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द्विताय खंड |
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ढक जाती है । इसी भावबंधसे यह आत्मा नवीन कर्मबंध करता है । प्रयोजन यह है कि जैसे सफेद वस्त्र व स्वच्छ स्फटिकको देखनेकी इच्छा करनेवाला रंगके व डाकके सम्बन्धको छुडाता है: इसी तरह हमको शुद्ध आत्माके लाभके लिये, रागद्वेष मोहके कारणभूत कर्मबधनको आत्मासे हटाना चाहिये और इसी लिये अभेदरत्नत्रयका शरणलेकर स्वानुभवके वलसे मोहके बलको निर्बल करना चाहिये | यहां मोहसे मिथ्या शृद्धान तथा राग द्वेषसे क्रोधादि कपायोका आवेश समझना चाहिये । यही राग द्वेष मोहबन्धके, कारण है - ऐसा ही समयसार कलशमें स्वामी अमृतचद्राचार्यने कहा है
प्रच्युत्य शुद्वनयतः पुनरेव ये तु, रागादयोगमुपयात विमुक्तोधा । ते कर्माविति पूर्वश्रद्ध- द्रव्यासवे. कृतावा चैत्रार्वकल्पजालम् ॥९५॥
भावार्थ - जो कोई जीव शुद्ध निश्चय नयके विषयभूत शुद्धात्मानुभवसे छूटकर ज्ञान रहित हो राग द्वेष मोहको परिणमते हैं वे ही पूर्वमें बांधे हुए कर्मो के अनुसार नाना प्रकार भेदरूप कर्मबंधको प्राप्त करते है । इससे यह सिद्ध है कि रागद्वेष मोह कर्मबंध के कारण होनेसे भावबन्ध है ॥ ८६ ॥
उत्थानिका- आगे भावबंधके अनुसार द्रव्यचन्धका स्वरूपः बताते हैं
भावेण जेण जोवो पेच्छदि जाणादि आगदं विसए । रज्जदि तेणेव पुणो वज्झदि कम्मत्ति उवएसो ॥ ८१ ॥ भावेन टेन जीवः पश्यति जानात्यागतं विषये ।
राज्यति नैव पुनर्वध्यते कर्मत्युपदेशः ॥ ८७ ॥ अन्वय सहित सामान्यार्थः - (जीवो) जीव ( जेण भावेण )