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द्वितीय खंड।
[३१७ ___ इस तरह भावबंधके कथनकी मुख्यतासें दो गोथाओंमें दूसरा स्थल पूर्ण हुआ।
उत्थानिका-आगे बंध तीन प्रकार है । एक तो पूर्ववद्ध कर्म पुद्गलोका नवीन पुद्गल कर्मोके साथ बध होता है । दूसरा जीवका रागादि भावके साथ बंध होता है। तीसरा उसी जीवका ही नवीन द्रव्यकोसे वध होता है, इस तरह, तीन प्रकार वन्धके स्वरूपको कहते है
फासेहि पोग्गलाणं बधो जीवस्स रागमादीहि । आण्णोणं अलगाहो पोग्गलजीवप्पगो भणिदो ॥८॥ स्पशः पुद्गलाना बधो जीवस्य रागादिभिः ।
अन्योन्यमवगाह पुद्गलजीवात्मको भणितः ॥ ८८ । '. अन्वय महित सामान्यार्थ:-(पुग्गलाण) पुद्गलोका (बधो) बन्ध ( फासेहि ) स्निग्ध रूक्ष स्पर्शसे, ( जीवस्स ) जीवका बन्ध (रागमादीहि) रागादि परिणामोसे तथा ( पोग्गलनीवप्पगो) पुद्गल
और जीवका वन्ध ( अण्णोण्णं अवगाहो) परस्पर अवगाहरूप (मणिदो ) कहा गया है।
विशेपार्थ:-जीवके रागादि भावोंके निमित्तसे नवीन पुद्गलीक द्रव्यकर्मोका पूर्वमे जीवके साथ बंधे हुए पुद्गलीक द्रव्यक के साथ अपने यथायोग्य चिकने रूखे गुणरूप उपादान कारणसे जो बध होता है उसको पुदल बंध कहते हैं। वीतराग परम चैतन्यरूप निन आत्मतत्वकी भावनासे शून्य जीवका जो रागादि भावोमे परिणमन करना सो जीववन्ध है। निर्विकार स्वसवेदन ज्ञान रहित हो स्निग्ध रूक्षकी जगह रागद्वेषमें परिणमन होते हुए जीवका