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________________ द्वितीय खंड। [३१६ हैं उनके कभी भी रागद्वेष मोह पैदा नहीं हो सक्के क्योंकि उन्होंने मोहकर्मका' ही नाश कर डाला है। जिन्होंने मोहका नाश नहीं किया है उनके भीतर रागद्वेष मोह भी किसी न किसी पर्यायमें कम या अधिक अनादिकालसे होते ही रहते हैं, केवल उपशम सम्यक्तमें या उपशम चारित्रमें मोहके उदयके दब जानेसे जीवोको अन्तर्मुहर्तके लिये निर्मल सम्यक्त या निर्मल वीतराग चारित्र होता है । इस अवस्थाके सिवाय क्षपक श्रेणीके दसवें गुणस्थान तक बराबर कोई न कोई प्रकारका राग या द्वेष या मोह सहित राग या द्वेष बना ही रहता है। ये राग द्वेष मोह नैमित्तिक या औपाधिक भाव कहलाते हैं क्योंकि जीवके उपयोगके साथ साथ मोहनीय कर्मका अनुभाग या रस झलकता है । जबतक मोहनीय कर्मके उदयसे उसका रस प्रगट होता रहेगा तब ही तक जीवके रागादिरूप भाव होगा । जैसे स्फटिक मणिके नीचे जबतक काली, हरी, पीली डाकका सम्बन्धी रहेगा तब ही तक वह काली, हरी, पीली रूप झलकेगी वैसे ही जीवके विमाव भावोंकी अवस्था समझ लेनी चाहिये । पुद्गलकर्म वर्गणाओंमें इतनी अवश्य शक्ति है कि जीवके उपयोगको मलीन कर देते हैं या इसके गुणोंको ढक देते हैं जिसका दृष्टांत हमको मादक पदार्थमें मिलता है । मादक पदार्थके सेवनसे ज्ञानमें उन्मत्तपना हो जाता है । जीवका शुद्धोपयोगसे शून्य हो अशुद्धापयोगरूप होना यह जीवबंध या भावबंध कहलाता है। _ 'एक २ जीवके प्रदेशमें अनंत पुद्गलकर्मवर्गणाओंका अवगाह रूप तिष्ठे रहना, जैसे एक छोटेसे कमरेके आकाशमें बहुतसे दीप
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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