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३२२] श्रीप्रवचनसारटोका। अल्प कर्मवर्गणा योग्य पुद्गल आत्माके सर्व प्रदेशोंमें प्रवेश होकर बंध नाते हैं वे अपनी स्थिति तक ठहरते हैं उनमें स्थिति पर्यंत कालतक बंटवारा होनाता है और उस बंटवारेके अनुसार कर्मवर्गणाएं अपने २ समय पर उदय होकर या फल प्रगटकर झड़ती जाती हैं। वे वर्गणाएं फिर भी रागादि भावका निमित्त पाकर बंध जाती हैं। इस संसारमें अनादिकालसे कर्मबंध होनेकी यही व्यवस्था चली आरही है । सदा ही इस आत्माके प्रदेशोंका सकम्परूप योग
और कषायका उदय पाया जाता है। रागद्वेपसे रंजित योग अथवा लेश्याके द्वारा यह जीव हर समय नई कर्मवर्गणाओंको अपने प्रदेशोमें प्रवेश कराता रहता है और बांधता रहता है। पूर्वबहकर्म अपना समय पाकर फल देकर झडते रहते हैं। इस तरह बंधना पुलना बरावर जारी रहता है। मूल कारण रागद्वेषादि भावबंध है। अतएव इसको जिस तरह हो सके दूर करना चाहिये ॥१९॥
इस तरह तीन तरह बंधके कथनकी मुख्यतासे दो सूत्रोंसे तीसरा स्थल पूर्ण हुआ।
उत्थानिका-आगे फिर भी प्रगट करते हैं कि निश्चयसे रागादि विकल्प ही द्रव्यबंधका कारणरूप होनेसे भावबंध है
रत्तो बंधदि कम्म मुच्चदि कम्मेहिं रागरहिदप्पा । एसो बंधसमासो जीवाणं जाण णिच्छयदो ॥ १० ॥
रक्तो बध्नाति कर्म मुच्यते कर्मभिः रागरहितात्मा । एष बन्धसमासो जीवानां जानोहि निश्चयनः ॥ ९० ॥
अन्वय सहित सामान्यार्थ-(रत्तो) रागी जीव ही (कम्म बंदि ) कर्मोको बांधता है न कि वैराग्यवान तथा (रागरहिदप्पा)