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________________ ३२४] श्रीप्रवचनसारटोका । पारिणामादो बंधो परिणामो रागदोसमोहजुदो । असुहो मोहपदोसो सुहो व असुहो हवदि रागो ॥१॥ ___परिणामाद्वन्धः परिणामो रागद्वेषमोहयुतः । अशुभौ मोहप्रदेषो शुभो वा शुभो भवति रागः ॥ ९१ ।। अन्वयसहित सामान्यार्थः-(परिणामादो) परिणामोंसे (वंधो) बंध होता है । (परिणामो) परिणाम ( रागदोसमोहजुदो) रागद्वेष मोह युक्त होता है (मोहपदोसो) मोह और द्वेष भाव ( असुहो) अशुभ परिणाम है । (रागो) रागभाव (सुहो) शुभ (व असुहो) व अशुभ रूप (हवदि) होता है। विशेषार्थ-वीतराग परमात्माके परिणामसे विलक्षण परिणाम रागद्वेष मोहकी उपाधिसे तीन प्रकारका होता है। इनमेंसे मोह और द्वेष दोनों तो अशुभ भाव ही हैं। राग शुभ तथा अशु.. भके भेदसे दो प्रकारका होता है। पंचपरमेष्ठी आदिमे भक्तिरूप भाव परम राग कहा जाता है । जब कि विषय कषायोमे उलझा हुआ भाव अशुभ राग होता है । यह तीन ही प्रकारका परिणाम सर्व प्रकारसे ही उपाधि सहित है इसलिये वधका कारण है। ऐसा जानकर शुभ तथा अशुभ समस्तराग द्वेष भावके नाश करनेके लिये सर्व रागादिकी उपाधिसे रहित सहजानन्दमई एक लक्षणधारी सुखामृतखभावमई निज आत्मद्रव्यमें ही भावना करनी योग्य है । यह तात्पर्य है। भावार्थ-इस गाथामें आचार्य ने यह स्पष्ट किया है कि बंधका कारण जीवका अशुद्ध भाव है जो मोहनीय कर्मके उदयकी ।
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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