________________
३१८] श्रीप्रवचनसारटोका । बंध योग्य स्निग्ध रूक्ष परिणामों में परिणमन होनेवाले पुद्गलके साथ जो परस्पर एक क्षेत्र अवगाहरूप वन्ध है वह जीव पुरळ बन्ध है इस तरह तीन प्रकार बंधका लक्षण जानने योग्य है। ' भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने बन्ध तत्वका वर्णन किया है । वास्तवमें दो वस्तुओंका मिलकर एकमेक होजाना उसको बध कहते हैं । यह बन्ध पुद्गल द्रव्यहीमें हो सका है। पुद्गलके परमाणु या स्कंध एक दूसरेसे स्निग्ध रूक्ष गुगके दो अविमाग प्रतिच्छेद या अंशके अधिक होनेपर परस्पर मिलकर एक बन्धरूप स्कंध हो जाते हैं जैसा पहले कहचुके हैं। इस तरहका बंध उस समयमें भी होता है जब जीवके योग और कषायके निमित्तसे द्रव्य कर्मवर्गणाएं आश्रवरूप होती हैं । पूर्वमें बांधी हुई पुद्गलीक द्रव्य कर्म वर्गणाओं के साथ नवीन आश्रवरूप हुए पुद्गलीक कर्म वर्गणाओंका परस्पर स्निग्ध रुक्षगुणके कारण वन्ध हो जाता है। इसको पुद्गल बंध कहते हैं। इस तरहकी व्यवस्था वस्तुस्वरूपके समझने पर यह बात अच्छी तरह ध्यानमें आनावगी कि शुद्ध आत्माके कर्मबन्ध होना असंभव है। अनादिकालसे आत्मा अशुद्ध है अर्थात् कर्मअन्ध सहित है ऐसा माननेपर ही नवीन द्रव्यकर्माका पुराने द्रव्यकों के साथ बन्ध बन' सक्ता है, क्योंकि वास्तवमें बन्ध रूप पर्याय पुढलोमें ही होती हैं। यह एक प्रकारका पुद्गलबंध है। ___मोहनीयदि कर्मोंके उदयके निमित्तसे जीवके भावोमें परिणति होकर उनका रागद्वेष मोहरूप परिणत हों जाना सो जीवबंध है। आत्मा किस तरह रागद्वेषरूप परिणमता है इसका खरूप शब्दोंसे कहना बहुत दुर्लभ है । जो विलकुल वीतराग हो चुके