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श्रीप्रवचनसारटोका ।
जिस रागद्वेष मोहभावसे ( विसए आगदं ) इन्द्रियोंके विषयमें आए हुए इष्ट अनिष्ट पदार्थोको (पेच्छदि) देखता है (नाणादि) जानता है ( तेणेव रज्जदि) उसही भावसे रंग जाता है (पुणो ) तब (कम्म) द्रव्यकर्म ( वज्झदि) बन्ध जाता है ( इति उवएसो ) ऐसा श्री जिनेन्द्रका उपदेश है ।
विशेषार्थ - यह जीव पांचों इन्द्रियोके जाननेमें जो इष्ट व अनिष्ट पदार्थ आते हैं उनको जिस परिणामसे निर्विकल्परूपसे देखता है व सविकल्परूपसे जानता है उसी ही दर्शनज्ञानमई उपयोगसे राग करता है क्योकि वह आदि मध्य अन्त रहित, व रागद्वेषादि रहित चैतन्य ज्योतिस्वरूप निज आत्म द्रव्यको न श्रद्धान करता हुआ, न जानता हुआ और समस्त रागादि विकल्पोको छोड़कर नहीं अनुभव करता हुआ वर्तन कर रहा है इसीसे ही रागी द्वेषी मोही होकर रागद्वेष मोह कर लेता है । यही भाव- बंध है | इसी भाव वंधके कारण नवीन द्रव्यकर्मोको बांधता है ऐसा उपदेश है ।
भावार्थ: - इस गाथामे आचार्यने यह बतलाया है कि इस आत्माका अशुद्ध ज्ञानदर्शनोपयोग द्रव्य कर्मकेबंधके लिये निमित्त कारण है । वे कर्म वर्गणाएं आत्माके भावोका निमित्त पाकर स्वयं - कर्मरूप बंध जाती है । यदि यह आत्मा वीतराग भावसे पदाथको देखे जाने तो भावबंध न हो परन्तु यह रागद्वेष मोहके साथ देखता जानता है इससे अपनेमे भाव बधको पाकर द्रव्यबन्ध करता है । तात्पर्य यह है कि वीतराग भावसे ही देखना जानना 'हितकारी है ||७||
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