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श्रीप्रवचनसारोका ।
कोंका प्रकाश अवगाह पाकर ठहर जाता है इसको जीव पुद्गलका
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एक क्षेत्रावगाह रूप बन्ध कहते हैं । इस तरह तीन प्रकारका
बन्ध है ।
पंचाध्यायीकारने भी बन्धके तीन भेद बताए हैं
अर्थतस्त्रिविधो, बंधो भावद्रव्योभयात्मकः ।
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प्रत्येकं तद्द्वयं यावत्तृतीयोद्वद्वनः क्रमात् ॥ ४६ ॥ रागात्मा भावबंध / सजीवबंध इति स्मृतः ।
द्रव्यं पौगलिकः पिंडो बंधनच्छक्तिरेव वा ॥ ४७ ॥ इतरेतरत्रंश्च देशाना तद्वयोर्मिथः ।
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बंध्यबंधकभावः 'स्याद् भावन्रधनिमित्ततः ॥ ४८ ॥
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भावार्थ - वास्तवमें बंध तीन प्रकार है-भावबन्ध, द्रव्यबन्ध, और उभयवन्ध। इनमेंसे भाववन्ध और द्रव्यबंध तो भिन्नर स्वतंत्र है । तीसरा उभयबन्ध जीव पुद्गलके मेलसे होता है । रागद्वेष 'आदि परिणाम भावबंध है इसीको जीवबंध कहते हैं । पुद्गलका पिड वही द्रव्यबंध है । यह बंध पुगलकी स्निग्ध रूक्ष शक्तिसे होता है । भावबंधके निमित्तसे जीवके प्रदेशोंका और द्रव्यकमका परस्पर एक दूसरेमें प्रवेश होना सो उभयबंध है ।
इन तीन प्रकार बंधों में रागादिरूप भाव बन्धको ही संसारका कारण जानकर इनकी अवस्थाको त्याग वीतराग साम्य अवस्था में ही ठहरनेका यत्न करना चाहिये, यह तात्पर्य है ॥८८॥
उत्थानिका - आगे पूर्व सूत्रमें "जीवस्स रायमादीहि " इस वचनसे जो रागपनेको भावबंध कहा था वही द्रव्यबंधका कारण हैं ऐसा विशेष करके समर्थन करते हैं