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द्वितीय खंड। [३२५ उपाधिके निमित्तसे होता है। मोहनीयकर्म दर्शनमोह और चरित्रमोहके भेदसे दो प्रकार है। दर्शनमोहके उदयसे मिथ्याश्रद्धानरूप मिथ्यारुचिमई भाव होता है जिससे यह जीव. मोक्षकी रुचि न रखकर ससारकी रुचि रखता हुआ संसारके सुखोंमे व उनके कारणोमे तथा उन सुखोके सहकारी धर्माभासोमें रुचि करता है । यह महा अशुभ भाव है। इसी भावसे जीव मिथ्यात्त्वकी स्थिति सत्तर कोडाकोडी सागर वाधता है। चारित्र मोहके उदयसे रागद्वेषभाव होता है । क्रोध व मान कषाय तथा अरति, शोक, भय, जुगुप्सा इनके उदय ननित भावको द्वेष कहते हैं । यह द्वेष परिणामोको सल्केश या दुःखी व मलीन करनेवाला है इसलिये अशुभ भाव है । लोभ व माया कषाय तथा रति, हास्य, स्त्रीवेद, पुंवेद, नपुंसकवेद इनके उदयसे होनेवाले भावको राग कहते हैं । यह रागभाव जो पाचों इन्द्रियोके भोगनेमें व अभिमानादिकी पुष्टिके लिये होता है वह अशुभ राग है। नब कभी इन ही कषायोकी मंदतासे श्री अरहंत सिद्ध आदि पाच परमेष्टियोंमे भक्तिरूप पूना, दान, परोपकार, जप तथा खाध्याय करनेकी आकाक्षारूप भाव होता है वह शुभ राग है । इनमेंसे शुभ राग तो पुण्यबध करता है और परम्पराय मोक्षका कारण है जब कि अशुभ राग, मोह और द्वेष भाव तो मात्र पाप कर्मोको बांधते हैं इससे सर्वथा त्यागने योग्य हैं। प्रयोजन यह है कि इन सर्व बंधके कारणभावोको त्यागनेके लिये हमे नित्य शुद्धोपयोगकी ही भावना करनी योग्य है । वास्तवमें परिणाम ही बधका कारण है जैसा श्री आत्मानुशासनमें कहा है: