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द्वितीय खंड |
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सपदेसो सो अप्पा तेसु पदेसेसु पोगला काया । पविसंति जहाजोगं तिद्वंति य जति वज्यंति ॥ ८१ ॥ सप्रदेश: स आत्मा तेषु प्रदेशेषु पुद्गलाः कायाः । प्रविशन्ति यथायोग्य तिष्ठन्ति च यान्ति बध्यन्ते ॥ ८९ ॥ अन्य सहित सामान्यार्य - (सपदेसो) असंख्यात प्रदेशवान (सो) वह (अप्पा) आत्मा है (तेसु पदेसेसु) उन प्रदेशों में (पोग्गला काया) कर्मवगा योग्य पुल पिड ( जहा जोग्ग) योगों के अनुसार ( पविसंति) प्रवेश करते है, (तिटुंति) ठहरते हैं, (य जंति ) तथा उदय होकर जाते है ( वज्यंति) तथा फिर भी बघते है ।
विशेषार्थ - मन, वचन, कायवर्गणाके आलम्बनसे और वीर्यान्तरायके क्षयोपशमसे जो आत्माके प्रदेशोमे सकम्पपना होता है उसको योग कहते हैं । उस योगके अनुसार कर्म वर्गणा योग्य पुलकाय आश्रवरूप होकर अपनी स्थिति पर्यंत ठहरते है तथा अपने उदयकालको पाकर फल देकर उड जाते है तथा केवल ज्ञानादि अनन्त चतुष्टयकी प्रगटतारूप मोक्षसे प्रतिकूल बन्धके कारण रागादिकों का निमित्त पाकर फिर भी द्रव्यबन्धरूपसे वध जाते है । इससे यह बताया गया कि रागादि परिणाम ही द्रव्यबंधका कारण है । अथवा इस गाथासे दूसरा अर्थ यह कर सक्ते हैं कि प्रविशन्ति शब्दसे प्रदेशवध, तिष्ठन्तिसे स्थितिबध, जतिसे फल देकर जाते हुए अनुभागबंध और वध्यन्तेसे प्रकृतिबंध ऐसे चार प्रकार बंधको समझना ।
भावार्थ - इस गाथामें आचार्यने कर्मोके बंधकी व्यवस्था बताई है कि योगके अधिक या अल्प प्रमाणके अनुसार अधिक या
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