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द्विताय खंड। [३२३ वैराग्य सहित आत्मा (कम्मेहि मुञ्चदि) कर्मोसे छूटता ही है-वह वैरागी शुभ अशुभ कर्मोंसे बंधता नहीं है (एसो वधसमासो) यह प्रगटबंध तत्त्वका सक्षेप (जीवाणं) संसारी जीव सम्बन्धी हे शिष्य ! (णिच्छयदो जाण) निश्चय नयसे जानो।
विशेषार्थ-इस तरह राग परिणामको ही बंधका कारण जान करके सर्व रागादि विकल्प नालोंका त्याग करके विशुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभावधारी निज आत्मतत्वमें निरन्तर भावना करनी योग्य है।
भावार्थ-इस गाथामें बहुत ही सरलतासे आचार्यने वता दिया है कि जो जीव रागद्वेषसे पूर्ण हैं वे अवश्य कर्मोंसे बंधने हैं तथा जो रत्नत्रयके प्रभावसे वीतरागताको धारते हैं वे नए कर्मोको न बांधकर पुराने कर्मोसे छूटते हैं। इससे यह बताया गया कि रागद्वेष संसारके कारण है व वीतरागभाव मोक्षका कारण है। ____ इसलिये मुमुक्षु जीवको निरन्तर रागादि भावोके रङ्गको हटानेके लिये निजात्माकी विभूतिको ही अपनी समझ उसीमें तन्मय हो वीतराग भावकी निरतर भावना करनी चाहिये ।
श्री पूज्यपाद स्वामीने इष्टोपदेशमे भी ऐसा ही कहा हैबध्यते मुच्यते जीव. सममो निर्मम: क्रमात् । तस्मात्सप्रियत्नेन निर्ममत्र विचितयेत् ॥ २६ ॥
भावार्थ-ममतावाला जीव कोसे वधता है जब कि ममता रहित जीव मुक्त होता है इसलिये सर्व तरह उद्यम करके निर्ममत्त्व भावका चिन्तवन करना चाहिये ॥ ९ ॥
उत्थानिका-आगे द्रव्यवधका साधक जो जीवका रागादिरूप औपाधिक परिणाम है उसके भेदको दिखाते हैं.