प्रगट करते है जो इदियादिविजई भवोय उवओगमप्पगं झादि । कम्मेहि सो ण रंजदि किह तं पाणा अणुचरंति ॥६॥ य इद्रयादिविजयी भूत्वोपयोगम त्मक ध्यायति । कर्म,मे: स न रज्यते कथ त प्राणा अनुचरन्ति ॥६२॥ अन्वय सहित सामान्यार्थ -(जो) जो कोई (इदियादि विनयी) इद्रिय आदिका जीतनेवाला ((भवीय) होकर ( उव ओगम् ) उपयोगमई ( अप्पग ) आत्माको ( झादि) ध्याता है। (सो) सो जीव (कम्मेहि) कर्मोसे (ण रंजदि) नही रगता है अर्थात नही बघता है (किह) तव किस तरह (पाणा) प्राण (तं) उस जीवको ( अणुचरंनि ) आश्रय करेंगे । विशेषार्थ:-जो कोई भव्य जीव अतीन्द्रिय आत्मासे उत्पन्न सुखरूपी अमृतमें सतोषके बलसे नितेन्द्रिय होकर तथा कषाय रहित निर्मल आत्मानुभवके वलसे कषायको जीतकर केवलज्ञान और केवलदर्शन उपयोगमई अपनी ही आत्माको ध्याता हैं वह चैतन्य Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ ] श्रीप्रवचनसारटोका । चमत्कारमई आत्माके गुणोंके विघ्न करनेवाले ज्ञानावरण आदि - कर्मोंसे नहीं बंधता है । कर्मबंधके न होनेपर ये इंद्रियादि द्रव्यप्राण किस तरह उस जीवका आश्रय करसक्ते हैं ? अर्थात् किसी भी तरह आश्रय नही करेंगे। इसीसे जाना जाता है कि कषाय और इंद्रिय विषयोंका जीतना ही पंचेन्द्रिय आदि प्राणोंके विनाशका कारण है । 1 भावार्थ - यहां आचार्यने वह उपाय बताया है जिस उपायसे शरीर और उसके अंग इन्द्रियादि न प्राप्त हो । शरीर धारनेका - मूल कारण गति, आयु आदि कर्मोंका उदय है । कर्मका उदय - कमौके बंध विना नहीं होसक्ता । कर्मोंका बंध इंद्रियोके विषयोंमें आशक्ति करने तथा क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषायों में परि मन करने और निज आत्माकी अश्रद्धा होनेसे होता है । इसलिये जो यह चाहते हैं कि शरीर और इंद्रियों का सम्बन्ध न हो और यह आत्मा अपने निज अमूर्तिक स्वभावमें ही अनन्तकाल विश्राम करता हुआ निज आनन्दका स्वाधीनपने भोग करे उनको उचित है कि निज आत्माके शुद्ध ज्ञानानंदमई स्वभावकी दृढ़ 'प्रतीति करके अपनी इन्द्रियोंकी आशक्तिको छोड़कर उनको अपने वश करें तथा क्रोधादि कषायोंको जीतकर शांतभावका आश्रय करें और निश्चल चित्त हो अपने ही शुद्ध ज्ञानदर्शनमई आत्माका - ध्यान करके अनुभव करें और आनन्दामृतका पान करें - वश, वीतराग परिणामोंगे परिणमन करनेसे कर्मका बन्ध न होगा । जब बन्ध न होगा तब उदय कहांसे होगा ? उदय विना शरीर तथा प्राणोका धारण न होगा । इससे यह सिद्ध हुआ कि प्राणरहित होनेका Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [२३७ उपाय नितेंद्रिय होकर निज शुद्ध आत्माका अनुभव है। ऐसा ही श्री अमृतचन्द्राचार्यने समयसारकलशमें कहा है: ये ज्ञानमात्रनिजभावमयीमकम्पा, __ भूमि श्रयन्ति कथमप्यपनीतमोहाः । ते साधकत्वमधिगम्य भवति सिद्धाः, ____ मुढास्त्वमूमनुपलभ्य परिभ्रमन्ति ॥ २० ॥ भावार्थ-किसी भी तरह मोहको हटाकर जो निश्चल ज्ञानमई. आत्मीक भावकी भूमिका आश्रय करते है वे मुक्ति के साधकपनेको पाकर सिद्ध हो जाते है । जो मिथ्यादृष्टी मूर्ख है वे इस भूमिको न पाकर संसारमें भ्रमण करते है श्री अमितिगति महारान सामायिकपाठमे कहते हैसरिभकपापसगारित शुद्धोपयोगोधतं, तद्रप परमात्मनो विकलिक बायव्यपेक्षाऽतिग । तनिःश्रेयमारणाय हृदथे कार्य मदा नापर, कृत्य कारि चिकीर्ष वो न सुधियः कुर्वति तद्वसकं ॥७॥ भावार्थ-जो परमात्माका स्वभाव सर्व आरम्भ व कपाय या परिग्रहसे रहित है, शुद्धोपयोगमें लीन है, कर्म रहित है, बाहरी पदार्थोके आलम्बसे शून्य है उसी स्वभावको मुक्तिके लाभके लिये अपने हृदयमें सदा ध्याना चाहिये, अन्य किसीको नहीं । जो संसारके वन्धको मेटना चाहते है वे बुद्धिमान इस निन शुद्ध स्वभावके नाशक किसी भी कामको कभी भी नहीं करते हैं। ऐसा जानकर शरीरके त्यागके लिये शरीरका मोह छोडकर निज शुद्ध आत्माका एक ध्यान ही कार्यकारी है ऐसा निश्चय करना चाहिये यह तात्पर्य है ॥ ६३ ॥ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८] श्रीप्रवचनसारटोका । । इस तरह "एवं सपदेसेईि सम्मग्गो" इत्यादि आठ गायाओंसे सामान्य भेद भावनाका अधिकार समाप्त हुआ। ___अयानंतर इक्यावन गाथा तक विशेष भेदकी भावनाका अधिकार कहा जाता है । यहां विशेष अन्तर अधिकार चार हैं। उन चारोंके बीचमें शुद्ध आदि तीन उपयोगकी मुल्यतासे ग्यारह गाथानों तक पहला विशेष अन्तर अधिकार प्रारम्भ किया जाता है, उसमें चार स्थल हैं । पहले स्थलमें मनुप्यादि पर्यायोंके साथ शुद्धात्म स्वरूपका भिन्नपना बतानेके लिये "अस्थित्तणिच्छदस्सरहिं" इत्यादि यथाक्रमसे तीन गाथाएं हैं। उसके पीछे उनके संयोगका कारण " अप्पा उवओगप्पा " इत्यादि दो गाथाएं हैं। फिर शुभ, अशुभ, शुद्ध उपयोग तीनकी सूचनाकी मुख्यतासे "नो जाणादि जिणिदे" इत्यादि गाथा तीन हैं। फिर मन वचन कायका शुद्धात्माके साथ भेद है ऐसा कहते हुए " पाहं देहो" इत्यादि तीन गाथाएं हैं । इस तरह ग्यारह गाथाओंसे पहले विशेष अंतर अधिकारमें समुदाय पातनिका है। उत्यानिका-आगे फिर भी शुद्धात्माकी विशेष भेद भावनाके लिये नर नारक आदि पर्यायका स्वरूप जो व्यवहार जीवपनेका हेतु है दिखाते हैं: अस्थित्तरि-स्स हि अत्थस्सत्यंतरम्मि संभूदो। अत्यो पर: सो संठागादिप्पभेदेहिं ।। ६३ ।। अस्तित्त्वनिश्चितस्य ह्यर्थत्वार्थान्तरे संभूतः । अर्थः पर्यायः स नत्यानादि प्रभेदैः ॥ ६३ ॥ ___ अन्वय सहित सामान्यार्थः-(अत्थित्तणिच्छिदस्स ) माने Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 ) . . .. " द्वितीय खंड ! [ २३६ अस्तित्त्व कर निश्चित (अत्थस्स) नीव नामा पदार्थक (हि) निश्चयसे ( अत्यंतरम्मि संभूदो ) पुद्गल द्रव्यके सयोगसे उत्पन्न हुआ (अर्थः) नर नारक आदि विभाव पदार्थ है ' (सो) वही (सठाणादिप्पभेदे हि) संस्थान आदिके भेदोंसे (पंजायो) पर्याय है। " '' विशेषार्थ-चिदानन्दमई एक लक्षणरूप खरूपकी सत्ता स्थिर ज्ञानमई परमात्मा पदार्थरूप शुद्धात्मासे अन्य ज्ञानावरणादि कमौके सम्बन्धसे उत्पन्न हुआ जो नर नारक आदिका खरूप है वह छः संस्थान व छः संहनन आदिसे रहित परमात्मा द्रव्यसे विलक्षण संस्थान व सहनन आदिके द्वारा भेदरूप विकार रहित शुद्धात्मानुभव लक्षणरूप स्वभाव व्यंजनपर्यायसे भिन्न विभाव व्यंननपर्याय है। भावार्थ-यहा यह बताया है कि यह जीव प्रवाहरूपसे अनादिकालसे ज्ञानावरणादि आठ कर्मोंसे बन्धा चला आरहा हैइस जीवके स्वरूपकी सत्ता जीवमें सदा स्थिर रहती है । जीवके भीतर से ज्ञान दर्शन सुख वीर्यादि गुण है वे जीवमें सदासे हैं व सदा रहेंगे-जीव अपने अनन्त गुणोके साथ एकमेक होकर भी अपने लोकप्रमाण असख्यात प्रदेशोको भी रखता है। वे प्रदेश भी घटते बढ़ते नहीं हैं-ऐमा जीव अपने अखड स्वभावकी सत्ताको रखता हुआ अनादि कर्मबन्धके उदयके आधीन इम ससारमें भ्रमण करता हुआ भिन्नर शरीरोको धारणकरके नर, नारक, तिथंच, मनुष्य नाप पाता है-इन शरीरोके प्रमाण आत्माके प्रदेश सकोचविस्तार प्वभावके कारण होनाते हैं। शरीरके सम्बन्धसे अनेक प्रकार आकारों को धारण करता है। इन आकारोंके परिवर्तनको 1 . Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० ] श्रीप्रवचनसारटीका | व्यंजन पर्याय कहते हैं । जैसे आकार भिन्न २ होता है वैसे ज्ञान दर्शन वीर्य आदि विशेष गुणोकी प्रगटता भी भिन्न २ प्रकारकी होनाती है । ऐसी अवस्थाएं होती रहती हैं, छूटती रहती हैं। ये सब कर्मके द्वारा उत्पन्न अवस्थाएं नाशवत हैं ऐसा निश्चयकर अपने स्वाभाविक पुद्गलके संयोगसे भिन्न शुद्ध असंख्यात प्रदेशरूप सिद्ध पर्यायको ही ग्रहण करने योग्य जानना चाहिये, नरनार कादि रूपोंको त्यागने योग्य मानना चाहिये ॥ ६३ ॥ उत्थानिका- आगे उन्ही व्यजन पर्यायके भेदोको प्रगट करते 3 I बताते है णरणारयतिरियसुरा संठाणादीहि अण्णहा जादा । पजाया जीवाणं उदयादु हि णामकम्मस्स || ६४ ॥ नरनारकतिर्यक्सुराः सस्थाना'दभिरन्यथा ज.ताः । पर्याया जीवानामुदयादि नामकर्मणः ॥ ६४ ॥ अन्वयसहित सामान्यार्थ - ( णामकम्मस्स उदयादु ) नाम कर्मके उदयसे (हि) निश्चयसे ( जीवाणं ) संसारी जीवोंकी (णरणारयतिरियसुरा ) नर, नारक, तियच और देव (पज्जाया) पर्यीयें (ठाणादीहिं) सस्थान आदिके द्वारा ( अण्णहा ) स्वभाव पर्यायसे भिन्न अन्य २ रूप ( जादा) उत्पन्न होती हैं । विशेषाथ - निर्दोष परमात्मा शब्दसे कहने योग्य, नाम गोत्रा - दिसे रहित शुद्ध आत्मा द्रव्यसे भिन्न नाम कर्मके बन्ध, उदय, उदीरणा आदिके वशसे जीवोंकी नर, नारक, तिर्यच तथा देव रूप अवस्थाएं अर्थात् विभाव व्यजन पर्यायें अपने भिन्न २ आकारों से भिन्न उपजती हैं। मनुष्य भवमें जो समचतुरससस्थान Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . द्वितीय खंड। [२:१ व औदारिकादि शरीर होता है उसकी अपेक्षा अन्य भवमें उससे 'भिन्न ही संस्थान शरीर आदि होते हैं। इस तरह हरएक नए नए भवमे कर्मकत भिन्नता होती है, परन्तु शुद्ध बुद्ध एक परमात्मा द्रव्य अपने खरूपको छोडकर भिन्न नहीं हो जाता है। जैसे अग्नि तृण, काष्ठ, पत्र आदिके आकारसे भिन्नर आकारवाली हो जाती है तो भी अग्निपनेके स्वभावको अग्नि नही छोड़ देती है। क्योकि ये नरनारकादि पर्यायें कौके उदयसे होती है इससे ये शुद्धात्माका स्वभाव नहीं है। - भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने फिर इसी बातको स्पष्ट किया है कि ये संसारी जीव कर्मोंसे बद्ध हैं इसीसे उनको चौरगतियों के अनेक प्रकारके शरीरोको धारकर अनेक रूप होना पड़ता है। नामकर्मके उदयसे एकेंद्रिय पर्यायमें पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा वनस्पतिरूप देन्द्रियमे लट, केचुआ, कौडी, संख आदि रूप; तीन इन्द्रियमे चीटी, चीटे, खटमल, जू, जोक आदि रूप, चौद्रियमें मक्खी, भ्रमर, तितली, भिड़, पतगा आदि रूप और पंचेंद्रियमें मच्छ, गाय, भैस, कुत्ता, बिल्ली, सिंह, हिरण, सर्प, नकुल, कबूतर, काक, भोर, मैना, तोता आदि अनेक रूप तिर्यंच गतिकी अवस्थाओमें नाना प्रकार शरीरके आकार रंग, हड्डी, मांस आदि प्राप्त करने पड़ते हैं। मनुष्य गतिमें अनेक रंगके, अनेक प्रकारके सुन्दर, असुन्दर, मोटे पतले, रूखे चिकने शरीरोंको धारकर अनेक आर्य व अनार्य देशोंमें जन्म लेकर रहना पड़ता है। देवगतिमे भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी, कल्पवासी देवोमे वैक्रियिक शरीरकी अनेक जातियोमें जन्म लेकर अनेक प्रकारके छोटे व बडे शरीर पाकर १६ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारवर्तन धारण करके अ २४२] श्रीप्रवचनसारटोका। समय विताना पडता है। इसी तरह नरक गतिमें अनेक प्रकारके भयावने असुन्दर छोटेवडे शरीरोंको धारकर सात नरकोंमें कष्ट उठाना पडता है । आचार्य कहते हैं कि संसारमें अनेक शरीरोंमें जीवका आकार संकोच विस्तारसे अनेक प्रकार हो, जाता है व शरीरकी अनेक प्रकारकी अच्छी बुरी अवस्थाएं होती हैं इनमें कारण नामकर्मका विचित्र प्रकारका उदय है। अन्य कर्मोके उदयके वशसे आत्मीक गुणोंकी विकारता रहती है। सर्व संसारीक व्यंजन पयायें कर्मद्वारा जनित हैं-मेरे शुद्ध ज्ञानानन्दमई आत्मीक स्वभावसे भिन्न हैं । यद्यपि मेरी आत्माने इस पंच परिवर्तनरूप संसारमें अनेक अवस्थाएं धारण करके अनेक भेष बनाए हैं, परन्तु मेरा निश्चित असंख्यात प्रदेशमई आकार व मेरे निश्चित स्वाभाविक गुण तथा स्वभाव सब मेरेमें वैसे ही रहे-उनकी अवस्थाएं कर्मके निमित्तसे अनेक विकाररूप हुई तथापि उनका स्वभाव कभी मिटा नहीं । मैं जब कर्मके आवरणके भावको चित्तसे हटाकर अपनेको देखता है तो अपनेको सिद्ध भगवानरूप ही शुद्ध अनन्त शक्तियोका धारी ही देखता हूं और इसी लिये निनानन्दरूपी अमृतके पानके लिये मै इसी अपने स्वभावका अनुभव करता हुआ स्वाद लेता हू । यही भावना कार्यकारी है। महाराज कुन्दकुन्दाचार्यजीने समयसार 'मि भी शरीरोकी अवस्थाओो नाम कर्मकृत बताया है एक ग्णि तिणि य चत्तारि य पञ्च इन्दिया जीवा। वादरपतिदरा पयडीओ णामकस्मस्स ॥ ७० ॥ एदेहि य णिवत्ता जीवडाणा दु करणभूदाहिं । निश्चित Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंडा। [२४३ पयडीहिं पोग्गलमईहिं ताहिं कह भण्णदे जोवो ॥ ७ ॥ पर्जत्तापजत्ता जे सुहमा वादरा य जे चेव।। देहस्स जीवसपणा सुत्त ववहारदो उत्ता ॥ २ ॥ भावार्थ-एकेंद्रिय, वेंद्रिय, तेंद्रिय, चौंद्रिय, पंचेंद्रिय जाति, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त ये सब नामकर्मकी प्रकृतिये हैं। जो ये १४ जीव समासरूप जीवीके भेद अर्थात् एकेंद्रिय सूक्ष्म, एकेद्रिय वादर, ढेंद्रिय, तेंद्रिय, चौंद्रिय, पचेंद्रिय असैनी, पचेंद्रिय सैनी ये सात पर्याप्त व सात अपर्याप्त पैदा हुए हैं सो सब पुद्गलमई नामकर्मकी प्रतियोके कारणसे पुद्गलरूप ही बने हुए हैं । इनको निश्चयसे जीव कैसे कहा जा सकता है ? सिद्धांतमें जो पर्याप्त अप र्याप्त सूक्ष्म, वादर जीवोंके नाम कहे हैं सो शरीरको ही जीवकी संज्ञा व्यवहारनयसे कही गई है । निश्चयसे जीव इन शरीरादिसे रहित शुद्ध टंकोत्कीर्ण ज्ञाता दृष्टा स्वभावका धरनेवाला है। यही मेरा खभाव है। ऐसी भावना करके अपने आत्माको सर्व नरनारक आदि पर्यायोसे भिन्न एकाकाररूप अनुभव करना चाहिये, यह तात्पर्य है। उत्थानिका-आगे यह प्रकाश करते हैं कि जो कोई अपने स्वरूपमे अस्तित्त्वको रखनेवाले परमात्मद्रव्यको जानता है वह परद्रव्यमें मोहको नही करता है तं सब्भावणिवद्ध दवसहावं तिहा समनाई। जाणदि जो सवियप्प, ण मुहदि सो अण्णदविम्हि ॥६॥ त सद्भावनियद्ध द्रव्यहरभाव निध समाख्यातम् । जानाति य. सवित ल्प न मुति सोऽन्यद्रव्ये ॥ ६५ ॥ अन्वय महित सामागाथ-(जो) नो ज्ञानी (सम्भावणिनई) अपने स्वभावमें तन्मय (तिहा समस्खाद) व तीन प्रकार कहे हुए Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' २४४ ] श्रीप्रवचनसारटोका । ( दव्वसहावं ) द्रव्यके स्वभावको (सवियपं) भेद सहित ( जाणदि) जाता है (सो) वह (अण्णदवियम्हि ) अन्य द्रव्यमें (ण मुहदि) मोहित नही होता है । विशेषार्थ - जो कोई परमात्म द्रव्यके स्वभावको ऐसा जानता है कि यह अपने स्वरूप सत्तामें तन्मय रहता है तथा इसका स्वभाव तीन प्रकार कहा गया है अर्थात् केवलज्ञान आदि गुण हैं, सिद्धत्त्व आदि विशुद्ध पर्यायें हैं तथा इन दोनोंका आधाररूप परमात्म द्रव्य है तैसे ही शुद्ध पर्यायोंमें उत्पाद व्यय तथा धौव्य रूप है ऐसे स्वरूप अस्तित्त्व के साथ तीन रूप है तथा ज्ञान दर्शन, भेदसहित है इनमें साकार ज्ञान व निराकार दर्शन है। वह भेदज्ञानी विशुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभाव आत्मतत्त्वको जानता हुआ देह च रागादि परद्रव्यों में मोह नही करता है । t भावार्थ - इस गाथाका भाव यह है कि द्रव्य छः है इन छहों द्रव्योंकी स्वरूप सत्ताको 'कि इनका अस्तित्त्व सदासे है व सदा रहेगा, व ये गुण पर्याय मय हैं व उत्पाद व्यय ध्रौव्य स्वरूप हैं इस तरह तीन प्रकार जैसा जिनेन्द्र भगवानने कहा है पैसा उनको भेद प्रभेद सहित अच्छी तरह जानता है वही ज्ञानी है । उस ज्ञानीको यह जगत यद्यपि मिश्रित अनेक अवस्थामय है तथापि अलग अलग प्रगट होता है। जितनी आत्माएं हैं सब शुद्ध ज्ञानानंदमय झलकती हैं, जितने अनात्म द्रव्य पुद्गलादि हैं वे सब अचेतन प्रगट होते हैं । उसको अपने आत्माकी सत्ता भी अन्य आत्माओं से जुदी भासती है। वह अपनी आत्माको परम वीतराग ज्ञानदर्शन सुख वीर्यका समूहरूप एक अखंड अपने ही Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। । [२४५ शरीरमें विराजित अनुभव करता है ऐसे अनुभवी जीवका स्वभावसे ही मोह अपने ही निज द्रव्यको छोड़कर अन्य किसी भी द्रव्यमें नहीं रहता है-वह जगतकी अवस्थाओको ज्ञातादृष्टाके समान देखता जानता है-उनके किसी पर्यायके होनेमे हर्ष व किसी पर्यायके विगड़नेमें द्वेष नहीं करता है, वीतरागी रहता हुआ ज्ञानी बन्धमें नहीं पड़ता है। वास्तवमे मोहकी जड़ काटनेवाला पदार्थोका सम्यग्श्रद्धान और सम्यग्ज्ञान है। इनके होनेपर मोहकी गांठ टूट जाती है और कुछ काल पीछे ही मोहका सर्वथा क्षय हो जाता है, और आत्मा केवलज्ञानी हो जाता है। इस तरह जिस तरह वने यथार्थज्ञान प्राप्त करना चाहिये । ज्ञानलोचन रत्रोत्रमे श्री वादिराज महाराज कहते हैं: अनाविद्यामयमूछिताग, कामोदरकोघहुताशतप्तम् । स्याद्वादपीयूषमहोपधेन, त्रायस्व मा मोहमहाहिदष्टम् ॥३१॥ । भावार्थ-मै अनादिकालके अज्ञानमई रोगसे मूर्छित हूं, काम क्रोधकी अग्निसे जल रहा हूं, मोह महा सर्पसे डसा गया हूं, मुझे स्याद्वादरूपी अमृतमई महा औषधि पिलाकर मेरी रक्षा कर । श्री आत्मानुशासनमे गुणभद्राचार्य कहते हैंमुहुः प्रसार्य सद्ज्ञान पश्यन् भावान् यथास्थितान् । प्रीत्यमोती निराकृत्य ध्यायेदध्यात्मविन्मुनिः ॥ १७७ ॥ . भावार्थ-वारवार सच्चे ज्ञानका विस्तार करके व पदार्थोके यथार्थ स्वभावोको देखता हुमा एक अध्यात्मज्ञानी मुनि रागद्वेष दूरकर निज आत्माका ध्यान करे। ___इससे यह सिद्ध है कि ज्ञानी जीव ही मोहका क्षय कर सक्ता है ॥६५॥ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० श्रीप्रवचनसारटीका। इस तरह नर नारक आदि पर्यायोके साथ परमात्माका विशेष भेद कथन करते हुए पहले स्थलमें तीन गाथाएं पूर्ण हुई। उत्थानिका-पूर्वमें कहे प्रमाण आत्माका नर, नारक आदि पर्यायोके साथ भिन्नताका ज्ञान तो हुआ, अब उनके संयोगका कारण कहते है अप्पा उपयोगप्पा उवओगो णाणदंसगं भणिदो। सो हि सुहो असुहो वा उवयोगो अप्पणो हवदि ॥६क्षा आत्मा उपयोगात्मा उपयोगी जानदर्शन भणितः । स हि शुभोऽशुभो वा उपयोग आत्मनो भवति ॥६६॥ अन्वय सहित सामान्यार्थ --(अप्पा) आत्मा (उवओगप्पा) उपयोग स्वरूप है, (उपओगों) उपयोग (णाणदसणं ) ज्ञानदर्शन (भणिदं) कहा गया है। (सो हि अप्पणो उवओगो) वही आत्माका उपयोग (सुहो वा असुहो) शुभ या अशुभ (हवदि) होता है। विशेषार्थ-चैतन्यके साथ होनेवाला जो कोई परिणाम उसको उपयोग कहते है उस उपयोगमई यह आत्मा है । वह उपयोग विकल्प सहित ज्ञान व विकल्प रहित दर्शन होता है, ऐसा कहा गया है। वही ज्ञानदर्शनोपयोग जब धोनुरागरूप होता है तब शुम है और जब विषयानुरागरूप होता है व द्वेष मोहरूप होता है तब अशुभ है। गाथामे वा शब्दसे शुभ अशुभ अनुरागसे रहित शुद्ध उपयोग भी होता है ऐसा तीन प्रकार आत्माका उपयोग होता है। ___भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने यह कहा है कि जिन कर्मोके उदयसे निश्चयसे शुद्ध परन्तु अनादि कर्मवंधसे अशुद्ध इस जीवके Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड | [ २४० नरनारक आदि पर्यायें होती है उन कर्मोंका वध इसी जीवके अशुद्ध उपयोगसे होता है । आत्मा चेतना गुणधारी है उसीके परिणामको उपयोग कहते है । उसके दो भेद हैं- एक दर्शन, जो सामान्यरूपसे विना आकारके पदार्थोंमे प्रवर्तन करता है। दूसरा ज्ञान - जो विशेष रूपसे आकारसहित पदार्थोंको जानता है । अल्पज्ञानीके ये दर्शन और ज्ञान उपयोग एक साथ नहीं होते है । पहले दर्शन पीछे ज्ञान होता है। ज्ञान दर्शनपूर्वक होता है । जब मोहकी कलुषतासे उपयोग मैला नही रहता है तब ज्ञानदर्शनोपयोग शुद्ध होता है और शुद्धोपयोग कर्मबन्धका कारण नही होता है, परन्तु जब मोहकी कलुषतासे उपयोग मैला होता है तब वह - अशुद्धोपयोग कहलाता है । उस अशुद्धोपयोगके दो भेद हैं- एक शुभोपयोग दूसरा अशुभोपयोग । जब उपयोगमे कषायकी मन्दतासे धर्मानुराग होता है तब वह शुभोपयोग कहलाता है और जब पचेंद्वियोके विषयों में लीन रहता है व कषायोकी तीव्रतासे तीव्र क्रोध, मान, माया व लोभमे फंसकर मोही द्वेषी होता है तब वह उपयोग अशुभ उपयोग कहलाता है । ये ही दो प्रकारका अशुद्ध उपयोग कर्मबन्धका कारण है । शुभ उपयोगमे विशुद्धता तथा अशुभ उपयोगमे सक्लेशपना रहता है । ऐसा जानकर शुद्धोपयोगको उपादेय मानकर उसकी प्राप्तिका सदा ही यत्न करना चाहिये। श्री आत्मानुशासन मे कहा है. - शुभाशुभे पुण्यपापे सुखदुःखे च पटु त्रयं । हितमाद्यमनुष्ठय शेषत्रयमथा हितम् ॥ २३९ ॥ तत्राग्याद्य परित्याज्य शेपो न स्तः स्वतः स्वयम् । शुभ च शुद्धे त्यक्त्वान्ते प्राप्नोति परमं पदम् ॥ २४० ॥ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ ] श्रीप्रवचनसारटीका | भावार्थ- शुभ उपयोग उससे पुण्यबन्ध उसका फल संसारीकसुख, अशुभ उपयोग उससे पापबन्ध, उसका फल दुःख, इन छहों में व्यवहारमें पहले तीन हितकारी हैं इससे ग्रहण योग्य हैं तथा दूसरे तीन हितनाशक हैं इससे त्यागने योग्य हैं । उनमें भी 1 निश्चयसे आदिका शुभोपयोग त्यागने योग्य है जिसके त्याग होते हुए शेष दो भी स्वयं नहीं होते अर्थात् पुण्यबन्ध व सांसारिक सुख नहीं होते । शुभको छोड़कर शुद्धोपयोग होते हुए अन्तमें परमपदको यह आत्मा प्राप्त कर लेता है || ६६ ॥ उत्थानिका- आगे फिर कहते हैं कि जब यह अशुद्ध उपयोग ही नरनारकादि पर्यायोंके कारणरूप परद्रव्यमई पुद्गलकर्म के बंधका कारण होता है तब किस कर्मका कौन उपयोग कारण हैउपभोगो जदि हि सुही पुण्णं जीवस्स संचयं जादि । असुहो वा तथ पावं, तेसिमभावे ण चयमत्थि ||६|| उपयोगो यदि हि शुभः पुण्य जीवस्य संचयं याति । अशुभ वा तथा पाप तयोरभावे न चयोऽस्ति ॥ ६७ ॥ अन्वयसहित सामान्याय - (हि) निश्रयसे ( नदि ) यदि ( उवओगो) उपयोग (सुहो) शुभ हो तो ( जीवस्स ) इस जीवके (पुण्णं) पुण्य कर्म (संचयं जादि) का संचय होता है (वा) अथवा (सुहो) अशुभ हो ( त ) तत्र (पाव) पापका संचय होता है । (तैसिमभावे ) इन शुभ अशुभ उपयोगोंके न होनेपर (चयं ) संचय (ण अस्थि) नही होता है । विशेषार्थ - जब शुभ उपयोग होता है तब इस जीवके द्रव्य पुण्यकर्मका बंध होता है और जब अशुभोपयोग होता है तो द्रव्य 1 Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [ २४६ पापका संचय होता है-इन दोनोंके विना पुण्य पापका वध नहीं होता है अर्थात् जब दोष रहित निन परमात्माकी भावनारूपसे शुद्धोपयोगके चलकेद्वारा दोनों ही शुभ अशुभ उपयोगोंका अभाव किया जाता है तब दोनो ही प्रकारके कर्मबंध नही होते है। भावार्थ-यहां यह दिखलाया है कि कर्मबंधका कारण कषायकी कलुपता है। जब आत्मा निष्कपाय या वीतराग अर्थात् साक्षात् शुद्धोपयोगमय होता है तब इसके कर्मबंध नहीं होता है। ११ । गुणस्थानसे कपायका उदय नहीं है। सयोग केवली तक योगोंका सकम्पपना है इसीलिये मात्र साता वेदनीय नामका पुण्यकर्म एक समयकी स्थितिधारी आता है और झड़ जाता है । जिस बंधमें कमसे कम अतर्मुहर्त स्थिति पड़े उसही को बंध कह सक्ते है ऐसा वध सूक्ष्मलोभ नामके दशवें गुणस्थान तक ही होता है । आयु कर्मके वधके अवसरपर आठ कर्म योग्य व शेप समयोंमें सात कर्म योग्य पुद्गलोंका आश्रव तथा बंध होता है । इनमें चार घातिया कर्म ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय तथा अंतराय द्रव्य पाप कर्म हैं तौभी इनका बंध सदा ही हुआ करता है । क्योंकि ज्ञानदर्शनमें जितनी कमी है व वीर्यमे जितनी कमी है व मोहकी नितनी कालिमा है उतनी ही थिरता उपयोगकी नहीं होती है। इस अथिरताके दोपसे हर समय इन चार घानिया कर्माका बंध हुआ करता है, परतु जब आत्मामें शुभोपयोग होता है तव इन पाप कर्मोंमें अनुभाग बहुत हीन पड़ता है, अशुभोपयोगके होनेपर तीव्र पड़ता है । अघातिया कर्मोंमे पुण्य पापके भेद हैं। साता वेदनीय; उच्च गोत्र, देव मनुष्य Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५०] श्रीप्रवचनसारटोका । गति शुभ, शुभग, आदेय, यश आदि नाम कर्मकी शुभ प्रकृतियें, तथा देव मनुष्य व तिथंच आयु कर्म, द्रव्य पुण्य कर्म हैं जब कि असाता वेदनीय; नीच गोत्र; नरक गति अशुभ, दुर्भग, दुखर, अनादेय आदि नाम कर्मकी अशुभ प्रकृति, तथा नरक आयु ये द्रव्य पाप कर्म हैं। ___ जब इस जीवका उपयोग मंदकषाय रूप होकर दान पूजा जप तप स्वाध्यायमें लीन होता है तब शुभोपयोग कहलाता है । उस समय घातिया कोके सिवाय चार अघातिया कर्मोमें द्रव्य पुण्य कर्मका ही बंध होता है और जब इस जीवका उपयोग तीव्र कषायरूप होकर हिसा, असत्य, पर हानि, विषय भोग आदिमें लीन होता है तब अशुभ उपयोग होता है उस समय घातिया कोंके सिवाय चार अघातिया कौमे द्रव्य पाप कर्मका ही बंध होता है। ___ शुभ व अशुभ कलिमाको बन्धका कारण जानकर, हमको मुक्ति पानेके लिये एक शुद्धोपयोगकी भावना ही कर्तव्य है। स्वामी अमितिगति बड़े सामायिकपाठमें कहते हैंपूर्व कर्म करोति दुःखमशुभं सौख्य शुभ निर्मितं । । विज्ञायेत्यशुभ निहंतु मनसो ये पोषयते तरः ॥ जायते समसंयमैकनिधयस्ते दुर्लभा योगिनो । ये त्वत्रोभयकर्मनाशनपरास्तेषां हिमत्रेच्यते ॥ ९० ॥ भावार्थ-पूर्वमे बांधा हुआ अशुभकर्म दुःख पैदा करता है जद कि शुभ कर्म सुख पदा करता है, ऐसा जानकर जो इस अशुभको नाश करनेके भावसे तप करते हैं और समता तथा संयमरूप होनाते हैं ऐसे योगी भी दुर्लभ हैं। परंतु जो पुण्य पाप दोनो ही प्रकार के कर्मोके नाशमें लवलीन हैं उन योगियोकी तो बात ही क्या कहनी। Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [२५१ प्रयोजन यह है कि जो शुद्धोपयोगके द्वारा सम्पूर्ण कर्मोंके नाशको चाहते हैं ऐसे ही साधु प्रशसनीय हैं, क्योकि शुद्ध वीतराग भाव ही बन्धनाशक तथा निनानन्ददायक और साक्षात् मुक्तिका मार्ग है ॥ ६॥ इस तरह शुभ, अशुभ, शुद्ध उपयोगका सामान्य कथन करते हुए दूसरे स्थलमे दो गाथाएँ समाप्त हुई। उत्थानिका-आगे विशेप करके शुभोपयोगका स्वरूप कहते हैंजो जाणादि जिणिदे पेच्छदि सिद्धे तधेव अणगारे । जोवे य साणुकंपो उपभोगो सो सुहो तस्स ॥ ६८ ॥ यो जानाति जिनेन्द्रान् पश्यति सिद्धास्तथैवानागारान् । जीवे च सानुकम्प उपयोगः स शुभस्तस्य ।। ६८ ॥ अन्वयसहित सामान्याथ-(जो) जो जीव (निणिदे) जिनेन्द्रोको (जाणादि) जानता है (सिद्धे) सिद्धोको (पेच्छदि) देखता है। (तधेव) तसे ही (अणगारे) साधुओंका दर्शन करता है (य) और (नीवे साणुकपो) जीवोपर दया भाव रखता है (तस्स) उस जीवका (सो उवओगो) वह उपयोग (सुहो) शुभ है। विशेपार्थ-जो भव्य नीव अरहंतोको ऐसा जानता है कि वे अनन्तज्ञान आदि चतुष्टयके धारी है तथा क्षुधा आदि अठारह दोपोसे रहित है तथा सिद्धोको ऐसा देखता है कि वे ज्ञानावरणादि आठ कर्म रहित हैं तथा सम्यक्त आदि आठ गुणोमे अंतर्भूत अनन्त गुण सहित है तैसे ही अनगार शब्दसे कहने योग्य निश्चय व्यवहार पच आचार आदि शास्त्रोक्त लक्षणके धारी आचार्य, उपाध्याय तथा साधुओंकी भक्ति करता है और बस स्थावर जीवोंकी Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ ] श्रीप्रवचनसारटोका । दया पालता है उस जीवके ऐसा व इसी नातिका उपयोग शुभ कहा जाता है। भावार्थ-इस गाथामें शुभोपयोगका वास्तविक कथन बताया है । जो यथार्थमें सम्यग्दृष्टी हैं, तत्त्वज्ञानी हैं, भेद विज्ञानसे खपरके ज्ञाता हैं उन्हीके ज्ञानमें अरहंत सिद्ध साधुओंका सच्चा स्वरूप व सच्चा प्रेम झलकता है व वे ही सच्चे हार्दिक दयावान होते हैं। वे ही इस वातको जानते हैं कि जिन्होंने अनन्तानुवन्धी कषाय और मिथ्यात्वको जीत लिया है, वेही जिन है उन्हींमें इन्द्र तुल्य चार घातिया कर्मोको क्षय करके अनंतज्ञान, दर्शन, सुख वीर्यको लब्धकर स्वरूप मगन रहनेवाले तथा क्षुधा, पिपासा, रोगादि अठारह दोषोसे रहित व अपनी दिव्यध्वनिसे मोहांधकारको नाशकर ज्ञान ज्योति प्रगटानेवाले श्री जिनेन्द्र या अरहंत होते हैं। तथा जो सर्व कर्म बंध रहित खरूपसे पूर्ण शुद्ध व निजानन्दमें तन्मय हैं वे सिद्ध हैं, जिन्होने सव कुछ सिद्ध कर लिया है व फिर निनको कभी संसारमें फंसना नहीं है तथा जो भेदाभेद रत्नत्रयके प्रतापसे मोक्षका साधन करते हैं वे गृह रहित दिगम्बर साधु है । उनका उपदेश मोक्षमार्गमें प्रेरणा करनेवाला है। सर्व जीवोंको अपने समान जाननेवाले तथा व्यवहारमें प्राणोंके भेदसे बस स्थावर प्राणी है ऐसा समझनेवाले ज्ञानी सम्यग्दृष्टी जीव दयाके सागर होते हैं वे किसी भी जीवको कष्ट देना नहीं चाहते हैं । इसी लिये साधु पदमें वे स्थावरतककी दया पालते हैं, परंतु जब गृहस्थ अवस्थामें होते हैं तब संकल्प करके त्रस घात Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितोय खंड । [२५३ नहीं करते हैं परन्तु लाचारीसे जो गृहस्थके आरंभ कार्य करने पड़ते हैं उनमे यथासंभव रक्षाके मावसे वर्तते हुए जो त्रस या स्थावरकी हिंसा होजाती है उससे अपनी निंदा करते हुए दयारससे सदा भीगे रहते है ऐसे महात्माओंके हृदयमें शुभोपयोग रहकर महान पुण्य कर्मका सचय करता है । इस गाथामे आचार्यने यह भी बतादिया है कि व्यवहार धर्म पंचपरमेष्ठीके गुणोमे भक्ति तथा अहिंसा धर्म है । दयारूप वर्तना अहिसा धर्मका एक अंग है। जीवोकी रक्षा हो यही भाव शुभोपयोग है। श्री नेमिचंद्र सिद्धांत चक्रवर्तीने पाचपरमेष्ठियोका खरूप द्रव्यसग्रहमें इस तरह कहा है णह चदुघाइ कम्मो दसण सुरण णवोरिय मइओ । सुहदेहत्यो ३ प्पा सुद्धो अरहो विचिंतिजो ॥ भावार्थ-जिन्होने चार घातिया कर्म नष्ट कर दिये है व जो. अनंत दर्शन, अनत सुख, अनंत ज्ञान व अनतवीर्यमई है व परम औदारिक शरीरमे बिराजित है तथा वीतराग आत्मा है वे अरहंत हैं उनका ध्यान करना चाहिये । णमम्मदेहो लोयालोयस्स जाणओ दहा ।। पुरिसायारो अप्पा सिद्धोझाएह लोयसिहरत्यो । भावार्थ-जिसने आठ कर्म तथा शरीरोंको नष्ट कर दिया है। जो लोक अलोकका ज्ञाता दृष्टा है, पुरुषाका है व लोकके शिखरपर विराजित है सो आत्मा सिद्ध है, उसका ध्यान करना चाहिये । दसणणाणपहाणे वीरियचारित्तवरतवायारे । अप्प पर च जुजह सो आयारेओ मुणी झयो ॥ भावार्थ-जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र, सम्यक् Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४] श्रीप्रवचनसारटीका। तप और सम्यक् वीर्यरूपी पांच प्रकारके आचारमें अपनी आत्माको तथा दूसरे शिष्यों को लगाते हैं वे मुनि आचार्य हैं उनको ध्याना चाहिये। जो रयणत्तयजुतो णिच घम्मोवएसणे जिरदो । सो उवझाओ अप्पा जदिवरवसहो णमो तस्स ॥ भावार्थ-जो रत्नत्रयसे युक्त हैं, नित्य धर्मोपदेश देनेमें लीन है, यतियोंमें श्रेष्ठ हैं वह आत्मा उपाध्याय है उसको नमस्कार हो। दसणणाणसमग म मोक्खस्स जो हु चारित्त । साधयदि णिच्च सुद्ध साहू स मुणो णमो तस्स ॥ भावार्थ-जो सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सहित चारित्र रूप मोक्षके मार्गको नित्य शुद्ध रूपसे साधन करते हैं वह मुनि साधु हैं उनको नमस्कार हो । इस तरह पांच परमेष्ठी परम हितकारी हैं । इनकी यथायोग्य भक्ति करना शुभोपयोग है। ___ अनुकम्पाका स्वरूप स्वयं श्री कुन्दकुन्द महारानने पंचास्तिकायमे इसतरह कहा है तिसिद व क्खिद वा दुहिर दग जो दु दुहिदमणो । पाडवादि तं किंवया तस्सेसा होदि अणुकम्पा ॥१३७॥ भावार्थ-जो कोई जीव प्यासा हो, भूखा हो, रोगादिसे दुःखी हो उसको देखकर जो कोई उसकी पीडासे आप दुःखी होता हुआ दमानी करके उस दुःखके दूर करनेकी क्रियाको प्राप्त होता है उसे पुरुषके यह अनुकम्पा होती है । वास्तवमें श्री देवगुरु शास्त्रकी भक्ति और दयाधर्ममे सर्व शुभोपयोग गर्मित है। यह शुभोपयोग राग सहित होनेसे मुख्यतासे पुण्य बंधका Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड 1 [ २५५ कारण है । मोक्षका कारण साक्षात् शुद्धोपयोग है जहां मात्र शुद्ध आत्मामें ही आप तन्मय रहकर वीतरागभावमें लीन रहता है । इसलिये शुद्धोपयोगको ही उपादेय मानकर उस रूप होनेकी चेष्टा करते हुए जबतक शुद्धोपयोग न हो शुभोपयोगमें वर्तना चाहिये । वास्तवमें शुभोपयोग धार्मिक भाव है सो सम्यग्दृष्टिके पाया जाता है मिथ्याष्टके नहीं । तथापि जहां व्यवहारकी दृष्टिसे देखा जाता है वहां निश्चय सम्यक्त न होते हुए जो व्यवहार सम्यक्ती देवगुरु शास्त्रकी भक्ति तथा दया मार्ग में व परोपकारमें वर्तन करता है उसको भी मंदकषाय होनेसे शुभोपयोग कह सक्ते हैं । यह शुभोपयोग अतिशय रहित साधारण पुण्य कर्म बंध करता है जब कि सम्यक्त्व सहित शुभोपयोग अतिशयरूप भारी विशेष पुण्य कर्मवाता है ॥ ६८ ॥ 4 उत्थानिका- आगे अशुभोपयोगका स्वरूप कहते हैंविसयकसाओगाढो दुस्सुदिदुच्चित्तदुदुगोजुदो । उग्गो उम्मग्गपरे। उवओगो जस्स सो असुहो ॥ ६६ ॥ विषय पायावगाढो दुग्तदुश्चिनदुष्टगो ष्टयुत । उम्र उन्मार्गपर उपयोगो यस्य सोऽशुभः ॥ ६९ ॥ अन्वय सहित मामान्यार्थः - ( जस्स) जिस जीवका ( उबओगो) उपयोग ( विमयकसा ओगाढो ) विषयोकी और कषायोकी तीव्रता से भरा हुआ है ( दुस्सु दिदुच्चितदुट्टगोट्टिजुदो ) खोटे शास्त्र पढने सुनने, खोटा विचार करने व खोटी सगतिमई वार्ता - लापमें लगा हुआ है, (उग्गो) हिंसादिमे उद्यमी दुष्ट रूप है, (उ. म्मग्गपरो) तथा मिथ्यामार्गमे तत्पर है ऐसे चार विशेषण सहित है ( सो असुहो) सो अशुभ है । Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ ] श्रीप्रवचनसारटीका । विशेषार्थ :- जो विषय कषाय रहित शुद्ध चैतन्यकी परिणतिसे विरुद्ध विषय कषायों में परिणमन करनेवाला है उसे विषय कषायावगाढ़ कहते हैं । शुद्ध आत्मतत्त्वको उपदेश करनेवाले शास्त्रको सुश्रुति कहते हैं उससे विलक्षण मिथ्या शास्त्रको दुःश्रुति कहते हैं। निश्चिन्त होकर आत्मध्यानमें परिणमन करनेवाले मनको सुचित्त कहते हैं । व्यर्थ वा अपने और दूसरेके लिये इष्ट कामभोगोंकी चिंतामें लगे हुए रागादि अपध्यानको दुश्चित्त कहते हैं, चरम चैतन्य परिणतिको उत्पन्न करनेवाली शुभ गोष्ठी है यां संगति है उससे उल्टी कुशील या खोटे पुरुषोंके साथ गोष्ठी करना दुष्ट गोष्ठी है। इस तरह तीन रूप जो वर्तन करता है उसे दु. श्रुति, दुश्चित्त, दुष्टगोप्टीसे युक्त कहते हैं । परम उपशम भावमें परिणमन करनेवाले परम चैतन्य स्वभावसे उल्टे भावको जो हिंसादिमें लीन है उग्र कहते हैं, वीतराग सर्वज्ञ वय व्यवहार मोक्षमार्गसे विलक्षण भावको उन्मार्ग में हैं इसतरह चार विशेषण सहित परिणामको व ऐसे परिणत होनेवाले जीवको अशुभोपयोग कहते हैं । भावार्थ - इस गाथामें आचार्यने अशुभोपयोगका बहुत ही बढिया स्वरूप बताया है । कथित नि लीन कहते परिणामों में ज्ञान दर्शनोपयोगकी परिणतिमें जब ऊपर लिखित शुभोपयोगके व शुद्धोपयोगके भाव नहीं होते हैं तब तीसरे अशुभोपयोगके भाव अवश्य होते हैं। क्योंकि हरएक जीवके तीन प्रकार के उपयोगों में से एक न एक उपयोग एक समय में अवश्य पाया जायगा । अशुभोपयोग भावकी पहचान यह है कि जिसका उपयोग पांचों Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीया खंड [२५७ इन्द्रियोंकी तीव्र इच्छासे विवश हो इन्द्रिय भोगोंके संकल्परूप संरंभमें, उनके प्रबन्ध रूप समारंभमें व उनके भोगने रूप आरंभमें वर्तन करता है, व क्रोध, मान, माया, लोभ कषायोंकी तीव्रतामें फंसकर इन कपायोके साथ मनके, वचनके व कायके वर्नने में लग जाता है, जिससे मारपीट करता है, गाली बकता है, दूसरेको तुच्छ समता है, कपटसे ठगता है, अन्यायसे धन एकत्र करता है, व विषय कषायोमे तथा मिथ्या एकांत धर्ममें फंसानेवाले खोटे शास्त्रोके पड़नेमे लग जाता है, व कामभोगकी या अन्य दुष्ट चितारूप फिकरोंमें लगा रहता है व खोटे मित्रों के साथ बैठकर परनिन्दा, आत्मप्रशंसा व खोटे मत्र करनेकी गोष्टीमें उलझा रहता है व जुआरमण, चौपड, सतरज, तास खेलन, भंडरूप वचन व चेष्टाके व्यवहारमे रति करता है व सदा 'भयानकरूप हो हिसा प्रवृत्ति, मृपावाद, चोरीकरण, कुशील व परिग्रहवृद्धिमे फंसा रहता है व मिनेन्द्रप्रणीत मार्गसे विरुद्ध अन्य संसारके वढानेवाले मिथ्यामार्गोकी 'सेवा पूजा भक्ति व श्रद्धामें लगा रहता है उसको अशुभोपयोग कहते है । यह अशुभोपयोग पापकर्मका बाधनेवाला है जिस पापकर्मके फलसे यह जीव नरक, निगोद, तिर्यच व खोटी मनुष्य पर्यायमे जाकर महान् असह्य सकटोंको उठाता है। श्री पंचास्तिकायमे भी आचार्यने अशुभोपयोगका स्वरूप इसतरह कहा है: चरिया पमादबहुला कालुस्स लोलदा य विसयेसु । परिपरितावपवादो पावस्स य आसवं कुणदि ॥ १३९ ॥ भावार्थ-स्त्री, भोजन, राजा व देश कथा सम्बन्धी भावोमें मिली हुई वृथा राग उपजानेवाली प्रमादरूप क्रिया अथवा असा Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ ] थ्रोप्रवचनसारटोका ! चधानीसे हिंसारूप गृहस्थीके आरंभकी क्रिया, चित्तकी मलीनता, इंद्रियोंके विषयभोगोंमें लोलुपता, अन्य प्राणियोंको दुःख देनेवाली क्रिया व दूसरोंकी निन्दा इत्यादि प्रवृत्ति पापका आश्रव करती है। श्री कुलभद्र आचार्यकृत सारसमुच्चयमें अशुभोपयोगके भावोंको इस तरह बताया है कषायविषयश्चित्तं मिध्यात्त्वेन च संयुतम् । संसारवीजता याति विमुक्तं मोक्षवीजताम् । ३३ ॥ भावार्थ - जो मन विषय कषायोंसे व मिथ्यादर्शनसे पीड़ित और इनहीसे रहित है वह संसारके वीजपनेको प्राप्त होता है मोक्षका बीज होता है । अज्ञानावृत्तचित्ताना रागद्वेषरतात्मनाम् । आरंभेषु प्रवृत्ताना हितं तस्य न भीतवत् । २५३॥ भावार्थ - जिनका चित्त अज्ञानमें वर्तन करता है व जो राग द्वेषमें रत हैं व जो आरंभोमें वर्तन करते हैं उनका हित उसी तरह नहीं होता है जैसे डरपोकका हित नहीं होता है । अशुभोपयोगके परिणामोसे यहां भी संक्लेशभाव होता है, आकुलता होती है, भय रहता है, जिससे सुख शांति नहीं प्राप्त होती है तथा उन परिणामोंके द्वारा दूसरोको भी कष्ट होता है तथा उनसे जो पापकर्मका बन्ध होता है वह उदयमें आकर जीवोंको अनेक कुयोनियोमें महा दुःख प्राप्त कराता है। इससे अशुभोपयोग मूल संस्कारका कारण है तथा सब तरहसे हानिकारक है इससे सर्वथा त्यागने योग्य है, यह भावार्थ है ॥ ६९ ॥ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [२५६ उत्थानिका-आगे शुभ अशुभ उपयोगसे रहित शुद्ध उपयोगको वर्णन करते है असुहोवोगरहिदो सुहोवजुत्तो ण अण्णदवियम्मि । होजं ममत्थोऽहं णाणप्पगमप्पगं झाए ॥ ७० ॥ अशुभोपयोगरहितः शुभोपयुक्तो न अन्यद्गम्ये । भवन्मध्यस्योऽह ज्ञानात्मकमात्मकं ध्यायामि ॥ ७० ॥ अन्वय सहित सामान्यार्थ:-(अहं) मैं (असुहोवओगरहिंदी) अशुमोपयोगसे रहित होता हू. (सुहोवजुत्तो ण) शुभोपयोगमें भी परिणमन नहीं करता हूं तथा ( अण्णदवियम्मि ) निन परमात्मा सिवाय अन्य द्रव्यमे तथा जीवन मरण, लाभ, अलाभ, सुख दुख, शत्रु मित्र, निंदा प्रशंसा आदिमें (मज्झत्थो होनं ) मध्यस्थ होता हुआ (गाणप्पगम् ) ज्ञानस्वरूप (अप्पगं) आत्माको (झाए) ध्याताहूं। विशेषार्थ-अशुभोपयोग तथा शुभोपयोगमें परिणमन न करके वीतरागी होकर ज्ञानसे निर्मित जानखरूप तथा उस केवलज्ञानमें अंतर्भूत अनंतगुणमई अपनी आत्माको शुद्ध ध्यानके विरोधी सर्व मनोरथरूप चिंताजालको त्यागकर ध्याताहू । यह शुद्धोपयोगका लक्षण जानना चाहिये । ___ भावार्थ-इस गाथामें शुद्धोपयोगका स्वरूप जो वास्तमें अनुभवगम्य है, बचतगोचर नहीं है, उसका समेत खरूर कयन किया है। नहा ध्याताका उपयोग मिथ्यामागे, व विषय कपायरूर अशुभोरयोगसे बिलकुल दूर रहकर भक्ति, पूजा, दान, परोपकार आदि मद कायसे होनेवाले शुभोपयोगोंसे भी छुटा हुआ होजा Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० ] श्रीप्रवचनसारटीका । Buda ~ है और द्रव्यार्थिक दृष्टिके द्वारा परिणमन करता हुआ पर्यायार्थिकदृष्टि से जो जीवन मरण, लाभ अलाभ, शत्रु मित्र, निंदा प्रशंसा आदिमें विकल्प उठकर किसी में राग व किसीमें द्वेष होता था सो नहीं होकर समताभावमें मग्न होजाता है और केवल मात्र ज्ञायकस्वभावरूप अपने ही शुद्ध आत्माके भीतर लय होजाता है वह शुद्धोपयोग है। इस शुद्धोपयोगकी दशामे ध्याताके अंतरंग में ध्याता, ध्येय, ध्यानके विकल्प नहीं होते । जो ध्याता है वही ध्येय है, वही ध्यान है । आत्मामे एकाय परिणतिको ही शुद्धोपयोग कहते हैं। यही स्वात्मानुभवरूप दशा है, यही ध्यानकी अग्नि है जो कर्मोको नाश करती है, यही रत्नत्रयकी एकतारूप निश्चय मोक्षमार्ग है, यही साधन है जिससे मोक्षकी सिद्धि होती है। निर्जराका यही मुख्य उपाय है | इस शुद्धोपयोगमे अपूर्व आनन्दका स्वाद आता है जिससे ध्याता परमसुखसमुद्रमे मग्न होकर एक शुद्ध अद्वैत भावरूप हो जाता है, इस शुद्धोपयोगकी दशा श्री नागसेनमुनिने तत्त्वानुशासनमे इसतरह कही है तदेवानुभवश्चायमेवायं परिमृच्छति । तथात्माधीनमानदमेति वाचामगोचर ॥ १७० ॥ यथा निर्वातदेशस्थः प्रदीपो न प्रकंपते । तथा स्वरूपनिष्ठेऽय योगी नैकाग्र्यमुज्झति ॥ १७१ ॥ तदा च परमेकाग्र्याद्वहिरर्थेषु सत्स्वपि । अन्यन्न किंचनाभाति स्वमेत्रात्मनि पश्यतः ॥ १७२ ॥ पश्यन्नात्मानमैकाग्र्यात्क्षपयत्यार्जितान्मलान् । निरस्ताहमभीभावः संत्रणेत्यप्यनागतान् ॥ १७८ ॥ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२६१ . द्वितीय खंड। भावार्थ-उसी ही अपने आत्माको अनुभव करताहुआ परम एकाग्रभावको पाता है तथा वचनअगोचर स्वाधीन आनन्दका लाम करता है। जैसे वायु रहित प्रदेशोंमें रक्खा हुआ दीपक नहीं कापता है-अखंड जलता है तेसे योगी अपने आत्मस्वरूपमें स्थिर होता हुआ एकाग्रभावको नहीं त्यागता है तब बाहरी अन्य पदाकि होते हुए भी अपने आत्मामें अपने आत्माको अनुभव करते हुए और कुछ भी नहीं झलकता है। इस तरह अपने आत्माको एकाग्रमावसे अनुभव करते हुए वह योगी 'निसका सर्व अहंकार ममकार नष्ट होगया है' आगामी आने योग्य कर्मोको रोक देता है और पुराने वाधे हुए कौका क्षय करता है । यही शुद्धोपयोगकी दशा है। श्री देवसेनाचार्य तत्वसारमे कहते है - ससहाव वेदतो णिचलचित्तो विमुकपरभावो । सो जीवो णायव्यो दसणणाणं चरित्त च ॥५६ ॥ जो अप्पा त णाणं ज णाग त च दसण चरण । सा नुद्धचेयणावि य पिच्छयणयमस्सिए जीवे ॥५७॥ भावार्थ-वह योगी निश्चल चित्तको परभावोसे छूटा हुआ अपने स्वभावको जब अनुभव करता है तब वही जीव सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र म्वरूप जानना चाहिये । जो जीव निश्चयनयके विषयरूप शुद्ध भावमें आश्रय लेता है उसके अनुभवमें जो आत्मा है सोही ज्ञान है, जो ज्ञान है वही सम्यग्दर्शन व सम्य- ' ग्चारित्र है अथवा वही शुद्ध जान चेतना है। शुद्धोपयोग परम कल्याणकारी है ऐसा जान इसीको उपादेय मान इसीका उद्यम करना चाहिये । इसतरह शुभ, अशुभ, शुद्ध उपयोगका वर्णन करते हुए तीसरे स्थलमें तीन गाथाएं पूर्ण हुई। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीप्रवचनसारटीका। उत्थानिका-आगे शरीर, वचन और मनके सम्वन्धमें मध्यस्थभावको झलकाते हैं णाहं देहो ण मणो ण चेव वाणी ण कारणं तेसि । कत्ता ण ण कारयिदा अणुमत्ता व कत्तीणं ॥ १ ॥ णाहं देहो न मनो न चैव वाणी न कारण तेपाम् । • कर्ता न न कारयिता अनुमंता नैय कर्तगाम् ॥ ७१ ॥ अन्वयसहित सामान्यार्थ:- (अहं देहो ण) मैं शरीर नहीं हूं रण मणो) न मन हूं (ण चेव वाणी ) और न वचन ही हूं (ण तेसिं कारणं) न इन मन वचन कायका उपादान कारण हूं। (ण कर्ता) न मैं इनका करनेवाला है (ण कारयिदा) न करानेवाला हूँ (णेव कत्तीणं अणुमंता) और न करनेवालोंकी अनुमोदना करता हूं। विशेषार्थ-मन, वचन, कायके व्यापारसे रहित 'परमात्म द्रव्यसे भिन्न जो मन, वचन, काय तीन है। मैं निश्चयसे इन रूप नहीं हूं इसलिये इनका पक्ष छोड़कर मै अत्यन्त मध्यस्थ होता हूं। विकार रहित परम आनन्दमई एक लक्षणरूप सुखामृतमे परिणति होना उसका जो उपादान कारण आत्मद्रव्य उसरूप मैं हूं। मन वचन कायोंका उपादान कारण पुद्गल पिड है' मै नहीं हूं। इस कारणसे उनके कारणका भी पक्ष छोडकर मध्यस्थ होता हूं। मै अपने ही शुद्धात्माकी भावनाके सम्बन्धमें कर्ता, करानेवाला तथा अनुमोदना करानेवाला हूं परंतु उससे विलक्षण मन वचन कायके सबंधमें कर्ता, ' करानेवाला, तथा अनुमोदना करनेवाला नहीं हूं। इसलिये इसका पक्ष भी छोड़कर मैं अत्यंत मध्यस्थ होता हूं। भावार्थ-इस संसारी प्राणीकी सर्व व्यवहार क्रियाएं मन, Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [२६३ वचन, कायके व्यापारसे होती है। यहां आचार्य शुद्धात्माकी तरफ लक्ष्य करके कहते हैं कि यह आत्मा न शरीर है, न मन है, न बाणी है, न उनका कारण है, न उनका कर्ता है, न करनेवाला है, न इनका होना किसीके चाहता है। निश्चय नयसे आत्मा ज्ञायकखभाव है। उसका स्वभाव न शरीर लेना न उसकी क्रिया करना , है, न वचनोका व्यवहार करना है न मनका सकल्प विकल्प करना है । जितनी मन वचन कायकी क्रियाएं होती है वे मुख्यतासे मोहके कारणसे सराग अवस्थामे तथा नामकर्मके कारणसे वीतराग अवस्थामे होती हैं। इनकी क्रियाओमें बारहवें गुणस्थान तक क्षयोपशम ज्ञानोपयोग काम करता है जो आत्माके शुद्ध ज्ञानसे भिन्न है। जैसे मन वचन कायकी क्रियाए स्वभावसे शुद्ध कर्म रहित आत्मामे नहीं होती है वैसे मन, वचन, कायकी रचना भी आत्मासे नहीं होती है न आत्मा उनरूप है, न उनका कारण है क्योकि आत्मा चैतन्यरूप अमूर्तीक है, जब कि मन वचन काय जरूप मूर्तीक हैं । हृदयस्थानमें मनोवर्गणासे बना हुआ द्रव्य मन आठ पत्रके कमलके आकार है। भाषा वर्गणाओंसे वचन, तथा आहारक वर्गणा ओंसे हमारा शरीर बनता है। इस तरह ये मन वचन काय पुद्गलमई हैं। इनका कारण भी पुद्गल है । मेरे चैतन्य स्वमावसे ये सर्वथा भिन्न हैं ऐसा समझकर इनसे वैराग्यभाव लाकर शरीरमें बिराजित शुद्धात्माको ही अपना स्वरूप समझना चाहिये । जबतक इन मन वचन कायोमे अहंबुद्धि न छोड़ेगा तबतक इस जीवको स्वपदका भान नही होसक्ता । श्री पूज्यपादस्वामीने समाधिशतकमे कहा है Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ ] श्रीप्रवंचनसारटोका। बुद्धथा यावद् गृह्णीयात् कायवाक्चेतसां त्रयम् । ससारस्तावदेवेषा भेदाभ्यासे तु निर्वृतिः ॥ ६२ ॥ भावार्थ-जब तक मन वचन कायोको आत्माकी बुद्धिसे सम'झता रहेगा तब तक इसके संसार है । इन हीसे मैं पृथक् हूँ ऐसे भेदका अभ्यास होनेपर मुक्तिका लाभ होता है । जो निन शुद्ध आत्माको शरीरादिसे भिन्न नहीं अनुभव करते हैं वे अज्ञानी रहते हैं जैसा श्री अमितिगति महारानने सामायिकपाठमें कहा है गौरो रूपधरो दृढः परिदृढ़ः स्थूलः कृशः कर्षशो । गीर्वाणो मनुजः पशुनरकभूः पंढः पुमानगना ।। मिथ्या त्वं विदधासि क्त्पनमिदं मूढोऽविवुध्यात्मनो । नित्य ज्ञानमयस्वभावममलं सर्वव्यायच्युत ॥ ७० ॥ भावार्थ-मूर्ख अज्ञानी जीव सर्व दोष व विघ्नोसे रहित निर्मल अविनाशी ज्ञानमई स्वभावधारी आत्माको न जानकर यह मिथ्या कल्पना किया करते हैं कि मैं गोरा हू, रूपवान है, वलवान् हू निर्बल हूं, स्थूल हूं. पतला हूं, कठोर हूं, देव हू, मनुष्य हूं, पशु हूं, नारकी हूं, नपुसक हूं, पुरुष हूं तथा स्त्री हूं। वास्तवमे जिन्होने अपने आत्माके स्वभावको अच्छी तरह मान लिया है उनकी कल्पना शरीर, वचन व मन सम्बन्धी क्रिया ओंमें कभी नही होती है। वे अखंड ज्योतिमई अपने आत्माको समझते हुए ससारकी अवस्थाओंके ज्ञाता दृष्टा रहते हैं, उनसे स्वयं विकारी नहीं होते हैं ॥१॥ उत्थानिया-आगे शरीर, वचन तथा मनको शुद्धात्माके स्वरूपसे भिन्न परद्रव्यरूप स्थापित करते हैं Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड | देहो य मणो वाणी पोगंलदव्वप्यगति णिद्दिट्ठा । पौग्गलदन्यं पिं पुणो पिंडो परमाणुव्वाणं ॥ ७२ ॥ देव मनो वाणी पुद्गलद्रव्यात्मका इति निर्दिष्टाः । पुद्गलद्रव्यमपि पुनः पिंड: परमाणुद्रव्याणाम् ॥ ७२ ॥ अन्वय सहित सामान्यार्थ - ( देहो य मणो वाणी ) शरीर, - मन और वचन ( पोग्गलदव्वप्पत्ति ) ये तीनों ही पुद्गल दव्यमई (पिट्ठिा) कहे गए हैं। (पुणो ) तथा ( पोग्गलंदव्वं पि ) पुद्गल द्रव्य भी (परमाणुव्वाण पिडो) परमाणुरूप पुद्गल द्रव्योका समूहरूप स्कंध है । [ २६५ विशेषार्थ - जीवके साथ इन मन वचन कार्यकी एकता व्यवहार नयेसे माने जानेपर भी निश्चयनयसे ये तीनों ही परम चैतन्यरूप प्रकाशकी परिणति से भिन्न हैं । वास्तवमे ये परमाणुरूप पुद्धलोके बने हुए स्कंधरूप वर्गणाओ से बनकर पुद्गलद्रव्यमई ही है। - ५५ भावार्थ - पहली गाथामे जिस वातको दिखलाया है उसीका यहां स्पष्ट कथन है कि जब निश्चय नयसे आत्माके निज परम स्वभावकी तरफ दृष्टि डालते हैं तो वहा शुद्ध ज्ञानानंदमई आत्माका ही राज्य है । वहा न क्षयोपशम ज्ञान है, न क्षयोपशम वीर्य है, न मोहका उदय है, न नामकर्मका उदय है जिनके कारण भाव मन, भाव वचन व भाव काय योग काम करते है और न वहा पुद्गलीक मनोवगणाओंसे बना मन है, न भाषा वर्गणाओसे बना वचन है, 'नमाहारक वर्गणासे बना हुआ औदारिक, वैक्रियिक, आहारक शरीर है, न तैजस वर्गणासे बना हुआ तैनस शरीर है और न कार्माण वर्गणाओंसे बना हुआ कार्माण शरीर है । अतएव मैं मन 1 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HAN २६६ ] श्रीप्रवचनसारटोका । वचन कायसे भिन्न शुद्ध चैतन्य धातुकी बनी हुई एक. अपूर्व अमूर्तीक वस्तु हूं। यही विश्वास शुद्धोपयोगकी प्राप्तिका बीज है। क्योकि जिसने मन वचन कायको अपने स्वरूपसे भिन्न जाना उसने काय सम्बन्धी स्त्री, पुत्र, मित्र, कुटुम्ब, वस्त्र, आभूषण, भूमि, मकान, देश, राज्य आदिको भी अपनेसे भिन्न जाना है। बस वहीं वैराग्यकी सीढ़ीपर चढ़कर शुद्धोपयोगकी भूमिकामें पहुंच सका है। ___ पुद्गल द्रव्य मूलमें परमाणुरूप है जिसका फिर दूसराविभाग नहीं होसक्ता है। पुद्गलमें बहु प्रदेशी रूप होकर परस्पर बन्धकर संघातरूप होनेकी शक्ति है जिससे अनेक परमाणु अनेक संख्या अनेक प्रकारसे परस्पर मिलकर अनेक प्रकारके स्कंधोंको बनाते रहते हैं जिनको वर्गणाएं कहते हैं। इन्हीं वर्गणाओंसे मान । वचन, काय बनते हैं, ऐसा ही हमें निश्चय करना चाहिये । निसने इनको भिन्न नाना उसीका सबसे राग छूटेगा जैसा कि, श्री अमितिगति महाराजने छोटे सामायिकपाठमें कहा है यस्यास्ति नैक्यं वपुषापि सार्दै तस्यास्ति किं पुत्रकलत्रमित्रैः ।। पृथक्कृते चमणि रेमकूपाः कुतो हि तिष्ठति शरं रमध्ये ॥२७॥ भावार्थ-जिसकी एकता शरीरसे नहीं है उसकी एकता, पुत्र, स्त्री, मित्र आदिसे कैसे होसक्ती है जैसे यदि चमड़ेको शरीरसे अलग किया जाय तो उसीके साथ रोम छिद्र भी अलग हो जायगे क्योकि वे चमड़ेके ही सम्बन्धसे रहते हैं। इस तरह मन, वचन कार्यको व उनकी क्रियाओंको भिन्न माननेसे ही. अपना भिन्न स्वरूप हमको भिन्न झलकने लगता है. यही मनन परम हितकारी है ।। ७२ ॥ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड । [ २६७ उत्थानिका- आगे फिर दिखाते है कि इस आत्माके जैसे शरीररूप पर द्रव्यका अभाव है वैसे उसके कर्तापनेका भी अभाव है।" णाहं पोग्गलमइओ ण ते मया पोग्गला कया पिंडं । तम्हा हि ण देहोऽहं कत्ता वा तस्स देहस्स ॥ ७३ ॥ नाह पुलमयो न ते मया पुहाः कृताः पिण्डम् | तस्माद्धि न देहोऽह कर्ता वा तस्य देहस्य || ७३ ॥ अन्वय सहित सामान्यार्थ - (नाहं पोग्गलमइयो ) में पुद्गल मई नही हू (ते पोग्गला पिड मया ण कया) तथा वे पुलके पिंड जिनसे मन वचन काय बनते है मेरेसे बनाए हुए नही हैं (तम्हा) इस लिये (हि) निश्चयसे ( अह देहो ण) मैं शरीररूप नहीं हूं (वा तस्स देहस्स कत्ता) और न उस देहका बनानेवाला हूं । विशेषार्थ में शरीर नहीं हूं क्योकि मै असलमे शरीर रहित सहज ही शुद्ध चैतन्यकी परिणतिको रखनेवाला हू इससे मेरा और शरीरका विरोध है । और न मै इस शरीर का कर्ता हूं क्योI कि मै क्रियारहित परम चैतन्य ज्योतिरूप परिणतिका ही कर्ता ह - मेरा कर्तापना देहके कर्तापनसे विरोधरूप है । भावार्थ - इस गाथामे आचार्यने आत्मा और शरीरका भेदज्ञान और भी अच्छी तरह दिखा दिया है कि आत्माका स्वरूप स्पर्श, रस, गंध, वर्णसे रहित चैतन्यमई है। जब कि शरीर जिन पुद्गलोसे बना है उन पुलोका स्वरूप स्पर्श, रस, गंध, वर्णमई जड़ अचेतन है | तथा आत्मा अपनी चेतनामई परिणतिका करनेवाला हैवह जडकी परिणतिको करनेवाला नही है - हरएक द्रव्य अपनी उपादान शक्तिसे अपने ही अनत गुणो में परिणमन किया करता है | चेतन 1 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८] श्रीप्रवचनसारटीका । आत्मा चैतन्यमई गुणोमें जैसे परिणमन करता है वसे पुद्गल जड़ अपने जड़पनेके गुणमें परिणमन करता है। शुद्ध अवस्थामे आत्मा शुद्ध भावोंका ही कर्ता है । अशुद्ध अवस्थामें आत्माके उपयोगरूप परिणमनमें जब साथ साथ रागादि भावकर्मकी भक्ति भी अपना फल झलकाती है तब शुद्ध उपयोगका परिणमन न प्रगट होकर उस उपयोगका औपाधिक परिणमन होता है अर्थात अशुद्ध भावोका झलकाव होता है तब इन भावोका भी करनेशला आत्माको अशुद्ध निश्चयनयसे कह सक्ते हैं, परन्तु कोई आत्मा पाप कर्मोका बन्ध नहीं चाहता है तो भी आत्माके रागद्वेषादि भावोंका निमित्त पाकर कार्माण वर्गणाएं आठ कर्मरूप होकर स्वय अपनी शक्तिसे कार्माण शरीर बना देती हैं । कर्मोके अदभुत बलके नयोगसे न चाहते हुए भी एक आत्मा किमी शरीरको छोड़कर दूसरे शरीरमे चला जाता है, वहां पहुंचते ही वांधे हुए कर्मोके उद्यकी असरसे आहार वर्गणाएं स्वयं खिचकर आती है जिनसे यह स्थूल शरीर बनता है। हमारे बिना किसी बुद्धिपूर्वक प्रयोगके कर्मोकी अपूर्व चमत्कारिक शक्तिसे ही शरीरके अंग उपांग छोटे बड़े सुन्दर असुन्दर बनते रहते हैं। इससे यह सिद्ध है कि जैसे आत्माके कार्माण शरीर स्वयं बन जाता है वसे यह स्थूल शरीर भी स्वयं वनता रहता है। आत्मा निश्चयसे जैसे कार्माण शरीरका कर्ता नहीं वैसे इस स्थूल औदारिक शरीरका भी कर्ता नहीं और न यह पुद्गल पिडको बनाता है । लोकमे अनेक परमाणु स्वयं मिलकर अनेक पिंड बनाते रहते हैं । नदीमें पानीकी रगड़से बड़ेर सुन्दर . पत्थरके गोले बन जाते हैं-उनको कोई नीव नहीं बनाता है। Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड । [ २६९ इस जीवको अशुद्ध अवस्थामें व्यवहार नयसे कर्मोंका व शरीरका कर्ता कहते है क्योकि निन कर्मोके निमित्तसे शरीर बने है उन कर्मोंके संचय होने योग्य अशुद्ध भावोको इस जीवने किया था। जैसे किसी आदमीको शीतज्वर होजाय तो उसको शीतज्वरका कर्ता व्यवहारसे कहेंगे परंतु निश्चयसे उसने अपनेमें कभी भी शीतज्वरका होना नहीं चाहा है । वह ज्वर स्वयं शरीरके भीतर वायु आदि कारणोसे पैदा हुआ है क्योंकि उसने शरीरकी रक्षाका यत्न नहीं किया परन्तु वायुका प्रवेश होने दिया। इसलिये वह शीतज्वरका निमित्त हुआ। इस निमित्त नमित्तिक भावके कारण उसको गीत ज्वरका कर्ता कहसक्ते है वैसे ही आत्माने अशुद्ध रागादि भाव किये थे जिनके निमित्तसे शरीर प्राप्त हुए इसलिये व्यवहार नयसे आत्माको शरीरोंका निमित्त कर्ता कह सक्ते है परन्तु वास्तवमे इन शरीरोका उपादान कारण पुद्गल ही है आत्मा नही ।। व्यवहारमें कुम्हार घटको बनाता है, जुलाहा पटको बनाता है, राज मकानको बनाता है, ऐसा जो कहते है यह भी व्यवहार नयका वचन है । वास्तवमे कुम्हार, जुलाहा, व राजके अशुद्ध भाव व उसकी आत्माके प्रदेशोका हलनचलन निमित्त सहकारी कारण हैं उनके निमित्तको पाकर उनका पुद्गलमई शरीर भी निमित्त होजाता है परन्तु वे घट पट मकान अपने ही उपादान कारणसे स्वयं ही घट, पट, मकानरूप बन जाते है । मिट्टी आप ही घटकी सूरतमें बदलती है । रुई आप ही तागे बनकर कपडेकी सूरतमे बदलती है, ईंट पत्थर लकडी चूना गारा आप ही मकानकी सूरतमें पलटते हैं । इन घट पट मकानमे कुम्हार, जुलाहा, व रानके Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A २५० ] श्रीप्रवचनसारटोका। शरीर व आत्माका एक भी परमाणु व भाव नहीं है। निमित्त मात्र होनेसे व्यवहारसे कुम्हार, जुलाहा व गनको कर्ता कहते हैं वैसे ही व्यवहारसे हम जीवको शरीरका की कह सक्ते हैं परंतु निश्चयसे नहीं। यहां पर शुद्ध निश्चय नयसे विचार करना है, जो नय जैसे कतकफल मले पानीमें पड़कर मैलसे पानीको अलग कर देता है वैसे अशुद्ध आत्माके विचारमें पड़कर आत्माको सर्व अशुद्धताओसे अलग कर देता है । इस शुद्ध निश्चय नयमें आत्मा न पुद्गल स्वरूप है और न पुद्गलका उपादान कर्ता है और न निणित्त कर्ता है । यह आत्मा अपने शुद्ध ज्ञानानंदका ही करनेवाला है और यही तत्त्वज्ञान शुद्धोपयोगपर पहुंचनेका कारण है। श्री अमृतचंद्रखामीने श्री समयसारनीमें कहा है:तत्त्वं न स्वभावोऽस्स चितो वेदयितृवत् । अज्ञानारच कर्ताऽयं तदभावादकारकः ॥ २ ॥ १० ॥ शानी करोति न न वेदयते च क्म, जानाति केवरमय हिल तर याव। जानन्परं करणवेदनययोरभावा-च्छुद्रस्वभावनियतः स हि मुक्त एव ॥३॥१०॥ भावार्थ--शुद्ध निश्चय नयकी दृष्टिसे देखते हुए जैसे इस आत्माका स्वभाव भोगतापनेका नहीं है वैसे इसका स्वभाव कर्तापनेका नहीं है । अज्ञानसे ही यह कर्ता होता है, अज्ञानके चले जानेपर यह परमावोंका कर्ता नही होता है। निश्चयसे ज्ञानी आत्मा न तो कोको करता है न उनका फल भोगता है । वह मात्र उन कर्मोंके स्वभावको जानता है । इस तरह कर्ता भोक्तापनेसे रहित होकर निज परम खमावको जानता हुआ अपने शुद्ध स्वभावमें निश्चल रहता हुआ यह अत्मा साक्षात् मुक्तरूप ही झलकता है। . Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड | [ २७१ ऐसा वस्तुका स्वरूप जानकर मैं न देहरूप हूं, न देहका कर्ता हू, ऐसा श्रद्धान दृढ़ जमाकर देहसे भिन्न निज आत्माको ही अनुभव करके शुद्धोपयोगमई साम्यभावमें कल्लोल करके सदा सुखी होना चाहिये । इस तरह मन वचन कायका शुद्धात्माके साथ भेद है ऐसा कथन करते हुए चौथे स्थलमें तीन गाथाएं पूर्ण हुई। इस तरह पूर्वमें कहे प्रमाण " अस्थित्तणिस्सदस्स हि " इत्यादि ग्यारह गाथाओंसे चौथेस्थलमें प्रथम विशेष अन्तर अधिकार पूर्ण हुआ । अब केवल पुद्गलकी मुख्यतासे नव (९) गाथा तक व्याख्यान करते हैं । इसमें दो स्थल हैं । परमाणुओं मे परस्पर बंध होता है इस बातके कहने के लिये “अपदेसो परमाणू ” इत्यादि पहले स्थलमें गाथाएं चार हैं । फिर स्कंधोंके वधकी मुख्यतासे "दुवसे दी खधा" इत्यादि दूसरे स्थलमें गाथा पांच है। इस तरह दूसरे विशेष अंतर अधिकारमें समुदायपातनिका है । उत्थानिका - यदि आत्मा पुद्गलोको पिंडरूप नहीं करता है तो किस तरह पिडकी पर्याय होती है इस प्रश्नका उत्तर देते हैंअपदेसो परमाणू पदेसमेतो य सयमसद्धो जो । णिद्धो वा लुक्खो वा दुपदेसादित्तमणुहवदि ॥ ७४ ॥ प्रदेशमात्रश्च स्वयमशब्दो वा । अप्रदेशः परमाणु. स्निग्धो वा रूक्षो वा द्विप्रदेश | दित्त्वमनुभवते ॥ ७४ ॥ अन्वयसहित सामान्यार्थ - (परमाणु) पुगलका अविभागी खड परमाणु (जो अपदेसो) जो बहुत प्रदेशोंसे रहित है (पदेसमतोय) एक प्रदेशमात्र है और ( सयमसद्दो) स्वयं व्यक्तरूपसे गन्द Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ ] श्रीप्रवचनसारटोका । पर्यायसे रहित है (णिद्धो वा लुक्खो वा) स्निग्ध होता है या रूक्ष होता है इस कारण से (दुपदेशादित्तम् ) दो प्रदेशोंके व अनेक प्रदेशोके मिलनेसे बंध अवस्थाको (अणुवदि) अनुभव करता है। विशेपार्थः - जैसे यह आत्मा शुद्धबुद्ध एक स्वभावरूपसे बंध रहित है तौ भी अनादिकालसे अशुद्ध निश्वयनयसे स्निग्धके स्थानमें रागभावसे और रुक्षके स्थानमें द्वेषभावसे जब जब परिणमन करता है तब तब परमागममें कहे प्रमाण बंधको प्राप्त करता है तैसे ही परमाणु भी स्वभावसे वंध रहित होने पर भी जव जत्र बंधके कारणभूत स्निग्ध रूक्ष गुणसे परिणत होता है तब तक दूसरे पुद्गल परमाणुसे विभाव पर्यायरूप बंधको प्राप्त होजाता है। भावार्थ - आचार्य ने इस गाथामें यह दिखलाया है कि परमाशुओंमें स्वयं बंध होनेकी शक्ति है जैसे कोई संसारी जीव बंध न चाहता हुआ भी जब २ रागद्वेषसे परिणमन करता है तब २ कर्म वर्गणाएं स्वय आकर बन्ध जाती हैं ऐसा कोई विलक्षण निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है वैसे परमाणु भी अपने स्निग्ध और रुक्ष गुणके कारण परस्पर बध जाते हैं और स्वय स्कंधरूप बहुप्रदेशी होजाते हैं । यद्यपि एक परमाणु स्वभावसे बहु प्रदेश रहित एक प्रदेशी है तथा स्पर्श रस गध वर्ण गुणोको रखनेवाला है और शब्द रहित है तथापि स्कन्ध वनकर बहुप्रदेशी होजाता है। जगतमें परमाणु परस्पर मिलकर अनेक तरहके स्कंधों में सदा बनते रहते हैं । जैसे अग्निकी गरमी से पानी अपने आप भाफ बन जाता है । भाफ जमकर मेघ होजाते हैं। मेघोंमें बरफ गोले होजाते हैं । बरफके गोले गिरते हैं - गिरते २ गरमीके कारण स्वयं पानीरूप हो 1 1 , Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड । [ २७8 जाते हैं। पानी स्वयं नीमकी संगतिसे कडुवा, ईखकी संगतिसे मीठा नींबूकी संगतिसे खट्टा हो जाता है । पानीके बहावसे नदीके किनारे टूट जाते हैं - पानी मट्टीको वहा ले जाता है व मट्टी कहीं जमकर टापूसा बन जाती है। सूर्यकी गरमी पाकर मोम स्वयं पिघल जाता है। हवा लगने से मकान, कपडे, बर्तनादिकी अवस्था पलट जाती है । इत्यादि जगतमें अकेले ही पुद्गल अपने भिन्न २ स्वभावसे बडे २ काम करते दिखाई पडते हैं। इसी तरह परमाणु भी दो अधिक चिकने या रूखे अंशधारी परमाणुसे बघ जाते हैं । जैसे परमाणु बंधकर स्कंध हो जाते है वैसे स्कंध टूटकर परमाणुकी अवस्थामें भी आजाते हैं । जिसमें मिलने बिछुडनेकी शक्ति हो 1 उसे ही पुद्गल कहते है । इससे यह बात बताई गई है कि शरीर, बचन तथा मन जिन स्कंधोंसे बने है वे स्कप स्वय परमाणुओके बधनेसे पैदा होते रहते हैं । आत्मा स्वभावसे पुद्गलसे भिन्न है ऐसा समझकर शुद्ध आत्माके मननमें उपयुक्त हो साम्यभावकी प्राप्ति करनी चाहिये, यह तात्पर्य है । उत्थानिका- आगे वे स्निग्ध रूक्ष गुण किस तरह है ऐसा प्रभ होनेपर उत्तर देते है गुत्तरमेगादी अगुस्स विद्धत्तणं व लुक्खत्तं । परिणामादो भणिदं जाव अनंतत्तमगुहवदि ॥ ७५ ॥ एकोत्तरमेकाद्यणोः स्निग्धत्त्व वा रूक्षत्त्वम् । परिणामाद् भणित याचदनन्तत्त्वमनुभवति ॥ ७५ ॥ अन्वयसहित सामान्पार्थ - ( अणुम्स) परमाणुका ( णिडत्तणं वा लक्खतं) चिकनापना या रूखापना ( एगादी ) एक अशको Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४] 'श्रोप्रवचनसारटोका । आदि लेकर (एगुत्तम्) एक एक बढ़ता हुआ (परिणामादो) परिणमन शक्तिके विशेषसे (जाव अणंतत्तम् ) अनंतपने तक (अणुहवदि) अनुभव करता है ऐसा (भणिदः) कहा गया है। विशेषार्थ-जैसे जल, बकरीका दूध, गायका दूध, भैंसका दूध एक दूसरेसे अधिकर चिकनाईको रखता है इसी तरह यह संसारी नीव चिकनाईके स्थानमें रागपनेको, रूखेपनके स्थानमे द्वेषपनेको बन्धके कारणभूत नघन्य विशुद्ध या संक्लेश भावको आदि लेकर परमागममें कहे प्रमाण उत्कृष्ठ विशुद्ध या संक्लेश भाव पर्यंत क्रमसे बढ़ता हुआ रखता है । इसी तरह पुद्गल परमाणु द्रव्य भी पूर्वमें कहे हुए नल दूध आदिकी बढ़ती हुई शक्तिके दृष्टान्तसे एक गुणं नामकी जवन्य शक्तिको आदि लेकर क्रमसे गुण नामसे प्रसिद्ध अविभाग परिच्छेदोकी शक्तिसे बढ़ता हुआ अनन्तगुणतक चला जाता है। क्योंकि पुद्गल द्रव परिणमनशील है। परिणामोंका होना वस्तुका खभाव है सो कोई मेटनेको समर्थ नहीं है । • भावाय-यहां यह दिखलाते हैं कि पुद्गलके परमाणुओंमें रूखा तथा चिकना स्पर्शगुण होता है । उस स्पर्शके अनंत भेद होते हैं। सव ही परमाणु परिणमनशक्तिके निमित्तसे तथा द्रव्य क्षेत्र काल भावकी सहायतासे अपने स्पर्श रस गंध वर्णमें परिणमन करते रहते हैं । इसी परिणमनके कारण चिकनेपन तथा रूखेपनके अनंत भेद होनाते हैं । जो परमाणु किसी विशेष समयमें एक जघन्य अंश या अविभाग परिच्छेद कि जिससे कम अंश नहीं होसक्ता रखता है वही परमाणु दूसरे आदि समयोमें अधिक अंशरूप हो जाता है । यहांतक कि उसमें अनंत अंश Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड | [ २५ चिकने या रूखेपनके हो जाते हैं - अथवा कोई परमाणु अधिक अंश चिकने या रूखेपनेको रखता था सो अंशों में घटते हुए एक अंश तक शक्तिका धारी हो सक्ता है । जैसे जलकी चिकनईसे चकरीके दूधमें चिकनई ज्यादा है, बकरीके दूधसे गायके दूधमें, गायके दूससे सके दूध में ज्यादा है। इसी तरह एक ही समय में अनंत परमाणुओं में भिन्न२ प्रकारकी कमती बढ़ती अंशोंको रखनेचाली चिकनई या रूखापन होता है। संभव है बहुतसे परमाणु समान अविभाग परिच्छेदोंके धारक एक समयमे हों । वास्तवमें प्रत्येक परमाणु अनंत, स्निग्ध या रूक्ष शक्तिका धारक है। तथापि उसके अशोंमें पर निमित्तके यशसे परिणमन होता रहता है जिस परिणमनको हम तिरोभाव या आविर्माव कहसते हैं। जितनी चिकनई या रूखापन प्रगट है उसका तो आर्विभाव है व जितनी चिकनई या रूखापन अप्रगट है उसका तिरोभाव है। जैसे जीव कषायके मंद उदयसे मदराग द्वेषको, मध्यम कषायोदयसे मध्यमरागद्वेषको तथा उत्कृष्ट कषायके उदयसे उत्कृष्ट राग द्वेषको प्रगटाता 'है । जीवका चारित्रगुण कपायोंके उदय के निमित्तसे तिरोहित होता है - जितना कम उदय होता है उतना कम ढकता है । . परमाणुमे यह परिणमन शक्ति न होती तो एक कच्चा आम पक नानेपर अधिक चिकना न होता व जल गायके शरीर के स्पर्शसे दूधकीसी चिकन में न परिणमन करता । यह परिणमनशक्ति वस्तुका स्वभाव है, प्रत्यक्ष अनुभवगोचर है । कालादिके निमित्तसे पुद्गल द्रव्य परिणमते हुए दिखाई 'पड़ते हैं। एक पत्थर जो रूक्ष स्पर्शका होता है रस्सीकी रगड़के Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६] श्रीप्रवचनसारटोका । लगनेसे कालान्तरमे चिकना स्पर्शवाला होजाता है। ऐसा वस्तुस्वभाव जानकर अपने आत्माको शुद्ध निश्चयनयसे सिद्ध समान अनुभव करके तथा सर्व प्रकारके परमाणुओसे जुदा जान करके अपने स्वाभाविक सहा परिणमनका धारी मान करके हरसमयः शुद्ध ज्ञानानंदका ही स्वाद लेना योग्य है, यह भाव है । उत्थानिका-अब यहां प्रश्न करते हैं कि किस प्रकारके चिकने रूखे गुणसे पुद्गलका पिड बनता है ? इसीका समाधान करते हैंणिद्धा वा लुफ्खा वा अणुपरिणामा समा व विसमा. वा । ' समदो दुराधिका जदि वज्झन्ति हि आदिपरिहीणा ॥ ७६ ॥ स्निग्धा वा रूक्षा वा अणुपरिणामा समा वा विषमा वा । समतो द्वयधिका यदि बध्यन्ते हि आदिपीरहीनाः ।। ७६ ॥ अन्वय सहित सामान्यार्थः-( अणुपरिणामा ) परमाणुके पर्याय भेद (णिद्धा वा लुक्खा वा) स्निग्ध हो या रूक्ष हो (समा वा) दो, चार, छ. आदिकी गणनासे समान हो (विसमा वा) वा तीन, पांच, सात, नव आदिकी गणनासे विषम हो (जदि) जो (हि) निश्चयसे (आदिपरिहीणा) जघन्य अंशसे रहित हो (समदो) तथा • शिनतीकी समानतासे ( दुराधिका ) दो अधिक अंशमें हो तो (वज्झन्ति) परस्पर बंध जाते हैं। विशेषार्थ-पुद्गलके परमाणु रूक्ष हो या स्निग्ध गुणमें परिगत हों तथा सम हों या विषम हो, दो गुणांश अधिक होनेपर परस्पर बंध जाते हैं। दो गुण अधिकपनेका भाव यह है कि मानलो एक दो अंशवाला परमाणु है तथा दूसरा भी दो अशवाला है इतने हीमें परिणमन करते हुए एक किसी दो अंशवाले परमा Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड । [ २७७ णुमें दो अंश अधिक होगए तब वह परमाणु चार अंशरूप शक्तिमें परिणमन करनेवाला होजाता है। इस चार गुणवाले परिमांणुका पूर्वमें कहे हुए किसी ढो अंशधारी परमाणुके साथ वध होजायगा तैसे ही दो परमाणु तीन तीन अश शक्तिधारी हैं उनमें से एक तीन अंश शक्ति रखनेवाले परमाणु में मानलो परिणमन होनेसे ढो शक्तिके अंश अधिक होनेसे वह परमाणु पांच अंशवाला होगया । इस पंच अंशवालेका पहले कहे हुए किसी तीन अशवाले परमाणुसे बघ होजावेगा । इसतरह दो अंशधारी चिकने परमाणुका दूसरे दो अधिक अंशवाले चिकने परमाणुके साथ या दो अशवाले रूखेका दो अधिक अंशवाले रूखेके साथ, वां दो अशवाले चिकनेका दो अधिक अंशवाले रूखे परमाणुके साथ बघ होजावेगा । इसी तरह समका या विषमका बंध दो अंशकी अधिकता होनेपर ही होगा। जो परमाणु जघन्य चिकनईको जैसे जलमें मान ली जावे या जघन्य रूखेपनेको जैसे बादकणमें मान लीजावे, रखता होगा उनका बंध उस दशामें किसी भी परमाणुसे नही होगा । यहा यह भाव है कि जैसे परम चैतन्यभाव परिणतिको रखनेवाले परमात्मा के स्वरूपकी भावनामई धर्मध्यान या शुक्ल ध्यानके वलसे जब जघन्य चिकनईकी शक्तिके समान सब राग क्षय होजाता है या जघन्य रूखेपनेकी शक्तिके समान सर्व द्वेष क्षय होजाता है तत्र जैसे जलका और बालूका बंध नहीं होता वैसे जीवकां कर्मोसे बध नही होता। वैसे ही जघन्य, स्निग्ध या रूक्ष शक्तिधारी परमाणुका भी किसीसे बँध नहीं होगा यह अभिप्राय है । Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८] श्रीप्रवचनसारटोका। भावार्थ-इस गाथामें अच्छी तरह स्पष्ट कर दिया है कि परमाणुओंके परिणमन शक्तिके अंशोंकी अपेक्षा अनेक प्रकारके होते हैं। वे परमाणु रूखे हो या चिकने हो परस्पर दो अंश अधिकता रखनेसे बंध नाते हैं । ऐसा कुछ वस्तुका खभाव है कि दो अंशकी ही अधिकताके अंतरसे परमाणुओंका बन्ध होता है-न तो एक अंशकी अधिकतासे होता है न दोसे अधिक अंशकी अधिकतासे होता है। इसपर भी जिस परमाणुमें सबसे कम चिकनई या रुखापन होगा वह भी किसीसे नहीं बंधेगा। इस तरह दो अंशवालेका चार अंशवालेके साथ, चार अंशवालेका छह अंशवालेके साथ, छह अंशवालेका आठ अंशवालेके साथ, आठ अंशवालेका दश अंशवालेके साथ बन्ध होजायगा। इस तरहके बन्धको सम संख्याका बन्ध कहते, हैं। सम जातिकी संख्यामे दो अधिक होनेसे बराबर बन्ध होजायगा जैसे किसी परमाणुमें एक हजार दो अंश हैं दूसरेमें एक हजार चार अंश है तो परस्पर बन्ध हो जायगा । इसी तरह तीन अंशवालेका पांच अंशवाले परमाणुके साथ, पांच अंशवालेका सात अंशवालेके साथ, सात अशवालेका नौ अंशवालेके साथ, नौका ग्यारह अंशवाले परमाणुसे बंध होजायगा, इसको विसम सख्याका बध कहते हैं । इसमें भी दोकी अधिकतासे बराबर बंध होता रहेगा । जैसे तीन हजार पांच अशधारी परमाणुका तीन हजार सात अंशधारी परमाणुके साथ बंध होजावेगा । बंध होनेमें यह बात नहीं है कि रूखा चिकनेसे ही बंधे, किन्तु यह बात है कि रूखा रूखेसे, चिकना चिकनेसे व रूखा चिकनेसे तीनो प्रकारसे बंध होता है। Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [२.९ वघका भाव यह है कि परस्पर मिलके एकरूप होजाना। यदि तीन गुणवाले रूखे परमाणुके साथ पाच गुणवाले चिकने परमाणुका वध होगा तो वध होनेपर वह स्कंध चिकना होजायगा जैसा श्री उमाखामी महाराजने श्री तत्वार्थसूत्रमें कहा है "वधेऽधिकौ पारिणामिको च।" ३७५॥ अर्थात् बंध होते हुए अधिक गुणवाला दूसरेको अपनेरूप परिणमा लेता है। सर्वज्ञज्ञानमे निस तरह परमाणुओंके स्कंध बननेकी रीति झलकी थी उसका यहा कथन पिया गया है । वर्तमानमे यदि विज्ञान उन्नति करे तो इस नियमको प्रत्यक्ष करके दिखा सकेगा । सर्वज्ञके ज्ञानकी अपूर्व शक्ति है, इसलिये सर्वज्ञ भापित कथन किसी तरह असत्य नहीं पड़ सत्ता, ऐसा जानकर निज आत्माको सर्वज्ञत्त्व प्राप्त करानेके लिये रागडेप त्याग शुद्धोपयोगमे ही हमको प्रवर्तना योग्य है ।। ७६ ॥ उत्थानिका-आगे इसी ही पूर्व कहे हुए भावको विशेष समर्थन करते है णिडत्तणेण दुगुणो चदुगुणणिद्धेण बधमणुभवदि । लुक्खेण वा तिगुणिदो अणु वज्झदि पञ्चगुणजुत्तो | स्निग्यत्त्वेन द्विगुणश्चतुर्गुणस्निग्धेन बन्धमनुभवति । रूक्षेण वा त्रिगुणतोऽणुध्यते पचाणयुक्तः ॥ ७७ ॥ अन्वय सहित सामान्यार्थ--(णिद्धत्तणेण ) चिकनेपनेकी अपेक्षा ( दुगुणो) दो अशधारी परमाणु ( चदुगुणणि ण वा लुक्खेण ) चार अशधारी चिकने या रूखे परमाणुके साथ (बंधम् अणुभवदि) बन्धको प्राप्त हो जाता है । ( तिगुणिदो अणु) तीन अंशधारी चिकना या रूखा परमाणु (पचगुणजुत्तों) पांच अशधारी Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७] श्रीप्रवचनसारटोका। चिकने या रूखे परमाणुके साथ (वज्झदि) बंध जाता है। विशेषार्थ-गाथामें गुण शब्दसे शक्तिके अशोको अर्थात् अविभाग परिच्छेदोको ग्रहण करना चाहिये । जैसे पहले कहे हुए जलविदु तथा वालूके दृष्टातसे जिन जीवोका रागद्वेष परमानन्दमई खसंवेदन ज्ञानगुणके वलसे नष्ट होगया है उनका कर्मके साथ बन्ध नहीं होता। इसी तरह निन परमाणुओंमें जयन्य चिकनाई या रूखापन है, उनका भी किसीसे बंध नहीं होता। बन्ध दो अंशकी अधिकतासे दो अंश या तीन अश आदिधारी परमाणुओंका परस्पर होगा जैसा इस गाथामें कहा है: पुणवत्स णिद्वेण दुराहिए। लुक्खाप लुक्खेण दुराहिएण । णिद्धस्स लुक्खेण हवेन्ज बधो जहण्णवजे विसमे वा ॥ (गोमरसारजीवकाह ६१४) । माव यह है कि जघन्य अंश परमाणुको छोड़कर दो चार आदि सम संख्यामें या तीन पांच आदि विषन संख्या में हो तो भी दो अंश अधिक होनेसे चिकनेका चिकनेके साथ, रूखेका रूखेके साथ तथा चिकनेका रूखेके साथ बंध होजायगा। भावार्थ-इससे पहली गाथामे अच्छी तरह खोल दिया है। इस तरह पूर्वमें कहे प्रमाण स्निग्ध रूक्ष अवस्थामें परिणत परमाणुका स्वरूप कहते हुए पहली गाथा, स्निग्ध रूक्ष गुणका वर्णन करते हुए दूसरी, स्निग्ध या रूक्ष गुणमें दो अंश अधिकसे बन्ध होगा ऐसा कहने हुए तीसरी तथा उसके ही दृढ़ करनेके लिये चौथी इस तरह परमाणुओके परस्पर बंधके व्याख्यानकी मुख्यतासे पहले स्थलमें चार गाथाएं पूर्ण हुई। Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड [२८५ उत्यानिका-आगे कहते हैं कि आत्मा दो परमाणु - आदि धारी परमाणुओंके स्कंधोंको आदि लेकर अनेक प्रकारके स्कंधोका कर्ता नहीं है: दुपदेसादी खंधा सुहुमा वा वादा ससंठाणा'। पुढविजलेतेउवाऊ सगपरिणामेहिं जायते ॥ ७८ ॥ द्विप्रदेशादयः स्कन्धाः सूक्ष्मा वा यादरा संस्थानाः । पृथिवीजल्सेनोवायव स्वर परिणाम यन्ते ॥ ८ ॥ अन्वय सहित सामान्यार्थः-(दुपदेसादी खंधा) दो परमागुके स्कधसे आदि लेकर अनन्त परमाणुके स्कंध तक तथा (सुहमा वा वादरा) सूक्ष्म या बादर ( ससठाणा ) यथासमव गोल, चौखुटे भादि अपने अपने आकारको लिये हुए (पुढविजलतेउवाऊ) पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु ( संगपरिणमेंहि ) अपने ही चिकने रूखे परिणामोंकी विचित्रतासे परस्पर मिलते हुए (जायते ) पैदा होते रहते है। विशेषार्थ-संसारी अनंत जीव यद्यपि निश्चयसे टाकीमें उकेरी मूर्तिके समान ज्ञायक मात्र एक स्वरूपकी अपेक्षासे शुद्ध बुद्धमई एक स्वभावके धारी है तथापि व्यवहारनयसे अनादि कर्मबंधकी उपाधिके वशसे अपने शुद्ध आत्मस्वभावको न पाते हुए पृथ्वी, जल, अग्नि तथा वायुकायिक होकर पैदा होते है । यद्यपि वे इन पृथ्वी आदि कायोंमें आकर जन्मते है तथापि वे जीव अपनी ही भीतरी सुखं दुःख आदि रूप परिणतिके ही अशुद्ध उपादान कारण है, पृथ्वी आदि कायोमें परिणेमने किये हुए पुगलोके नहीं । कारण यह है कि उनका उपादान कारण पुद्गलके Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ ] श्रीप्रवचनसारीका | स्कंध ही हैं । इसलिये यह जाना जाता है कि पुगलके पिडोंका कर्ता जीव नहीं है। भावार्थ - यहां आचार्य ने यह बात दिखाई है कि आत्मा अमूर्तीक है तथा स्पर्श रस गंध वर्णसे रहित है इसलिये वह अपने ही ज्ञानादिगुणोंकी परिणतिके सिवाय किसी भी मूर्तीक पुगलकी पर्यायका उपादान कारण नही होसक्ता है । क्योकि कार्य उपादान कारणके समान होता है अर्थात् उपादान कारण ही दूसरे समयमे स्वयं कार्यमें बदल जाता है। मिट्टीका पिंड स्वयं ही घड़ा बनजाता है। गेहूंका आटा स्वयं ही रोटीमें बदल जाता है। सुवर्णकी डली स्वय कंकणरूप होजाती है । इसलिये जो पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु जगतमे दीख पडते हैं चाहे वे अचित्तरूप हो, अर्थात् जीव रहित हों या सचित्तरूप हों अर्थात् जीव सहित हो, चाहे वे सूक्ष्म हों अर्थात् इंद्रियगोचर न हो व बाधारहित हों, चाहे वे बादर हों अर्थात् इंद्रियगोचर व बाधासहित हों आहारक वर्गणा नामके स्कंधोके परस्पर मिलनेसे बनते हैं। तथा अनेक तरहके स्कंध परमाणुओंके मिलनेसे बनते हैं । श्री गोमटसारमें संख्याताणु, असंख्याताणु, अनंताणु, आहारक वर्गणा, तैजस वर्गणा, भाषा वर्गणा, मनो वर्गणा, कार्माण वर्गणा आदि बाईस प्रकारकी वर्गणाएं बताई हैं वे सब परमाणुओंके परस्पर मिलनेसे ही बनती हैं । इन वर्गणाओंसे ही जीवोंके औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, वैजस और कार्माण शरीर बनते है । अपने स्निग्ध रूक्ष गुणोके कारण पुद्गलोंमें परस्पर मिलकर बंध होनेकी व बिछुड़नेकी शक्ति - मौजूद है। पुद्गल स्वभावसे ही परिणमन करते है। पुद्गलोंके Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड | [ २८३ स्कंधोंके गोल, चौखुंटे, तिखुटे आदि आकर सब परस्पर बंधकी अपेक्षासे होजाते है । एक रतन पापाणकी खान में अनेक प्रकारके स्पर्श, रस, गंध वर्णधारी छोटे चड, टेढे सीधे, पाषाण खंड परमाणुओंके स्निग्ध रूक्ष गुणोंके विचित्र परिणमनकी अपेक्षा खभावसे ही बन जाते हैं - उनको वहा कोई बनाता नही है । जैसे प्रत्यक्ष जगतमें मेघ जल आदिके व इन्द्र धनुष, विजली आदिकेवाभाविक परिणमन देखनेमे आते है वैसे सर्वत्र पुद्गलोके ही विचित्र परिणमनसे नानाप्रकार रुब बन जाते है । जैसे श्री नेमिचन्द्रसिद्धातचक्रवतीने गोम्मटसारमें कहा है - गिद्धदर गुण अहिया हीण परिणामयति वर्धम्म | जासं जाणत पदे खाण सबाग || ६१८ ॥ अर्थ - संख्यात, असंख्यात व अनंत देशवाले स्कधोमें स्निग्ध या रूक्ष अधिक गुणवाले परमाणु या स्कंध अपनेसे हीन गुणवाले परमाणु या स्रुधोको अपनेरूप परणमाते हैं । जैसे एक हजार स्निग्ध या रूक्ष गुणके अशोसे युक्त परमाणु या स्कधको एक हजार दो अंशवाला स्निग्ध या रूक्ष परमाणु या स्कंध परणमाता है। इससे यह भी सिद्ध होना है कि दो अधिक अशके होते हुए रूग्वे या चिकने परमाणु या स्कंध परस्पर एक दूसरेसे अपनी ही शक्ति बन्ध जाते हैं । इसी शक्तिके कारण पुद्गलोकी विचि - त्रता जगतमें प्रगट हो रही है । ऐसा जानकर 'कि पुद्गल पर्यायका उपादान कारण पुद्गल ही‍ है व सब प्रकार के जीवों के शरीरोकी रचना पुद्गलके ही उपादान Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www-. २८४] श्रीप्रवचनसारंटीको । कारणसे होती है । हमको इस आत्मीको खभाव शुद्ध ज्ञानानंदमय अनुभवकर साम्यभावमें रहना चाहिये ॥ ७॥ उत्थानिका-आगे यह आत्मा बन्ध कालमें बेन्ध योग्य पुद्गलोंको बाहर कहींसे नहीं लाता है ऐसा मगेट करते हैं । ओग्गाढ़गाणिविदो पोग्गलकारहिं सव्वदो लोगों। ' सुहुमेहिं वादरेहि अप्पाउग्गेहिं जोंग्गेहिं | vE | " अवगादगाढनचितः पुद्गलकायैः सर्वतो लोका। ... ... .. सूक्ष्मदिरेभप्रायोग्यैयोग्यः ॥ ७९ ॥ अन्वयसहित सामान्यार्थः-(लोगो) यह लोक (सम्वदो) अपने सर्व प्रदेशोंमें (मुहमेहिं। सूक्ष्म अर्थात् इंद्रियोंसे ग्रहणके अयोग्य (वादरेहि) वादर अर्थात् इंद्रियोंके ग्रहण योग्य (य) और (अप्पा उग्गेहिं ) कर्मवर्गणारूप होनेको अयोग्य ( जोग्गेहिं .) तथा कर्मवर्गणाके योग्य (पोग्गलकायेहि) पुद्गल स्कंधोंसे (ओग्गाढगाढणि-- चिदो) खूब अच्छी तरह बहुत गान भरा हुआ है । विशेषार्थः-यह लोक अपने सर्व प्रदेशोंमें पुद्गल स्कंधोंसे गाढ़ा भरा हुआ है वे स्कंध कोई इंद्रिय गोचर हैं, क्रोई इद्रिय गोचर नहीं है, उनमेंसे नो अत्यन्त सूक्ष्म वा स्थूल हैं वे कर्मवर्गणारूप नहीं हैं किन्तु जो अतिसूक्ष्म व स्थूल नहीं है वे कमवर्गणा योग्य हैं। यद्यपि इद्रियोंसे ग्रहणन होने के कारण ये भी सूक्ष्म है-यही यह भाव है कि जैसे यह लौंग निश्चम नेयसे शुद्ध खरूपके धारी किन्तु व्यवहार नयसे कर्मोके आधीन होनेसे एथिवी, जल, अग्नि, वायु, वानस्पतिक पांच मैदरूप सूक्ष्म स्थीवरैः शरीरोंको प्राप्त जीवोंसें निरंतर सर्व जगह राहुओं हैं तैसे यह पुद्गलोंसें भी मेरी है। N 11 Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [२८५ इससे जाना जाता है कि जितने शरीरको रोककर एक जीव टहरता है उसी ही क्षेत्रमें कर्मयोग्य पुद्गल भी तिष्ठरहे है-जीव उनको कहीं बाहरसे नहीं लाता है। भावार्थ-इस गाथामे आचार्य ने यह दिखलाया है कि जीव खभावसे फर्मवर्गणाओको वहीसे लाते नहीं है-यह असख्यात प्रदेशीलोक सर्व तरफ अनंतानत पुगल स्कंधोंसे भराहुआ है । एक आकाशके प्रदेशमें सूक्ष्म परिणमनको प्राप्त अनंतवर्गणाए मौजूद है । सामान्यसे जगतमें सूक्ष्म तथा बादर दो प्रकारके पुद्गल रूप है। जो किसी भी इंद्रियसे ग्रहण योग्य है उनको वाथर कहते है। परतु जो किसी भी इंद्रियसे ग्रहणयोग्य नहीं है उनको सूक्ष्म कहते है । कर्मरूप होनेको योग्य कार्माण वर्गणा सूक्ष्म है। ऐसी कर्म वर्गणाए उन आकाशके प्रदेशोमें भी भरी हुई है जहां एक जीव किसी छोटे या बडे शरीरमें तिष्ठा हुआ है। कोई भी जीव बुन्हिपूर्वक उन वर्गणाओंको लेकर या खीचकर वाधता नहीं है। किन्तु जब ससारी जीवोके नाम कर्मके उदयसे आत्मामे सकम्पपना होता है तव आत्माकी योग शक्तिके परिणमनके निमित्तसे कर्म वर्षणाए यथायोग्य बन्धके समुख होकर वन्ध जाती है, ऐसा कोई निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है। जैसे गर्म लोहेका गोला चारो ओरसे पानी ग्रहण करनेको निमित्त है वसे अशुद्ध जीव कर्म वर्गणाओको ग्रहण कर लेता है। ___ अथवा जैसे गर्मीका निमित्त पाकर जल स्वयं भाफरूप परिणमन करनाता है व सूर्यका निमित्त पाकर कमल स्वयं खिल जाता है इसी तरह जीवके योगका निमित्त पाकर कर्म वर्गणाए Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ ] श्रीप्रवचनसारटोका । commmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmww.mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm स्वयं बन्ध योग्य होनाती हैं। आत्माका स्वभाव कर्मोको ग्रहण करनेका नहीं है इसलिये यह आत्मा कर्म वन्धका न उपादान कर्ता है न निमिक्त कर्ता है जैसा कि स्वयं तामीने श्रीसमयसारजीमें कहा है जे पुग्गलव्याणं परिणामा होति णाणआवरणा। __ण फरेदि ताणि आदा जो जाणदि साहबदि णाणो ॥३०॥ भावार्थ-जो ज्ञानावरणादि पुद्गल कर्मोके परिणमन होते हैं उनको यह आत्मा न उपादान रूपसे कर्ता है न निमित्त रूपसे कता है, यह तो मात्र उन सर्वकी सब अवस्थाओको जाननेवाला है। आत्माका निज स्वभाव ज्ञाता दृष्टा है जब हम शुद्ध निश्चयनयसे आत्माके असली स्वभावको विचार करते हैं तब वहां आत्मा सब तरह पुद्गल द्रव्यका अकर्ता और भोगता झलकता है तोभी यह बात जान लेनी चाहिये कि इस आत्मामें अनन्त शक्तियां हैं उनमेसे कोई शक्तियां अशुद्ध अवस्थामें काम करती हैं परन्तु वे शक्तियां शुद्ध अवस्थामें काम नहीं करती हैं। जैसे वैभाविक शक्ति निसके कारण यह जीव रागद्वेष रूप परिणमन करता है या योगशक्ति जिससे जीव कर्मोके बन्धनमें निमित्त होता है। पूर्ववद्ध चारित्र मोहनीयके उदयसे वैभाविक शक्ति और नामकर्मक उदयसे योग शक्ति परिणमन करती है। इसी हेतुसे शुद्ध आत्माको लक्ष्यमें लेकर आत्माको कर्मोका अकर्ता तथा अभोक्ता कहा है। यहां यह भी समझना चाहिये कि आत्माके मन वचन काय योगोका परिणमन अथवा आत्म प्रदेशोंका परिणमन व कर्म ग्रहण करनेमें मूल कारणभूत आत्माकी योगशक्तिका परिणमन सब जीवोके एक समान नहीं होता है किसीके अधिक किसीके कम । जैसी योग Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - द्वितीय खंड । [२८७ शक्तिका परिणमन होता है वैसी ही कम व अधिक कर्म वर्गणाओंका ग्रहण होता है । ये कर्म वर्गणाएं कुछ तो ऐसी ही हैं जो आत्माके प्रदेशोंमें ही बैठी हैं अर्थात् आत्माके प्रदेश जहां हैं वहां ही अनंतानंत बन्धने योग्य निष्ठ रही हैं अथवा कुछ ऐसी हैं जो आत्माके प्रदेशोंसे बाहर हैं । इनमें भी कुछ ऐसी हैं जिनको यह जीव ग्रहणकर चुका है। कुछ ऐसी हैं जिनको इस जीवने कभी ग्रहण नहीं किया है। योगोंके निमित्तसे यथासम्भव खक्षेत्र व पर क्षेत्रमें तिष्ठती वर्गणाएं कमी ग्रहीत कभी अग्रहीत कमी मिश्र बंधनेको सन्मुख होती हैं इसहीको आश्रव कहते हैं। तथा उनका जीवके प्रदेशोंके साथ स्थिति अनुभागको लिये परस्पर एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध होनाता है। उन वर्गणाओंका अपने मूल स्थानको छोडना यह तो आश्रव है और आत्माके प्रदेशोमें एक क्षेत्रके अवगाह रूपसे बंध होजाना सो बंध है। यदि आत्माके प्रदेशोंमें तिष्ठती हुई ही वर्गणाओंका बध हो तो भी उन वर्गणाओंको हलन चलन करके सर्व आत्म-प्रदेशोंमें व्यापना पड़ेगा यही आश्रव है और फिर उनका आत्मप्रदेशोंमे यथासम्भव ज्ञानावरणादि प्रतियोकी संख्याको लिये हुए एक क्षेत्रावगाह रूप ठहर जाना और ठहरे रहना सो बन्ध है। योगशक्तिके निमित्तसे कर्मोंका आना अर्थात् बन्धके सन्मुख होना होता है यह आश्रव है ऐसा ही भाव श्री गोम्मटसार जीवकांडमें कहा है पुग्गलविवाइदेहोदयेण मणवयणकायजुत्तस्स । जीवरस जाहु सत्तो कम्मागमारणं जोगगे ॥२१५॥ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८] श्रीप्रवचनसारटोका । . भावार्थ-पुद्गलविपाकी शरीर नाम कर्मके उदयसे मन वचन कायसे युक्त जीवकी वह शक्ति जो कर्मोके और नोकोक आनेमें कारण है योग शक्ति है। यह भाव योग है-और आत्माके प्रदेशोका सकम्प होना द्रव्य योग है। गोमटसार कर्मकांडमें प्रदेशबन्धका स्वरूप ऐसा दिया हुआ है. एयक्खेत्तोगाढं सत्यपदेसेहिं गम्मणो जोगं । - बंदि सगहेदूहि य अणादिय सादियं उभयं ।। १८५ ॥ . भावार्थ-जघन्य अवगाहनारूप एक क्षेत्रमें स्थित और कर्मरूप परिणमनेके योग्य अनादि अथवा सादी अथवा दोनों रूप जो पुद्गल द्रव्य है उसको यह जीव अपने मब प्रदेशोंसे मिथ्यात्त्वादिके निमित्तसे बांधता है। एय सरीरो गाहियमेयस्खन अणेयखेत्तं तु । अवसेसलोयखेत्त खेतणसारिहि त्वी ॥ १८६ ।। भावार्थ-एक शरीरसे रुकी हुई जगहको एक क्षेत्र कहते है शेव सर्व लोकके क्षेत्रको अनेक क्षेत्र कहते हैं। अपने २ क्षेत्रमे ठहरे हुए पुद्गल द्रव्यका प्रमाण त्रैराशिकसे समझ लेना। यहांपर नघन्य शरीर ही एक शरीर लेना क्योंकि निगोद शरीरवाले जीव बहुत है। इस कारण घनांगुलके असंख्यातवें भाग एक क्षेत्र हुआ। एयाणेयवेत्तद्धिय रूवि अणतिम हवे जोगं । अवसेस तु अजोगं सादि अणादी हवे तत्थ ॥ १८७ ॥ भावार्थ-एक तथा अनेक क्षेत्रोंमें ठहरा हुआ जो पुद्गल द्रव्य है उसके अनन्तवें भाग पुद्गल परमाणुओंका समूह कर्मरूप होनेको योग्य है और शेष अनन्त बहुभाग प्रमाण कमरूप होनेके Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितोय खंड। [२८९ अयोग्य है। इस प्रकार एक क्षेत्र स्थित योग्य, १ एक क्षेत्र स्थित अयोग्य २, अनेक क्षेत्र स्थित योग्य ३, अनेक क्षेत्र स्थित अयोग्य ये चार भेद हुए। इन चारोमें भी एक एकके सादि तथा अनादि भेद जानना । जो पहले ग्रहण किये जाचुके हैं उनको सादि कहते है व निनको अभीतक ग्रह्ण नहीं किया. गया है उनको अनादि कहते है। यह जीव मिथ्यात्वादिके निमित्तसे समय समय प्रति कर्मरूप परिणमने योग्य समय प्रबद्ध प्रमाण परमाणुओको ग्रहणकर कर्मरूप परिणमाता है। वहां किसी समय तो पहले ग्रहण किये हुए जो सादि द्रव्यरूप परमाणु है उनका ही ग्रहण करता है। किसी समयमे अभीतक ग्रह्ण करनेमें नहीं आए ऐसे अनादि द्रव्यरूप परमाणुओको ग्रहण करता है और कभी मिश्ररूप ग्रहण करता है । समय प्रबहका यह प्रमाण है स्यलरसरूपग परेणद चरमचदुहिं फासेहिं । सिद्धादोऽमन्यादोऽगतिमभाग गुण दव्य ॥ १९१ ॥ यह समय प्रबह सब पाच प्रकार रस, पाच प्रकार वर्ण, दो प्रकार गन्ध तथा शीतादि चार अतके स्पर्श इन गुणोकर सहित परिणमता हुआ सिद्ध राशिके अनंत भाग-अथवा अभव्य राशिसे अनन्तगुणा पुद्गल द्रव्य जानना । भावार्थ-इतना द्रव्यकर्मरूप या नोकर्मरूप यह संसारी जीव हरसमय ग्रहण करके बाधता रहता है। इनमे योगोकी विशे पतासे कुछ कम व अधिक सख्या होती है । श्री अकलंकदेवकृत तत्वार्थरानवार्तिकमे आश्रव और Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६०] श्रीप्रवचनसारटोका। बंध तत्वका यह लक्षण “जीवाजीवाश्रव, "के सूचकी व्याख्यामें किया है वार्तिक-पुण्यपापागमनद्वारलक्षण आश्रवः। टीका-पुण्यपापलक्षणस्य कर्मण आगमद्वारमानव इत्युच्यते । आश्रव इवाश्रवः क उपमार्थः ? यथा महोदधे सलिलमापगामुखेरहरहरापूर्यते । तथा मिथ्यादर्शनादिद्वारानुप्रविष्टैः कर्मभिरनिशमात्मा सम्पपूर्यत इति मिथ्यादर्शनादिद्वारमाश्रवः । ___अर्थ-पुण्य पाप लक्षण कर्मका आगमनका द्वार जो है सो आश्रव है । आश्रव जो छिद्र ताके समान हो सो आश्रव है। जैसे समुद्रके विषे जल नदीनिका मुखकर निरन्तर परिपूर्ण होय है यातें मिथ्यादर्शनादि 'द्वारकरि अनुप्रविष्ट कर्म जे है तिनकरि आत्मा निरंतर परिपूर्ण होय है यातें मिथ्या दर्शनादिक द्वार जो है सो आश्रव है ॥ १६ ॥ भावार्थ-वास्यमे यह द्वार है सो भावाश्रव है और कर्म पुद्गलोंका प्रवेग होना सो द्रव्य आश्रव है। वा-आत्मकर्मणोरन्योन्यमदेशानुभवेशलक्षणो बंध:टीका-मिथ्यादर्शनादिप्रत्ययोपनीतानां कर्मप्रदेशानामात्मप्रदेशानां च 'परस्परानुप्रवेशलक्षणो बंधः । बंध इव बंध क उपमार्थः ? यथा निगडादि द्रव्यबंधनबद्धो देवदत्तोऽवतंत्रत्वादभिप्रेतदेशगमनायभावादति खी भवति तथात्मा कर्मबंधनवह, पारतत्र्याच्छरीरमानसद्धःखाभ्यर्दितो भवति । अर्थ-मिथ्यादर्शनादि कारण करि ग्रहण किये कर्म प्रदेशनिका और आत्म प्रदेगनिका परस्पर अनुप्रवेश है लक्षण नाका सो बंध है । वधके समान वध है । जैसे वेड़ी आदि द्रव्य बंधनकार Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड [ २६१ बद्ध देवदत्त जो है सो पराधीनपणातें बाछित स्थानने प्राप्त होने का अभावतें अति दुःखी होय है तैसे ही आत्मा कर्म बंधनकरि बद्ध हुवो संतो पराधीनपणातें शरीर सम्बन्धी दुखकरि पीडित होय है ॥ १७ ॥ लोकवार्तिकके छठे अध्यायमे आश्रवका स्वरूप कहते हुए कहा है - " स आश्रव इह प्रोक्त कर्मागमनकारणं " वह योग ही भव है । क्योंकि कर्मो के आगमनका कारण है । योग भाव श्रव है। इससे यह सिद्ध है कि कमौका आगमन होना वह द्रव्याश्रव है । आगे " शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य " सूत्रकी व्याख्या में कहा है कि " सम्यग्दर्शनाद्यनुरंजितो योगः शुभो विशुयगत्वात् । मिथ्यादर्शनाद्यनुरंजितोऽशुभः संक्लेशांगत्वात् । स पुण्यस्य पापस्य च वक्ष्यमाणस्य कर्मण आश्रवो वेदितव्य । अर्थात् सम्यग्दर्शनादिसे रजित शुभ योग है क्योकि विशुता है तथा मिथ्यादर्शनादिसे अनुरंजित योग अशुभ है क्योकि संक्लेशता है । ये ही क्रमसे पुण्ण पाप कर्मके आश्रव जानने चाहिये। इन योगोसे पुद्गल आते है। जैसा कहा है "शुभाशुभफलाना तु पुद्गलानां समागम." कि शुभ या अशुभ पुद्गलोका समागम होता है । इस पूर्व कथनसे यही बात सिद्ध होती है जसे कि द्रव्य संग्रह में कही है ---- आसयदि जेण हम्म परिणामेणवोस विष्णेयो । मात्रासवो जिणु दव्यासवणं परो होदि ।। जाणावादीण जोगंज पुग्गलं समान्वदि । दासवो स णेओ अणेयमेवो जिनकला || Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२] श्रीप्रवचनसारटोका। भावार्थ-जिस आत्माके मिथ्यात्त्वादि परिणामसे कर्म पुद्गल आता है वह भावाश्रव है और जो ज्ञानावरणादिके बंध योग्य पुद्गलोका आना अर्थात् बंधके सम्मुख होना सो द्रव्याश्रव है। पाश्रव और वंध दोनो एक समयमें होते हैं । वर्गणाओका इधर उधरसे आत्माके प्रदेशोमें आना सो आश्रव तथा उनका बैठे रहनाएक क्षेत्रावगाहरूप बने रहना सो बंध है। एक समयमें बंधा हुआ द्रव्य पुद्गल आश्रव रूप तो बंधके समयमें ही हुआ परंतु बंध रूप अवस्था उस समय तक रहेगी जबतक वे कर्म अपनी स्थितिको न छोडेंगे और आत्माके प्रदेशोंसे छूट न जायगे । यहां प्रयोजन यह है कि आत्मा स्वभावसे कर्मोका न आश्रव करता है नबंध करता है। संसारी आत्माएं पूर्व कर्मके उदयसे जब सकम्प होती है तब स्वभावसे ही निमित्त पाकर वे पुद्गल स्वयं आकर कर्मरूप वध जाते है जैसा कि श्री अमृतचंद्राचार्यने पुरुषार्थसिद्धयुपायमें कहा है जीवकृतं परिणाम निमित्तमात्रे प्रपद्य पुनरन्ये । स्वयमेव परिणमन्तेऽपुद्गलाः कर्मभावेन ॥ १२ ॥ जीवके भावोंका निमित्त पाकर अन्य अबद्ध कार्माण पुद्गल अपने आप ही कर्मरूप होकर बंध जाते हैं । इससे यह अनुभव करना चाहिये कि आत्मा पुद्गलोका कर्ता नहीं है ॥ ७९ ॥ उत्थानिका-आगे फिर भी कहते हैं कि यह जीव कर्म स्कंधोंका उपादानकर्ता नहीं होता है। कम्मत्तणपाओगा खंधा जीवस्स परिणई पप्पा । गच्छन्ति कम्मभावं ण दु ते जीवेणई परिणमिदा ॥ ८० ॥ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड । [ २६३ कर्मत्वप्रायोग्याः स्कन्धा जीवस्य परिणतिं प्राप्य । गच्छन्ति कर्मभावं न तु ते जीवेन परिणमिताः ॥ ८० ॥ अन्वय सहित सामान्यार्थः - ( कम्मत्तणपाओग्गा ) कर्मरूप होनेको योग्य (खंधा) पुद्गलके स्कध ( जीवस्त परिणई) जीवकी परिणतिको (पप्पा) पाकर (कम्मभावं ) कर्मपनेको (गच्छंति) प्राप्त हो जाते हैं (दु) परंतु (जीवेण) जीवके द्वारा (तेण परिणमिदा) वे कर्म नहीं परिणमाए गए हैं । विशेषार्थ - निर्दोष परमात्माकी भावना से उत्पन्न स्वाभाविक आनंदमई एक लक्षणस्वरूप सुखामृतकी परिणतिसे विरोधी मिथ्यादर्शन, रागद्वेष आदि भावोंकी परिणतिको जब वह जीव प्राप्त होता है तब इसके भावोंका निमित्त पाकर वे कर्मयोग्य पुद्गल स्कध आप ही जीवके उपादान कारणके विना ज्ञानावरणादि आठ या सात द्रव्य कर्मरूप हो जाते हैं। उन कर्म स्कंधोंको जीव अपने उपादानपनेसे नही परिणमाता है। इस कथनसे यह दिखलाया गया है कि यह जीव कर्म स्कंधोंका कर्ता नही है । भावार्थ - इस गाथामें आचार्यने आत्माको द्रव्य कर्मोंका अकर्त्ता और भी स्पष्ट रूप से बतादिया है । कर्तापना दो प्रकारका होता है- एक उपादान कर्तापना, दूसरा निमित्त कर्तापना । जो वस्तु दूसरे क्षणमें आप ही बदलकर किसी पर्यायरूप होनावे उसको किसी समयकी अपेक्षा कार्य और उसके पूर्व समयकी अपेक्षा उसको उपादान कारण कहते है । जैसे रोटीका उपादान कारण आटा, आटेका उपादान कारण गेहूं, इत्यादि । सुवर्णकी मुद्रिकाका उपादान कारण सुवर्णकी डली | पुद्गलकी अवस्थाका उपादान कारण पुद्गल Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४] श्रीप्रवचनसारटोका। है, जीवकी अवस्थाका उपादान कारण जीव है । जो उपादान कारण कार्यके लिये सहकारी कारण हो उनको निमित्त कारण कहते हैं। जैसे गेहूंका आटा बनानेमे चक्की आदि, आटेको रोटी वनानेमें चकला, तवा, वेलन, अग्नि आदि । हरएक कार्यके लिये उपादान और निमित्त कारणोकी आवश्यक्ता होती है। दो कारणों के विना कार्य नहीं होसक्ता है । इसी नियमके अनुसार ज्ञानावरणादि आठ प्रकार पौद्गलीक कर्मके बंध होनेमें उपादान कारण कर्म वर्गणाएं हैं। वे पुद्गलके कार्माण स्कंध आप ही अपनी शक्तिसे द्रव्य कर्मरूप होजाते हैं। इनके इस उपादान रूप कार्यके लिये निमित्त कारण जीवके अशुद्ध परिणाम हैं । जब आत्मा पूर्वमें बांध हुए कर्मोके उदयके असरसे अपने प्रदेशोमें सकम्प होता है और क्रोधादि कषायोसे मैला होजाता है तब ही इस आत्माके अशुद्ध योग और उपयोग कर्मके बंध होनेमें निमित्त होते हैं। जो आत्मा शुद्ध है वह कर्मबंधमे निमित्त कारण भी नहीं है। अतएव यदि शुद्ध निश्चय नयसे किसी भी आत्माके असली खभावका विचार करे तो यही झलकेगा कि यह आत्मा स्वभावसे इन पौगलिक फर्मोका न उपादानकर्ता है और न निमित्तकर्ता है । वहुतसे काम एक दूसरेके विना करे व चाहे हुए भी निमित्त नैमित्तिक सम्बन्धसे होते रहते हैं । कोई मनुष्य रोगी होना नहीं चाहता है, परन्तु शरीरमें जब अशुद्ध द्रव्य असर करता है तब रोग पैदा होजाता है। हम यदि दो सेर पानी अग्निपर चढ़ावें और यह चाहे कि दो सेरसे कम न हो। हमारी इस चाहके अनुसार काम न होगा। वह पानी अवश्य भाफ बनकर उड़ेगा और पानी कम हो. Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विताय खंड | [ २६५ जायगा | अथवा हम यह चाहें कि अग्निपर रखते ही पानी एक सेरका आधसेर होजावे तौभी हमारी चाह के अनुसार कार्य न होगा। वह पानी अपनी शक्तिसे ही अपने यथायोग्य कालमे ही आधा रहेगा | संसारी आत्माओंके संसार होनेमें जीवके अशुद्धभाव और कर्म धका निमित्त नैमित्तक सम्बन्ध बीन और वृक्षकी तरह अनादिसे है । अनादि प्रवाहसे जैसे बीजसे वृक्ष, फिर इस वृक्षसे दूसरा बीज, इस बीजसे दूसरा वृक्ष, फिर इस वृक्षसे तीसरा बीज इसतरह जबतक वीज भस्म न हो व उगनेकी शक्तिसे रहित न हो तबतक बराबर वह वीज वृक्षकी सतानको करता रहेगा । इसी तरह पूर्ववद्ध कर्म अप्सरसे आत्माके अशुद्ध योग और उपयोग होते है । अशुद्ध योग उपयोगसे नवीन कर्मोका बंध होता है। इनही कर्मोंके उदय होनेपर फिर अशुद्ध योग उपयोग होते है। उनसे फिर नवीन कर्मोंका बंध होता है इस तरह जबतक आत्मासे योग तथा उपयोगके अशुद्ध होनेके कारण यथायोग्य नाम कर्म तथा मोहनीय कर्मके उदयका नाश न हो तबतक अशुद्ध योग और उपयोग होते रहेंगे। जिस आत्मासे स्वात्मध्यानके बलसे सर्व कर्म भस्म होजाते है वह शुद्ध होजाता है । वह शुद्ध उपयोगका धारी आत्मा सिद्ध होकर कर्मके द्वारा होनेवाली संसारकी सन्तानसे सदाके लिये मुक्त हो जाता है । निश्चय नयसे आत्माको द्रव्य कर्माका अकर्त्ता समाजकर उसके ज्ञायकभावमे तिष्ठकर साम्यभावसे निजानदका स्वाद लेना योग्य है । श्री अमृतचद आचार्यने' 'पुरुषार्थसिद्ध्युपायमे कहा है एवमय कमकृतेर्भावेरसमाहितोऽपि युक्त इत्र | प्रतिभाति वालिशाना प्रतिभासः स खलु भवबीजम् ||१४|| Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · २६६ ] भोaranसारटोका ! भावार्थ - इस तरह यह आत्मा निश्रयसे कर्मके निमित्तसे होनेवाले भावोंसे व कर्मरूप पौगलिक कर्मोंसे संयुक्त न होनेपर भी अज्ञानियोंको स्वभावसे ही यह आत्मा रागी द्वेषी मोही व कर्म चंघरूप मालूम होता है यही उनका अज्ञान संसारका बीज है । इसी बीजसे संसार में अनादिसे जन्म मरणरूपी वृक्ष होता चला आया है। जहां इम अज्ञानको नाशकर सम्यग्ज्ञानका लाभ हुआ और अपना ही आत्मा स्वभावसे सर्व द्रव्य कर्मोंसे तथा रागादि भाव कर्मोसे भिन्न शुद्ध सिद्धसमान अपनी श्रद्धामे आगया बस संसारका बीज नष्ट हुआ। समाधिशतक में श्री पूज्यपादस्वामीने कहा है- । देहान्तरगतेर्बीज देहेऽस्मिन्नात्मभावना । बीजं विदेहनिष्पत्तेरात्मन्येवात्मभावना ॥ ७४ ॥ भावार्थ - इस शरीर में आत्माकी भावना अन्य शरीर धारनेका बीज है, और आत्माके शुद्ध स्वरूपमें ही आत्माकी भावना करनी देहरहित होने का बीज है । स्वामी समन्तभद्र स्वयंभू स्तोत्रमें कहते हैं अनन्तदोषाशयविग्रहो ग्रहो विषङ्गवान्मोहमयश्विर हृदि । } तो बितरसत्वयचौ प्रसीदता त्वया ततो भूर्भगवाननन्तजित् ॥ ६६ ॥ भावार्थ - अनन्त दोपोके निवासका स्थान है शरीर जिसका ऐसा मोहमई पिशाच अनादिकालसे हृदयमे अंगीकार होरहा था । हे भगवन् ! आपने उसको अपने आत्मतत्त्वकी रुचिकी प्रसन्नता से जीत लिया इसीलिये आपको अनन्तजित या अनन्तनाथ कहते हैं । तात्पर्य यह है कि इस आत्माको अपनी ही परिणतिका कर्ता तथा भोक्ता निश्चयसे निश्रय करना चाहिये ॥ ८० ॥ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड । [२६७ उत्थानिका-आगे कहते हैं कि शरीरके आकार परिणत होनेवाले पुद्गलके पिडोंका भी जीव कर्ता नहीं है ते ते कम्मत्तगदा पोग्गलकाया पुणो हि जोवस्स । संजायंते देहा देहतरसंकम पप्पा ॥ ८१ ॥ वे ते कर्मत्वगताः पुद्गलकायाः पुनहि जीवस्य । सजायन्ते देहा देहा तरसक्रम प्राप्य ॥ ८१ ॥ अन्वय सहित सामान्यार्थः-(ते ते) वे वे पूर्व बांधे हुए, (कम्मतगदा) द्रव्यकर्म पर्यायमें परिणमन किये हुए (पोग्गलकाया) पुद्गल कर्मवर्गणास्कंध (पुणो वि) फिर भी (नीवस्स) जीवके (देहंतर सकम) अन्य भवको (पप्पा) प्राप्त होनेपर (देहा) शरीर (संजायते) उत्पन्न करते हैं। विशेषार्थ-औदारिक आदि शरीर नामा नामकर्मसे रहित परमात्मखभावको न प्राप्त किये हुए जीवने जो औदारिक शरीर आदि नामकर्म बाधे हैं उस जीवके अन्य भवमें जानेपर वे ही फर्म उदय आते हैं। उनके उदयके निमित्तसे नोकर्म वर्गणाएं औदारिक आदि शरीरके आकार स्वयमेव परिणमन करती है इससे यह सिद्ध है कि औदारिक आदि शरीरोका भी जीव कर्ता नहीं है। . भावार्थ-इस गाथामें आचार्य मुख्यतासे इस बातको बताते . हैं कि जैसे द्रव्य कर्मोंका कर्ता आत्मा नहीं है वैसे नोकर्मीका भी कर्ता नहीं है । द्रव्यकर्मोके उदयसे विशेष करके शरीर नामा नामकर्मके उदयसे औदारिक, वैक्रियक, आहारक, तैजस शरीरके आकाररूप परिणमन करनेको वर्गणाएं आती है और वधन संघात आदि कर्मके उदयसे इन चारों शरीरोंके आकाररूप स्वयं Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीप्रवचनसारटोका । हैं । इन चार शरीरोंको नोकर्म कहते हैं । यह संसारी जीव किसी भी स्थूल औदारिक शरीरमें जो मनुष्य तथा तियचोंके होता है तथा वैक्रियिक शरीरमें जो देव व नारकियोके होता है, उसी समय तक रह सकता है जहांतक उस गति सम्बन्धी आयु कर्मकी वर्गणाएं उदय देती रहती हैं। जब उस विशेष आयुकी सब वर्गणाएं झड जाती हैं तब ही इस जीवको वह गति और वह शरीर छोड़कर अन्य किसी बांधी आयुके उदयसे अन्यभवमें जाना पड़ता है। तब जाते हुए मार्गमें जिसको विग्रहगति कहते हैं इस जीवके साथ दो सूक्ष्म शरीर रहते है-एक तेजस शरीर, दूसरा अपने ही बांधे हुए द्रव्य कर्मोका कार्माण शरीर। इन द्रव्य कर्मोका उदय कभी बंद नहीं होता। विग्रहगतिमे वे अपने असरसे जीवको लेजाते हैं । जब यह तीन, दो वा एक समय मात्र मोड़े लेनेके कारण विग्रहगतिमें रहता है तब इसके औदारिक और क्रियिक शरीर नहीं होता । जो जीव मोडे नहीं लेता है सीधा दूसरे भवमें जाता है वह मरणसे दूसरे समयमें ही अन्य जन्ममें जन्म लेलेता है। जिसको मध्यमें एक समय लगेगा वह मरणके तीसरे समयमें, निमको दो समय लगेंगे वह मरणके चौथे समयमें, जिसको तीन समय लगेंगे वह मरणके पांचवे समयमें जन्म लेलेता है।मरणका समय व उत्पत्तिका समय यदि न गिना जावे तो विग्रह गतिमें अधिकसे अधिक तीन समय ही लगे । औदारिक या वैक्रियिक शरीर योग्य वर्गणाओको ग्रहण करना यही जन्मका प्रारम्भ है । कर्मोके ही उदयसे यह जीव विना चाहे हुए मरण . ' करके दूसरी पर्यायमें उत्पन्न होता है। वहां वर्गणाओंका ग्रहण नाम Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [२६६ कर्मके उदयसे स्वयमेव होता रहता है। वे वर्गणाएं आप ही पर्याप्ति निर्माण अगोपाग आदिके उदयसे औदारिक या वैक्रियिक शरीरके आकार परिणमनकर जाती है। जैसे जीवके अशुद्ध भावोका निमित्त पाकर लोकमे सर्वत्र भरी हुई कार्माण वर्गणाए स्वय ही ज्ञानावरणादि आठ कर्मरूप परिणमन कर जाती है, इसी तरह नाम व गोत्रके उदयसे भिन्न २ जातिकी वर्गणाए स्वय ही अनेक प्रकारके देव, नारकी, मनुष्य, तियेचोके शरीरोंके आकाररूप परिणमन कर जाती है । जैसे जीव द्रव्य कर्मोशा निश्चय नबसे उपादान या निमित्तकर्ता नहीं है तैसे यह जीव शरीरोका भी उपादान या निमित्तकर्ता नहीं है । इसलिये मै सब प्रकारके पौगलिक शरीरोसे भिन्न होकर उनका किसी तरह कर्ता धर्ता नहीं हू ऐसा अनुभव करके निज आत्माक शुद्ध स्वभावमें ही उपयुक्त रहना योग्य है। श्री गुणभद्राचार्य आत्मानुशासनमे कहते है कि यह शरीररूप कैदखाना जीवका रचा नही है, कर्मोका रचा है। जैसे अस्थिस्थूलनुलाकलापघटिन नद्ध शिगस्नायुभिश्चर्माच्छादितमलसान्द्रगिशितलिप्त सुगुप्त खलै. ॥ कर्मारातिभिरायुरुचनिगाल्न शरीरालयकारागारमवेहि ते स्तमते प्रोतिं वृथा मा कृयाः ॥ ५९॥ भादाथ-यह शरीररूपी जेलखाना है जिसको दुष्ट कर्मरूपी शत्रुओने बनाया है। यह शरीररूपी कारागार हड्डियोसे बना हुआ, नसोके जालोसे वेष्ठित, चर्मसे ढका हुआ तथा रुधिर व गीले माससे लिप्त अति गुप्त बनाया गया है जिसमे रहनेवाले जीवके पैरमे आयुक्रर्मकी दृढ मंजीरें लगी हुई है। हे निर्बुद्धि ! तू इस शरीरको कैदखाना जानकर इससे वृथा प्रीति मतकर । Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० ] श्रीप्रवचनसारटोका। ___भाव यह है कि शरीर आत्माका कोई कारण या कार्य नहीं है, कर्मोका ही कार्य है ऐसा जानकर सर्व प्रकारके शरीरोंसे । अपनी आत्माको भिन्न अनुभव करना चाहिये ।। ८१॥ उत्थानिका-आगे कहते है कि पांचों ही शरीर नीव स्वरूप नहीं हैं ओरालिओ य देहो देहो वेदिओ य तेजयिओ। आहारय कम्मइओ पोग्गलव्वप्पगा सम्वे ॥ ८२ ॥ औदारिकश्च देहो देहो वैक्रियिकश्च तेजसः । आहारकः कार्मणः पुद्गलद्रव्यात्मका सर्वे ॥ ८२ । अन्वय सहित सामान्यार्थः-(ओरालिओ देहो) औदारिक शरीर (य) और (वेउविओ) वैक्रियिक देह (य तेनयिओ) और तैनस शरीर ( आहारय, कम्मइओ) आहारक शरीर और कार्मण शरीर ये ( सव्वे ) सब पांचों शरीर (पोग्गलदवप्पगा) पुद्गल द्रव्यमई हैं। विशेषार्थः-ये शरीर पुद्गल द्रव्यके बने हुए हैं इसलिये मेरे आत्मखरूपसे भिन्न हैं, क्योकि मै शरीर रहित चैतन्य चमत्कारकी परिणतिमें परिणमन करनेवाला हूं, मेरा सदा ही अचेतन शरीरपनेसे विरोध है। __ भावार्थ-संसारी जीवोंके पांच प्रकारके शरीर पाए जाते हैं। हरएक गरीर अपने २ नामकर्मके उदयसे बनता है | औदारिक शरीर नामकर्मके उदयसे औदारिक शरीर आहारक वर्गणासे, वैक्रियिक' शरीर नामकर्मके उदयसे वैक्रियिक शरीर आहारक वर्ग णासे, आहारक शरीर नामकर्मके उदयसे आहारक शरीर आहारक Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' द्वितीय खंड। - [३०१ वर्गणासे तथा तैजस शरीर नामकर्मके उदयसे तैनस शरीर तैनात वर्पणासे और कार्मण शरीर नामकर्मके उदयसे कार्मण शरीर कार्मण वर्गणासे बन जाता है- इन शरीरोंका उपादान और निमित्त कारण पुद्गल ही है, आत्मा नहीं है। इस तरह आत्माको शरीर और दव्यकर्म तथा रागादि कर्मकृत विकारोसे भिन्न अनुभव करके साम्यभावका लाभ करना चाहिये । श्री अमृतचंद्रस्वामी समयसारकलशमें कहते है अत्यन्त भाव यत्या दिरतमविरत कर्मणरतत्क्राच । प्रसष्ट नाठ येत्या प्रयनम खलाशानमचेतनायाः । पूर्ण कृत्वा सभार स्वासपरिगत ज्ञानसचेतना ग्वा । सानन्द नाट्य-त. प्रशनरसमितः सर्वकाल पिरन्तु ॥४०-९॥ भावार्थ-हे भव्य जीवो ! अब तुम इस समयसे द्रव्य कर्म और उनके फल स्वरूप नौकर्म और भाव कर्मसे अत्यन्त विरक्त भावकी निरंतर भावना करके तथा सर्व अज्ञान चेतनाके नाशको अच्छी तरह नचाकरके तथा अपने निजरससे भरे हुए स्वभावको पूर्ण करके और अपनी ज्ञानचेतनाको आनन्द सहित नचाते हुए शात रसका सर्वकाल पान करो। मैं सिद्ध शुद्ध ज्ञानानदमय है। इस भावनामें दृढ़ हो आनन्द लाभ करो ॥ ८२ ॥ इस तरह पुद्गल स्कंधोंके बन्धके व्याख्यानकी मुख्यतासे दूसरे स्थलमें पांच गाथाए पूर्ण हुई। इस तरह " अपदेसो परमाणू " इत्यादि ९ गाथाओसे परमाणु और स्कंध भेदको रखनेवाले पुद्गलोके पिंड बननेके व्याख्यानकी मुख्यतासे दूसरा विशेष अन्तर अधिकार पूर्ण हुआ। Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीप्रवचनलारटोका। आगे उन्नीस गाथा पर्यंत 'जीवका पुद्गलके साथ बंध है। इस मुख्यतासे व्याख्यान करते हैं। इसमें छः स्थल हैं। इनमेंसे आदिके स्थलमें " अरममरूवं " इत्यादि शुद्ध जीवके व्याख्यानकी गाथा एक है, " मुत्तो रूवादि " इत्यादि पूर्वपक्ष व उसके परिहारकी मुख्यतासे दो गाथाएं हैं, ऐसे पहले स्थलमें नीन गाथाएं हैं। फिर भाव बंधकी मुख्यतासे “ उचओगमओ" इत्यादि दो गाथाएं हैं। आगे परस्पर दोनो पुद्गलोंका बन्ध होता है, जीवका रागादि परिणामके साथ वन्ध है और जीव पुद्गलोका वन्ध है ऐसे तीन प्रकार बन्धकी मुख्यतासे "मासेहि पुग्गलाणं" इत्यादि सूत्र दो हैं । फिर निश्चयसे द्रव्य बन्धका कारण होनेसे रागादि परिणाम ही चन्ध है। ऐसा कहते हुए "रत्तो बन्धदि" इत्यादि तीन गाथाएं हैं। आगे भेदभावनाकी मुख्यतासे " भणिदा पुढवी" इत्यादि दो सूत्र हैं। फिर यह जीव रागादि भावोका ही कर्ता है, द्रव्य काँका कर्ता नहीं है ऐसा कहते हुए " कुन्वं सहावमादा " ऐमे छठे स्थलमें गाथाए सात हैं। जहां मुख्यपना शब्द कहा है वहां यथासंभव और भी अर्थ मिलता है ऐसा भाव सर्व ठिकाने जानना योग्य है। इस तरह उन्नीस गाथाओसे तीसरे विशेष अंतर अधिकार में समुदाय पातनिका है ॥ उत्थानिका-ऐमा प्रश्न होनेपर कि इस जीवका शरीरादि परद्रव्योसे मिल अन्य द्रव्योसे असाधारण अपना खरूप क्या है? आचार्य उत्तर देते हैं अरसमसमाधं अव्वत्त चेदणाराणमसदं । । जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिदिसंशणं ॥ ८३ ॥ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितोय खंड। अरसमरूपमगन्धमव्यक्तं चेतनागुणमशब्दम् । जानीह्यलिंगग्रहण जीवमनिर्दिष्टसस्थान ॥ ८३ ॥ अन्वयसहित सामान्यार्थ:-(जीवम्) इस जीवको (अरसं) पांच रससे रहित (अरूवम्) पाच वर्णसे रहित (अगंध) दो गंधसे रहित तथा इन्होके साथ आठ प्रकार स्पर्शसे रहित, ( अव्वतं) अप्रगट (असई) शब्द रहित, ( अलिंगग्गणं ) किसी चिह्नसे न पकड़ने योग्य (अणिदिवसंठाणं ) नियमित आकार रहि (चेदणागुणं) सर्व पुद्गलादि अचेतन द्रव्योंसे भिन्न और समस्त अन्य द्रव्योसे विशेष तथा अपने ही अनन्त जीव जातिमें साधारण ऐसे चैतन्य गुणको रखनेवाला (जाण) जानो। विशेषार्थः-अलिग ग्रहण जो विशेषण दिया है उसके बहुतसे अर्थ होते है वे यहा समझाए जाते है । लिग इद्रियोको कहते हैं । उनके द्वारा यह आत्मा पदार्थोंको निश्चयसे नहीं जानता है क्योकि आत्मा खभावसे अपने अतीन्द्रिय अखंडज्ञान सहित है इसलिये अलिंग ग्रहण है अथवा लिंग शब्दसे चक्षु,आदि इन्द्रियें लेना, इन चक्षु आदिसे अन्य जीव भी इस आत्माका ग्रहण नहीं कर सक्ते क्योकि यह आत्मा विकार रहित अतींद्रिय खसवेदन प्रत्यक्ष ज्ञानके द्वारा ही अनुभवमे आता है इसलिये भी अलिग ग्रहण है । अथवा धूम आदिको चिह्न कहते हैं जैसे धुएंके चिह्नरूप अनुमानसे अग्निका ज्ञान करते हैं ऐसे यह आत्मा जानने योग्य पर पदार्थोको नहीं जानता क्योकि स्वय ही चिह्न या अनुमान रहितं प्रत्यक्ष अतीन्द्रिय ज्ञानको रखनेवाला है उसे ही जानता है इसलिये भी अलिग ग्रहण है अथवा कोई भी अन्य पुरुष जैसे Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww ३०४] श्रीप्रवचनसारटोका। , घूमके चिह्नसे अग्निका ग्रहण कर लेते हैं वेसे अनुमानरूप चिह्नसे आत्माका ग्रहण नहीं कर सक्के क्योंकि वह चिह्न रहित अतीन्द्रिय ज्ञानके द्वारा जानने योग्य है इसलिये भी अलिग ग्रहण है । अथवा लिग नाम शिखा, जटा धारण आदि भेषका है इससे भी आत्मा पदार्थीका ग्रहण नहीं कर सक्ता क्योंकि स्वाभाविक, विना किसी चिके उत्पन्न अतीद्रिय ज्ञानको यह आत्मा रखनेवाला है इसलिये भी अलिंग ग्रहण है । अथवा किसी भी भेषके ज्ञानसे पर पुरुष भी इस आत्माका ग्रहण नहीं कर सक्ते क्योंकि यह आत्मा अपने ही वीतराग स्वसंवेदन ज्ञानसे ही जाना जाता है इसलिये भी अलिग ग्रहण है । इसतरह अलिग ग्रहण शब्दकी व्याख्याने शुद्ध जीवका स्वरूप जानने योग्य है यह अभिप्राय है। भावार्थ-इस गाथामे आचार्यने यह बताया है कि यह आत्मा पुद्गलके गुण जो स्पर्श रस गंध वर्ण है उनसे रहित है इसलिये पुद्गलसे भिन्न अमूर्तीक है । तथा इसी लिये यह आत्मा प्रगट देखनेमे नहीं आता है न इससे पौगलिक शब्द होते हैं न इसके कोई समचतुरस्र संस्थान आदि शरीर सम्बन्धी आकार हैं और न यह किसी चिह्नसे जाना जासका है। न तो कोई पुरुष आप ही अपनी इंद्रियोसे अपनी आत्माको देख सक्ता है या मालूम कर सक्ता है, न दूसरे पुरुष दूसरेकी आत्माको किसी इंद्रियसे जान सक्ते हैं, न कोई किसी अनुमानसे अपनी आत्माको जान सकता है न दूसरे ही पुरुष किसी अनुमानसे दूसरेकी आत्माको जान सक्ते है, न कोई शिखा जटा आदि नानाप्रकार साधुभेषको धरकर अपनी आत्माको जान सक्ता है न दूसरे पुरुष किसी भी भेषके ज्ञानसे Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [३१५ इस दूसरेकी आत्माको जान सक्ते हैं, इसलिये यह आत्मा अपने आपको आप ही अपने स्वसंवेदन ज्ञानसे ही जान सक्ता है, दूसरा कोई उपाय नहीं है। यह आत्मा शुद्ध ज्ञान चेतनामय सर्व पुद्गलादि द्रव्योंसे भिन्न लक्षणको रखनेवाला है । यद्यपि चेतना गुणकी अपेक्षा सर्व आत्माएं समान है तथापि सत्ताकी अपेक्षा भिन्न २ है तौभी इस मोक्षवांछक पुरुषको उचित है कि शुद्ध निश्चयनयकी दृष्टिसे सर्व ही आत्माओंको शुद्ध ज्ञान दर्शन सुख वीर्यमय, अविनाशी, अमूर्तीक अपने अत्माके समान देखकर सर्वसे रागद्वेष छोडकर सामान्यतासे शुद्ध आत्माके अनुभवमें तन्मय हो परम समताको प्राप्त करे, जैसा श्री अमृतचद्रस्वामीने पुरुषार्थसिद्धयुपायमे कहा है- नित्यमपि निरुपले सरूपसमवस्थितो निरुपघातः । - गगनमिव परमपुरुषः परमपदे स्कुरति विशदतमः ॥ २२३ ॥ कृतकत्त्यः परमपदे परमात्मा सकावषयविषयात्मा । । । परमानन्दनिमग्नो ज्ञानमये नन्दति सदैव ॥ २२४ ॥ भावार्थ-यह आत्मा नित्य ही कर्मोंके लेपसे रहित है, अपने स्वरूपमें स्थित है, किसीके द्वारा घातसे रहित है, आकाशके समान अमूर्तीक है, परम पुरुष है, अत्यन्त शुद्ध, परम पदमें स्फुरायमान होनेवाला है, अपने निज पदमें कृतकृत्य है, सकल जानने योग्यका ज्ञाता स्वरूप है, यही परमात्मा है, परमानंदमें डूबा हुआ है, तथा ज्ञानमई सदा ही प्रकाशमान होरहा है । इसतरह शुद्ध आत्माके शुद्ध खरूपर दृष्टि रखकर इसी खरूपका एकाग्र होकर अनुभव करना चाहिये । यही स्वात्मानुभव सिद्धपदका कारण है ॥ ८३ ॥ २० Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६] श्रीप्रवचनसारंटीका । उत्थानिका- आगे जव आत्मा मूर्तीक शुद्ध तव इस अमूर्तीक जीवका मूर्तीक पुद्गल कमौके साथ बंध होता है ऐसा पूर्व पक्ष करते हैं ! " स्वरूप है किस तरह F मुतो वादिगुणो वज्मदि फासेहि अण्णमणेहि । तव्विवदो अप्पा चंधदि कि पोगलं कम्मं ॥ ८४ ॥ मूर्ती रूपादिगुणो बनते सशैरन्योन्यैः । तद्विपरीत आत्मा बध्नाति कथं पेद्रले कर्म ॥ ८४ ॥ अन्यसहित सामान्यार्थः - ( रूवादिगुणो ) स्पर्श रस गंध चर्ण गुणधारी (मुत्तो) मूर्तीक पुद्गल द्रव्य (फासेहिं) स्निग्ध, रूक्ष स्पर्श गुणोके निमित्तसे (अण्णम् अण्णेहिं) एक दूसरेसे परस्पर ( वज्झदि) बंध जाते हैं । ( तव्विरीदो) इससे विरुद्ध अमूर्तीक (अप्पा) आत्मा ( किध ) किस तरह ( पोग्गलकम्मं ) पुद्गलीक कर्मवर्गणाको (द) बांधता है । विशेषार्थ :- निश्वयनयसे यह आत्मा परमात्मा स्वरूप है, निर्विकार चैतन्य चमत्कारी परिणतिमें वर्तनेवाला है, बंधके कारण स्निग्ध रूक्षके स्थानापन्न रागद्वेषादि विभाव परिणामोसे रहित है और अमूर्ती है सो किसतरह पुद्गल मूर्तीक कर्मोंको बांध सक्ता है ? किसी भी तरह नहीं बांध सक्ता है ऐसा पूर्वपक्ष शंकाकारने किया है। भावार्थ - शंकाकार कहता है कि जब यह आत्मा स्वभावसे अमूर्तीक वीतराग ज्ञान स्वभाव है तब इसके जड़ पुद्गल - स्पर्श रस गंध वर्णवान् पुद्गलोंका सम्बन्ध कैसे होसक्ता है। मूर्तीकका मूर्तीकके साथ स्निग्ध व रूक्ष गुणोंके निमित्तसे बंध होता है परंतु अमूर्तीका मूर्ती के साथ कैसे होसक्का है ? ॥ ८४ ॥ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. 'द्वितीयं खंड।" [३०७ " उत्थानिका-आगे आचार्य समाधान करते हैं कि किसी अपेक्षा व् नयके द्वारा अमूर्तीक मात्माका पुद्गलसे बंध होनाता है रूवादिपहिं रहिदो पेच्छदि जाणादिः स्वमादीणि । ' दव्वाणि गुणे य जधा तध यधो तेण जाणोहि ॥ ८५ रूपादिकैः रहितः पश्यति नानाति रूपादीनि । द्रव्याणि गुणाश्च यथा तथा बंधस्तेन जानीहि ॥ ८५ ॥ अन्वयसहित सामान्यार्थ-(जधा) जैसे (रूवादिएहि रहिदो) रूपादिसे रहित आत्मा (रूवमादीणि दव्वाणि गुणेय ) रूपादि गुणधारी द्रव्योको और उनके गुणोंको (पेच्छदि जाणादि) देखता नानता है (तघ) तैसे ( तेण) उस पुद्गलके साथ (बंधो ) बंध (जाणीहि ) जानो। विशेषार्थ-जैसे अमूर्तीक व परम चैतन्य ज्योतिमें परिणमन रखनेके कारण यह परमात्मा वर्ण आदिसे रहित है, ऐसा होता हुआ भी रूप, रस, गन्ध, स्पर्शसहित मूर्तीक द्रव्योको और उनके गुणोको मुक्तावस्थामें एक समबमें वर्तनेवाले सामान्य और विशेपको ग्रहण करनेवाले केवल दर्शन और केवलज्ञान उपयोगके द्वारा ज्ञेय ज्ञायक सम्बन्धसे देखता जानता है यद्यपि उन ज्ञेयोंके साथ इसका तादात्म्य सम्बन्ध नहीं है अर्थात् वे मूर्तीक द्रव्य और गुण भिन्न हैं और यह ज्ञाता इप्टा उनसे भिन्न है। अथवा असे कोई भी संसारी जीव विशेष भेदज्ञानको न पाता हुआ काट व पाषाण आदिकी अचेतन जिन प्रतिमाको देखकर यह मेरेद्वारा। पूजने योग्य है ऐसा मानता है। यद्यपि यहां सत्ताको देखने मात्र दर्शनके साथ उस प्रतिमाका तादात्म्य सम्बन्ध नहीं है तथापि Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८] श्रीप्रवचनसारटोका । दृश्य दर्शक सम्बन्ध है अथवा जैसे कोई विशेष भेदज्ञानी समवशरणमें प्रत्यक्ष जिनेश्वरको देखकर यह मानता है कि यह मेरेद्वारा आराधने योग्य हैं, यहा भी यद्यपि देखने व जाननेका जिनेश्वरके. साथ तादात्म्य सम्बन्ध नहीं है तथापि आराध्य तथा आराधक सम्बन्ध है तैसे ही मूर्तीक द्रव्यके साथ बन्ध होना समझो । यहां यह भाव है कि यद्यपि यह आत्मा निश्चयनयसे अमूर्तीक है तथापि अनादि कर्मबन्धके वासे व्यवहारसे मूर्तीक होता हुओं द्रव्यबधके निमित्त कारण रागादि विकल्परूप भावबंधके उपयोगको करता है। ऐसी अवस्था होनेपर यद्यपि मूर्तीक द्रव्यकर्मके साथ आत्माका तादात्म्य सम्बन्ध नहीं है तथापि पूर्वमें कहे हुए इप्टातसे सयोग सम्बन्ध है इसमें कोई दोष नहीं है। भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने अपने आत्माके साथ द्रव्यकर्म ज्ञानावरणादिका बंध होसक्ता है इस बातको स्पष्ट किया है। जहां मात्र जेय ज्ञायक सम्बन्ध है वहां मूर्तीक द्रव्य और गुणोको अपने ज्ञान खभावसे वीतरागतारूप जानते हुए भी आत्मा बन्धको प्राप्त नहीं होता है । केवलज्ञानी अरहंत परमात्मा सर्व मूर्तीक व अमूर्तीक द्रव्योको परम वीतरागतासे देखते जानते हैं इसलिये उनके बन्ध नही होता । इसी तरह अन्य वीतराग सम्यग्दृष्टी आत्माए भी जगतके मूर्तीक अमूर्तीक पदार्थोको यदि उदासीनतासे उनके वस्तु स्वरूपको मात्र समझते हुए देखते नानते है तो उनको इस दर्शन ज्ञानसे भी बन्ध नहीं होता । बन्धका कारण रागद्वेष है । संसारी आत्मा अनादि कर्मबन्धके सम्बन्धके कारण उन कोके उदयके निमित्तसे रागद्वेष परिणति कर लेता है Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 द्वितीय खंड | [ ३०६ इसीको अशुद्ध उपयोग कहते हैं । इस अशुद्ध उपयोगका निमित्त पाकर कर्म वर्गणाएं स्वयं कर्मरूप हो आत्माके साथ संयोगरूप ठहर जाती हैं । जिनके रागद्वेष नहीं होता वे मूर्तीक पदार्थों को देखते जानते हुए भी बन्धको प्राप्त नहीं होते । शुद्ध आत्मामें रागद्वेष नहीं होते इसलिये वे मूर्तीक कर्मोंसे नहीं बंधते हैं। यहां आचार्यने यह दिखाया है कि जैसे यह आत्मा स्वरूपसे अमूर्तीक होता हुआ भी मूर्तीक पदार्थोंको देखता जानता है इसी तरह मूर्तीकके साथ सयोग भी पालेता है । वास्तवमे जो आत्मा किसी भी समयमें अमूर्तक शुद्ध कर्मबंधसे रहित होता तौ वह कभी भी बन्धमें नही पडता, क्योंकि विना रागद्वेष मोहके आत्माके द्रव्यकमका बध नहीं होता । यह आत्मा इस ससारमें अनादिकालसे ही धरूप ही चला आरहा है - स्वभावसे अमूर्तीक होनेपर भी इसका कोई भी अंशरूप प्रदेश अनंत द्रव्यकर्म वर्गणाओके आवरणसे रहित नहीं है, इसलिये व्यवहारमें इस ससारी आत्माको मूर्तीक कहते हैं और इस मूर्तीक आत्माके ही मूर्तीक पुद्गलोंका बंध होता है । जैसे मूर्तीक आत्मा राग द्वेष मोहपूर्वक पदार्थोंको देखता जानता है वैसे यह कर्मपुद्गलोसे भी सयोग पा जाता है । जैसे देखते जानते हुए मूर्तीक द्रव्योका आत्मा के साथ न मिटनेवाला तादात्म्य सम्बन्ध नहीं है किन्तु मात्र राग सहित ज्ञेय ज्ञायक संबंध है वैसे मूर्ती आत्माका द्रव्य कर्मोंके साथ तादात्म्य संबंध नहीं है किंतु मात्र संयोग सम्बन्ध है | मूर्तीक आत्मापर प्रत्यक्ष मूर्तीक पदार्थोंका असर पड़ता दीखता है । जैसे मादक वस्तुको पीलेनेसे ज्ञान बिगड़ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० ] श्रीप्रवचनसारटोका | जाता है। अथवा सराग मूर्तिको देखनेसे सराग भाव व वीतराग मूर्तिको देखने से वीतराग भाव होता है । अथवा जैसे सरागी पुरुष बुद्धिपूर्वक भोजन पान वस्त्रादि ग्रहण करता है तैसे वही सरागी अबुद्धि पूर्वक कर्म सिद्धांतके नियमसे कर्मवर्गणाओको ग्रहणकर पूर्ववद्ध मूर्तीक द्रव्यके साथ बांध लेता है। टीकाकारने तीन दृष्टांत दिये हैं- एक केवलज्ञानी परमात्माका कि वे अमूर्तीक होते हुए भी ज्ञेय ज्ञायक सम्बन्धसे मूर्तीक द्रव्योको देखते जानते हैं तौभी उनमे तन्मयी नहीं है। दूसरा साधारण भेद ज्ञान रहित पुरुषका कि वह अरहंतकी मूर्तिको देखकर अपने दर्शक व दर्शन सम्बन्धको जोड़ देता है कि यह पूजने योग्य हैं व पूजक हूं। तीसरा एक विशेष भेद विज्ञानीका जो समवशरणमे साक्षात् अरहंतको देखकर उनसे पूज्य पूजक सम्बन्ध करता है । इन दृष्टांतोसे यही दिखलाया है कि जैसे इनमे एक तरहका संयोग सम्बन्ध है वैसा ही आत्माका द्रव्यकर्मो के साथ संयोग सम्बन्ध है । जो मूर्तिको अरहंतकी स्थापना समझकर उस मूर्तिको पूजकर अरहंतकी मैंने पूजा की ऐसा समझते हैं वे तो भेदविज्ञानी हैं । परंतु जो मूर्तिको ही साक्षात् अरहंत एकांतसे मान ले और स्थापना है ऐसा न समझे उसे वृत्तिकारने विशेष भेद विज्ञान रहित पुरुष कहा है ऐसा भाव झलकता है । श्री अमृतचन्द्र आचार्य ने अपनी वृत्तिमें इसतरह दिखलाया है कि मूर्तीक द्रव्यको जो राग सहित देखता जानता है वही स्वयं रागी होकर उससे बंध जाता है । इसके दो दृष्टांत दिये हैं- एक तो अज्ञानी बालकका जो मिट्टीके बैलको अपना जानता है । दूसरे Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । द्वितीय खंड। ग्वालियेका जो सच्चे बैलको अपना जानता है । यद्यपि दोनो ही तरहके बैल बालक या ग्वालियेसे जुदे हैं तथापि यदि कोई उनको नष्ट करे, बिगाडे ब ले जावे तो बालक और ग्वालिये दोनोको महा दुःख होगा क्योकि उनका ज्ञान उन बैलोंके निमितसे उनके आकार राग सहित परिणमन कररहा है । यही उन परस्वरूप वैलोके साथ उनके सम्बन्धका व्यवहार है। इसी तरह अमूर्तीक आत्माका जो अनादिकालसे प्रवाहरूपसे एक क्षेत्रावगाहरूप पुद्गलीक कर्मोके साथ सम्बन्ध चला आरहा है उनके उदयका निमित्त पाकर राग द्वेष मोहरूप अशुद्धोपयोग होता है यही भाव बध है । इसीसे आत्मा बधा हुआ है । पुद्गलीक कर्मोंका बंध व्यवहार मात्र है। यही भाववध द्रव्यवधका कारण है। भावनधसे नवीन द्रव्य कर्म उसी कर्म सहित आत्मामें सयोग पालेते है । श्री तत्वार्थसारमे अमृतचद्रस्वामीने इसी प्रश्नको उठाकर कि अमूर्तीकका बन्ध मूर्तीकके कैसे होता है ? इस तरह समाधान किया है. न च चन्धापसिद्धिः स्यान्मूतैः कर्ममिरात्मनः । अमृतरित्यने का तात्तस्य मूर्तित्वसिद्धितः ।। १६ ।। अनादिनित्यसम्बन्धासह कर्मभिरात्मनः । अमूर्तस्यापि सत्यैक्ये मूतत्त्वमवसीयते ॥ १७ ॥ धन्धं प्रति भवत्यै स्मन्योन्यानुप्रवेशतः । युगपद्दापितः स्वर्णरौप्यवजेवमण : ॥ १८ ॥ तथा च मूर्तिमानात्मा सुगाभिभवदर्शनात् । न ह्यमूर्तस्य नमसो मदिरा मदकारिणी ॥ १९ ॥ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ ] श्रीप्रवचनसारटोका । । भावार्थ-अमूर्तीक आत्माके साथ मूर्तीक कोका बंध अनेकान्तसे असिद्ध नहीं है क्योकि किसी अपेक्षासे आत्माके मूर्तिपना सिद्ध है । इस अमूर्तीक आत्माका भी द्रव्य कौके साथ . प्रवाह रूपसे अनादिकालसे धारावाही सदाका सम्बन्ध चला रहा है इसीसे उन मूर्तीक द्रव्यकर्मों के साथ एकता होते हुए आत्माको भी मूर्तीक कहते हैं | बंध होनेपर मिसके साथ वन्ध होता है उसके साथ एक दूसरेमें प्रवेश होजानेपर परस्पर एकता होनाती है जैसे सुवर्ण और चांदीको एक साथ गलानेसे दोनों एक रूप होनाते हैं उसी तरह जीव और कर्मोका बंध होनेसे परस्पर एकरूप बंध होजाता है । तथा यह कर्मवद्ध संसारी आत्मा मूर्तिमान है क्योंकि मदिरा आदिसे इसका ज्ञान बिगड़ जाता है। यदि अमूर्तिक होता तो जैसे अमूर्तिक आकाशमें मदिरा रहते हुए आकाशको मदवान नहीं कर सक्ती वैसे आत्माके कभी ज्ञानमें विकार न होता । संसारी आत्मा मूर्तिक है इसीसे उसके कर्म बंध होता है। जैसे आत्मा निश्चयसे अमूर्तीक है वैसे उसके निश्चयसे वध भी नहीं है। जैसे आत्मा व्यवहारसे मूर्तीक है वैसे उसके व्यवहारसे बंध भी होता है । इस तरह अनेकांतसे समझ लेनेमे कोई प्रकारकी शंका नहीं रहती है। सर्वथा शुद्ध अमूर्तीक यदि आत्मा होता तो इसके बंध मूर्तीकसे कभी प्रारंम नहीं हो सक्ता था । अनादि संसारमे कर्म सहित ही आत्मा जैसा अब प्रगट है वैसा अनादिसे ही चला आ रहा है इसीसे कर्मबंधको व्यवस्था सिद्ध होती है ।। ८५ ॥ ___ इस तरह शुद्धबुद्ध एक स्वभावरूप जीवके कथनकी मुख्यतासे एक गाथा, फिर अमूर्तीक जीवका मूर्तीक कर्मके साथ कैसे । Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड बंध होता है इस पूर्व पक्षरूपसे दूसरी, फिर उसका समाधान करते हुए तीसरी इस तरह तीन गाथाओसे प्रथम स्थल समाप्त हुआ। उत्थानिका-राग द्वेष मोह लक्षणके धारी भावबन्धका खरूप कहते हैं:। उवओगमओ जीवो मुझदि रज्जेदि वा पदुस्सेदि । पप्पा' विविधे विसए जो हि पुणो तेहिं संबंधो ॥८६॥ उपयोगमयो जीवो मुह्यति त्यति वा प्रदेष्टि । प्राप्य विविधान् विषयान् यो हि पुनस्तैः सम्बन्धः ॥ ८६ ॥ अन्वय सहित सामान्यार्थः-(उवओगमओ जीवो) उपयोग -मई जीव (विविधे चिसये) नानाप्रकार इंद्रियोके पदार्थोंको (पप्पा) 'पाकर (मुह्यदि) मोह करलेता है (रज्नदि) राग कर लेता है (वा) अथवा (पदुस्सेदि) द्वेष कर लेता है। (पुणो) तथा (हि) निश्चयसे (जो) वही जीव (तेहि संबंधो) उन मावोसे बन्धा है यही भावबंध है। विशेषार्थः यह जीव निश्चय नयसे विशुद्ध ज्ञान दर्शन उपयोगका धारी है तौमी अनादि कालसे कर्मबंधकी उपाधिके वशसे जैसे स्फटिकमणि उपाधिके निमित्तसे अन्य भावरूप परिणमती है इसी तरह कर्मरूत औपाधिक भावोंसे परिणमता हुआ इंद्रियोके विषयोसे रहित परमात्म खरूपकी भावनासे विपरीत नाना प्रकार पचेंद्रियोके विषयरूप पदार्थोंको पाकर उनमें राग द्वेष मोह कर लेता है। ऐसा होता हुआ यह जीव राग द्वेष मोह रहित अपने शुद्ध वीतरागमई परम धर्मको न अनुभवता हुआ इन राग देष मोह भावोंसे बड होता है। यहां पर जो इस जीवके यह राग द्वेष मोह रूप परिणाम है सो ही भावबन्ध है। Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ ] श्रीप्रवचनसारटोका। भावार्थ-इस गाथामें आचार्य ने द्रव्य॑वंधके कारण भावबंधको स्पष्ट किया है। यह आत्मा यदि शुद्ध अवस्था में हो तब तो इसके कभी राग द्वेष मोह भाव हो ही नहीं सक्ते क्योकि आत्माका स्वभाव वीतरागतासे निन परका ज्ञाता दृप्टय मात्र रहना है-यह उपयोगमई, है। शुद्ध उपयोगमें रहना , ही इसका धर्म है। जैसे स्फटिकमणिका स्वभाव निर्मल श्वेत है वैसे यह आत्मा शुद्ध है, परंतु संसारमें हरएक आत्मा प्रवाह रूपसे अनादिकालसे पौगलिक ज्ञानावरणादि कर्मोकी उपाधिसे संयुक्त चला आरहा है । इस कारण शुद्ध ज्ञान दर्शन उपयोगमे न परिणमता हुआ क्षयोपशमरूप मति श्रुतज्ञानसे इंद्रियोंके और मनके द्वारा जानता देखता है। साथमैं मोहका उदय है इसलिये पांचों इंद्रियोंके द्वारा जिन २ पदार्थोको जानता है उनमें से जो अपनेको इष्ट भासते हैं उनमें राग और मोह करलेता है। तथा जो अनिष्ट भासते हैं उनमें द्वेष कर लेता है । उस समय यह आत्मा उस राग द्वेष या मोहके भावसे तन्मई होकर रागी, द्वेषी, मोही हो जाता है । जैसे स्फटिकमणि काले, पीले, हरे डाकके सम्बन्धसे अपनी शुद्धताको छिपाकर काली, पीली, हरी भासती है । इस जीवके इस राग द्वेष मोह भावको इसी लिये भाव बंध कहते है क्योकि उसका उपयोग उन भावोंसे बन्धा हुआ है। अर्थात् उपयोगने अपनेमें रागद्वेष मोहका रंग चढ़ा लिया है। जैसे सफेद वस्त्र काले, पीले, हरे, लाल रंगमें रंगनेसे रंगीन हो जाता है वैसे यह आत्मा रागद्वेष मोहमें रंग जानेसे रागीद्वेषी मोही हो जाता है। उस समय आत्माकी स्वाभाविक वीतरागता Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विताय खंड | [ ३१५ ढक जाती है । इसी भावबंधसे यह आत्मा नवीन कर्मबंध करता है । प्रयोजन यह है कि जैसे सफेद वस्त्र व स्वच्छ स्फटिकको देखनेकी इच्छा करनेवाला रंगके व डाकके सम्बन्धको छुडाता है: इसी तरह हमको शुद्ध आत्माके लाभके लिये, रागद्वेष मोहके कारणभूत कर्मबधनको आत्मासे हटाना चाहिये और इसी लिये अभेदरत्नत्रयका शरणलेकर स्वानुभवके वलसे मोहके बलको निर्बल करना चाहिये | यहां मोहसे मिथ्या शृद्धान तथा राग द्वेषसे क्रोधादि कपायोका आवेश समझना चाहिये । यही राग द्वेष मोहबन्धके, कारण है - ऐसा ही समयसार कलशमें स्वामी अमृतचद्राचार्यने कहा है प्रच्युत्य शुद्वनयतः पुनरेव ये तु, रागादयोगमुपयात विमुक्तोधा । ते कर्माविति पूर्वश्रद्ध- द्रव्यासवे. कृतावा चैत्रार्वकल्पजालम् ॥९५॥ भावार्थ - जो कोई जीव शुद्ध निश्चय नयके विषयभूत शुद्धात्मानुभवसे छूटकर ज्ञान रहित हो राग द्वेष मोहको परिणमते हैं वे ही पूर्वमें बांधे हुए कर्मो के अनुसार नाना प्रकार भेदरूप कर्मबंधको प्राप्त करते है । इससे यह सिद्ध है कि रागद्वेष मोह कर्मबंध के कारण होनेसे भावबन्ध है ॥ ८६ ॥ उत्थानिका- आगे भावबंधके अनुसार द्रव्यचन्धका स्वरूपः बताते हैं भावेण जेण जोवो पेच्छदि जाणादि आगदं विसए । रज्जदि तेणेव पुणो वज्झदि कम्मत्ति उवएसो ॥ ८१ ॥ भावेन टेन जीवः पश्यति जानात्यागतं विषये । राज्यति नैव पुनर्वध्यते कर्मत्युपदेशः ॥ ८७ ॥ अन्वय सहित सामान्यार्थः - (जीवो) जीव ( जेण भावेण ) Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ ] श्रीप्रवचनसारटोका । जिस रागद्वेष मोहभावसे ( विसए आगदं ) इन्द्रियोंके विषयमें आए हुए इष्ट अनिष्ट पदार्थोको (पेच्छदि) देखता है (नाणादि) जानता है ( तेणेव रज्जदि) उसही भावसे रंग जाता है (पुणो ) तब (कम्म) द्रव्यकर्म ( वज्झदि) बन्ध जाता है ( इति उवएसो ) ऐसा श्री जिनेन्द्रका उपदेश है । विशेषार्थ - यह जीव पांचों इन्द्रियोके जाननेमें जो इष्ट व अनिष्ट पदार्थ आते हैं उनको जिस परिणामसे निर्विकल्परूपसे देखता है व सविकल्परूपसे जानता है उसी ही दर्शनज्ञानमई उपयोगसे राग करता है क्योकि वह आदि मध्य अन्त रहित, व रागद्वेषादि रहित चैतन्य ज्योतिस्वरूप निज आत्म द्रव्यको न श्रद्धान करता हुआ, न जानता हुआ और समस्त रागादि विकल्पोको छोड़कर नहीं अनुभव करता हुआ वर्तन कर रहा है इसीसे ही रागी द्वेषी मोही होकर रागद्वेष मोह कर लेता है । यही भाव- बंध है | इसी भाव वंधके कारण नवीन द्रव्यकर्मोको बांधता है ऐसा उपदेश है । भावार्थ: - इस गाथामे आचार्यने यह बतलाया है कि इस आत्माका अशुद्ध ज्ञानदर्शनोपयोग द्रव्य कर्मकेबंधके लिये निमित्त कारण है । वे कर्म वर्गणाएं आत्माके भावोका निमित्त पाकर स्वयं - कर्मरूप बंध जाती है । यदि यह आत्मा वीतराग भावसे पदाथको देखे जाने तो भावबंध न हो परन्तु यह रागद्वेष मोहके साथ देखता जानता है इससे अपनेमे भाव बधको पाकर द्रव्यबन्ध करता है । तात्पर्य यह है कि वीतराग भावसे ही देखना जानना 'हितकारी है ||७|| 3 Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [३१७ ___ इस तरह भावबंधके कथनकी मुख्यतासें दो गोथाओंमें दूसरा स्थल पूर्ण हुआ। उत्थानिका-आगे बंध तीन प्रकार है । एक तो पूर्ववद्ध कर्म पुद्गलोका नवीन पुद्गल कर्मोके साथ बध होता है । दूसरा जीवका रागादि भावके साथ बंध होता है। तीसरा उसी जीवका ही नवीन द्रव्यकोसे वध होता है, इस तरह, तीन प्रकार वन्धके स्वरूपको कहते है फासेहि पोग्गलाणं बधो जीवस्स रागमादीहि । आण्णोणं अलगाहो पोग्गलजीवप्पगो भणिदो ॥८॥ स्पशः पुद्गलाना बधो जीवस्य रागादिभिः । अन्योन्यमवगाह पुद्गलजीवात्मको भणितः ॥ ८८ । '. अन्वय महित सामान्यार्थ:-(पुग्गलाण) पुद्गलोका (बधो) बन्ध ( फासेहि ) स्निग्ध रूक्ष स्पर्शसे, ( जीवस्स ) जीवका बन्ध (रागमादीहि) रागादि परिणामोसे तथा ( पोग्गलनीवप्पगो) पुद्गल और जीवका वन्ध ( अण्णोण्णं अवगाहो) परस्पर अवगाहरूप (मणिदो ) कहा गया है। विशेपार्थ:-जीवके रागादि भावोंके निमित्तसे नवीन पुद्गलीक द्रव्यकर्मोका पूर्वमे जीवके साथ बंधे हुए पुद्गलीक द्रव्यक के साथ अपने यथायोग्य चिकने रूखे गुणरूप उपादान कारणसे जो बध होता है उसको पुदल बंध कहते हैं। वीतराग परम चैतन्यरूप निन आत्मतत्वकी भावनासे शून्य जीवका जो रागादि भावोमे परिणमन करना सो जीववन्ध है। निर्विकार स्वसवेदन ज्ञान रहित हो स्निग्ध रूक्षकी जगह रागद्वेषमें परिणमन होते हुए जीवका Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८] श्रीप्रवचनसारटोका । बंध योग्य स्निग्ध रूक्ष परिणामों में परिणमन होनेवाले पुद्गलके साथ जो परस्पर एक क्षेत्र अवगाहरूप वन्ध है वह जीव पुरळ बन्ध है इस तरह तीन प्रकार बंधका लक्षण जानने योग्य है। ' भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने बन्ध तत्वका वर्णन किया है । वास्तवमें दो वस्तुओंका मिलकर एकमेक होजाना उसको बध कहते हैं । यह बन्ध पुद्गल द्रव्यहीमें हो सका है। पुद्गलके परमाणु या स्कंध एक दूसरेसे स्निग्ध रूक्ष गुगके दो अविमाग प्रतिच्छेद या अंशके अधिक होनेपर परस्पर मिलकर एक बन्धरूप स्कंध हो जाते हैं जैसा पहले कहचुके हैं। इस तरहका बंध उस समयमें भी होता है जब जीवके योग और कषायके निमित्तसे द्रव्य कर्मवर्गणाएं आश्रवरूप होती हैं । पूर्वमें बांधी हुई पुद्गलीक द्रव्य कर्म वर्गणाओं के साथ नवीन आश्रवरूप हुए पुद्गलीक कर्म वर्गणाओंका परस्पर स्निग्ध रुक्षगुणके कारण वन्ध हो जाता है। इसको पुद्गल बंध कहते हैं। इस तरहकी व्यवस्था वस्तुस्वरूपके समझने पर यह बात अच्छी तरह ध्यानमें आनावगी कि शुद्ध आत्माके कर्मबन्ध होना असंभव है। अनादिकालसे आत्मा अशुद्ध है अर्थात् कर्मअन्ध सहित है ऐसा माननेपर ही नवीन द्रव्यकर्माका पुराने द्रव्यकों के साथ बन्ध बन' सक्ता है, क्योंकि वास्तवमें बन्ध रूप पर्याय पुढलोमें ही होती हैं। यह एक प्रकारका पुद्गलबंध है। ___मोहनीयदि कर्मोंके उदयके निमित्तसे जीवके भावोमें परिणति होकर उनका रागद्वेष मोहरूप परिणत हों जाना सो जीवबंध है। आत्मा किस तरह रागद्वेषरूप परिणमता है इसका खरूप शब्दोंसे कहना बहुत दुर्लभ है । जो विलकुल वीतराग हो चुके Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [३१६ हैं उनके कभी भी रागद्वेष मोह पैदा नहीं हो सक्के क्योंकि उन्होंने मोहकर्मका' ही नाश कर डाला है। जिन्होंने मोहका नाश नहीं किया है उनके भीतर रागद्वेष मोह भी किसी न किसी पर्यायमें कम या अधिक अनादिकालसे होते ही रहते हैं, केवल उपशम सम्यक्तमें या उपशम चारित्रमें मोहके उदयके दब जानेसे जीवोको अन्तर्मुहर्तके लिये निर्मल सम्यक्त या निर्मल वीतराग चारित्र होता है । इस अवस्थाके सिवाय क्षपक श्रेणीके दसवें गुणस्थान तक बराबर कोई न कोई प्रकारका राग या द्वेष या मोह सहित राग या द्वेष बना ही रहता है। ये राग द्वेष मोह नैमित्तिक या औपाधिक भाव कहलाते हैं क्योंकि जीवके उपयोगके साथ साथ मोहनीय कर्मका अनुभाग या रस झलकता है । जबतक मोहनीय कर्मके उदयसे उसका रस प्रगट होता रहेगा तब ही तक जीवके रागादिरूप भाव होगा । जैसे स्फटिक मणिके नीचे जबतक काली, हरी, पीली डाकका सम्बन्धी रहेगा तब ही तक वह काली, हरी, पीली रूप झलकेगी वैसे ही जीवके विमाव भावोंकी अवस्था समझ लेनी चाहिये । पुद्गलकर्म वर्गणाओंमें इतनी अवश्य शक्ति है कि जीवके उपयोगको मलीन कर देते हैं या इसके गुणोंको ढक देते हैं जिसका दृष्टांत हमको मादक पदार्थमें मिलता है । मादक पदार्थके सेवनसे ज्ञानमें उन्मत्तपना हो जाता है । जीवका शुद्धोपयोगसे शून्य हो अशुद्धापयोगरूप होना यह जीवबंध या भावबंध कहलाता है। _ 'एक २ जीवके प्रदेशमें अनंत पुद्गलकर्मवर्गणाओंका अवगाह रूप तिष्ठे रहना, जैसे एक छोटेसे कमरेके आकाशमें बहुतसे दीप Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० ] श्रीप्रवचनसारोका । कोंका प्रकाश अवगाह पाकर ठहर जाता है इसको जीव पुद्गलका 1 " एक क्षेत्रावगाह रूप बन्ध कहते हैं । इस तरह तीन प्रकारका बन्ध है । पंचाध्यायीकारने भी बन्धके तीन भेद बताए हैं अर्थतस्त्रिविधो, बंधो भावद्रव्योभयात्मकः । 1 प्रत्येकं तद्द्वयं यावत्तृतीयोद्वद्वनः क्रमात् ॥ ४६ ॥ रागात्मा भावबंध / सजीवबंध इति स्मृतः । द्रव्यं पौगलिकः पिंडो बंधनच्छक्तिरेव वा ॥ ४७ ॥ इतरेतरत्रंश्च देशाना तद्वयोर्मिथः । 1 बंध्यबंधकभावः 'स्याद् भावन्रधनिमित्ततः ॥ ४८ ॥ B भावार्थ - वास्तवमें बंध तीन प्रकार है-भावबन्ध, द्रव्यबन्ध, और उभयवन्ध। इनमेंसे भाववन्ध और द्रव्यबंध तो भिन्नर स्वतंत्र है । तीसरा उभयबन्ध जीव पुद्गलके मेलसे होता है । रागद्वेष 'आदि परिणाम भावबंध है इसीको जीवबंध कहते हैं । पुद्गलका पिड वही द्रव्यबंध है । यह बंध पुगलकी स्निग्ध रूक्ष शक्तिसे होता है । भावबंधके निमित्तसे जीवके प्रदेशोंका और द्रव्यकमका परस्पर एक दूसरेमें प्रवेश होना सो उभयबंध है । इन तीन प्रकार बंधों में रागादिरूप भाव बन्धको ही संसारका कारण जानकर इनकी अवस्थाको त्याग वीतराग साम्य अवस्था में ही ठहरनेका यत्न करना चाहिये, यह तात्पर्य है ॥८८॥ उत्थानिका - आगे पूर्व सूत्रमें "जीवस्स रायमादीहि " इस वचनसे जो रागपनेको भावबंध कहा था वही द्रव्यबंधका कारण हैं ऐसा विशेष करके समर्थन करते हैं Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड | [ ३२१ सपदेसो सो अप्पा तेसु पदेसेसु पोगला काया । पविसंति जहाजोगं तिद्वंति य जति वज्यंति ॥ ८१ ॥ सप्रदेश: स आत्मा तेषु प्रदेशेषु पुद्गलाः कायाः । प्रविशन्ति यथायोग्य तिष्ठन्ति च यान्ति बध्यन्ते ॥ ८९ ॥ अन्य सहित सामान्यार्य - (सपदेसो) असंख्यात प्रदेशवान (सो) वह (अप्पा) आत्मा है (तेसु पदेसेसु) उन प्रदेशों में (पोग्गला काया) कर्मवगा योग्य पुल पिड ( जहा जोग्ग) योगों के अनुसार ( पविसंति) प्रवेश करते है, (तिटुंति) ठहरते हैं, (य जंति ) तथा उदय होकर जाते है ( वज्यंति) तथा फिर भी बघते है । विशेषार्थ - मन, वचन, कायवर्गणाके आलम्बनसे और वीर्यान्तरायके क्षयोपशमसे जो आत्माके प्रदेशोमे सकम्पपना होता है उसको योग कहते हैं । उस योगके अनुसार कर्म वर्गणा योग्य पुलकाय आश्रवरूप होकर अपनी स्थिति पर्यंत ठहरते है तथा अपने उदयकालको पाकर फल देकर उड जाते है तथा केवल ज्ञानादि अनन्त चतुष्टयकी प्रगटतारूप मोक्षसे प्रतिकूल बन्धके कारण रागादिकों का निमित्त पाकर फिर भी द्रव्यबन्धरूपसे वध जाते है । इससे यह बताया गया कि रागादि परिणाम ही द्रव्यबंधका कारण है । अथवा इस गाथासे दूसरा अर्थ यह कर सक्ते हैं कि प्रविशन्ति शब्दसे प्रदेशवध, तिष्ठन्तिसे स्थितिबध, जतिसे फल देकर जाते हुए अनुभागबंध और वध्यन्तेसे प्रकृतिबंध ऐसे चार प्रकार बंधको समझना । भावार्थ - इस गाथामें आचार्यने कर्मोके बंधकी व्यवस्था बताई है कि योगके अधिक या अल्प प्रमाणके अनुसार अधिक या २१ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२] श्रीप्रवचनसारटोका। अल्प कर्मवर्गणा योग्य पुद्गल आत्माके सर्व प्रदेशोंमें प्रवेश होकर बंध नाते हैं वे अपनी स्थिति तक ठहरते हैं उनमें स्थिति पर्यंत कालतक बंटवारा होनाता है और उस बंटवारेके अनुसार कर्मवर्गणाएं अपने २ समय पर उदय होकर या फल प्रगटकर झड़ती जाती हैं। वे वर्गणाएं फिर भी रागादि भावका निमित्त पाकर बंध जाती हैं। इस संसारमें अनादिकालसे कर्मबंध होनेकी यही व्यवस्था चली आरही है । सदा ही इस आत्माके प्रदेशोंका सकम्परूप योग और कषायका उदय पाया जाता है। रागद्वेपसे रंजित योग अथवा लेश्याके द्वारा यह जीव हर समय नई कर्मवर्गणाओंको अपने प्रदेशोमें प्रवेश कराता रहता है और बांधता रहता है। पूर्वबहकर्म अपना समय पाकर फल देकर झडते रहते हैं। इस तरह बंधना पुलना बरावर जारी रहता है। मूल कारण रागद्वेषादि भावबंध है। अतएव इसको जिस तरह हो सके दूर करना चाहिये ॥१९॥ इस तरह तीन तरह बंधके कथनकी मुख्यतासे दो सूत्रोंसे तीसरा स्थल पूर्ण हुआ। उत्थानिका-आगे फिर भी प्रगट करते हैं कि निश्चयसे रागादि विकल्प ही द्रव्यबंधका कारणरूप होनेसे भावबंध है रत्तो बंधदि कम्म मुच्चदि कम्मेहिं रागरहिदप्पा । एसो बंधसमासो जीवाणं जाण णिच्छयदो ॥ १० ॥ रक्तो बध्नाति कर्म मुच्यते कर्मभिः रागरहितात्मा । एष बन्धसमासो जीवानां जानोहि निश्चयनः ॥ ९० ॥ अन्वय सहित सामान्यार्थ-(रत्तो) रागी जीव ही (कम्म बंदि ) कर्मोको बांधता है न कि वैराग्यवान तथा (रागरहिदप्पा) Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विताय खंड। [३२३ वैराग्य सहित आत्मा (कम्मेहि मुञ्चदि) कर्मोसे छूटता ही है-वह वैरागी शुभ अशुभ कर्मोंसे बंधता नहीं है (एसो वधसमासो) यह प्रगटबंध तत्त्वका सक्षेप (जीवाणं) संसारी जीव सम्बन्धी हे शिष्य ! (णिच्छयदो जाण) निश्चय नयसे जानो। विशेषार्थ-इस तरह राग परिणामको ही बंधका कारण जान करके सर्व रागादि विकल्प नालोंका त्याग करके विशुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभावधारी निज आत्मतत्वमें निरन्तर भावना करनी योग्य है। भावार्थ-इस गाथामें बहुत ही सरलतासे आचार्यने वता दिया है कि जो जीव रागद्वेषसे पूर्ण हैं वे अवश्य कर्मोंसे बंधने हैं तथा जो रत्नत्रयके प्रभावसे वीतरागताको धारते हैं वे नए कर्मोको न बांधकर पुराने कर्मोसे छूटते हैं। इससे यह बताया गया कि रागद्वेष संसारके कारण है व वीतरागभाव मोक्षका कारण है। ____ इसलिये मुमुक्षु जीवको निरन्तर रागादि भावोके रङ्गको हटानेके लिये निजात्माकी विभूतिको ही अपनी समझ उसीमें तन्मय हो वीतराग भावकी निरतर भावना करनी चाहिये । श्री पूज्यपाद स्वामीने इष्टोपदेशमे भी ऐसा ही कहा हैबध्यते मुच्यते जीव. सममो निर्मम: क्रमात् । तस्मात्सप्रियत्नेन निर्ममत्र विचितयेत् ॥ २६ ॥ भावार्थ-ममतावाला जीव कोसे वधता है जब कि ममता रहित जीव मुक्त होता है इसलिये सर्व तरह उद्यम करके निर्ममत्त्व भावका चिन्तवन करना चाहिये ॥ ९ ॥ उत्थानिका-आगे द्रव्यवधका साधक जो जीवका रागादिरूप औपाधिक परिणाम है उसके भेदको दिखाते हैं. Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४] श्रीप्रवचनसारटोका । पारिणामादो बंधो परिणामो रागदोसमोहजुदो । असुहो मोहपदोसो सुहो व असुहो हवदि रागो ॥१॥ ___परिणामाद्वन्धः परिणामो रागद्वेषमोहयुतः । अशुभौ मोहप्रदेषो शुभो वा शुभो भवति रागः ॥ ९१ ।। अन्वयसहित सामान्यार्थः-(परिणामादो) परिणामोंसे (वंधो) बंध होता है । (परिणामो) परिणाम ( रागदोसमोहजुदो) रागद्वेष मोह युक्त होता है (मोहपदोसो) मोह और द्वेष भाव ( असुहो) अशुभ परिणाम है । (रागो) रागभाव (सुहो) शुभ (व असुहो) व अशुभ रूप (हवदि) होता है। विशेषार्थ-वीतराग परमात्माके परिणामसे विलक्षण परिणाम रागद्वेष मोहकी उपाधिसे तीन प्रकारका होता है। इनमेंसे मोह और द्वेष दोनों तो अशुभ भाव ही हैं। राग शुभ तथा अशु.. भके भेदसे दो प्रकारका होता है। पंचपरमेष्ठी आदिमे भक्तिरूप भाव परम राग कहा जाता है । जब कि विषय कषायोमे उलझा हुआ भाव अशुभ राग होता है । यह तीन ही प्रकारका परिणाम सर्व प्रकारसे ही उपाधि सहित है इसलिये वधका कारण है। ऐसा जानकर शुभ तथा अशुभ समस्तराग द्वेष भावके नाश करनेके लिये सर्व रागादिकी उपाधिसे रहित सहजानन्दमई एक लक्षणधारी सुखामृतखभावमई निज आत्मद्रव्यमें ही भावना करनी योग्य है । यह तात्पर्य है। भावार्थ-इस गाथामें आचार्य ने यह स्पष्ट किया है कि बंधका कारण जीवका अशुद्ध भाव है जो मोहनीय कर्मके उदयकी । Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [३२५ उपाधिके निमित्तसे होता है। मोहनीयकर्म दर्शनमोह और चरित्रमोहके भेदसे दो प्रकार है। दर्शनमोहके उदयसे मिथ्याश्रद्धानरूप मिथ्यारुचिमई भाव होता है जिससे यह जीव. मोक्षकी रुचि न रखकर ससारकी रुचि रखता हुआ संसारके सुखोंमे व उनके कारणोमे तथा उन सुखोके सहकारी धर्माभासोमें रुचि करता है । यह महा अशुभ भाव है। इसी भावसे जीव मिथ्यात्त्वकी स्थिति सत्तर कोडाकोडी सागर वाधता है। चारित्र मोहके उदयसे रागद्वेषभाव होता है । क्रोध व मान कषाय तथा अरति, शोक, भय, जुगुप्सा इनके उदय ननित भावको द्वेष कहते हैं । यह द्वेष परिणामोको सल्केश या दुःखी व मलीन करनेवाला है इसलिये अशुभ भाव है । लोभ व माया कषाय तथा रति, हास्य, स्त्रीवेद, पुंवेद, नपुंसकवेद इनके उदयसे होनेवाले भावको राग कहते हैं । यह रागभाव जो पाचों इन्द्रियोके भोगनेमें व अभिमानादिकी पुष्टिके लिये होता है वह अशुभ राग है। नब कभी इन ही कषायोकी मंदतासे श्री अरहंत सिद्ध आदि पाच परमेष्टियोंमे भक्तिरूप पूना, दान, परोपकार, जप तथा खाध्याय करनेकी आकाक्षारूप भाव होता है वह शुभ राग है । इनमेंसे शुभ राग तो पुण्यबध करता है और परम्पराय मोक्षका कारण है जब कि अशुभ राग, मोह और द्वेष भाव तो मात्र पाप कर्मोको बांधते हैं इससे सर्वथा त्यागने योग्य हैं। प्रयोजन यह है कि इन सर्व बंधके कारणभावोको त्यागनेके लिये हमे नित्य शुद्धोपयोगकी ही भावना करनी योग्य है । वास्तवमें परिणाम ही बधका कारण है जैसा श्री आत्मानुशासनमें कहा है: Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६] श्रीप्रवचनसारटोका। परिणाममेव कारणमाहुः न्यल पुण्यपापोः प्राशाः । तस्मात्यापापचनः पुष्ोपचयश्च सुविधेयः ॥ २२ ॥ भावार्थ:-आचार्याने परिणामने ही पुण्य तथा पापका कारण कहा है इसलिये पापोका नाम और पुण्यका मंत्रह वरना योग्य है। यह प्रथम अवस्थाच उपदेश है। वीतराग भाव अबंधका करता है वही उपादेय है, यह तात्पर्य है ॥९॥ उत्थानिका-आगे कहते है कि द्रव्यरूप पुण्य पाप बन्यका कारण होनेसे शुभ अशुभ परिणामोंको पुण्य पापकी संज्ञा है तथा शुभ अशुमसे रहित शुद्धोपयोगमई परिणाम मोक्षका कारण है सुहपरिणामो पुण्णं असुहो पावत्ति भणियमण्णेसु । परिणामोणण्णगदो दुक्खक्खयकारणं समये । ६२ ।। शुमचरिणाम: पुष्प शुभः पापभिन्न भणितम्न्येषु ।। परिणामोऽनन्यगो दुःखयका समय ॥ ९२ ॥ अन्वय महित मामान्यार्य-(अण्णेसु) अपने मात्मासे अन्य द्रव्योंमें (सुहपरिणामो) शुभ रागरूप भाव (पुण्ण) द्रव्य पुन्यबन्धका कारण होनेसे भाव पुण्य है (असुहो) व अशुभ रागरूप भाव ( पावत्ति भणियम् ) द्रव्य पाप बन्धका कारण होनेसे भाव पाप कहा जाता है तथा (अणण्णगनो परिणानो) अन्य द्रव्यमें नहीं रमता हुमा शुद्ध भाव (दुक्खरखवकारणं ) संसारके दुःखोंके क्षयका कारण भाव है ऐसा (मनये) परमागसमें कहा है। विशेषार्थ-अपने शुद्धत्मासे भिन्न सर्व शुभ व अशुभ द्रव्य हैं। इन द्रव्योंक सम्बन्धमें रहता हुआ जो शुभभाव है वह पुण्य है और जो अशुभभाव है वह पाप है तथा शुद्धोपयोग Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड | [ ३२७ रूप भाव मोक्षका कारण होनेसे शुद्ध भाव है ऐसा परमागममें कहा है अथवा ये भाव यथासंभव लव्धिकालमे होते हैं। विस्तार यह है कि मिथ्यादृष्टि, सासादन और मिश्र इन तीन गुणस्थानोमे तारतम्यसे अर्थात् कमती कमती अशुभ परिणाम होता है ऐसा पहले • कहा जा चुका है। अविरत सम्यक्त, देशविरत तथा प्रमत्तसयत इन तीन गुणस्थानोमे तारतम्यसे शुभ परिणाम कहा गया है । तथा अप्रमत्त गुणस्थान से क्षीणकषाय नाम बारहवें गुणस्थानतक तारतम्य से शुद्धोपयोग ही कहा गया है । यदि नयकी अपेक्षासे विचार करें तो मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से क्षीणकषाय तकके गुणस्थानोमे अशुद्ध निश्चय नय ही होता है। इस अशुद्ध निश्चय नयके विषयमे शुद्धोपयोग कैसे प्राप्त होता है ऐसी पूर्वपक्ष शिष्यने की । उसका उत्तर देते है कि वस्तु के एक देशकी परीक्षा जिससे हो वह नयका लक्षण है । तथा शुभ अशुभ व शुद्ध द्रव्यके आलम्बनरूप भावको शुभ, अशुभ व शुद्ध उपयोग कहते है । यह उपयोगका लक्षण है। इस कारणसे अशुद्ध निश्चयन के मध्यमें भी शुद्धात्माका आलम्बन होनेसे व शुद्ध ध्येय होने से व शुद्धका साधक होनेसे शुद्धोपयोग परिणाम प्राप्त होता है । इस तरह नयका लक्षण और उपयोगका लक्षण यथासंभव सर्व जगह जानने योग्य है | यहा जो कोई रागादि विकल्पकी उपाधिसे रहित समाधि लक्षणमई शुद्धोपयोगको मुक्तिका कारण कहा गया है सो शुद्धात्मा द्रव्य लक्षण जो ध्येयरूप शुद्ध पारिणामिक भाव है उससे अभेद प्रधान द्रव्यार्थिक नयसे अभिन्न होनेपर भी भेद प्रधान पर्यायार्थिक नयसे भिन्न है। इसका कारण यह है कि यह जो समाधिलक्षण शुद्धोपयोग है वह एक Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२८] श्रीप्रवचनसारटोका । देश आवरण रहित होनेसे क्षायोपशमिक खंड ज्ञानकी व्यक्तिरूप है तथा वह शुद्धात्मारूप शुद्ध पारिणामिक भाव सर्व आवरणसे रहित होनेके कारणसे अखंड ज्ञानकी व्यक्तिरूप है । यह समाधिरूप भाव आदि व अन्त सहित होनेसे नागवान है वह शुद्ध पारिणामिक भाव अनादि व अनंत होनेसे अविनाशी है । यदि इन दोनों भावोमें एकांतसे अभेद हो तो जैसे घटकी उत्पत्तिमें मिट्टीके पिंडका नाश होना माना जावे वसे ध्यान पर्यायके नाश होनेपर व मोक्ष अवस्थाके उत्पन्न होनेपर ध्येयरूप पारिणामिकका. भी विनाश होनायगा सो ऐसा नहीं होता । मिट्टीके पिडसे जैसे घट अवस्थाकी अपेक्षा भेद है मिट्टीकी अपेक्षा अभेद है वसे ध्यान पर्यायसे ध्येय भावका अवस्थाकी अपेक्षा भेद है जव कि आत्म द्रव्यकी अपेक्षा अभेद है। इसीसे ही जाना जाता है कि शुद्ध पारिणामिक भाव ध्येयरूप है, ध्यान भावनारूप नही है क्योकि ध्यान नाशवंत है। भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने यह बताया है कि जो भाव अपने आत्माकी ही तरफ सन्मुख है-न किसी परवस्तुसे राग करता है न वेप करता है, वह शुद्धोपयोग भाव व आत्मामे एकाग्र रमनरूप भाव सर्व संसारके दुःखोंके क्षयका कारण उपादेयभूत है तथा पंचपरमेष्ठीमें भक्तिरूप व परोपकार आदिरूप परमे झुका हुआ उनके गुणोमें विनयरूप भाव शुभ उपयोग है, जो साता वेदनीय आदि पुण्य कर्मोको बांधता है। तथा विषय कषायोंके रागमें लीन भाव अशुभ उपयोग है जो असाता वेदनीय आदि पाप कर्मोको वांधता है। निश्चय नयसे शुद्धोपयोग केवलज्ञानीके ही होता Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड [ ३२९ है क्योंकि वहां निरावरण ज्ञान होगया है । अशुद्ध निश्चयनयसे अप्रमत्तसे क्षीणकषायक होता है । क्योंकि यहां यद्यपि शुद्धात्मा ध्येय है तथापि ज्ञान निर्मल नहीं है, सावरण है। तात्पर्य यह है कि केवलज्ञान होनेके लिये हमको निर्विकल्प समाधि लक्षण शुद्धोप्रयोगमई भावका उपाय करना चाहिये। इसी कारणसे बाह्य पदार्थका मोह त्यागकर देना चाहिये। जैसा स्वामी अमितिगतिने बड़े सामायिक पाठ कहा है यावच्चेतसि बाह्यवस्तुविषयः स्नेहः स्थिरो वर्तते । तावन्नश्यति दुःखदानकुशल कर्मप्रपचः कथ ॥ आर्द्र वसुधातलस्य सजटा शुष्यति किं पादपा । मृत्स्वत्तानिपातरोधनपराः शाखोपशाखान्विताः ॥ ९६ ॥ भावार्थ - जबतक चित्तमें बाहरी पदार्थ सम्बन्धी स्नेह स्थिर है तबतक दुखोंके देनेमें कुशल कर्मोंका प्रपंच कैसे नष्ट होमक्ता है ? पृथ्वीतलके नल सहित होने पर धूपके रोकनेवाले अनेक शाखाओसे वेष्टित जटावाले वर्गतके वृक्ष कैसे सूख सक्ते हैं ? इसलिये रागद्वेष भावोंका मिटाना ही हितकारी है ॥ ९२ ॥ इस तरह द्रव्य बधका कारण होनेसे मिथ्यात्व रागादि विकल्परूप भाव बन्ध ही निश्चयसे बन्ध है ऐसे कथनकी मुख्यतासे तीन गाथाओं द्वारा चौथा स्थल समाप्त हुआ । उत्थानिका- आगे इस जीवकी अपने आत्मद्रव्यमें प्रवृत्ति और परद्रव्योंसे निवृत्तिके कारण छ प्रकार जीवकायोंसे भेदविज्ञान दिखलाते हैं:-- Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० ] श्रीप्रवचनसारटीका । भणिदा पुढविप्पमुहा जीवणिकायाध थावरा य तसा । अण्णा ते जीवादी जीवो वि य तेहिंदो अण्णा ॥६३॥ भणिताः पृथिवीप्रमुखा जीवनिकाया अथ स्थावराश्च त्रसाः । अन्ये ते जीवाजीवोsप तेभ्योऽन्यः ॥ ९३ ॥ अन्चयसहित सामान्यार्थ - ( पुढविध्यमुहा) पृथ्वीको आदि लेकर ( जीवनिकाया ) जीवोके समूह ( अध थावरा य तसा ) अर्थात् पृथ्वी कायिक आदि पांच स्थावर और द्वेन्द्रियादि त्रस (भणिदा) जो परमागममें कहे गए हैं (ते जीवादो अण्णा) वे सब शुद्धबुद्ध एक जीवके स्वभावसे भिन्न हैं । ( जीवो विय तेहिदो अण्णो ) तथा यह जीव भी उनसे भिन्न है । विशेषार्थ - टांकी में उकेरेके समान ज्ञायक एक स्वभावरूप परमात्मतत्वकी भावनाको न पाकर इस जीवने जो त्रास या स्थावर नाम कर्म बांधा होता है उसके उदयसे उत्पन्न होनेके कारणसे तथा शरीर पुद्गलमई अचेतन होनेसे ये त्रस स्थावर जीवोके समूह शुद्ध चैतन्य स्वभावधारी जीवसे भिन्न हैं । जीव भी उनसे विलक्षण होनेसे उनसे निश्चयसे भिन्न है । यहां यह प्रयोजन है कि इस तरह भेद विज्ञान हो जानेपर मोक्षार्थी जीव अपने निज आत्मद्रव्य में प्रवृत्ति करता है और परद्रव्यसे अपनेको हटाता है । भावार्थ - इस गाथामें आचार्यने भेद विज्ञानका उपाय बताया है कि हमको शुद्ध निश्चयनयके द्वारा अपने निन आत्माके स्वाभाविक ज्ञानदर्शन सुख वीर्यमय शुद्ध स्वभावपर लक्ष्य देकर देखना चाहिये तब सर्व पुद्गलकृत जीवकी पर्यायें भिन्न मालूम पड़ेंगीं, कि ये अनेक प्रकार प्रकार त्रस स्थावररूपके धारी जीव " Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [३३१ नाम कर्मके उदयके कारण भिन्न २ पुगलमई शरीरोंको रखनेसे भिन्न २ नाम पानेसे वोले जाते हैं। ये सब अवस्थाएं शुद्ध जीवसे भिन्न हैं । शुद्ध जीव इनसे भिन्न है। मै निश्चयसे शुद्ध जीव हूं। मेरा इनका कोई सम्बन्ध नहीं है। स्वामी अमितिगतिने बड़े सामायिकाठमे कहा है - नाह कस्यचिदस्मि पश्चन न मे भाव परो विद्यते, उत्तवात्मानमपातकर्मसमिति शाने क्षणालकृति । यस्यैषा मतिरति तास सदा जातात्मतत्वस्थितेअधस्तस्य न वनितत्रिभुवन सासारिर्वधनैः ॥ ११ ॥ भावार्थ-मैं आत्मा हूं, निश्चयसे सर्व कर्मसमूहसे रहित हू, ज्ञानमई नेत्रसे शोभित है। मेरे इस स्वभावको छोड़कर मैं न किसीका हूं न कोई अन्य पदार्थ मेरा है । जिस महापुरुषके चित्तमें ऐसी बुद्धि वर्तती है वह सदा ज्ञाता दृष्टा आत्माके स्वभाचमें ठहरता है तथा तीन भवनमे सासारिक बंधनोसे उस आत्माका बंध नहीं होता है। ____वास्तदमें हमे निज स्वभावपर उपयोग रख शुद्ध स्वभावकी ही भावना करनी योग्य है ॥ ९३ ॥ उत्थानिका.-आगे इसी ही भेदविज्ञानको अन्य तरहसे दृढ करते हैं जो ण विजाणदि एवं परमप्पाणं सहावमासेज । कोरदि मज्भवसाणं अहं ममेदत्ति महादो ॥ ६४ ॥ यो न विज्ञानात्येव परमात्मानं स्वभावमासाद्र । कुरुतेऽध्यवसानमहं ममेदमिति मोहात् ॥ ९४ ।। Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२] श्रीप्रवचनसारटोका । अन्वय सहित सामान्यार्थः-(नो) जो कोई (सहावम्) निन खभावको (आसेज) पाकर (परं अप्पाणं एवं) परको और आत्माको इस तरह भिन्न २ (ण वि जाणदि) नहीं जानता है वही (मोहादो) मोहके निमित्तसे (अहं ममेदत्ति) मै इस पर रूप हू या यह पर मेरा है ऐसा (अन्झवसाणं कीरदि) अभिप्राय करता है। विशेषार्थ-जो कोई शुद्धोपयोग लक्षण निन स्वभावको आश्रय करके पूर्वमें कहे प्रमाण छः कायके जीव समूहादि परद्रव्योको और निर्दोष परमात्मद्रव्यस्वरूप निन आत्माको भिन्न २ नहीं जानता है वह ममकार व अहकार आदिसे रहित परमात्माकी भावनासे हटा हुआ मोहके आधीन होकर यह परिणाम किया करता है कि मैं रागादि परद्रव्यरूप हूं या यह शरीरादि मेरा है इससे यह सिद्ध हुआ कि इस तरहके स्वपरके भेद विज्ञानके वलसे ही स्वसंवेदन ज्ञानी जीव अपने आत्म द्रव्यमें प्रीति करता है और परद्रव्यसे निवृत्ति करता है। ___ भावार्थ-गाथामे भी आचार्यने भेदविज्ञानकी महिमा बताई है कि जो कोई निश्चयनयके द्वारा अपने आत्माको सर्व रागादि भावकर्म, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म और शरीरादि नोकर्मसे भिन्न नहीं अनुभव करता है वही स्वसंवेदन ज्ञानसे रहित होकर मोहके कारण मैं रागी हूं, द्वेषी हू, मैं राजा हूं, मैं रक हूं, मै दुःखी हूं, मै सुखी हूं, मै विद्वान् हू, मैं मूर्ख हू, इत्यादि विकल्प अथवा यह शरीर मेरा है, यह धन मेरा है, यह मकान मेरा है, यह राज्य मेरा है, यह पुत्र मेरा है इत्यादि परिणाम किया करता है, परन्तु जो भेदविज्ञानी हैं वे निज आत्मामें ही अपनापना . AM.. Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। ३३३ मानकर उदासीन रहते हुए साम्यभावका आनन्द पाते हैं। स्वामी अमिगति सामायिकपाठमें कहते हैविचित्रैरुपायैः सदा पाल्यमानः, स्वकीयो न देहः सम यत्र याति । क्थं बाह्य भूतानि वित्तानि तत्र, प्रबुद्धेति कृत्यो न कुत्रापि मोहः ॥३४ भावार्थ-जहां नाना उपायोसे पाला हुआ यह अपना शरीर भी अपने साथ नही जाता है वहां अन्य बाहरी सम्पदा कैसे साथ जायगी ऐसा जानकर किसी भी पर पदार्थमे मोह न करना। चाहिये ॥ ९४ ॥ इस तरह भेदभावनाके कथनकी मुख्यता करके दो सूत्रोमें पांचमा स्थल पूर्ण हुआ। उत्थानिका-आगे कहते हैं कि आत्मा अपने ही परिणामोका कर्ता है, द्रव्य कर्मोका कर्ता नहीं है-अशुद्ध निश्चयसे रागादि, भावोंका व शुद्ध निश्चयसे शुद्ध वीतराग भावका कर्ता है: कुव्वं सभावमादा हवदि हि कत्ता सगस्स भावस्स । पोग्गलवमयाणं ण दु कत्ता सव्वभावाणं ॥ ५ ॥ कुर्वन् स्वभारमात्मा भवति हि कर्ता स्वक्स्य भावस्य । पुद्गलद्रव्यमयाना न तु कर्ता सर्वभावानाम् ॥ ९५ ॥ अन्वय सहित सामान्यार्थ-(आदा) आत्मा (सभाव कुब्ब) अपने भावको करता हुआ (सगस्स भावस्स) अपने भावका (हि) ही (कत्ता हवदि) का होता है। (पोग्गलदव्वमयाण सव्वभावाण) पुद्गल द्रव्यसे बनी हुई सर्व अवस्थाओका (ण दु कत्ता) तो कर्ता नहीं है। विशेषार्थ-यहां स्वभाव शब्दसे यद्यपि शुद्ध निश्चयनयसे Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४] श्रीप्रवचनसारटोका। शुद्धबुद्ध एक स्वभाव ही कहा जाता है तथापि कर्मबंधके प्रस्तावमें अशुद्ध निश्चयनयसे रागादि परिणामको भी स्वभाव कहते हैं । यह आत्मा इस तरह अपने भावको करता हुआ अपने ही चिद्रूप स्वभाव रूप रागादि परिणामका ही प्रगटपने कर्ता है और वह रागादि परिणाम निश्चयसे उसका भावक्रम कहाजाता है । जैसे गर्म लोहेमें उष्णता व्याप्त है वैसे आत्मा उन रागादि भावोमें व्याप्त होनाता है। तथा चैतन्यरूपसे विलक्षण पुद्गल द्रव्यमई सर्व भावोंका-ज्ञानावरणीय आदि कर्मकी पर्यायोका तो यह आत्मा कभी भी कर्ता होता नहीं। इससे जाना जाता है कि रागादि अपना परिणाम ही कर्म है जिसका ही यह जीव कर्ता है। भावार्थ:-यहां आचार्यने यह बतलाया है कि यह आत्मा चैतन्यमई है इसलिये इसमें चेतनामई भाव ही सम्भव है-अचेतन-मई भावोका यह उपादान कर्ता नहीं होसका । यह अपने चेतन भावोका ही कर्ता है शुद्ध निश्चयनयसे यह शुद्ध वीतराग भावका कर्ता है जब कि अशुद्ध निश्चयनयसे यह अशुद्ध रागादि भावोका कर्ता है जो भाव मोह कर्मके उदयके निमित्तसे हुए हैं। इन गगादि भावोका निमित्त पाकर कर्मवर्गणाके पुद्गल स्वयमेव ज्ञानावरणीय आदि कर्मरूप परिणमन कर जाते हैं। इससे जीवको व्यवहारसे इनका कर्ता कह दिया जाता है, परन्तु वास्तवमें जीव तो अपने भावोंका ही है। है। यहां यह बतलाया कि जैसे शरीर व द्रव्यकर्म आत्माके नहीं हैं वैसे यह आत्मा इन शरीरोंका कर्ता भी नहीं है । इस जीवको पुद्गलका अकर्ता अनुभव करके यह निश्चयसे शुद्ध वीतरागभावोमें ही परिणमन करे । रागादि परिणामोमें Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [३३५ नही परिणमन करे ऐसा पुरुषार्थ करके साम्यभावमें रहना योग्य है। श्री नेमिचंद्रसिद्धांतचक्रवर्तीने भी द्रव्यसंग्रहमें जीवका कर्ता'पना इस तरह बताया है पुग्गलकम्मादीण क्त्ता वबहारदो दु णिच्चयदो । चेदणकम्माणादा सुद्धणया सुद्धभावाण ॥ भावार्थ-अह आत्मा व्यवहारनयसे ज्ञानावरणीय आदि पौद्गलिक कर्मोका कर्ता है परन्तु अशुद्ध निश्चयसे रागादिभावोंका कर्ता है और शुद्ध निश्चयनयसे यह शुद्ध चेतनभावोंका कर्ता है । तात्पर्य यही है कि शुद्ध भावोंका ही होना जीवका हित है ।। ९५ ॥ उत्थानिका-आगे इस प्रश्नके होनेपर कि आत्माके किस तरह द्रव्य कर्मका परिणमनरूपी कर्म नहीं होता है, आचार्य समाधान करते है:गेहदि णेव ण मुश्चदि करेदि ण हि पोग्गलाणि कम्माणि । जीवो पोग्गलमज्झे वट्टण्णवि सव्वकालेसु ॥ १६ ॥ गृह्णति नैव न मुञ्चति करोति न हि पुदलानि कर्माणि । जीवः पुद्गलमध्ये वर्तमानोऽपि सर्वकालेषु ॥ ९६ ।। अन्वय सहित सामान्यार्थ -(जीवों) यह जीव (पोग्गलमज्ने) पुद्गलोंके मध्यमें (सव्वकालेसु) सर्व कालोमें (वट्टण्णवि) रहता हुआ भी (पोग्गलाणि कम्माणि) पुद्गलमई कर्मों को (णेय गेहदि) न तो ग्रहण करता है (ण मुंचदि) न छोडता है (ण हि करेदि) और न करता है। विशेषार्थ-यह नीव सर्व कालोमें दूध पानीकी तरह पुद्गलके बीचमे वर्तमान है तो भी जैसे निर्विकल्प समाधिमें रत परम मुनि Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .६६ श्रीप्रवचनसारटोका । परभावको न ग्रहण करते न छोड़ते न करते अथवा जैसे लोहेका गोला उपादान रूप से अग्निको ग्रहण करता छोड़ता व करता नहीं है तैसे यह आत्मा उपादान रूपसे पुद्गलमई कमौको न तो ग्रहण करता है न छोड़ता है न करता है। इससे यह कहा गया कि जैसे सिद्ध भगवान पुद्गलके मध्य में रहते हुए भी परद्रव्यके ग्रहण वजन व करनेके व्यापारसे रहित हैं तैसे ही शुद्ध निश्चयसे संसारी जीव भी ग्रहण त्यागादि नहीं करते हैं । A भावार्थ - हरएक पदार्थ उपादान रूपसे अपने ही स्वभावमें परिणामन कर सक्ता है परस्वभाव कभी नही हो सक्ता है । जैसे गेहूं स्वयं आटा, लोई, रोटीरूप परिणमन कर सक्ता है किन्तु चावलरूप नहीं हो सक्ता व सुवर्ण स्वयं सुवर्णके आभूषण या पात्रोमें परिणमन करसक्ता है, लोहेक पात्रोमे नहीं तैसे पुद्गल पुगoth स्वभावमे व जीव जीवके स्वभावमे परिणमन करता है । पुद्गुल कभी जीवकी दशामें व जीव कभी पगलकी दशामे नही हो सक्ता ! यद्यपि जीव पुद्गल इस लोकमे एक ही क्षेत्रमे विराजमान है तौमी जीव अपने स्वभाव में परिणमता हुआ अपने ही परिणामको करता है, उसे ही ग्रहण करता है व पूर्व परिणामको त्यागता है, कभी पुद्गलीक स्वभावको करता नही, ग्रहता नही, छोडता नही, शुद्ध निश्चयनयसे जीव अपनी शुद्ध परिणतिको ही करता है, नवीनको जब ग्रहण करता है तब पुरानीको त्यागता है । अशुद्ध निश्वयनयसे संसारी जीव पौगलीक कर्मोंके निमित्तसे कभी राग परिणतिको करके उसे छोड़ द्वेप परिणतिको ग्रहण करता है । कभी रागद्वेष परिणतिको छोड़ वीतराग परिणतिको ग्रहण करता है। " 1 1 Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३३ द्वितीय खंड जीवका ग्रहण त्याग अपने ही परिणामोमें होता है । यह नीव न तो ज्ञानावरणादि कर्माको ग्रहण करता है, न छोडता है और न घट पट आदिको करता है । व्यवहारमें जीवको इन कोका फर्ता भोक्ता व नाशकर्ता तो इस कारणसे कहते हैं कि इस जीवका भाव इन कर्मों के कर्मरूप होनेमें व कर्मदशा छोड पुद्गलपिंड होनेमें निमित्त कारण है व कुम्हारका भाव हस्तपग हिलानेमे व घटके बनाने में निमित्त कारण है। व्यवहारमे जीवको पुद्गलकी परिणतिका व पुगलको जीवकी अशुद्ध परिणतिका निमित्तकारण कह सके हैं परन्तु उपादानकारण कभी नही कह सक्के । इस लिये वास्तवमे जीव अपनी परिणतिका ही ग्रहण त्याग करता है। भेद विज्ञानी पुरुषको शुद्ध निश्चयनयके द्वारा देखना चाहिये तब सर्व ही जीव व अपना नीव सर्व पुद्गलादि द्रव्योसे पृथक् ही परम शुद्ध ज्ञानानदमय अपने शुद्ध ज्ञानदर्शन स्वभावके कर्ता ही दीख पड़ेंगे। यही दृष्टि जैसे क्षीरनीरके मिश्रणमे क्षीरनीरको भिन्न देखती है वैसे जीव पुद्गलके मिश्रणमे जीवको जीव और पुद्गलको पुद्गल देखती है। श्री समयसारकलशमे स्वामी अमृतचदाचार्य कहते है ज्ञ नाद्विवेत्रातया तु परामनोर्यो । जानाति हंस इव वाः पयसोविशेषं ॥ चतन्यधातुमचल स सदाविरुढो । जान'त एव हि करोति न किचनापि ॥ १४-३॥ भावार्थ-जैसे हंस दूध पानी मिले होनेपर भी दूध और पानीके भिन्न २ भेदको जानता है ऐसे ही ज्ञानी ज्ञानके द्वारा विवेक बुद्धिसे पुद्गल और आत्माको भिन्न २ जानता है। ऐसा ૨૨ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ ] श्रीप्रवचनसारटीका ज्ञानी निश्चल, चैतन्यमई स्वभावमें सदा अरूढ़ रहता हुआ जानता मात्र, ही है, किसी भी पुद्गलीक भावको करता नहीं है । ऐसा जान हमको अपने साम्यभावमें रहकर वीतरागभावका आनन्द भोगना चाहिए || ९६ ॥ उत्थानिका- आगे शिष्यने प्रश्न किया कि जब यह आत्मा पुद्गलीक कर्मको नहीं करता है न छोड़ता है तब इसके 'बन्ध कैसे होता है तथा मोक्ष भी कैसे होता है ? इसके समाधानमे आचार्य उत्तर देते हैं— स इदाणि कत्ता संसगपरिणामस्स दव्वजादस्स । आदीयदे कदाई विमुच्चदे कम्मधूलोहिं ॥ ६७ ॥ सदानीं कर्त्ता सन् स्वपरिणामस्य द्रव्यजातस्य । आदीयते कदाचिद्विमुच्यते कर्मधूलिभिः ॥ ९७ ॥ अन्वय सहित सामान्याथ - ( इदार्णि) अत्र इस संमार अवस्थामें अशुद्धनयसे (स) वह आत्मा (दव्वनादस्स सगपरिणामस्स) अपने ही आत्मद्रव्यसे उत्पन्न अपने ही परिणामका (कत्ता सं ) कर्ता होता हुआ (कदाई ) कभी तो (कम्मधूलीहि ) कर्मरूपी धूलसे (भादीयदे) वध जाता है व कभी ( विमुच्चदे ) छूट जाता है । विशेषार्थ - वह पूर्वोक्त संसारी आत्मा अब वर्तमान में इसतरह पूर्वोक्त नय विभागसे अर्थात् अशुद्ध नयसे निर्विकार नित्यानन्दमई एक लक्षणरूप परमसुखामृतकी प्रगटतामई कार्य समयसारको साधनेवाले निश्चयरत्नत्रयमई कारण समयसारसे विलक्षण मिथ्यात्व व रागादि विभावरूप अपने ही आत्मद्रव्य से उत्पन्न अपने परिणामका कर्ता होता हुआ पूर्वोक्त विभाव परिणाम के समय में कर्मरूपी Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड । [३३२ 'धूलसे बंध जाता है। और जब कभी पूर्वोक्त कारणं समयसारकी परिणतिमें परिणमन करता है तब उन्हीं कर्मकी रनोसे विशेष करके छूटती है। इससे यह कहा गया कि यह नीव अशुद्ध परिणामोंसे बंधता है तथा शुद्ध परिणामोंसे मुक्त होता है। भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने संसार तथा मोक्ष अवस्था जीवके किस तरह होती है इस बातको स्पष्ट किया है कि यह । आत्मा जो अपने ही भावोंका उपादानकर्ता है संसारमें अनादिकालसे कर्मोके साथ वधा हुआ है। उस वन्धके कारण मोहके उदयसे जव इसके आप ही मिथ्यादर्शन व रागद्वेषरूप विभावभाव होते हैं तब इस जीवके न चाहते हुए भी न उनको प्रेरणा करके ग्रहण करते हुए भी स्वभावसे ही वे लोकमे भरी कर्मवर्गणारूपी धूने आकर जीवके प्रदेशोमे तिष्ठ जाती है ऐमा कोई निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है । जैसे तैलसे चुपडा हुआ शरीर जहा होता है वहां न चाहते हुए भी मिट्टी शरीरपर चिपक जाती है वैसे ही जब यह आत्मा वीतरागभावमें परिणमन करता है तब भी स्वभावसे ही वह कर्मरज आप ही विशेषपने आत्मासे छूट जाती है। जैसे जब तेल शरीरमें प्रवेश कर जाता है-उपर चिकनई नहीं रहती है तब धूला स्वय शरीरसे गिर जाता है । जगतमे कर्मबधका और आत्माके अशुद्ध भावका ऐसा ही कोई विलक्षण संबंध है। यदि विचार करके देखोगे तो मालूम पडेगा कि आत्मा सिवाय अपने ही भावोके और कुछ नहीं करता है । अशुद्ध भावोका निमित्त पाकर वे कर्म आप ही बन्ध नाते है तथा शुद्ध भावोंका निमित्त पाकर वे कर्म आप ही छूट जाते हैं। इस निमित Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ N ३४०] श्रीप्रवचनसारटोका । नैमित्तिक क्रियाके कारण जीवको भी व्यवहारमें बन्धकर्ता और मोक्षकर्ता कहदेते हैं । वास्तवमें जीव अपने भावोंका ही कर्ता है। जैसे सूर्य अपने उदासीन भावसे उदय होता है तथा अस्त होता है, परन्तु उसके उदयका निमित्त पाकर कमल स्वयं फूल जाते हैं व चकवा चकवी स्वयं मिल जाते हैं व उसके अस्तैका निमित्त पाकर कमल स्वयं बन्द हो जाते हैं व चकवा चकवी स्वयं विछड़ . जाते हैं। ऐसा वस्तुका खभाव है। श्री अमृतचन्द्राचार्यने श्री । समयसारकलशमें कहा हैज्ञानी करोति न न वेदयते च कर्म, जानाति केवलमय दिल तत्स्वभाव । जाननर रणवेदनयोरभाव' छुद्धग्वभावनियतः स हि मुक्त एव ।।६ ॥१०॥ - भावार्थ-ज्ञानी जीव कर्मोको न तो करता है न उनका फल भोक्ता है परन्तु वह उदासीन रहता हुआ केवल मात्र उन कर्मोके खमावको जानता रहता है । इसलिये कर्ता व भोक्तापनेसे रहित होता हुआ व मात्र परको जानता हुआ अपने शुद्धस्वभावमे निश्चल रहता हुआ मुक्तरूप ही रहता है । तात्पर्य यह है कि वंध व मोक्षको नैमित्तिक समझकर हमें इनसे उदासीन होकर अपने शुद्ध , ज्ञानानंदमई स्वभावमें ही तन्मय रहना योग्य है ॥ ९७॥ उत्थानिका-आगे कहते हैं कि जैसे द्रव्यकर्म निश्चयसे । स्वयं ही उत्पन्न होते हैं वैसे वे स्वयं ही ज्ञानावरणादि विचित्ररूपसे परिणमन करते हैं परिणमदि जदा अप्पा सुहम्मि असुहम्मि रागदोसजुदो, तं पविसदि कम्मरयं णाणावरणादिमावेहि ॥ ८ ॥ - Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___द्वितीय खंड। [३४१ परिणमति यदात्मा शुभेऽशुभे रागद्वेषयुतः। त प्रविशति कर्मरजो ज्ञानावरणादिभावः ॥ १८ ॥ ___ अन्वयसहित सामान्यार्थः-(नदा) जब (रागदोसजुदो) राग द्वेष सहित (अप्पा) आत्मा (सुहम्मि असुहम्मि) शुभ या अशुभ भावमें (परिणमदि) परिणमन करता है तब (कम्मरय ) कर्मरूपी रन स्वयं ( णाणावरणादिभावेहिं ) ज्ञानावरणादिकी पर्यायोसे (पविसदि) जीवमें प्रवेश कर जाती है। विशेषार्थ-जब यह राग द्वेषमें परिणमता हुआ आत्मा सर्व शुभ तथा अशुभ द्रव्यमे परम उपेक्षाके लक्षणरूप शुद्धोपयोग परिणामको छोड़कर शुभ परिणाममें या अशुभ परिणाममे परिणमन कर जाता है उसी समयमें जैसे भूमिके पुद्गल मेघनलके संयोगको पाकर आप ही हरी घास आदि अवस्थामें परिणमन कर जाते हैं इसी तरह कर्मपुद्गलरूपीरज नानाभेदको धरनेवाले ज्ञानावरणादि मूल तथा उत्तर प्ररुतियोंकी पर्यायोमें स्वय परिणमन कर जाते हैं। इससे जाना जाता है कि ज्ञानावरणादि कर्मोकी उत्पत्ति उन्हींके द्वारा होती है तथा उनमे मूल व उत्तर प्रकृतियोकी विचित्रता भी उन्हींकत है, जीवन नहीं है ॥ ९८॥ भावार्थ-रागी द्वेषी आत्मा कभी शुभोपयोग कभी अशुभोपयोग भावोको करता है, तब ही उस आत्माके विना चाही हुई भी पुद्गलकर्मवर्गणाए आत्माके प्रदेशोमें प्रवेशकर आत्माके भावोंके निमित्तसे स्वय अनेक प्रकार मूल या उत्तर प्रकृतिरूप परिणमन कर जाती है। ऐसा ही निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है। अभिप्राय यह है कि आत्मा न उनको ग्रहण करता है और न पाप या पुण्यरूप परिणमाता है ।। ९८ ॥ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२] श्रीप्रवचनसारटोका । उत्थानिका-आगे पूर्वमें कही हुई ज्ञानावरणादि प्रतियोका जघन्य उत्कृष्ठ अनुभागका स्वरूप बताते हैं सुहपयडीण विसोही तिब्बो असुहाण संकिलेसम्मि। विवरीदो दु जहाणो अणुभागों सब्वपयडोणं ॥ १६ ॥ शुभप्रकृनीना विशुद्ध या तीतो अशुभाना सहेगे । विपरीतन्तु जघन्यो अनुभागो सर्वप्रकृतीना ॥ ९९ ।। अन्वय सहित सामान्यार्थः-(सुहपयडीण) शुभ प्ररूतियोंका (अणुभागो) अनुभाग (विसोही) विशुद्धभावसे (असुहाण) अशुभ प्रतियोका (संकिलेसम्मि) संश भावसे (तिब्बो) तीव्र होता है, (विवरीदो दु) परन्तु इसके विपरीत होनेपर (सव्वपयडीणं) सर्व प्रकृतियोका ( जाणो) जघन्य होता है। विशेषार्थ-फल देनेकी शक्ति विशेषको अनुभाग कहते है। तीव्र धर्मानुरागरूप विशुद्धभावसे सातावेदनीय आदि शुभ कर्म प्रतियोका अनुभाग परम अमृतके समान उत्कृष्ट पड़ता है तथा मिथ्यात्त्व आदिरूप संक्लेश भावसे असाता वेदनीय आदि अशुभ प्रतियोका अनुभाग हालाह्न विषके समान तीव्र पड़ता है। तथा जघन्य विशुद्धिसे व मध्यम विशुद्धिसे शुभ प्रकृतियोंका अनुभाग जघन्य या मध्यम पड़ता है अर्थात् गुड, खांड़, शर्करारूप पड़ता है। वैसे ही जघन्य या मध्यम संश्लेगसे अशुभ प्रकृतियोंका अनुभाग नीम, कांजीर विषरूप जघन्य या मध्यम पड़ता है । इस तरह मूल उत्तर प्रकृतियोसे रहित निन परमानंदमई एक स्वभावरूप तथा सर्व प्रकार उपादेय भूतं परमात्मद्रव्यसे भिन्न और त्यागने Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड | [ ३४३ योग्य सर्व मूल और उत्तर प्रकृतियोंके जघन्य मध्यम उत्कृष्ठ अनु-, भागको अर्थात् कर्मकी शक्तिके विशेषको जानना चाहिये । भावार्थ - घातिया कर्म सर्व पाप प्रकृतियें है इनका अनुभाग चार तरहका है लतारूप कोमल, काष्ठरूप कुछ कठोर, अस्थिरूप कठोर तथा पाषाणरूप महाकठोर । इनका वध शुभ या अशुभ दोनों प्रकारके भावोमेंसे होता है । जब शुभोपयोगरूप विशुद्ध भाव होते हैं तब इनका अनुभाग कोमल पडता है और जब अशुभोपयोगरूप सक्लेशभाव होते हे तब इनका यथायोग्य कठोर पडता है । साता वेदनीय, शुभ नाम, शुभ आयु या उच्च गोत्र पुण्य प्रकृतिये है । इनका अनुभाग जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ठ गुड, खाउ, शर्करा तथा अमृतके समान जघन्य, मध्यम या उत्कृष्ट जातिके धर्मानुरागरूप विशुद्ध परिणामोके अनुसार पडेगा । असाता वेदनीय, अशुभ नाम, अशुभ आयु तथा नीच गोत्र पाप प्रकृतियें है । इनका अनुभाग जघन्य, मध्यम, उकुठ नीम, काजीर, विष, हालाहलके समान जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट हिंसादिरूप सक्लेश परिणामोके अनुसार पडता है । इस तरह कम या अधिक फलदान शक्ति भी कर्म वर्गणाओमे स्वय जीवके भावका निमित्त पाकर परिणमन कर जाती है। ज्ञानी पुरुषको उचित है कि इन कर्मोंको व इनके तीव्र या मद सुख दुखरूप फलको अपने शुद्धोपयोग भावसे भिन्न अनुभव करे और साम्यभाक्मे तिष्ठे जिससे नवीन कर्मोंका वध न हो ॥ ९९ ॥ उत्थानिका- आगे कहते है कि अभेदनयसे बंधके कारण - भूत रागादिभावोमे परिणमन करनेवाला आत्मा ही बंधके नामसे कहा जाता है । Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४] श्रीप्रवचनसारटोका। सपदेसो सो अप्पा कसायदो मोहरागदोसेहि । कम्मरजेहि सिलिट्ठो बंधोत्ति परविदो समये ॥ १०० ॥ सप्रदेश: स आत्मा कषायितो मोहरागदपैः । कर्मरजोभिः श्लिष्टो बन्ध इति प्ररूपतः समये ॥ १० ॥ अन्वय सहित सामान्यार्थः-(सपदेसो सो अप्पा) प्रदेशवान वह आत्मा (मोह रागदोसेहि कसायदो) मोह राग द्वेषोसे कषायला होता हुआ (कम्मरजेहि) कर्मरूपी धूलसे (सिलिहो) लिपटा हुआ (वघोत्ति) बधरूप है ऐसा (समये परूविद्रों) भागममें कहा है। . विशेषार्थ-लोकाकाश प्रमाण असंख्यात प्रदेशोंको अखंड रूपसे रखनेवाला यह आत्मा मोह रहित अपने शुद्ध आत्म. तत्त्वकी भावनाको रोकनेवाले मोह राग द्वेष भावोंसे रंगा हुआ कर्मवर्गणा योग्य पुद्गलरूपी धूलसे बंधा हुआ अभेदनयसे आगममें बंधरूप कहा गया है । यहां यह अभिप्राय है कि जैसे वस्त्र लोध, फिटकरी आदि द्रव्योंसे कषायला होकर मनीठ आदि रगसे रंगजाता हुआ अभेदनयसे लाल वस्त्र कहलाता है वैसे वस्त्रके स्थानमें यह आत्मा लोधादि द्रव्यके स्थानमें मोह रागद्वेषोसे परिणमन करके मंजीठके स्थानमें कर्मपुद्गलोसे बंधाहुआ वास्तवमे कर्मसे भिन्न है तौ भी अभेदोपचार लक्षण असद्भूत व्यवहारनयसे वधरूप कहा 'जाता है, क्योकि असदभूत व्यवहारनय का विषय अशुद्ध द्रव्यके वर्णन करनेका है। भावार्थ:-इस गाथामें आचार्यने इस बातको स्पष्ट किया है कि वास्तवमें बंध तो पुद्गलकर्मका पु लकर्मके साथ होता है परन्तु आत्माके सर्वप्रदेश पुगुल कर्मोसे छाजाते हैं इसलिए व्यवहारनयसे Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [३४५ आत्माको बंधरूप, कहते हैं। जैसे वस्त्रको लाल कहना व्यवहार है वैसे आत्माको बंधा हुआ कहना व्यवहार है । जैसे वस्त्रमें लोध फिटकरीके द्वारा कपायित होनेपर मंजीठका रग चढ़ता है वैसे आत्मामें उसके रागद्वेष मोह भावोंके निमित्तसे कर्मपुद्गलोंका प्रवेश होकर बंध होता है। प्रयोजन यह है कि यह बध ही संसारभ्रमणका कारण है ऐसा जानकर इस बधके कारण रागद्वेष मोह भावोंका निवारण करना चाहिये जिससे यह जीव अबंध और मुक्त होजावे। श्री समयसारकलशमें स्वामी अमृतचंद्रनी कहते हैंयदिह भवति रागद्वेपदोषप्रसूतिः, वतरपि परेण दूषण नास्त तत्र । स्वयमयमपराधी तत्र सप्पत्यबोधो ___भवतु विदितमस्तं यात्वबोधोऽस्मि बोधः ॥२७॥ १० ॥ भावार्थ-जो ये रागद्वेषकी उत्पत्ति आत्मामें होती है इसमें दूसरोंका कोई दोष नहीं है । यह आत्मा स्वय ही अपराधी होता है तब इसके अज्ञान वर्तन करता है। यह बात विदित हो कि अज्ञानका नाश हो और सम्यग्ज्ञानका लाभ हो । अर्थात् यह आत्मा निन स्वरूपके शृद्धान ज्ञानचारित्रको न पाकर रागद्वेष मोहमें वर्तता है, यही इसका अपराध है अतएव इस आत्माको उचित है कि श्री गुरुके सम्यक उपदेशको हृदयमें धारणकरके सम्यग्ज्ञानके प्रतापसे वीतराग विज्ञानभावमें रमण करे ॥ १० ॥ ____उत्थानिकाः-आगे निश्चय और व्यवहारका अविरोध दिखाते हैं एसो बंधसमासो जीवाणं णिच्छएण णिदिहो। अरहंतेहि जदीणं ववहारो अण्णहा भणिदो ॥ ११ ॥ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '३४६ ] atreenaraint | एप बंघसमासो जीवाना निश्चयेन निर्दिष्टः । अर्हद्भिर्यतीनां व्यवहारोऽन्यथा भणितः ॥ १०१ ॥ अन्वयसहित सामान्यार्थः - ( अरहंतेहि ) अरहंतो के द्वारा ( जदीणं ) यतियोंको ( जीवाणं ) जीवोका ( एसो बंघसमासो) यह रागादि परिणतिरूप बंधका संक्षेप ( णिच्छरण णिद्दिट्टो) निश्वयनयसे कहा गया है । ( वबहारो ) व्यवहारनय से (अण्णा) इससे अन्य - जीव पुगलका बंध ( भणिदो ) कहा गया है । 1 विशेषार्थ - निर्दोष परमात्मा अरहंत हैं, उन्होंने जितेन्द्रिय तथा आत्मस्वरूपमे यत्नकरनेवाले गणधरदेव आदि यतियोको निश्रयनयसे जीवोके रागादि परिणामको ही संक्षेपमे बंध कहा है । तथा निश्चयनयकी अपेक्षा व्यवहारनयसे द्रव्यकर्मके बंधको बंध कहा है । निश्वयनयका यही मत है कि यह आत्मा रागादिभावोका ही कर्ता और उनहीका भोक्ता है । द्रव्यकर्म बन्धको कहनेवाले अद्भूत व्यवहारनयकी अपेक्षा निश्चयनयके भी दो भेद है । जो शुद्ध द्रव्यका निरूपण करे वह शुद्ध निश्चयनय है तथा जो अशुद्ध द्रव्यका निरूपण करे वह अशुद्ध निश्चयनय है । आत्मा द्रव्य कमको करता है तथा भोगता है यह अशुद्ध द्रव्यको कहनेवाला असद्भूत व्यवहारनय कहा जाता है। इस तरह दोनो नयोसे बंधका स्वरूप है। यहां निश्चयनय उपादेय है और असदभूत व्यवहार हेय है। यहां शिष्य प्रश्न करता है कि आपने निश्चयनयसे कहा है कि यह आत्मा रागादि भावोंको कर्ता व भोक्ता है सो यह किस तरह उपादेय होता है ? इसका समाधान आचार्य करते हैंकि जब यह भीव इस बातको जानेगा कि रागादि भावोंको ही 20 Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड | [ ३४७ आत्मा करता है द्रव्यकर्मीको नहीं करता है तथा ये रागादि भाव ही के कारण हैं, तब यह रागादि विकल्पजालको त्यागकर रागादिके विनाशके लिये अपने शुद्ध आत्माकी भावना करेगा । इस भाव - नासे ही रागादि भावोका नाश होगा | रागादिके विनाश होनेपर आत्मा शुद्ध होगा । इसलिये परम्परायसे शुद्धात्माका साधक होनेसे इस अशुद्ध नयको भी उपचार से शुद्ध नय कहते है यह वास्तव मे निश्रयनय नही कही गई है तैसे ही उपचार से इस अशुद्ध नयको उपादेय कहा है यह अभिप्राय है । भावार्थ - इस गाथाने निश्चय और व्यवहार बधको अपेक्षाके भेसे वर्णन करके दोनोके कथनका अविरोध दिखलाया है। निश्चय नखाश्रित है - एक ही पदार्थको दूसरेके आश्रय से बयान करती है । जब कि व्यवहारनय पराश्रित है - एक पदार्थको दूसरेके आश्रय से वयान करती है । अशुद्ध निश्चयनयसे रागादिभावसे रजित आत्मा ही वध स्वरूप है क्योकि यही रागादिभाव जीवके अपने ही औपाधिक भाग हैं और ये ही कर्मोके बांधने में कारण है। कर्म वर्गणाओका और आत्माके प्रदेशोका परस्पर बन्ध होना व्यवहारनयसे वध है। रागादिरूप होने से मेरी ही वीतरागता नष्ट होती है ऐसा समझकर विज्ञानी जीवको उचित है कि वह इनरूप परिणमन न करके शुद्ध ज्ञानस्वभाव परिणमन करे जिससे आत्मा कर्मवधसे छूटकर मुक्त हो जावे । श्री अमृतचंद्र स्वामी समयसारकलशमे कहते हैपूर्णकाच्युतशुद्धबोधमहिमा बोद्धा न वोध्यादय, पापात्कमपि विक्रया तत इतो दीपः प्रकाशादिव । Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ ] श्रीप्रवचनसारटीका | तद्वस्तुस्थिति बोधवन्धधिषणा एते किमज्ञानिनो, रागद्वेषमयी भवन्ति सहजा मुञ्चन्त्युदासीनताम् ॥ २९ ॥ १० ॥ भावार्थ - यह आत्मा अपने स्वभावमें पूर्ण एक अविनाशी शुद्ध ज्ञानकी महिमाको रखनेवाला है । इसलिये यह ज्ञाता ज्ञेय पदार्थों के निमित्तसे उसी तरह किसी प्रकार भी विकारको प्राप्त -नहीं होता जिस तरह दीपकका प्रकाश प्रकाशने योग्य पदार्थक निमित्तसे विकारी नहीं होता। खेद है कि अज्ञानी लोग ऐसी वस्तुकी मर्यादाके ज्ञानसे रहित निर्बुद्धि होकर क्यो रागद्वेपमयी होते है और अपनी स्वाभाविक उदासीनताको छोड़ बैठते हैं । - प्रयोजन यह है कि स्वाभाविक समतामे तिष्ठना ही हितकारी है ॥ १०१ ॥ इसतरह आत्मा अपने परिणामोंका ही कर्ता है । द्रव्यक- मौका कर्ता नहीं है । इस कथनकी मुख्यतासे सात गाथाओं में छठा -स्थल पूर्ण हुआ । इस तरह " अरसमरुव " इत्यादि तीन गाथाओंसे पूर्व में शुद्धात्माका व्याख्यान करके शिष्यके इस प्रश्नके होने"पर कि 'अमूर्त आत्माका मूर्तीक कर्मके साथ किस तरह वंध होसक्ता है' इसके समाधानको करते हुए नय विभागसे बंध समर्थनकी मुख्यतासे उन्नीश गाथाओंके द्वारा छः स्थलोसे तीसरा विशेष अन्तर अधिकार समाप्त हुआ । इसके आगे बारहगाथातक चार स्थलोंसे शुद्धात्मानुभूति लक्षण विशेष भेदभावनारूप चूलिकाका व्याख्यान करते है । तहाँ शुद्धात्माकी भावनाकी प्रधानता करके "ण जहदि जो द ममत्ति " इत्यादि पाठक्रमसे पहले स्थलमें गाथाएं चार हैं। फिर शुद्धा Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विताय खंड। [३४९ त्माकी प्राप्तिकी भावनाके फलसे दर्शनमोहकी गांठ नष्ट होनाती है तैसे ही चारित्रमोहकी गाठ नष्ट होती है व क्रमसे दोनों का नाश होता है ऐसे कथनकी मुख्यतासे 'जो एव जाणित्ता' इत्यादि दूसरे स्थलमे गाथाए तीन है । फिर केवलीके ध्यानका उपचार है ऐसा कहते हुए “णिहदघणघाइकम्मा" इत्यादि तीसरे स्थलमें गाथाएं.. दो है । फिर दर्शनाधिकारके संकोचकी प्रधानतासे " एव जिणा निणिदा" इत्यादि चौथे स्थलमें गाथाएं दो है । पश्चात् “ दसणसंसुहाण " इत्यादि नमस्कार गाथा है । इसतरह बारह गाथाओंसे चार स्थलोमे विशेष अन्तराधिकारमे समुदाय पातनिका है। उत्थानिका-आगे अशुहनयसे अशुद्ध आत्माका लाभ ही होता है ऐसा उपदेश करते है - ण जहदि जो दु मत्ति अहं ममेदत्ति देहदविणेसु । सो सामण्णं चत्ता पडिवण्णो होइ उम्मग्गं ॥ १०२ ॥ न जहाति यस्तु ममतामह ममेदमिति देहद्रविणेषु । स श्रामण्य त्पत्य प्रतिपन्नो भवत्युन्मार्गम् ॥ १०२ ॥ अन्वय सहित मामान्यार्थ - (जो दु) जो कोई (देहदविणेसु) हारीर तथा धनादिमे (अह ममेदत्ति ) मै उन रूप हूं व वे मेरे हैं ऐसे (ममत्ति) ममत्वको (ण जहदि ) नहीं छोड़ता है। (सो) वह ( सामण्ण) मुनिपना (चत्ता) छोडकर ( उम्मग्गं पडिवण्णो होइ) उन्मार्गको प्राप्त होनाता है। विशेषाथ-जो कोई ममकार अहकार आदि सर्व विभावोसे रहित सर्व प्रकार निर्मल देवलज्ञानादि अनन्तगुणस्वरूप निन आत्मपदार्थका निश्चल अनुभवरूप निश्चयनयके विषयसे रहित Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५०] श्रीप्रवचनसारटोका । होताहुभा व्यवहारमें मोहितचित्त होकर शरीर तथा परद्रव्योंमें मैं शरीररूप हूं तथा यह धन आदि परद्रव्य मेरा है ऐसे ममत्वभावको नहीं छोड़ता है वह पुरुष जीवन मरण, लाम अलाम, सुख -दुःख, शत्रु मित्र, निन्दा प्रशंसा आदिमें परम समताभांवरूप यतिपनेके चारित्रको दूरसे ही छोडकर उस चारित्रसे उल्टे मियामों में लग जाता है । मिथ्याचारित्रसे संसारमें भ्रमण करता है। इससे सिद्ध हुआ कि अशुद्धनयसे' अशुदात्माका लाभ होता है। भावार्थ-अशुद्ध नय अशुद्ध पदार्थको ग्रहण करने वाली है। जो कोई पुरुष शुद्ध' निश्चयनयको न पाकर' अशुहनयसे वर्तन करता है अर्थात् शरीरमें अहंबुद्धि करके यह मानता है मैं पुरुष हू, स्त्रीहू, नपुसक हू, गोरा हूं, काला हू, ब्राह्मण हू, क्षत्री हूं, वैश्य हू, शूद्र हूं, राना हूं, सेठ हूदीन हूं, दलिद्री हूं इत्यादि तथा ममकार भावसे ऐसी मान्यता करता है कि यह मेरा धन है, गृह है, स्त्री है, पुत्र है, देश है, सेना है, इत्यादि । वह राग, द्वेष, मोहसे लिप्त होकर यदि मुनिपदमें भी है तौभी भाव मुनिपदसे भृष्ट होकर मिथ्यादृष्टी होता हुआ पाप बांध संसार में ही भ्रमण करता है। जो जैसा भावे तैसा फल पावे यह नियम है । मैं अशुद्ध हूं या अशुद्ध भावमें ही वर्तन करता हूं ऐसा श्रद्धान ज्ञानचारित्र रखता हुआ निरन्तर ? तुम ही होता हुआ अपने आत्माको अशुद्ध ही “पाता रहेगा-उसका कभी भी शुद्धात्माका लाभ नहीं होगा। श्री तत्वसारमें 'श्री देवसेनाचार्य कहते हैं लहइ ण भन्यो मोक्ख जावइ परदव्यवावड़ो चित्तो । उगतव पि कुणतो शुद्ध भावे लहु लहइ ॥ ३३ ॥ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड | ३५१ भावार्थ- जबतक चित्त शरीरादि परद्रव्यमें बावला हो रहा. है तबतक भारी तपको भी करता हुआ भव्यजीव मोक्ष नहीं पा सक्ता, परन्तु शुद्धभावों में वर्तन करनेसे शीघ्र ही मोक्षको पासक्ता है। इसलिये ममकार अहंकार आदि भावोंको त्यागकर शुद्ध वीतराग साम्यभावमें वर्तना कार्य री है ॥ १०२ ॥ उत्थानिका- आगे कहते है कि शुद्धनयसे शुद्धात्माका लाम होता है : eplomerating पाहं - होमि परेसि ण मे इदि जो भायदि भाणे से परे सत्ति णाणमहमेको । अप्पाणं हवदि भादा ॥ १०३ ॥ नाह भवामि परेषा न मे परे सति ज्ञानमहमेकः । इति यो ध्यायति ध्यानेन स आत्मान भवति ध्याता ॥ १०३ अन्वय सहित सामान्यार्थः - ( अह परेसि न होमि ) मैं दूसरोंका नहीं हू ( परे मे ण सन्ति) दूसरे पदार्थ मेरे नहीं है (अहं एको णाण) मैं अकेला ज्ञानमई ह (इदि) ऐसा (जो झाणे झायदि) जो ध्यान में ध्याता है ( सो अपाण झादा हवदि ) वह आत्माको ध्यानेवाला होता है । विशेषार्थ :- सर्व ही चेतन अचेतन परद्रव्योमे अपने स्वामीपके सम्बन्धको मन वचनकाय व कृत कारित अनुमोदनासे अपने स्वात्मानुभव लक्षण निश्चयनयके बलकेद्वारा पहले ही दूर करके मै सर्व प्रकार निर्मल केवलज्ञानमई हूं तथा सर्व भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्मसे रहित एक हूं इस तरह जो कोई निज शुद्ध आत्माके ध्यानमें तिष्टकर चिन्तन करता है वह चिदानंदमई। एक स्वभावरूप परमात्मा का ध्यानेवाला होता है । इस तरहके परमात्मध्यानसे वह Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ श्रोप्रवचनसारटोका । ज्ञानी वैसे ही परमात्माको पाता है, क्योंकि यह नियम है कि जैसा उपादान कारण होता है वैसा कार्य होता है। इस लिये यह बात जानी जाती है कि शुद्ध निश्चयनयसे शुद्ध आत्माका लाभ होता है। भावार्थ-यहां आचार्य शुद्ध आत्माके लाभका उपाय शुद्ध नयके विषयका अवलम्बन बताते है क्योकि शुद्ध निश्चयनय आत्माको एक अकेला परमशुद्ध, सर्व प्रकार रागादिभावोंसे रहित, आठ कर्मोसे शून्य, शरीरादिसे बाहर शुद्ध ज्ञान दर्शनमई देखनेवाली है। जो भव्य जीव इस शुद्धनयके द्वारा सर्व शरीरादि परद्रव्योमें अहंकार ममकार छोडकर मै ज्ञानानन्दमई सिद्ध सम शुद्ध निर्विकार हूं ऐसी भावना करते हुए ध्यानमें तिष्ठकर शुद्धात्माको ध्याते हैं वे ही शुद्ध आत्माके ध्याता होते हुए कर्मोके सम्बन्धको वीतराग परिणतिसे हटाते हुए आत्माके सच्चे स्वरूपको पाकर परमात्मा हो जाते है। श्री देवसेनाचार्यने श्री तत्वसारमें कहा है: मलरहिओ णाणमओ णिवसइ सिद्धोए जारिसो सिद्धो । ' तारिसओ देहत्यो परमो बंभो मुणेय वो ॥ २६ ॥ णोकम्मकम्मरहिओ केवलणाणाइ गुणसमिद्धो जो । सोहं सिद्धो सुद्धो णिचो एक्को णिरालंबो ॥ २७ ॥ सिद्धोऽहं सुद्धोऽह अणतणाणारगुणसमिद्धोऽह । देहपमाणो णिच्चो असखदेसो अमुत्तो य ॥ २८ ॥ थके मणसंकप्पे रुद्ध अक्खाण विसघवावारे । पयडइ बमसरूव अप्पाझागेण जोईणें ॥ २९ ॥ भावार्थ-जैसे कर्ममल रहित, ज्ञानमई, सिद्ध आत्मा सिद्धा Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। वस्थामें रहता है वैसा ही आत्मा इस देहमें विराजित परमब्रह्म स्वरूप है ऐसा अनुभव करना चाहिये | जो कोई नोकर्मसे रहित, केवलज्ञानादि गुणोसे पुर्ण है सो ही मैं शुद्ध सिद्ध, अविनाशी, एक तथा परालम्ब रहित हू । मै सिद्ध हूं, शुद्ध हूं, अनंतज्ञानादि गुणोसे भरा हुआ हूं, शरीर प्रमाण हूं, नित्य हूं, लोक प्रमाण असख्यात प्रदेशी हू तथा अमूर्तीक हूं। इस तरह विचारते हुए मनके विकल्प रुक जायगे, इद्रियोके विषय व्यापार वद होजावेंगे और योगीके भीतर इस आत्मध्यानसे परम ब्रह्मस्वरूप परमात्मा प्रगट होजावेगा । ऐसा जानकर निन शुद्धात्माका ही मनन करना चाहिये इसीसे शुद्धात्मलाभ होगा ॥ १०३ ॥ उत्थानिका-आगे कहते है कि शुद्ध आत्मा ध्रुव है इसलिये मै शुद्ध आत्माकी ही भावना करता हू ऐसा ज्ञानी विचारता है। एवं णाणप्पाणं दसणभूदं अदिदियमहत्थं । धुवमचलमणालंचं मण्णेऽहं अप्पगं सुद्ध ॥ १०४ ॥ एव नानात्मान दशनभूतमतं न्द्रियमहार्थम् । ब्रुवमचलमनालन म येऽहमात्मक शुद्धम् ॥ १०४ ॥ अन्वय सहित मामान्यार्थ.- ( एवं ) इस तरह (गाणप्पाणं) ज्ञान स्वरूप ( दसणभूद ) दर्शनस्वरूप (अदिदियम् ) इन्द्रियोके अगोचर अतीन्द्रियस्वरूप (धुवम् ) अविनाशी (अचलम् ) अपने स्वरूपमे निश्चल (अणालव) परालम्ब रहित (सुई) शुद्ध (महत्थं) महान पदार्थ ऐसे (अप्पगं) अपने आत्माको (अह मण्णे) मै अनुभव करता हू। २३ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૯૪ श्रीप्रवचनसारंटोका । विशेषार्थ - ध्याता विचारता है कि मै अपने आत्माको सर्व तरह उपादेय समझकर इस तरह अनुभव करता हूं कि वह सहज परमानंदमई एक लक्षणको रखनेवाला 'आत्मा रागादि सर्व विभावोंसे रहित शुद्ध है, टंकोत्कीर्ण ज्ञायक एक स्वभावरूप रहनेसे अविनाशी है, अखंड एक ज्ञान दर्शन स्वरूप है, मूर्तीक, विनाशीक, अनेक इन्द्रियोंसे रहित होनेके कारण अमूर्त, अविनाशी एक अतींद्रिय स्वभाव है । मोक्षरूप महापुरुषार्थका साधक होनेसे महान पदार्थ है, अति चंचल मन वचनकायके व्यापारोंसे रहित होनेमे अपने स्वरूपमें निश्चल है तथा स्वाधीनपने स्वद्रव्यपनेसे स्वालम्बनरूप भरा हुआ होनेपर भी सर्व पराधीन परद्रव्यके आलम्बनसे रहित होनेके कारण निरालम्ब है । भावार्थ - इस गाथामें आचार्यने ध्यान करनेवालेके लिये यह शिक्षा दी है कि वह अपने आत्माको इन विशेषणोंके साथ विचार करे कि वह आत्मा सर्व द्रव्य कर्म, नोकर्म, भाव कर्मसे रहित शुद्ध है, खाधीन है, अपने शुद्ध स्वभावमें स्थिर है, आदि अन्त रहित नित्य है, इंद्रिय अगोचर है, शुद्ध ज्ञाता दृष्टा स्वभावमई है तथा जगत सर्व पदार्थोंमे उत्तम है अथवा मोक्षका साधक होने से यही महान पदार्थ है । इस तरह शुद्ध सिद्ध सम वारवार ध्यान करनेसे उपयोग शुद्ध भाव में जमता जाता है-अशुद्धतासे हटता जाता है। इसी उपायसे वीतरागता बढ़ती जाती है व रागडेपमई परिणति मिटती जाती है, जिससे नवीन धर्मोका सबर होता है व प्राचीन कर्मोकी निर्जरा होती है । यही आत्मध्यान साक्षात् मोक्षका उपाय है। श्री तत्वसारमें कहा है , Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड ससहाय वेदतो णिश्चलचित्तो विमुकपरभात्रो । सो जीवो णायव्वो दसगणाण चरेत च ॥ ५६ ॥ [ ३५५ जो अप्पा त गाणं ज णाण त च दसण चरणं । सा सुद्धचेयणावि य णिच्छयणयमस्सिए जीवे ॥ ५७ ॥ भावार्थ - जो अपने स्वभावको अनुभव करता हुआ परभावोंसें मुक्त होकर निचलचित्त होजाता है वही जीव सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूप जानना चाहिये। जो जीव शुद्ध निश्चयनयका आश्रय करता है इसके अनुभवमें जो आत्मा है वही ज्ञान है, जो ज्ञान है वही दर्शन है, वही चारित्र है, वही शुद्ध ज्ञान चेतना है ऐसा एकीभाव होजाता है । यही स्वानुभव भावमोक्षका साधक है । ऐसा जानकर निरतर इस प्रकार आत्मध्यानका पुरुषार्थ करना आवश्यक है यही सार है । उत्थानिका - आगे कहते है कि ये शरीरादि आत्मा से भिन्न विनाशी है इसलिये इनकी चिन्ता न करनी चाहिये । देहा वा दविणा वा सुहदुक्खा वाऽध समित्तजणा । जीवस्स ण संति धुवा धुवोवओगप्पगो अप्पा ॥ १०५ ॥ देहा वा द्रविणानि वा सुखदु खे वाथ शत्रुमित्रजनाः । जीवस्य न सति ब्रुवा ध्रुव उपयोगात्मक आत्मा ॥ १०५ ॥ अन्वय सहित सामान्याथः - (जीनस) जीवके ( देहा) शरीर ( वा दविणा) या द्रव्य ( वा सुहदुक्खा ) या सासारिक सुखदुख (बाघ समित्तजणा) तथा शत्रु मित्र आदि मनुष्य ( धुवा ण सति) अविनाशी नहीं हैं । ( उवओगप्पगो अप्पा ) केवल उपयोगमई आत्मा (धुवो ) है | Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ ] श्रीप्रवचनसारटोका। विशेषार्थ-सर्व प्रकारसे पवित्र शरीररहित परमात्मासे विलक्षण औदारिक आदि पांच प्रकारके शरीर तथा पंचेद्रियोंके भोग उपभोगके साधक धन आदिक परद्रव्य इस जीवके लिये ध्रुव नहीं हैं किन्तु ये अनित्य हैं, छूट जानेवाले हैं। केवल शरीरादि ही अनित्य नहीं हैं किन्तु विकाररहित परमानन्दमई एक लक्षणधारी अपने ही आत्मासे उत्पन्न सुखामृतसे विलक्षण सांसारिक सुख तथा दुःख तथा शत्रु मित्र आदि भावसे रहित आत्मासे भिन्न शत्रु मित्र आदि जनसमुदाय ये सब भी अनित्य हैं। जब ये सब अध्रुव है तव ध्रुव क्या है ? इसके उत्तरमें कहते हैं कि तीन लोकके उदरमें वर्तमान भूत भविष्य वर्तमान तीन कालके सर्व द्रव्य गुण पर्यायोको एक साथ जानने में समर्थ केवलज्ञान तथा केवलदर्शनमई अपना आत्मा ही शाश्वत अविनाशी है। ऐसा अपनेसे भिन्न सर्व सम्बन्धको अध्रुव जान करके ध्रुव स्वभावधारी अपने ही आत्मामे निरन्तर भावना करनी योग्य है यह तात्पर्य है। भावार्थ-इस गाथामे आचार्यने मोहकी गांठ काटनेके लिये यह समझाया है कि जिन २ वस्तुओंको हे आत्मन् ! तू अपनी मानकर उनसे प्रीति करता है व उनकेलिये शोक करता है वे सब पदार्थ तेरे साथ सदा रहनेवाले नहीं है। उन सबकी अवस्था बदलती रहती है-उनका सम्बन्ध तेरे साथ धूप छायाके समान होता है और मिटता है । ये शरीर पुद्गलके परमाणुओंसे बनते हैं व उनके विछड़नेपर बिगड जाते है-ये सब स्थिर रहनेवाले नहीं हैं। इसी तरह रुपया, पैसा, मकान, जमीन, वस्त्र, बासन आदि पांचों इंद्रियोंके साधक पदार्थ भी एक दशामें रहनेवाले नही हैं या तो ये Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विताय खंड। [३५७ स्वयं नष्ट हो जायगे वा हम शरीर छोड़ते हुए इनको छोड जायगे। कोके उदयसे जो दुःख या सुख होते हैं ये भी एकसे नहीं रहतेहोते हैं व छुटते हैं। जिनको हम अपना शत्रु समझकर द्वेष करते हैं व जिनको अपना मित्र समझकर प्रेम करते हैं वे शत्रु व मित्र भी हमसे छूटनेवाले हैं। हमारा अपना यदि कोई सदा साथ देनेवाला है तो एक अपना ही ज्ञानदर्शनोपयोगधारी आत्मा ही है। इसलिये निज आत्माके सिवाय सर्व सम्बन्धको क्षणिक मानकर हमें परम ध्रुव स्वभावधारी निन आत्माहीका मनन करना चाहिये। स्वामी अमितिगतिने बडे सामायिकपाठमे कहा है कातासद्मशरीरमप्रभृतयो ये सर्वथाऽग्यात्मनो, भिना. कर्मभवा. समीरणचला मावा बहिमा वनः । तः सम्मतिमिहात्मनो गतधियो जानति ये शर्मदा, त्व सकसवसेन विदधते नाकीशल्क्ष्मी स्फुः ॥ ८५ ।। भावार्थ -जो कोई निर्बुद्धि स्त्री, मकान, पुत्र, धन आदि वाहरी पदार्थोके सम्बध होनेपर जो पदार्थ सर्वथा अपनी आत्मासे भिन्न है, पवनके समान अथिर है तथा कर्मोके उदयसे होनेवाले हैं, अपने आत्माकी सुखदाई सम्पत्ति जानते है वे मानो प्रगटपने अपने सकल्पसे स्वर्गकी लक्ष्मीको धारण कररहे है । मतलब यह है कि जसे मनमे यह सकल्प करना कि भै स्वर्गको सम्पदाका वनी हूँ, वृथा है, झूठा है। तेसे ही अपने से भिन्न स्त्री पुत्र धनादि सामग्रीक चल कर्मअनिता वन्यको जाना मानना ला है, सूखता है । इससे सर्व प्रकारसे उपाय निम शुद्ध रूपमे ही प्रेम रखना चाहिये और उसके सिवाय सर्व भावोसे वैराग्य मनना चाहिये ॥ १०॥ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८] श्रीप्रवचनसारटोका। इस तरह अशुद्ध नयके आलम्बनसे अशुद्ध आत्माका लाभ होता है ऐसा कहते हुए पहली गाथा, शुद्ध नग्रसे शुद्ध आत्माका लाभ होता है ऐसा कहते हुए दूसरी, ध्रुव होनेसे आत्मा ही भावने योग्य है ऐसा कहते हुए तीसरी तथा आत्मासे अन्य सब अध्रुव हैं उनकी भावना न करनी चाहिये ऐसा कहते हुए चौथी, इस तरह शुद्धात्माके व्याख्यानकी मुख्यता करके पहले स्थलमें चार गाथाएं पूर्ण हुई। उत्थानिका-आगे इस तरह शुद्धात्माका लाभ होनेपर क्या फल होता है ? इस प्रश्नका उत्तर देते हैं: जो एवं जाणित्ता भादि पर अप्पगं विसुद्धप्पा । सागाराणागारो खवेदि सो मोहदुग्गठि॥ १०६ ॥ य एवं ज्ञात्वा ध्यायति परमात्मानं विशुद्धात्मा । साकारानाकारः क्षपयति स मोहदुर्गन्धिम् ॥ १०६ ॥ अन्वय सहित सामान्यार्थ:-(जो सागाराणागारो) जो कोई श्रावक या मुनि (एवं जाणित्ता) ऐसा जानकर (परं अप्पगं) परम आत्माको (विसुद्धप्पा) विशुद्धभाव रखता हुआ (शादि) ध्याता है (सो) वह ( मोटुगठि) मोहकी गांठको (खवेदि) नाश करदेता है। विशेषार्थ-जो कोई गृहस्थ या मुनि अथवा साकारसे ज्ञानोपयोगरूप, अनाकारसे दर्शनोपयोगरूप होकर अथवा साकारसे चिन्ह सहित मुनि या अनाकारसे चिन्ह रहित गृहस्थ होकर इस तरह पूर्वमे कहे प्रमाण अपने आत्माका लाभरूप स्वसंवेदन ज्ञानसे जानकरके परम अनन्तज्ञानादि गुणोके आधाररूप होनेसे उत्कृष्ठ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। रूप अपने ही आत्माको अपनी प्रसिद्धि, पूजा, लाभादि सर्व मनोरथ जालसे रहित विशुद्ध आत्मा होता हुआ ध्याता है सो ऐसा गुणी जीव शुद्धात्माकी रुचिको रोकनेवाली दर्शनमोहकी खोटी गांठको क्षय कर डालता है । इससे सिद्ध हुआ कि जिनको निज आत्माका लाभ होता है उन्हीकी मोहकी गाठ नाश होजाती है। यही फल है। भावार्थ-इस गाथामें आचार्य ने दर्शनमोहकी गांठके क्षयका उपाय यह बताया है कि जो कोई शुद्ध निश्चयनयसे अपने ही शुद्ध आत्माको निश्चयकरके कि वह सर्व रागादि परद्रव्योंसे न्यारा है, परद्रव्योंसे रागद्वेप मोह छोड़ उसी निज आत्माका चिन्तवन करता है उसके विशुद्ध परिणामोके प्रतापसे दर्शनमोहकी वर्गणाका आत्मासे वियोग होजाता है और क्षायिक सम्यक्त पैदा होजाता है। मुनि हो या गृहस्थ हो शुद्ध आत्माके अनुभवसे दर्शनमोहका नाश कर सक्ता है । जिसने इस मोहकी गांठको नष्ट कर डाला उसको निन स्वाधीन पदका लाभ अतिशय निकट रह जाता है । आत्मध्यान करनेका फल सम्यग्दृष्टि ज्ञानी होना है। श्री अमृतााशीतिमे श्री योगेन्द्रदेव कहते है-- बहिरबहिरुदारज्योतिरुद्भामदीपः, स्फुरति यदि तवाय नाभिपद्मे स्थिताय । अपसरति तदानीं मोहघोरान्धकार ___चरणकरणदक्षो मेक्षलक्ष्मीदिदृक्षोः ॥ ५४ ॥ भावार्थ- यदि तू चारित्रमे चतुर है व मोक्षलक्ष्मीके देख. नेकी इच्छा रखता है और तेरे नाभिपद्ममे ठहरे हुएके भीतर Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीप्रवचनसारटोका। अन्तरंग बहिरंग परमगम्भीर प्रकाशमान आत्मज्योति जाज्वल्यमान हो जावे तो उसी समय मोहका घोर अन्धकार तेरे आत्मासे निकल जायगा। वास्तवमे शुद्ध आत्माकी ओर लक्ष्य देनेसे ही मोहकी गांठ सूखकर गिर जाती है इस लिये निरन्तर शुद्ध आत्माका ही विचार करना योग्य है ॥ १०६ ॥ उत्थानिका-आगे दर्शनमोहकी गांठके टूटनेसे क्या होता है ? इस प्रश्नका समाधान करते हैं - जो णिहदमोहगंठी रागपदोसे खोय सामपणे । होजं समसुहदुक्खो सो लोरा अवय लरदि ॥१०॥ यो नित्तम हान्यो राप्रपा पयिन्ता शरण्ये । - वेत् सनमुखदुःखः । सोख्यममा समते ॥ १०७ ॥ अन्यय रहित मामागार्थ -(जो) जो कोई (णिहदमोहगंठी ) नोहकी गांठको भय करके (सामण्णे) मुनि अवस्थामें रहकर (रागपदोसे) रागद्वेषोंको (खवीय) नाश करके (लमसुहदुक्खो होज) सुख दुखमें समताभाव रखनेवाला हो जाता है (सो) वह ज्ञानी जीव (अक्लयं सोरल) अदिनामी आनदो (सदि) प्राप्त करता है। घि पार्थ-जोहोई पत्रमे कहे प्रकारसे मनमोहकी गांठको क्षय करके निचले अपने न्यभावने ठहरकर सपने गुह आत्माके निश्चल अनुभव स्वरूपपीतराग चारित्रको रोकनेवाले चारित्रमोहरूप रागतोको नागवार के सपने शुद्ध जाना स्वानुभवले उत्पात रागादि विलोले रहित रेनतुल उसके अनुभवले दृष्ट होर सांसारिक सुख वदुःखसे उत्पन्न हर्ष विषादसे रहित होनेके कारणले सुख Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। दुःखोमें समताभाव रखता है वह ऐसा गुणवान भेदज्ञानी जीव अक्षय सुखको लाभ करता है । इससे जाना जाता है कि दर्शन मोहके नाशसे फिर चारित्र मोह्रूप रागद्वेषोको विनाश करके सुख दुःखमें माध्यस्थ लक्षणधारी मुनिपदमे जो ठहरना है उसीसे ही अक्षयसुखका लाभ होता है। भावार्थ-यहांपर आचार्यने अरहत परमात्मा होनेकाक्रम बताया है कि जब दर्शनमोहका नाश होजावे तब रागद्वेषरूप चारित्र मोहको नाश करनेके लिये सर्व परिग्रह त्याग नग्न दिगम्बर मुनिपदमे स्थिर होकर सुख दु खोमें समताभाव रखते हुए, आत्मानदरसमे भीगे हुए भावगुनिपनेके प्रतापने चारित्र मोहनीयका नाश करके फिर अन्य तीन घातिया कर्मोका भी क्षय करके अविनाशी अनत सुखको ज्ञानी आत्ना प्राप्त करलेता है । जेसे वीतरागमई आत्मानुभवसे ढर्गनमोहनी गाठ कटती है वैसेही वीतरागमई आत्मानुभवसे चारित्रमोहके फदे कट जाते है । इसलिये वीतरागमई साग्यभावरूप आत्मानुभवमे सदा ठहरनेका पुरुषार्थ करना चाहिये। श्री समयसारकलगमें कहा हैय प्रभावन मविपद्रमाणा, मुक्त फ न पर वित एर तृप्त । अपासणीयनु , नि. शर्मम त तास । ३९ ॥ सामार्थ-जो पहले रागादिमागोसे वादे हुए कर्मरूपी विष वृक्षोने सुखदु ख फालोको लागि मात्सरलगे तृत होता हुआ नही भोगता है अर्थात् उन सासारिक सुखदु खोमे समताभाव Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२] श्रीप्रवचनसारटोका। रखता है वही महात्मा ऐसी अवस्थाको प्राप्त करलेता है जो अतीन्द्रिय आनन्दमई होती है जिससे वर्तमानमें सुखी होता है और भविण्यमें भी सुख पाता रहेगा। तात्पर्य यही है कि सुखका उपाय निन स्वरूपमें एकाग्रता प्राप्त करना है ॥ १०७ ॥ उत्थानिया-आगे कहते हैं कि निज शुद्धात्मामे एकाग्रता रूप ध्यान ही आत्माकी अत्यन्त विशुद्धि कर देता है। जो खविदमोहकलुसो विसयविरत्तो मणो णिरु भित्ता । समवद्विदो सहावे सो अप्पाणं हवदि धादा ॥ १०८ ॥ यः क्षषितमोहक्लुपो विषयविरत्तो मनो निरुध्य । समवस्थितः स्वभावे स आत्मान भवति ध्याता ॥ १०८ ॥ अन्वयसहित सामान्यार्थः-(जो) जो कोई (खविदमोहकलुसो) मोहकी कालिमाको क्षय करके ( विसयविरत्तो ) इंद्रियोके विषयोंसे विरक्त होता हुआ (मणो णिरुभित्ता) मनको सब तरहसे रोककर (सहावे समवविदो) अपने आत्मस्वभावमें भले प्रकार स्थिर होनाता है (सो) वही महात्मा ( अप्पाणं धादा हवदि ) आत्माको ध्यानेवाला होता है। विशेषार्थ-जो कोई पूर्व दो सूत्रोंमें कहे प्रमाण दर्शनमोह और चारित्रमोहको क्षय करता हुआ, मोह और रागद्वेषकी कलुषतासे रहित निजात्मानुभवसे उत्पन्न सुखामृतरसके स्वादके बलसे क्लुषता और मोहके उदयसे उत्पन्न विषयसुखोंकी इच्छासे रहित होता हुआ तथा विषयकषायोसे उत्पन्न विकल्पनालोंमें वर्तनेवाले मनको रोककर निज परमात्मस्वभावमें भलेप्रकार स्थित ही गुणी पुरुष अपने आत्माका ध्याता होता है । इसी Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [३६३ ही शुद्धात्मध्यानसे. अत्यन्त शुद्धि अर्थात मुक्तिको प्राप्त करता है। इससे सिद्ध हुआ कि शुद्धात्मध्यानसे जीव विशुद्ध होता है, क्योकि ध्यानसे वास्तवमें आत्मा शुद्ध होता है । इसलिये ध्यानके सम्बन्धमे चार प्रकारका व्याख्यान करते हैं । वह चार प्रकार ध्यान है । ध्यान, ध्यानसंतान, एक ध्यानचिता तथा ध्यानान्वय सूचना । इनमेंसे एक किसी विशेष भावमें चित्तको रोकनेको ध्यान कहते हैं यह ध्यान शुद्ध और अशुद्धके भेदसे दो प्रकार है। अव ध्यान सतानको कहते है-जहा अतर्महूर्तपर्यंत ध्यान होता है फिर अतर्महूर्त पर्यंत तत्त्वचिता होती है फिर भी अतर्मुहूर्त पर्यंत ध्यान होता है पीछे फिर तत्वचिता होती है इस तरह प्रमत्त अप्रमत्त गुणस्थानकी तरह अन्तर्महूर्त २ वीततेहुए पलटन होजावे उसको ध्यानसंतान कहते हैं । यह धर्मध्यान सम्बन्धी जानना चाहिये । शुक्लध्यान उपशम तथा क्षपक श्रेणीके चढनेपर होता है वहा बहुत ही अल्पकाल है इससे (बुद्धि पूर्वक) पलटमेरूप ध्यान सतान नही सिद्ध होता है । अब ध्यान चिताको कहते है-जहां ध्यानकी सतानकी तरह ध्यानकी पलटन नहीं है किन्तु ध्यानसम्बन्धी चिन्ता है। इस चिन्ताके बीचमे ही किसी भी कालमे ध्यान करने लगता है तौ भी उसको ध्यान चिन्ता कहते हैं । अव ध्यानान्वय सूचनाको कहते हैं कि जहा ध्यानकी सामग्रीरूप बारहभावनाका चिन्तवन है व ध्यान सम्बन्धी सवेग वैराग्य वचनोंका व्याख्यान है वह ध्यानान्वय सूचना है । ध्यानका चार प्रकार कथन ध्याता, ध्यान, ध्येय तथा फलरूप है अथवा आत, रौद्र, धर्म, शुक्ल रूप है जिनका कथन अन्य ग्रन्थोमें वर्णन किया गया है। Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ ] श्रीप्रवचनसारटोका । भावार्थ - जो पहले दर्शन मोहकी और तीव्र कषायोके उदयकी कलुपतासे रहित होकर शांत मन हो पंचेद्रियोंके विषयोंको संसारका कारण जान उनसे वैराग्यवान होता है तथा मनको अनेक विषयकषायसम्बन्धी संकल्पनालोसे रोक देता है और निज शुद्ध आत्माके स्वभावमे भलेप्रकार स्थिरता प्राप्त करता है वही आत्मध्यानी है । यही आत्मध्यान आत्माके बंधनोको काटकर आत्माको परमात्मा कर देता है । जहां एकाग्रता होती है उसको ध्यान कहते हैं । शुक्ल ध्यान में तो बिलकुल ध्याताकी बुद्धिपूर्वक एकाग्रता होती है । यद्यपि अबुद्धि पूर्वक कुछ पलटन होती है तथापि ध्याताके अनुभव गोचर न होने से वह शुद्धोपयोगरूप थिरनारूप ही ध्यान कहलाता है । धर्म ध्यानमे शुद्धात्माकी सन्मुखता जहां है उनको शुद्ध ध्यान कहते है | जहां अशुद्ध नावोमे थिरता होती है उसको अशुद्ध ध्यान या आर्तरौद्र ध्यान कहते हैं। जहां ध्यान अतर्मुहूर्त होकर फिर ध्यानकी चिता हो ? फिर ध्यान होजावे इसतरह व्यानकी सतान बहुत देर तक चलती रहे उसको ध्यान संतान कहते हे । जो योगी छ घड़ी रते है उनके ऐती 1 हर्तमे अविर नही रह मार ही जागे कभी भी संतान वर्तती है क्योकि ध्यान एक सता है । हमके मुख्यता होता है जपानचित गव्यमे जाता है-है व ध्यान सदान है । जनके पास करनेी रानीकी सम्हाल है पर्थात् जहां बारह नवा चितवन है या व्याख्यान है अथवा धर्मानुराग 1 Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [३६५ बढ़ानेवाला तथा ससार शरीरभोगोसे वैराग्य उत्पन्न करनेवाला कथन है उसको ध्यानान्वय सूचना कहते हैं। __ प्रयोजन यह है कि इन चारो ही ध्यानके भेदोमें जिसमें उपयोग लगे वर्तनकरके वीतरागमई साम्यभावमें ठहरनेका यत्न करना चाहिये क्योकि आत्मध्यानसे ही आत्मा शुद्ध होगा । अन्य कोई उपाय नही है . जेसा श्री तत्वसारमें श्रीदेवसेनमहारान कहते है सयलवियप्पे थरके उप्पना कोचि तासओ भावो । जो अपणो सहायो मोक्रसस्म य कारण सो हु ॥ ६१ ॥ असहावे याको जोई न मुणेइ आगए विसए । जाणियणिय अप्प णं च्छियत वेव सुविमुद्र ॥ ६२ ॥ ण रमइ विसयेमु मणो जोइस्म दु लदसुद्धनचस्व । एकोहबह गिरासो मरइ पुणो आणसत्येण ।। ६३ ।। ण मरद तावत्य मणो जाम ण मोहो खयगओ सन्यो । सोयति संणभाई सागि य घाइकम्माणि || ६४ ॥ हए राए सेण णामइ सयमेव गलियमाहप्पं । तर नियमोहगए गति गिरसेसचाईणि || ६५ ॥ घाइ चहक. प. उप्पजद विमलकेवल गाणं । रोयालेयपयाम कालत्तयजाणगं परम ॥ ६६ । भावाथ-सर्व मनके सकल्प विकल्पोके रुक नानेपर कोई एकअविनाशी भाव पैदा होता है जो आत्माका स्वभाव है व जो निश्चयसे मोक्षका कारण है । आत्मस्वभावमे रिथर होता हुआ योगी आएहुए दंद्रियोके विपयोका अनुभव नहीं करता है किन्तु वह निज आत्माको अत्यन्त शुद्ध देखता जानता रहता है । शुद्धतत्वको Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६] श्रीप्रवचनसारटीका । www प्राप्त करनेवाले योगीका मन इंद्रियोके विषयोमें नहीं रमन करता है-वह मन सर्व आशासे रहित हो आत्मासे एक होनाता है अथवा आत्म ध्यानके शस्त्रसे मर जाता है । जबतक मन नहीं भरता है तबतक सर्व मोहका क्षय नहीं होता । मनके मरनेपर मोहका क्षय होनाता है व मोहके क्षय होनेके पीछे शेष तीन घातिया कर्म भी क्षय होजाते हैं । जैसे रानाके मरनेपर उसकी सन सेना अपने प्रभावसे रहित हो स्वयं भाग जाती है तैसे मोह रानाके नाश होनेपर सर्व घातियां कर्म गल जाते हैं। चारघातिया कर्मोके नाश होनेपर निर्मल केवलज्ञान पैदा हो जाता है जो उरुष्ठ है, तीनकालको जाननेवाला है व लोक और अलोकका प्रकाशक है। इससे यही निश्चय करना चाहिये कि आत्मध्यानसे ही कर्मोका क्षय होता है और आत्मा शुद्ध होता है। इस तरह आत्माके अनुभवसे दर्शनमोहका क्षय होता है ऐसा कहते हुए पहली गाथा, दर्शनमोहके क्षयसे चारित्रमोहका क्षय होता है ऐसा कहते हुए दूसरी, इन दोनोके क्षयसे मोक्ष होता है ऐसा कहते हुए तीसरी, इस तरह आत्माका लाभ होना फल होता है ऐसा कहते हुए दूसरे स्थलमें तीन गाथाएं पूर्ण हुई। उत्थ निका-आगे शिप्य पूर्वपक्ष करके यह आक्षेप करता है कि शुद्धात्मतत्त्वको प्राप्त करके सकलज्ञानी परमात्मा किस वस्तुको ध्यान है ? णिहद्घणघादिकम्मो पञ्चक्ख सव्वभावतच्चण्हू । यन्तगदो समणो झादि किम्म अलंदेहो ॥ १०६॥ . निहतघनघातिकर्मा प्रत्यक्षं सर्वभावतत्त्वज्ञः । यान्तगतः श्रमणो ध्यायति किमर्थमसदेहः।। १०९ ॥ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [३६७ . अन्वय सहित सामान्यार्थ-(णिहदधणघादिकम्मो) सर्व घातिया कर्मोको नाश करनेवाले (पञ्चक्ख) प्रत्यक्षरूपसे (सव्वभावतच्चण्हू) सर्व पदार्थोके जाननेवाले (णेयंतगदो ) सर्व ज्ञेय पदार्थोके पार पहुचनेवाले ( असंदेहो ) तथा सशयसहित (समणो) केवलज्ञानी महामुनि (फम्म8) किस पदार्थको (झादि) ध्याते हैं। विशेषार्थ-पूर्वसूत्रमें कहे प्रमाण निश्चल अपने परमात्मा तत्त्वमें परिणमन रूप शुद्ध ध्यानके बलसे घातिया कोके क्षयकर्ता, प्रत्यक्षज्ञानी, सर्व ज्ञेयोंको जाननेकी अपेक्षा उनके पार होनेवाले ऐसे तीन विशेषण सहित जीवन मरण आदिमें समताभाव रखनेवाले महा श्रमण श्री सर्वज्ञ भगवान जो संशयादिसे रहित हैं वह किस पदार्थको ध्याते हैं यह प्रश्न है अथवा किसी पदार्थको भी नहीं ध्याते हैं यह आक्षेप है ? यहां यह अर्थ है कि जैसे कोई भी देवदत्त विषयोके सुखके निमित्त किसी विद्याकी आराधनारूप ध्यानको करता। है जब वह सिद्ध होजाती है तब उस विद्याके फलरूप विषयसुखको सिद्ध करलेता है फिर उस विद्याकी आराधनारूप ध्यानको नहीं करता है । तैसे ही भगवान भी केवलज्ञान रूपी विद्याके निमित्त तथा उसके फलरूप अनन्त सुखके निमित्त पहले छमस्थ अर्थात् अल्पज्ञकी अवस्थामें शुद्ध आत्माकी भावना रूप ध्यानको करते थे अब उस ध्यानसे केवलज्ञानरूपी विद्या सिद्ध होगई तथा उसका फलरूर अनन्त सुख भी सिद्ध होगया तब किस लिये ध्यान करते है ऐसा प्रश्न है या आक्षेप है ? दूसरा कारण यह है कि पदार्थ परोक्ष होनेपर उसका ध्यान किया जाता । है भगवानके सर्व प्रत्यक्ष है तब उनके ध्यान किस तरह होसका Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८] श्राप्रवचनसारटीका । है ऐसा पूर्व पक्ष करते हुए गाथा पूर्ण हुई। भावार्थ-इस गाथामें शिष्यका यह प्रश्न है कि केवली सर्वज्ञ भगवान जब ध्यानका फल परमात्मपद प्राप्तकर चुके तब उनके ध्यान किसलिये व किसका होगा क्योंकि जो वस्तु नहीं मिलती है व उसके मिलानेकी इच्छा होती है व उसीका ही ध्यान उसके लिये किया जाता है परन्तु जब वस्तु मिल गई फिर उसका ध्यान नहीं होसक्ता । इसलिये केवली भगवान ध्यान रहित हैं ऐसा आक्षेप शिष्यने किया है। यहां गाथामें किमटुं शब्द लें तब तो अर्थ यह होगा कि किस लिये ध्यान करते हैं व कमटुं शब्द लें तब अर्थ यह होगा कि किस पदार्थोको ध्याते हैं ।। उत्थानिका-आगे इस पूर्वपक्षका समाधान करते हैंसव्वावाधविजुत्तो समंतसव्ववखसोक्खणाणड्ढो। भूदो अक्खादीदो झादि अणक्खो परं सोपत्रं ॥ ११ ॥ सर्वावाधवियुक्तः समन्तसर्वाक्षमोख्यमानाढ्यः । भूतोक्षातीतो ध्यायत्यनक्षः पर सौख्यम् ॥ ११० ॥ अन्वय सहित सामान्यार्थ-(सव्वावाविजुत्तो) सर्व प्रकारकी बाधासे रहित व ( समंतसव्वक्वसोक्खणाणडढो ) सब तरहसे सर्व आत्मीक सुख और ज्ञानसे पूर्ण (अक्खादीदो) तथा अतीद्रिय (भूदो) होकर (अणक्खो) दूसरोंके भी इंद्रियोंके जो विषय नहीं है ऐसे केवली भगवान (परं सोक्ख) परमानंदको (झादि) ध्याते है। विशेषार्थ-जिस समयसे केवली भगवान इंद्रियज्ञानसे रहित अतीद्रिय हुए, व सर्व प्रकारकी पीड़ासे रहित हुए तथा सर्व आत्माके प्रदेशोमें आत्मीक शुद्ध ज्ञान तथा शुद्ध सुखसे परिपूर्ण Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड | [ ३६९ हुए उसी समयसे वे भगवान जिनकी आत्मा दूसरोके इद्रियोंका विषय नहीं है किसी परम उत्कृष्ट सर्व आत्माके प्रदेशो में आहांद देनेवाले अनन्त सुखरूप एकाकार समता रसके भावसे परिणमन करते रहते हैं अर्थात् निरन्तर अनन्त सुखका स्वाद लेते रहते हैं । - जिस समय यह भगवान एक देश होनेवाले सामारिक ज्ञान और सुखकी कारण तथा सर्व आत्माके प्रदेशोंमे पैदा होनेवाले स्वाभाविक अतींद्रिय ज्ञान और सुखको नाश करनेवाली इन इद्रियोको निश्रय रत्नत्रयमई कारण समयसारके वलसे उल्लंघन कर जाते हैं अर्थात् उन इद्रियोंके द्वारा प्रवृत्तिको नाश करदेते हैं उसी ही क्षणसे वे सर्व वाधासे रहित होजाते हैं, तथा अतींद्रिय और अन आत्मासे उत्पन्न आनन्दका अनुभव करते रहते हैं अर्थात् आत्म सुखको ध्याते है व आत्मसुखमें परिणमन करते है । इससे जाना जाता है कि केवलियोको दूसरा कोई चिन्तानिरोध लक्षण ध्यान नही है, किन्तु इसी परम सुखका अनुभव है अथवा उनके घ्यानका फलरूप कर्मकी निर्जराको देखकर ध्यान है ऐसा उपचार किया जाता है। तथा जो आगममे कहा है कि सयोग केवलीके तीसरा शुक्लव्यान व अयोग केवलीके चौथा शुलध्यान होता है वह उपचारसे जानना चाहिये ऐसा सूत्रका अभिप्राय है । भावार्थ - इस गाथामे वास्तवमें केवली भगवानका स्वभाव बताया है । आचार्य कहते है कि केवली भगवानका आत्मा ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्मोंसे रहित होकर अनन्तज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य, अनन्त व क्षायिक सम्यक्त व क्षायिक यथाख्यात चारित्र तथा अनन्त सुख से परिपूर्ण होजाता है । उनके आत्मामें ज्ञान व २४ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० ] श्रीप्रवचनसारटीका । सुख- स्वाभाविक शुद्ध प्रगट होजाते हैं । वे इंद्रियोंके द्वारा न तो जानते हैं न उनके द्वारा विषयसुखका भोग करते हैं- उनकी प्रवृत्ति इंद्रियों की प्रवृत्तिसे रहित होजाती है । उनको कोई प्रकारकी क्षुधा, तृषा, रोग, शोक, शीत, उष्ण आदि परीसहोंकी व किसी चेतन व अचेतनकृत उपसर्गकी कोई शारीरिक व मानसिक बाधा नहीं होती है। उनका शुद्ध आत्मा अन्य अल्पज्ञानियोंके इंद्रियज्ञानका भी विषय नहीं है । ऐसे भगवान निरन्तर निजानन्दका स्वाद लिया करते हैं अर्थात् समय २ अपूर्व आत्मीक सुखका अनुभव करते हैं। या यों कह दीजिये कि वे भगवान अपने ही स्वाभाविक आनन्दको ध्याते हैं । उनके ऐसा ध्यान नहीं है जैसा कि छद्मस्थोके होता है कि चित्तको अन्य पदार्थोंसे रोककर आत्मामें लगाना पड़े । वे सदा आत्मस्थ ही हैं - आठ वर्ष कुछ अधिक कम एक करोड़ पुत्र वर्ष तक भी वे एकाकार आत्मामई बने रहते हैं - उनमे कोई रागादि विकार नहीं होते हैं, उनके उपयोकी चंचलता अल्पज्ञकी तरह नही होती है । उनका उपयोग आत्मामें ही मग्न रहता हुआ आत्मीक आनन्दका भोग किया करता है। सिद्धात मे जो केवली भगवानके ध्यान कहा है वह इसी अपेक्षासे व्यवहारसे कहा है कि वहां ध्यानका फल मौजूद है अर्थात् उनके पूर्ववद्ध कर्मोंकी निर्जरा होती रहती है । तथा तीसरा व चौथा शुक्लध्यान भी उनकी आत्माकी अवस्थाकी अपेक्षा उपचारसे कहा है । जब कायद्वारा सूक्ष्म आत्मप्रदेशोंका परिस्पन्द होता है तब तीसरा शुक्लध्यान व जब योगरहित होते हैं तब सर्व क्रियासे निर्वृत्त होनेके कारण चौथा शुक्लध्यान कहा है । केवली भगवानके t Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड | [ ३७१ वास्तवमें चित्तको रोकनेरूप ध्यान नहीं हैं । वे सदा ही आत्मध्यानी व आत्मानन्दी हैं - उनकी महिमा बचन अगोचर है। यहां यह तात्पर्य है कि जिस आत्मध्यानसे ऐसा अपूर्व अरहंतपद प्राप्त होता है उस ध्यानका पुरुषार्थ कर्तव्य है । आप्तखरूप नाम में अरहंत भगवानका स्वरूप कहते हैं- नष्ट छद्मस्थविज्ञान नष्ट केशादिवर्धनम् । नष्ट देहमले कृत्स्न नष्टे घातिचतुष्टये ॥ ८ ॥ नष्ट मर्यादविज्ञान नष्ट मानसगोचरम् । नष्ट कर्ममल दुष्ट नष्टो वर्णात्मको ध्वनिः ॥ ९ ॥ नष्टाः क्षुत्तमयस्वेदा नष्टं प्रत्येकयोधनम् । नष्टं भूमिगत नष्ट द्रयसुखं ॥ १० येनास परमैश्वर्यं परानन्दसुखास्पदम् । बोधः कृतार्थोऽसावीवरः पटुभिः स्मृतः ॥ २३ ॥ भावार्थ - जिसने चार घातिया कर्म नष्ट कर दिये, छद्मस्थ ज्ञान दूर कर दिया, केश नखकी वृद्धि बन्द की व सर्व शरीरका मल भी हटा दिया। जिसमें मन सम्बन्धी व इंद्रिय सम्बन्धी व क्षयोपशम रूप मर्यादित ज्ञान भी नहीं रहा जिसके दुष्ट कर्ममल नष्ट हुआ व अक्षररूप ध्वनि भी नहीं रही। जिसके क्षुधा, तृषा, भय, स्वेद आदि अठारह दोष नष्ट होगए, प्रत्येक प्राणीको समझानेकी क्रिया भी बढ हुई, भूमिमे स्पर्श भी न रहा व इंद्रियोंके द्वारा सुख भोग भी न रहा- जिन्होंने अनन्त ज्ञानरूप परमानद सुखके स्थान परमईश्वरपनेको प्राप्त कर लिया व जो परमकृतकृत्य है उसहीको बुद्धिमानोने ईश्वर कहा है । Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ श्रोप्रवचनसारटोका। ऐसे परमात्मा अरहंत ध्यानके फलको प्राप्त होकर, निरंतर आत्मानंदका विलास करते रहते हैं। यह ही परमपूज्यनीय देव ध्यान करने योग्य, पूज्यने योग्य व स्तुति करने योग्य हैं ॥११०॥ ___इस तरह केवली भगवान क्या ध्याते हैं व क्यों ध्याते हैं ? इस प्रश्नकी मुख्यतासे पहली गाथा, तथा वे भगवान परमसुखको ध्याते या अनुभवते हैं इस तरह उस प्रश्नका समाधान करते हुए दूसरी, इस तरह ध्यान सम्बन्धी पूर्वपक्षका परिहाररूपसे तीसरे स्थलमे दो गाथाएं पूर्ण हुई। उत्थानिका-आगे विशेष करके समर्थन करते हैं कि यही अपने शुद्धात्माकी प्राप्ति लक्षण ही मोक्षमार्ग है, अन्य कोई मार्ग नहीं है। एवं जिणा जिणिदा सिद्धा मग्गं समुद्विदा समणा । जादा णमोत्थु तेसि तस्स य णिचाणमग्गस्स ॥ ११ ॥ एवं जिना जिनेन्द्रा सिद्धा मागे समुत्थिताः अमणाः । ' जाता नमोस्तु तेभ्यातस्मै च निर्वाणमार्गाय ॥ १११ ॥ अन्वयसहित सामान्यार्थः-(एवं) इस तरह पूर्व कहे प्रमाण (मग्गं समुद्विदा) मोक्षमागको प्राप्त होकर (समणा) मुनि, (जिणा) सामान्य केवली निन, (निणिंदा) तथा तीर्थकर केवली जिन, (सिद्धा) सिद्ध परमात्मा (नादा) हुए (तेसिं) उन सबको (य) और (तस्स णिव्याणमग्गस्स) उस मोक्षमार्गको (णमोत्थु) नमस्कार हो। विशेषार्थ-इस तरह बहुत प्रकारसे पहले कहे हुए निन परमात्मतत्वके अनुभवमई मोक्षमार्गको आश्रय करनेवाले जीव सुखदुःख आदिमें समताभावसे परिणमन करनेवाले तथा आत्मतत्वमें एवं जि सि तस्स हास्थिताः अमणाः ।, Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IRF द्वितीय खंड । ३७३ 13,3" लीन अनेक मुनि हुए जो तद्भव मोक्षगामी न थे तथा सामान्य "केवली जिन हुए व तीर्थकर परमदेव हुए ये सब सिद्ध परमात्मा "हुए हैं । उन सबको तथा उस विकार रहित स्वसंवेदन लक्षण 'निश्चय रत्नत्रयमई मोक्षके मार्गको हमारा अनन्तज्ञानादि सिद्ध 112 1 'गुणों का स्मरणरूप भाव नमस्कार होहु । यहां अचरम शरीरी मुनियोंको सिद्ध मानकर इस लिये नमस्कार किया है कि उन्होंने भी रत्नत्रयकी सिद्धि की है। जैसा कहा है 1 " तव सिद्धे णयसिद्धे संजमसिद्ध चरित्रसिद्ध य । णाणम्मि दंसणम्मिय सिद्धे सिरसा णमस्सा मि” अर्थात जिन्होंने तपमें सिद्धि पाई है, नयोंके स्वरूप ज्ञानमें सिद्धि पाई है, संयम में सिद्धि की है, चारित्र में सिद्धि पाई है तथा सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञानमें सिद्धि पाई है उन सबको मैं सिर झुकाकर नमस्कार करता हूं । इससे 'निश्रेय किया जाता है कि यही मोक्षका मार्ग है अन्य कोई नहीं है। भावार्थ - इस गाथा में आचार्यने यह स्पष्ट कह दिया है कि मोक्षका कारण निज शुद्धात्माका सर्व परद्रव्योसे भिन्न श्रद्धान ज्ञान तथा चारित्ररूप तल्लीनता है - अर्थात् निश्चय रत्नत्रयमई निर्विकल्प समधि है या स्वानुभव है या कारण समयसार है या स्वसमय रूप प्रवृत्ति है । इसी मोक्षमार्गको सेवन करके महामुनि हुए हैं जो यद्यपि तद्भव मोक्ष न प्राप्त हुए किंतु कुछ भवोंमें प्राप्त करेंगे । तथा इसी मार्गपर चलकर अनेक मुनि सामान्य - केवली हुए, अनेक साधु तीर्थंकर केवली हुए और ये सब जीव सिद्ध परमात्मा होगए, क्योकि मैं कुन्दकुंद मुनि भी इसी शुद्धात्माकी अवस्थाको प्राप्त करना चाहता हूं इसलिये मैं शुद्ध आत्मा Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४] श्रीप्रवचनसारटोका। Crmirmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm का ध्यानकर भाव नमस्कार करता हुआ उन सर्व सफल कार्य करनेवालोंको द्रव्य नमस्कार करता हूं। साथ ही उस अभेद रत्नत्रयकी परम रुचि रखता हुआ उसमें अपने उपयोगको जोड़ता हुआ उस मोक्षमार्गको भी भाव नमस्कार सहित द्रव्य नमस्कार करता हूं। इससे यह सिद्ध किया गया है कि हम सबको इस लोक तथा परलोकमें परम शांति व सुखको प्राप्त करनेके लिये इसी रत्नत्रयमयी निर्ममत्त्व भावकी भावना भानी चाहिये । श्री अमितिगति महाराजने सामायिकपाठमें कहा है:सर्वज्ञः सर्वदर्शी भवमरणजरातकशोकव्यतीतो, लब्धात्मीयस्वभावः क्षतसमलमला शश्वदात्मानपायः । दक्षैः सकोचितार्भवमृतिक्तैिर्लो यात्रानपेक्षभ्रष्टा वाधारमनीनस्थिरविशुदसुखप्राप्तये चिंतनीयः ॥ २० ॥ भावार्थ-जो चतुर पुरुष इंद्रियोके विजयी है, जन्म मरणसे भयभीत है, संसारके भ्रमणसे उदासीन हैं उनको वाधा रहित, आत्मासे उत्पन्न, स्थिर और शुद्ध निर्मल सुखकी प्राप्तिके लिये उस आत्माका सदा चिन्तवन करना चाहिये जो अविनाशी है, सर्वज्ञ है, सर्व दी है, जन्ममरण जरा रोगशोकादिसे रहित है, निजखमावमें प्राप्त है, तथा सर्व द्रव्यकर्म नौकर्म भावकर्ममलसे रहित है ॥१११ उत्थानिका-आगे प्रथम ज्ञानाधिकारकी पांचवीं गाथामें आचार्यने कहा था कि "उवसंपयामि सम्म जत्तो णिव्याणसंपत्ती" मैं साम्य भावको धारण करता हूं जिससे निर्वाणकी प्राप्ति होती उसी अपनी पूर्व प्रतिज्ञाका निर्वाह करते हुए स्वयं ही मोक्ष'मार्गकी परिणतिको स्वीकार करते हुए कहते हैं Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड [३७५ तम्हा तध जाणित्ता अप्पाणं जाणगं सभावेण । परिवजामि ममत्ति उवढिदो णिम्ममत्तम्मि ॥ ११२ ॥ तस्मात्तथा शात्त्वात्मानं नायक स्वभावेन । परिवर्जयामि ममतामुपस्थितो निर्ममत्त्वे ॥ ११२ ॥ अन्वय सहित सामान्यार्थ-(तम्हा) इसलिये (तघ) तिमही प्रकार (सभावेण) अपने स्वभावसे (जाणग) ज्ञायक मात्र (अप्पाणं) आत्माको (जाणित्ता) जानकर (णिम्ममत्तम्मि ) ममतारहित भावमे (उवट्टिदो) ठहरा हुआ (ममति) ममता भावको (परिवजामि) मै दूर करता हूं। विशेषार्थ-क्योंकि पहले कहे हुए प्रमाण शुद्धात्माके लाम रूप मोक्ष मार्गके द्वारा जिन, जिनेन्द्र तथा महामुनि सिद्ध हुए हैं इसलिये मै भी उसी ही प्रकारसे सर्व रागादि विभावसे रहित शुद्ध बुद्ध एक खभावके द्वारा उस केवलज्ञानादि अनतगुण स्वभावके धारी अपने ही परमात्माको जान करके सर्व परद्रव्य सम्बन्धी ममकार अहंकारसे रहित होकर निर्ममता लक्षण परम साम्यभाव नामके वीतराग चारित्रमें अथवा उस चारित्रमे परिणमन करनेवाले अपने शुद्ध आत्मस्वभावमें ठहरा हुआ सर्व चेतन अचेतन व मिश्ररूप परद्रव्य सम्बन्धी ममताको सब तरहसे छोड़ता हूं । भाव यह है कि मै केवलज्ञान तथा केवलदर्शन स्वभावरूपसे ज्ञायक एक टकोकीर्ण स्वभाव हूं ऐसा होता हुआ मेरा परद्रव्योके साथ अपने स्वामीपने आदिका कोई सम्बन्ध नहीं है। मात्र ज्ञेय ज्ञायक संबंध है, सो भी व्यवहार नयसे है । निश्चयसे यह ज्ञेय ज्ञायक सबंध भी नहीं है । इस कारणसे मैं सर्व परद्रव्योके ममत्त्वसे रहित होकर Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३७६] श्रीप्रवचनसारटोका। परम समता लक्षण अपने शुद्धात्मामें ठहरता हूं। श्रीकुंदकुंद महाराजने "उवसंपयामि सम्म" मैं समताभावको आश्रय करता हूं इत्यादि अपनी की हुई प्रतिज्ञाका निर्वाह करते हुए स्वयं ही मोक्षमार्गकी परिणतिको स्वीकार किया है ऐसा जो गाथाकी पातनिकाके प्रारम्भमें कहा गया है उससे यह भाव प्रगट होता है कि जिन महामाओंने उस प्रतिज्ञाको लेकर सिडि पाई है उनहींके द्वारा वास्तचमें वह प्रतिज्ञा पूरी की गई है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य देवने तो मात्र ज्ञान दर्शन ऐसे दो अधिकारोंको ग्रंथमें समाप्त करते हुए उस प्रतिज्ञाको पूरा किया है। शिवकुमार महाराजने तो मात्र ग्रंथके श्रवणसे ही साम्यभावका आलम्बन किया है। क्योंकि वास्तवमें जो मोक्ष प्राप्त हुए हैं उन हीकी वह प्रतिज्ञा पूर्ण हुई हैन श्री कुन्दकुन्दाचार्य महासनकी और न शिवकुमार रानाकी क्योंकि दोनोंके चरमदेहका अभाव है। भावार्थ-श्री कुंदकुन्दाचार्य महाराज इस गाथामें अपने मोक्षमार्गके गाढ़प्रेमको प्रगट करते हुए कहते हैं कि जिस तरह पूर्व महापुरुषोंने अपने वीतराग स्वभावसे ज्ञातादृष्टा आनन्दमई अपने ही आत्माको जानकर अनुभव किया था उस ही तरह मैं भी निज आत्माके शुद्ध स्वभावको जानकर ममकार अहंकार रहित वीतराग चारित्ररूप समतामावमें ठहरकर अपने शुद्ध आत्माके सिवाय सर्व चेतन अचेतन व मिश्र पदार्थोंमें ममताको त्यागता हूं। और आत्मस्थ होता हुआ साम्यरसका पान करता हूं। पहले महाराजने जो प्रतिज्ञा की थी उसीको यहांतक व्याख्यान करते हुए निर्वाहा है। इस ग्रन्थके वक्ता श्री कुंदकुंदाचार्य हैं तथा Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड"। [३७ मुख्य श्रोता'श्री शिवकुमार महाराज हैं दोनों पंचम कालमें हुए इस लिये इसी भवसे मोक्षगामी नहीं हैं। इसलिये इनके साम्यभाव ग्रह्णकी प्रतिज्ञा आयु क्षयके पीछे नहीं रह सकती है, क्योंकि ये शरीर छोड़कर स्वर्गादि गतियोंमें गए होंगे। प्रतिज्ञाकी पूर्णता उनहीकी होती है जिन्होंने रत्नत्रय साधनकर तद्भव मोक्ष प्राप्त की है। वे अनंतकाल तक साम्यभावमें लीन रहेंगे। यहां इस प्रवचनसारके दो अधिकार कहकर श्री कुन्दकुन्दाचार्यजीने अपने कथनकी प्रतिज्ञाको अच्छी तरह निर्वाहा है। यह भाव है। वास्तवमें निर्ममत्त्वभाव ही परमानद दायक है जैसा श्री कुलभद्र आचार्यने सारसमुच्चयमें कहा है: निर्ममत्त्व पर तत्व निर्ममत्वं पर सुखम् । निर्भमत्त्व पर बीज मोक्षस्य कथित बुधैः ॥ २३४ ॥ निर्ममरवे सदा सौख्य ससार स्थनिच्छेदनम् ।। जायते परमोत्कृष्टमात्मनः सस्थिते सति ॥ २३५ ॥ समता सर्वभूतेषु यः करोति सुम नसः । ममत्वभावनिर्मुक्तो यात्यसो पदमव्ययम् ॥ २१३ ॥ भावार्थ-ममतासे दूर रहना परम तत्त्व है । ममता रहितपना परम सुख है, निर्ममताहीको बुद्धिमानोने मोक्षका उत्तम बीज कहा है । निर्ममता होते हुए निन आत्मामें जो स्थिर होता है उसको संसारकी स्थितिका छेदक परम उत्कृष्ट सुख प्राप्त होता है। जो भव्य मन सम्यक्ती जीव सर्व प्राणियोमें समता करके ममता भावसे छूट नाता ही अविनाशीपदको प्राप्त करता है। . Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ ] श्रीप्रवचनसारटोका | इस तरह ज्ञानदर्शन अधिकार की समाप्ति करते हुए चौथे स्थलमें दो गाथाएं पूर्ण हुई | उत्थानिका- इस तरह निज शुद्धात्माकी भावनारूप मोक्ष - मार्गके द्वारा जिन्होंने सिद्धि पाई है और जो उस मोक्षमार्गके आराधनेवाले हैं उन सबको इस दर्शन अधिकारकी समाप्ति में मंगलके लिये अथवा ग्रन्थकी अपेक्षा मध्यमें मंगलके लिये उस ही पदकी इच्छा करते हुए आचार्य नमस्कार करते हैं दंसणसंसुद्धाणं सम्मण्णाणोवजोगजुत्ताणं । अव्वावाधराणं णमो णमो सिद्धाणं ॥ ११३ ॥ सम्यग्दर्शनसंशुद्धेभ्यः सम्यग्ज्ञानोपयोगयुक्तेभ्यः । अव्याबाधरवेभ्यो नमो नमो सिद्धसाधुभ्यः ॥ ११३ ॥ अन्वय सहित सामान्यार्थः- (दसणसंसुद्धाणं) सम्यग्दर्शनसे शुद्ध ( सम्मण्णाणोवजोगजुत्ताण ) व सम्यज्ञानमई उपयोगसे युक्त तथा ( अव्वाबाधरदाणं ) अव्यात्राध सुखमें लीन ( सिद्धसाहूणं ) सिद्धोंको और साधुओंको (णमो णमो ) वारवार नमस्कार हो । विशेषार्थ - जो तीन मूढता आदि पच्चीस दोषोंसे रहित शुद्ध सम्यग्दृष्टी हैं, व संशयादि दोषोंसे रहित सम्यग्ज्ञानभई उपयोग धारी हैं अथवा सम्यग्ज्ञान और निर्विकल्प समाधिमे वर्तनेवाले वीतराग चारित्र सहित हैं तथा सम्यग्ज्ञान आदिकी भावनासे उत्पन्न अव्या बाघ तथा अनन्त सुखमें लीन हैं ऐसे जो सिद्ध हैं अर्थात् अपने आत्माकी प्राप्ति करनेवाले अईत और सिद्ध हैं तथा जो साधु हैं अर्थात् मोक्षके साधक आचार्य, उपाध्याय तथा साधु हैं उन सबको Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय,खंड। मेरा वार वार नमस्कार हो ऐसा कहकर श्री कुन्दकुन्द महाराजने अपनी उत्कृष्ट भक्ति दिखाई है। भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने परम मंगलस्वरूप पाचो परमेष्ठियोंको नमस्कार किया है। दो दफे नमो शब्द कहकर वार वार नमस्कार करके अपनी गाढ़भक्ति उनके शुद्ध गुणोमें दिखलाई हैं । अरहंत' और सिद्ध तो रत्नत्रयकी आराधनासे उसके पूर्ण फलको पाचुके हैं-अनन्तज्ञान दर्शन सुख वीर्यमई हैं । आचार्य, उपाध्याय, साधु अभी रत्नत्रयकी आराधना कर रहे हैं परन्तु अवश्य अरहंत और सिद्ध होंगे इस लिये भावी नैगमनयकी अपेक्षा उनके भी वे ही विशेषण दिये हैं जो अरहत व सिद्धोंके दिये हैं। वे शीघ्र ही केवलज्ञानी व अनन्त सुखी होगे । इस दूसरे अध्यायकी पूर्णतामें मंगलाचरण करके आचार्यने यह बतलाया है कि हम सबको हरएक कार्यके प्रारम्भमे व अन्तमें इन पंचपरमेष्ठियोंका गुण स्मरण रूप मगलाचरण करना चाहिये जिससे हमारे भाव निर्मल हों और हम पापकर्मोको क्षयकर सकें, जो पाप कर्म हमारे कार्यमें बाधक है । पाप क्षयसे हमारा कार्य निर्विघ्न समाप्त होनायगा । अन्तमे मंगलाचरण करनेसे उनका उपकार स्मरण है व भविष्यके लिये पापोसे बचनेकी भावना है ॥११॥ इस तरह नमस्कार गाथा सहित चार स्थलोमें चौथा विशेष अन्तर अधिकार समाप्त हुआ। इस तरह "अस्थित्त णिछिदस्स हि" इत्यादि ग्यारह गाथा तक शुभ, अशुभ, शुद्ध उपयोग इन तीन उपयोगकी मुख्यतासे पहला विशेष अंतर अधिकार है फिर 'अपदेसो परमाणू पदेसमत्तोय' इत्यादि नौ गाथाओ तक पुद्गलोंके पर• Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '३८०] श्रीप्रवचनसारटोका । स्पर बंधकी मुख्यतासे दूसरी विशेष अन्तर अधिकार है। फिर "अरसमरूव" इत्यादि उन्नीस गाथा 'तक जीवका पुद्गल कोके'साथ बंध कथनकी मुख्यतासे 'तीसरा विशेष अंतर अधिकार है फिर " ण चयदि जो दु ममत्ति" इत्यादि बारह गाथाओं तक विशेष भेदभावनाकी चूलिकारूप व्याख्यान है ऐसा चौंथा चारित्र विशेषका अंतर अधिकार है इस तरह इक्यावन गाथाओसे चार विशेष अंतर 'अधिकारोंसे विशेष भेदभावना नामक चौथा अंतर अधिकार पूर्ण हुआ। ___ इस तरह श्री जयसेनाचार्य कंत तात्पर्यवृत्तिमें " तम्हा 'देसण माई ” इत्यादि पैंतीस गाथाओं तक सामान्य ज्ञेयका व्याख्यान है फिर "दव्व जीव” इत्यादि उन्नीस गाथाओं तक जीव पुद्गलधर्मोदि भेदंसे विशेष ज्ञेयंका व्याख्यान है फिर "सपदेसेहि समग्गो" इत्यादि आठ गाथाओं तक सामान्य भेदभावना है पश्चात् " अत्थित्तणिच्छिदस्सहि " इत्यादि इक्यावन गाथाओं तक विशेष भेदभावना है इस तरह चार अंतर अधिकारोंमें एकसौ तेरह गोथाओंसे सम्यग्दशन नामका अधिकार अथवा ज्ञेयोधिकार नामका दूसरी महाधिकार समाप्त हुआ ॥ FOR Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [३८१ इस ज्ञेयाधिकारका कुछ सार । पहले अधिकारमे आचार्यने ज्ञान और सुखकी महिमा वताई. थी, कि स्वाभाविक शुद्ध ज्ञान, और शुद्ध सुख आत्माकी ही सपत्ति, है-ये,ही उपादेय है। इस दूसरे अधिकारमे उस स्वभावकी प्राप्तिके. • लिये, जिनर तत्वोका शृद्धान करना जरूरी है उनका स्वरूप कहा है क्योकि, विना वस्तुके स्वरूपको जाने त्यागने योग्यका त्याग और ग्रहण करने योग्यका ग्रहण नही हो सक्ता है । इस ज्ञेय अधिकारमे, पहले ही द्रव्यका सामान्य, स्वरूप है कि द्रव्य सत् स्वरूप है, सत्तासे अभिन्न है इससे अनादि अनंत है-न कभी पैदा हुआ व न कभी नष्ट होगा। इस कथनसे इस जगतकी द्रव्य अपेक्षा नित्यता व अकृत्रिमता दिखाई है । फिर बताया है कि वह सत् रूप द्रव्य कूटस्थ नित्य नहीं है उसमे गुण और पर्यायें होते है। गुण सदा बने रहते है इससे ध्रौव्य है । गुणोमें जो अवस्थाए पलटती हैं वे अनित्य है अर्थात् उत्पाद व्ययरूप हैं । जिस समय कोई अवस्था पैदा होती है उसी समय पिछली अवस्थाका व्यय या नाश होता है- मूल द्रव्य बना रहता है । इससे द्रव्य उत्पाद व्यय प्रौव्य स्वरूप भी है। फिर यह बताया है कि द्रव्य और गुणोंका तथा पर्यायोंका प्रदेशोकी अपेक्षा एकपना है। नितना बड़ा द्रव्य है उसीमे ही गुणपयाये होती हैं-उनकी सत्ता द्रव्यसे जुदी नहीं मिल सक्ती है तथापि सज्ञा सख्या लक्षण प्रयोजनकी अपेक्षा द्रव्य गुणीमे और उसके गुण पर्यायोमे परस्पर भेद है। इस लिये द्रव्य भेदाभेद स्वरूप है । फिर जीवका दृष्टात देकर स्पष्ट किया Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२] श्रीप्रवचनसारटोका। है कि एक जीव मनुष्य पर्यायसे देव पर्यायमें गया वहां यद्यपि पर्याय बदली है परंतु जीव द्रव्यने अपना जीवत्व नहीं छोडा इस तरह द्रव्यकी अपेक्षा जीवका देव होना सत् उत्पाद है। तथा यदि पर्यायकी अपेक्षा देखें तो जो मनुष्य था वह दूसरे ही स्वभावको लिये हुए था अब जो देव हुआ हुआ वह दूसरे ही खभावको लिये हुए है इस तरह भिन्नताकी अपेक्षा मनुष्यसे देव होना असत् उत्पाद है । इस तरह बताया है कि द्रव्य किसी अपेक्षा एकरूप व किसी अपेक्षा अन्यरूप है-एक ही समयमें दो स्वभाव द्रव्यमें पाए जाते हैं जैसे अस्तिनास्तिस्वभाव । द्रव्य अपने द्रव्यादि चतुष्टयसे अस्ति खरूप है परंतु उसकी सत्ता में परद्रव्यादि चतुष्टय नहीं है इस लिये परकी अपेक्षा नास्ति स्वरूप है। इस अस्ति नास्तिको समझानेके लिये सप्तभंग वाणीका स्वरूप बताया है कि द्रव्य किसी अपेक्षा अर्थात् खव्यादिकी अपेक्षा अस्ति रूप है, परद्रव्यादिकी अपेक्षा नास्तिरूप है, एक समयमें वचनसे न कहे जानेकी अपेक्षा अवक्तव्य स्वरूप है। दोनों स्वभावोंको क्रमसे कहें तो अस्तिनास्ति खरूप है । कथंचित् अवक्तव्य और वक्तव्यकी अपेक्षा कहें तो द्रव्य अस्ति अवक्तव्य स्वरूप है नास्ति अवक्तव्य खरूप है तथा अस्तिनास्ति अवक्तव्य खरूप है । इस तरह नित्य, अनित्य, तथा भेद अभेद कोई भी दो विरोधी स्वभावोंको एक समयमें समझानेके लिये सात मंगसे समझा या समझाया नासक्ता है। फिर कहा है कि कर्मोके वन्धके कारण यह जीव संसारमें विभावोंसे परिणमन करके नर नारकादि गतियोंमें भ्रमण किया Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'द्वितीय खंड। [३३ करता है। जीव परिणामी है इससे उसके परिणाम होते हैं । जीव भावोंका कर्ता है, भावोंका निमित्त पाकर जो द्रव्य कर्म बंध जाते हैंउनका कर्ता नहीं है । इस तरह आत्मा अपने ही शुद्ध व अशुद्ध भावोका कर्ता है ऐसा कहकर उसकी चेतनाके तीन भेद बताए हैं ज्ञानचेतना, कर्मचेतना तथा कर्मफलचेतना । जहां अपने शुद्ध ज्ञानका ही अनुभव किया जावे वह ज्ञानचेतना है जो मुख्यतासे केवलज्ञानीके होती है। जहां अशुभ, शुभ व शुद्ध उपयोगमें वर्तनरूप कर्मका अनुभव हो वह कर्मचेतना है, यह यथायोग्य छद्मस्थोंके होती है । जहां कर्मके फल सुख तथा दुःखका अनुभव किया जावे यह कर्मफलचेतना है, यह बुद्धिपूर्वक अनुभवकी अपेक्षा सर्व संसारी जीवोंके प्रमत्त गुणस्थानतक है। फिर कहा है कि जब यह आत्मा अपने शुद्ध स्वभावमें परिणमन करता है तब यह आत्मा आप ही कर्ता, कर्म, करण तथा फलरूप होता है । इस तरह द्रव्यका सामान्य स्वरूप । कहकर फिर छः द्रव्योंका विस्तारसे वर्णन है। उनमें जीव पुद्गल संसारमें हलनचलन क्रिया करते है शेष चार द्रव्य अक्रिय हैं। जीवादि अमूर्तीक हैं उनके गुण भी अमूर्तीक हैं । पुद्गल मूर्तीक है इससे उसके गुण भी मूर्तीक है। पुद्गलमें स्पर्श, रस, गंध, वर्ण है इससे मूर्तीक है । पुद्गलोके सूक्ष्म तथा स्थूल अनेक परिणमन हैंशब्द आदि पुद्गलकी ही पर्याय है। कर्मवर्गणा भी सूक्ष्म पुद्गल है। फिर धर्मद्रव्यका जीव पुद्गलोंको गमनमे उपकार, अधर्मका उनकी स्थितिमें उपकार आकाशका सर्वको अवगाह देना उपकार, कालमा सर्वको पलटाना ऐसा उपकार बताया है । फिर काल एक प्रदेशी अभिलाषी होनेसे अप्रदेशी है, शेष पांच द्रव्य बहु प्रदेशी Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ ] श्रीप्रवचनसारटीका । गुण पर्यायको होनेसे कायवान हैं ऐसा बताया है। फिर कालद्रव्य अच्छी तरह स्पष्ट किया है तथा सिद्ध किया है कि एक समय कालाणु द्रव्यकी पर्याय है । यदि कालाणु न होता तो समयरूप: व्यवहार, काल नहीं होता था । फिर तिर्यक् प्रचयं तथा ऊर्ध्व प्रचयक्का स्वरूप बताया है कि जो द्रव्य बहु प्रदेशी, हैं उनके विस्ताररूप प्रदेशोंके समूहको तिर्यक् प्रलय कहते हैं । सब द्रव्यों में समय समय : . जो पर्यायें होती हैं. उन पर्यायो समूहको ऊर्ध्व प्रचय कहते हैं। फिरु यह बताया है कि जिसके एक भी प्रदेश न होगा वह द्रव्य नहीं हो-सक्ता वह शून्य होगा | आकार बिना किसी भी वस्तुकी सत्ता नही रह सक्ती है। इस तरह छः द्रव्योंका स्वरूप दिखाते हुए विशेष ज्ञेयोंका: कथन किया- आगे दिखलाया है कि संसारी जीव किसी भी शरीर में आयु श्वासोश्वास इंद्रिय तथा बल ऐसे चार व्यवहार प्राणोंके :निमित्तसे जीते रहते हैं । इन प्राणोके द्वारा मोहः रागद्वेषसे वर्तन. करते हुए कर्मों के फलको भोगते हैं फिर नवीन द्रव्यकमको धांव लेते हैं । फिर यह बताया है कि जबतक यह संसारी आत्मा शरीरादिसे ममता नही छोड़ता है तबतक प्राणोंका वारवार ग्रहण करना मिटता नही अर्थात् यह जीव एक भवसे दूसरे भवमें भ्रमण किया करता है | परन्तु जो इंद्रियविजयी होकर इन कर्मोंके शुभ अशुभ फलमें रंजायमान न हो और अपने आत्माको ध्यावे तो द्रव्य प्राणोका संबंध अवश्य छूट जावे । इस तरह सामान्य भेदज्ञानको कहकर विशेष भेदज्ञानको कहा है कि नरनारकादि अवस्थाएं नाम -. कर्मके उदयसे होती हैं- जीवका स्वभाव नहीं हैं । जो इस तरह ' वस्तुकें स्वभावकों समझता है वह अन्य अशुद्ध अवस्थाओं में व - } " Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड | [ ३८५ परद्रव्योंमें मोह नहीं करता है । फिर आत्माके उपयोगकी तीन अवस्थाओंको बताया है कि यदि इसका उपयोग अरहंतादिकी भक्ति में व दया दान भादिमें लीन होता है तो इसके शुभोपयोग होता है जिससे यह जीव मुख्यतासे पुण्यकमौसे बन्ध जाता है ।" जब इसका उपयोग इंद्रिय विषयोंमें-क्रोधादि कषायों में उलझा होता है तथा दुष्ट चित्त, दुष्ट वचन, दुष्ट कायचेष्टा, हिंसा आदि पापोंमें फंसा होता है तब उसके अशुभोपयोग होता है जिससे यह जीव पापकर्माको बांधता है और जब इसके ये दोनों ही उपयोग नहीं होते तत्र यह सर्व परद्रव्योंमे मध्यस्थ होकर अपने शुद्धात्माको ध्याता हुआ यह विचारता है कि मैं शरीर वचन मनसे भिन्न हूं-न मै निश्वयसे उनका कर्ता हूं, न करानेवाला हूं, न अनुमोदक हूं वे पुद्गलसे बने हुए हैं, मैं पुद्गलसे भिन्न हूं तब इसके निर्विकल्प समाधि होती है उस समय यह जीव शुद्धोपयोगी होता है। यही शुद्धोपयोग बंघसे छुड़ानेवाला है । यहां प्रकरण पाकर यह कहा है कि पुद्गल के परमाणुओंका दो गुणांश अधिक स्निग्धता या रूक्षता के होने पर परस्पर बध होजाता है। इसी बंधके कारण से औदारिक, कार्माण आदि शरीरोके स्कंध बनते हैं । यह लोक सूक्ष्म कार्माण वर्गणाओसे सर्व तरफ भरा हुआ है । वे स्वयं जीवके अशुद्ध उपयोगका निमित्त पाकर ज्ञानावरणादि कर्म रूप हो जाते है । उन्हीं कर्मोंके उदयसे चार गतियों में शरीर व इंद्रियें आदि बनती । इस कारण यह आत्मा किसी भी तरह स्वभावसे शरीर व द्रव्य कमका कर्ता नहीं है - वे भिन्न हैं, आत्मा भिन्न है । आत्मा अमूर्तीक है, चैतन्य गुणमई है, इंद्रियोंके द्वारा ग्रहण योग्य नहीं है, किन्तु स्वानुभवगम्य है । २५ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीप्रवचनसारटोका । फिर यह बताया है कि आत्माके साथ जो कर्मोका बन्ध, ኣ I होता है सो असम्भव नहीं है । जैसे आत्मा रागद्वेषपूर्वक मूर्तीक द्रव्योंको जानकर ग्रहण करता है वैसे रागद्वेषसे वन्ध भी होजाता है | जैसे मादक पदार्थ नेड़ होनेपर भी आत्माके ज्ञानमे विकार कर देता है वैसे मूर्तीक कर्म भी अशुद्ध आत्मामें विकार कर देते हैं । वास्तवमें बंधके तीन भेद हैं। जीवके रागादि निमित्तसे पूर्ववद्ध पुलों के साथ नए कर्मपुद्गलोका स्निग्ध रुक्ष गुणके द्वारा बंध होता है इसको पुलबंध कहते हैं । जीवका रागादिरूप परिणमन सो जीवबंध है । तथा आत्मा के प्रदेशोमे अनन्तानन्त कर्म पुद्गलोंका परस्पर अवगाहरूप रहना सो जीव पुदुलबन्ध या उभयवन्ध है । यदि यह जीव रागी, द्वेपी, मोही न हो तो कोई भी बन्ध न हो । रागी को बांधता है व वीतरागी कर्मोंसे छूटता है। इस arrat वैराग्यभाव लानेके लिये शुद्ध निश्चयनयके द्वारा विचारना चाहिये कि पृथ्वी आदि छःकायके जीवों की पर्यायें . आत्माके स्वभावसे भिन्न हैं अर्थात् मै निश्वयसे पृथ्वी आदि " स्थावर काय तथा त्रकायसे भिन्न शुद्ध चैतन्यमय हूं। जो अज्ञानी आत्माके शुद्ध खभावको नहीं पहचानते हैं वे अहंकार व ममकार करते हुए अपने रागद्वेष मोह भावके कर्ता हो नाते हैं - आत्मा कभी भी पुद्गल कर्मोका कर्ता नही होता है । जब यह अपने अशुद्ध भाव करता है तब कर्मकी धूल स्वयं चिपट जाती है और नव यह शुद्धभाव करता है तब कर्मकी धूल आप ही छूट जाती है । जो मुनि होकर भी शरीरादिमें ममता न छोड़े वह कभी भी समताभावरूप भावमुनिपनेको नहीं पासक्ता है,, • ३८६ ] 7 Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितोय खंड। [३८५ परन्तु जो ऐसा अनुभव करता है कि न मैं पर रूप हू, न पर मुझ रूप है, न मैं परका हू, न पर मेरा है-मैं तो एक ज्ञायक स्वभाव हूं वही आत्मध्यानी होता है और वही अपने आत्माको अतींद्रिय, निरालम्ब, अविनाशी, वीतरागी, ज्ञानदर्शनमय अनुभव करता है। वह अपने एक शुद्ध आत्माको ध्रुव मानके सर्व सासारिक सुख दुःख, रुपया पैसा, भाई, पुत्र, मित्र, स्त्री, शरीरादिको अपनेसे भिन्न अनित्य जानता है । इस तरह शुद्ध आत्माका भेदज्ञानपूर्वक अनुभव करते हुए श्रावक या मुनि दर्शनमोहका क्षयकरके क्षायिक सम्यग्दृष्टि होजाता है । फिर यदि श्रावक है तो श्रावकके व्रतोंसे स्वानुभवकरके चारित्रमोहका बल घटाता है व फिर मुनि होकर समताभावमे लीन हो जाता है । मुनि महाराज पहले धर्मध्यानसे फिर क्षपकश्श्रेणी चढ़ शुक्लध्यानसे परम वीतरागी होते हुए चारित्रमोहका क्षय कर देते हैं पश्चात् तीन घातिया कर्मोका भी नाशकर अनन्त दर्शन, ज्ञान, वीर्य तथा अनन्त सुखको पाकर अरहत परमात्मा होनाते है । अरहंत भगवानको अब ध्यानका फल परमात्मपद प्राप्त होगया । उनको अब चित्त निरोध करके किसी ध्यान करनेकी जरूरत नहीं रहती है-वे निरन्तर आत्माके शुद्ध खभावके भोगमे मगन रहते हुए अतींद्रिय आनन्दका ही खाद लिया करते हैं उनके शेष कर्मोकी निर्जरा होती है इससे उनके उपचारसे ध्यान कहा है। ____ अन्तमें आचार्यने बताया है कि जो रागद्वेष छोड़कर व वीतरागमई 'मुनिपदमें ठहरकर निश्चय रत्नत्रयमई निन शुद्ध आत्माके ध्यान करनेवाले हैं वे मुनि सामान्यकेवली या तीर्थङ्कर Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८] श्रोप्रवचनसारटोका। होकर सिद्ध परमात्मा होनाते हैं तब वे 'अनन्तकालके लिये परमसुखी होनाते हैं। उन सर्व भूत भविष्य व वर्तमान सिद्धोंको मैं उनकी भक्ति करके इसलिये नमस्कार करता हूं कि मैं उनके पदपर पहुंच नाऊं तथा मैं उस मोक्षमार्गको भी वारवार भाव और द्रव्य नमस्कार करता हूं निससे भव्य नीव सिद्धपद पाते हैं। इस ज्ञेय अधिकारका तात्पर्य यह है कि हरएक भव्य जीवको उचित है कि वह अपने आत्माको व जगतके भीतर विद्यमान छ: द्रव्योंके स्वभावोंको समझे फिर यह जाने कि मेरा आत्मा क्यों संसारमें भ्रमण करता है । भ्रमणका कारण कर्मका बंध है । कर्मका बंध अपने अशुद्ध रागद्वेष मोह भावोंसे होता है तथा कर्मोसे मुक्ति वीतराग भावसे होती है और वह वीतराग भाव भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्म रूप सर्व क्मोसे भिन्न शुद्ध आत्माके अनुभवसे पदा होता है, ऐसा जानकर भेदविज्ञानका अभ्यास करे कि मैं भिन्न हूं और ये रागादि सब भिन्न हैं । इम भेद विज्ञानके अभ्याससे ही परिणामोंमें विशुद्धता बढ़ जायगी और धीरे २ सर्व मोहका क्षयं होकर यह आत्मा शुद्ध हो जायगा । भेदविज्ञानसे ही खात्मानुभव या स्वात्मध्यान होता है । आत्मध्यान ही कर्मोको जलाकर आत्माको शुद्ध परमात्मा कर देता है । सिद्धिका उपाय एक भेद विज्ञान है जैसा समयसारकलशमें आचार्य अमृतचन्द्र महारानने कहा है: भावयेभेदविज्ञानमिदमच्छिन्नधारया । तावद्यावत्पराच्छ्रुत्वा शानं शाने प्रतिष्ठते ॥ ५ ॥ ६ ॥ भेदविज्ञानंतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन । ' तस्यैवाभावठो बद्धा बद्धा ये किल केचन ॥ ७ ॥ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड भेदशानोच्छन कलनाच्छुद्धतत्वोपलम्भाद्रागग्रामप्रलयकरणात्कर्मणा सवरेण । विभ्रतोषं परमममला लोकमग्नानमेक, [ ३८६ ARA ज्ञान ज्ञाने नियतमुदितं शाश्वतोद्योतमेतत् ॥ ८ ॥ भावार्थ - धारावादी लगातार भेदविज्ञान की भावना करते रहना चाहिये, उस वक्त तक जबतक कि ज्ञान ज्ञानमें न प्रतिष्ठित हो जावे अर्थात जबतक केवलज्ञान न हो, बराबर भेदविज्ञानकी भावना करता रहे । आजतक जितने जीव सिद्ध हुए हैं सो सब भेदविज्ञान के प्रतापसे सिद्ध हुए है और जिनको भेद विज्ञानका लाभ नहीं हुआ है वे सब बधे पड़े हैं । भेदज्ञानके बारवार दृढ़तासे अभ्यास करनेसे शुद्ध आत्मतत्वका लाभ या ध्यान होता हैशुद्धात्मध्यानसे रागद्वेषका ग्राम नष्ट होजाता है। तब नए कर्मोंका संबर हो जाता है तथा पूर्वकर्मकी निर्जरा होकर परम संतोषको रखता हुआ निर्मल प्रकाशमान शुद्ध एक उत्कृष्ट केवलज्ञान निरंतर अविनाशीरूपसे स्वाभाविक ज्ञानमें उद्योतमान रहता है । इस लिये हरएक भव्यभवको अपना नरजन्म दुर्लभ जान इसको सफल करनेके लिये स्याद्वादनयके द्वारा अनंत स्वभाववाले जीवादि पदाथका स्वरूप जिनवाणीके हार्दिक अभ्यास व मननसे जान लेना चाहिये व जानकर उनपर अटल विश्वास रखकर उनका मनन करनेके लिये निरन्तर देवभक्ति, सामायिक, स्वाध्याय, गुरुजन संगति, संयम व दानका अभ्यास करना चाहिये । इसीके प्रतापसे जब निश्चय सम्यग्दर्शन प्राप्त होजाता है तब आत्माका भीतर झलकाव होता है और अतीन्द्रिय आनन्दका स्वाद आता है। 1 Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० ] श्रीप्रवचनसारटीका । इस आनन्दकी वृद्धिके लिये वह सम्यग्दृष्टी निराकुल होनेके लिये श्रावकके चारित्रको पालता हुआ स्वानुभवके अम्यासको बढ़ाता रहता है | जब उस आत्मानंदके सम्यक् भोगमे परिग्रहका सम्बन्ध बाधक प्रतीत होता है तब सर्व वस्त्रादि परिग्रहको छोड़ अट्ठाईस मूल गुणको धारकर माधु होजाता है । साधुपदमें शरीर मात्रको आहारपानका भाड़ा दे उसके द्वारा अनेक कठिन २ तप करके ध्यानकी शक्तिको बढ़ाता जाता है । आत्मध्यानके, प्रतापसे ही यदि तदभव मोक्ष होना होता है तो उसी भवसे मुक्त होजाता है, नही तो स्वर्गादिमे जाकर परम्पराय मुक्तिका लाभ करता है । यद्यपि इस पञ्चमकालमे यहां भरतक्षेत्रमे मुक्ति नहीं है तथापि हम धर्म प्रतापसे विदेह क्षेत्रमे मनुष्य होकर शीघ्र ही मुक्त हो सक्ते हैं । अब भी इस भरतक्षेत्रमे सातवां गुणस्थान है, मुनि योग्य धर्मध्यान है । इसलिये प्रमाद छोड़ संयमंकी रस्सी पाकर आत्मध्यानके बलसे मोक्षके अविनाशी महल में पहुंचनेका पुरुषार्थ करते. रहना चाहिये | श्री समयसारकलशमें कहा है:1 स्याद्वादकौशलसुनिलसयमाभ्याम् । यो भावयत्यहरहः स्वमिहोपयुक्तः ॥ ज्ञान क्रिया नयपरस्परतीत्रमंत्री पात्रीकृतः श्रयति भूमिमिमा स एकः ||२१|| ११|| भावार्थ - जो स्याद्वादके ज्ञानमें कुशल होकर सयम पालनेमें निश्चल होता हुआ निरन्तर उपयोग लगाकर अपने आत्माको ध्याता है वही एक ज्ञान और चारित्रकी परस्पर मित्रताका पात्र होता हुआ इस मोक्षमार्गकी भूमिका आश्रय करता है । Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। इसलिये इस ग्रन्थके पाठकोको उचित है कि तत्त्वज्ञान प्राप्तकर श्रद्धासहित चारित्र पालते हुए निज आत्माका अनुभव करें इसीसे ही वर्तमानमें भी सुख शाति मिलेगी और भविष्य जीवन भी सुखदाई होगा। इस प्रकार श्री कुंदकुदाचार्य कृत प्राकृत ग्रन्थकी श्री जयसेनाचार्य कृत सस्कृत टीकाके अनुसार इस प्रवचनसार महा प्रथके दूसरे अध्यायकी भापाटीका ज्ञेयतत्वमदीपिका नाम पूर्ण हुई । मिती कार्तिक वदी ८ वि० स० १९८० गुरुवार ता० १-११-१९२३ । Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२] भीप्रवचनसारटोका। भाषाकारका कुछ परिचय । इन्द्रप्रस्थके निकट है, गुड़गांवा शुभ देश । फर्रुखनगर सुहावना, धर्मी बसत हमेश ॥ १ ॥ अग्रवाल क्षत्री सुकुल, वैश्य कर्मवश नान । गोयल गोत्र महानमें, रायमल गुणखान ॥ २ ॥ अवध देश लक्ष्मणपुरी, धन कण कंचन पुर । चाणिज हित आए जहां, रायमल्ल चल दूर ॥ ३ ॥ चसे तहां उन्नति करी, धन गृह कीर्ति अपार । । तिन सुत मंगलसेनजी, विद्यागुणभंडार ॥ ४ ॥ जैनतत्त्वमर्मी बड़े, अध्यातम रस सार । 'पीवत लख अध्यात्ममय, समयसार सुखकार ॥ ५ ॥ तिनसुत मक्खनलालनी, गृहकारनमें लीन । भार्या परम पतिव्रता, गृहरक्षण परबीन ॥ ६ ॥ चार पुत्र तिनके भए, संतलाल वर जान । वर्तमान व्यापाररत, सुत दारा युत मान ॥ ७ ॥ तृतीय पुत्र लेखक यही, संज्ञा सीतल धार । मात नारायण देविको, अतिप्रिय सेवक सार ॥ ८ ॥ 'विक्रम उन्निस पैतिसा, जन्म सु कार्तिक मास । । मात पिताकी कृपासे, धर्मप्रेम कुछ भास ॥९॥ किंचित् विद्या पायके, मानो जिनमत सार । रुचि बाढ़ी अध्यात्मकी, सुख शांति भंडार ॥ १० ॥ वत्तिस वय अनुमानमें, गृह तजि श्रावक होय । Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड 1 ११ ॥ धर्म का चित दियो, आतम गुण अवलोय ॥ विक्रम अस्सी उनविसा, वरषाकाल विचार । कहां धर्मसाधन बढ़े, यह विचार उर धार ॥ १२ ॥ इन्द्रप्रस्थके निकट ही, पानीपथ सुखदाय ॥ जलपथ भी याको कहें, पांडुपुराण बताय ॥ १३ ॥ पांडुतनय राजा नकुल, राम करे इस धाम । जैन धर्म परभावना, करत अर्थ वृष काम ॥ १४ ॥ प्रजा मगन आनन्दमें, व्याधि शोक नहिं होय । श्री नेमिनाथके तीर्थमें, निर्वाधा सब लोय ॥ ११ ॥ पानीपथ बहु कालसे, रह्यो नम [ ३६५ आबाद । बेमरजाद ॥ १६ ॥ अधिकार । सुयशकरतार ॥ १७ ॥ जैन नृपति हिन्दू धनी, हुए कालचक्र के फेरसे, मुसलमान वीर युद्ध या क्षेत्रमें हुए पन्द्रासै छन्वीस सन्, सुलतां हबाहीम | वावरशाह से युद्ध कर, मरो यहां अति भीम ॥ १८ ॥ सन् पन्द्रासै छप्पना, हीमू हिन्दू वीर । जलपथ धीर ॥ १९ ॥ लडो मदधार । संज्ञा विक्रमजीत घर, घेरो अकबर सेना भिड गई, खूब अन्त सबल भागत भयो, अकबर पुन अधिकार ॥ २० ॥ सन सत्रासे इकसठा, मरहटा दल आय । पानीपथमें अड़ गया, बहुविध सैन्य जमाय ॥ २१ ॥ शाह अहमदादुर्रनी, लड़ो बहुत मरहटा भागे तभी छोड़ खेत रिसवाय । अकुलाय ॥ २२ ॥ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४] श्रीप्रवचनसारटोका। माहदजी सिधिया, था बलवान अपार । मरहटा दल लेवकर, फिर आयो इकवार ॥ २३ ॥ कर अधिकार वासा लियो, दिहली नृप वश कीन । बहुतकाल इस देशमें, राखी शक्ति प्रवीन ॥ २४ ॥ अठारहसै तीनमे, वृटिश कियो अधिकार । जैनी जन ह्यां बहु रहें, धन कण कंचनधार ॥ २५ ॥ वाईस जिन मंदिर भले, पूजा शास्त्र सुहाय । कालदोष सब क्षय गए, नूतन चार लखाय ॥ २६ ॥ इनमें भी प्राचीन अति, दुर्ग समान अलंघ। पंचनरुत श्री पार्थको, धाम जनत सब संघ ॥ २७ ॥ तिनमें उन मंदिरनकी, प्रतिमा हैं प्राचीन । कोईएक संवत विन लखे, अति प्राचीन स्वलीन ॥ २८ ॥ द्वितीय लघु दिहली धनी, सुगनचंद संतलाल । कियो महा रुचि पायके, सफल हुओ धन काल ॥ २९ ॥ तृतीय बनो बाजारमें, अति सुहाय शुभ दाय । बनवारी हैं चौधरी, लक्ष्मी सफल कराय ॥ ३० ॥ चौथा शुभ मंदिर रचो, दुन्दीलाल सुनान । नरनारी सब देहरे, सेवत धर्म महान ॥ ३१ ॥ तीनशतक गृह वसरहे, जैनी अग्गरवाल । परम दिगम्बर सब सुखी, नर नारी अर वाल ॥ ३२ ॥ मुखिया बद्रीदासके, सुत हैं लक्ष्मीचन्द । वीरराय पदवी घरे, धर्मातम सुखकन्द ॥ ३३॥ द्वितीय चिरंजीलाल हैं, सरल चित्त धनवान । Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंड। [३६५ wwwwwwwwwwwwwwwwwww लाला परमानन्दजी, राधेलाल महान ॥ ३४ ॥ लाला मकसूदन सुधी, सुगन्धचन्द वृपधार । लाला बनवारी रहे, सुलतासिह सुकार ॥ ३५ ॥ धर्मी पडित बुद्धिमय, सिह कबूल सुहाय । भाता पंडित रामनी, लाल सहि सुखदाय ॥ ३६॥ पंडित श्री अरदासजी, जीयालाल प्रवीण । पडित फुलनारी भले, भीखमचन्द अदीन ।। ३७॥ फूलचन्द पडित सुधी, आदिक जैनीलाल | विद्यारत रूपचन्दनी, मुनिसुव्रत श्रीपाल ॥ ३८ ॥ जय भगवान सुतत्त्व विद, धर्मी बी०ए० सार । जयकुमार उपकार कर, वड इस्कूल मझार ॥ ३९ ॥ इन आदिकके प्रेमवश, जलपथ वर्षाकाल । धर्मकथा गोष्टी शुभग, सतसगतिमे टाल ॥ ४० ॥ अवसर पाय सुहावनो, भाषा रची बनाय । ज्ञेयतत्वकी दीपिका प्रवचनसार सुहाय ॥ ४१ ॥ श्री कुन्दकुन्द ज्ञाता बडे, सूत्र सुपासत कीन । श्री सूरी जयसेनकत, सस्कृतवृत्ति प्रवीन ॥ ४२ ॥ ताकी धर अनुकूलता, बालबोध लिख सार । निन आतमकी भावना, करी सुमिस यह धार ॥ ४३ ॥ कार्तिक वदि अष्टम दिना, दिवस गुरु सुखकार । कर समाप्त हर्षित हुओ, रुचि अध्यातम धार ॥ ४४ ॥ पढ़े सुनें नरनारि सब, पावें रुचि अध्यात्म । चढ़ नौका त्रयरत्नकी, पार करें निज आत्म ॥ ४५ ॥ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६] श्रीप्रवचनसारटीका । हो प्रकाश या रत्नका, घर घर सन संसार । जासे सब निज आत्मको, पावें रहस विचार ॥ ४६॥ वृद्धि होय या थानकी, जहां अन्य उत्पाद । ईत भीति सब ही टलें, क्लेश होय सब बाद ॥ ४७ ॥ मंगल श्री अरहंत हैं, मंगल सिद्ध महान । नमस्कार मन वच करूं, तन नमाय कर ज्ञान || ४८ ॥ आचारन उवझायवर, सर्व साधु चित लाय। परमयमी निनके रमी, गुणसागर उर ध्याय ॥ ४९ ॥ 'परम भावना यह करूं, सुखी होय संसार । सुखसागरमें रमनकर, निज गुण परखें सार ॥ ५० ॥ तत्त्वज्ञान सुहावना, परमशांति दातार । 'शीतल' जिनका शरण ले, राखू हिय सुखकार ॥ ११ ॥ इति ॥ ता० १-११-२३ ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद, पानीपत, नि० करनाल (पंजाब) Page #418 --------------------------------------------------------------------------  Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AMANIMa mmunmunamater manurumaunimamming * अहिंसा धर्म प्रकाश। *: (नवीन श्रावकाचार) __ यह अन्य पंडित फुलजारीलालजी शास्त्रीने बड़े परिश्रमके साथ श्री रत्नकरण्ड, श्री पुरुषार्थसिद्धयुपाय आदि कई श्रावकाचारोंके अभिप्रायको लेकर २८५ है सुगम पद्योमें रचा है। दस अध्याय हैं। इसका नाम " सदगुण पुग्पोद्यान श्रावकाचार " है-यथा नाम तथा गुण है। भाषा सरल है, मूल श्लोकोंके प्रमाण भी दिये हैं जो बहुत ही लाभदायक हैं। पंडितजोने यह पुस्तक जैन अजैन सर्वसाधारणमें अहिंसा धर्मके आधार पर श्रावकाचारके सिद्धान्तको सुगम रीतिसे आचरण करानेके लिये तथा स्कूल व पाठशालाओंके वालवोध तृतीय व चतुर्थको है योग्यतावाले छात्रों के हितार्थ तैयार की है। मैं आशा है करता हूं कि दिगम्बर जैन परीक्षालयके अध्यक्ष भी इसको पठनक्रम में शामिल करेंगे तथा अध्यापकगण और विद्यार्थी भी इस पुस्तकको अवश्य मंगाकर लाभ उठावेंगे। पूर्वार्द्ध उत्तराई एक साथ कीमत m) पूर्वार्द्ध व उत्तरार्द्ध अलग २ भी मिल सक्त हैं । मूल्य प्रत्येकका 1). - निवेदक रूपचन्द गार्गीय अग्रवाल जैन, धर्मपरोक्षा, जैन हाईस्कूल, पानीपत (पञ्चाव) । पुस्तक मिलनेके पतेः११ दिगम्बर जैन पुस्तकालय, चन्दावाडी-सूरत। १. २. होरालाल पन्नालाल जैन बुकसेलरज एण्ड स्टेशन' दरोवाकलां-देहली। Sammmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm ६ WMMWWW Page #420 -------------------------------------------------------------------------- _