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________________ ३१४ ] श्रीप्रवचनसारटोका। भावार्थ-इस गाथामें आचार्य ने द्रव्य॑वंधके कारण भावबंधको स्पष्ट किया है। यह आत्मा यदि शुद्ध अवस्था में हो तब तो इसके कभी राग द्वेष मोह भाव हो ही नहीं सक्ते क्योकि आत्माका स्वभाव वीतरागतासे निन परका ज्ञाता दृप्टय मात्र रहना है-यह उपयोगमई, है। शुद्ध उपयोगमें रहना , ही इसका धर्म है। जैसे स्फटिकमणिका स्वभाव निर्मल श्वेत है वैसे यह आत्मा शुद्ध है, परंतु संसारमें हरएक आत्मा प्रवाह रूपसे अनादिकालसे पौगलिक ज्ञानावरणादि कर्मोकी उपाधिसे संयुक्त चला आरहा है । इस कारण शुद्ध ज्ञान दर्शन उपयोगमे न परिणमता हुआ क्षयोपशमरूप मति श्रुतज्ञानसे इंद्रियोंके और मनके द्वारा जानता देखता है। साथमैं मोहका उदय है इसलिये पांचों इंद्रियोंके द्वारा जिन २ पदार्थोको जानता है उनमें से जो अपनेको इष्ट भासते हैं उनमें राग और मोह करलेता है। तथा जो अनिष्ट भासते हैं उनमें द्वेष कर लेता है । उस समय यह आत्मा उस राग द्वेष या मोहके भावसे तन्मई होकर रागी, द्वेषी, मोही हो जाता है । जैसे स्फटिकमणि काले, पीले, हरे डाकके सम्बन्धसे अपनी शुद्धताको छिपाकर काली, पीली, हरी भासती है । इस जीवके इस राग द्वेष मोह भावको इसी लिये भाव बंध कहते है क्योकि उसका उपयोग उन भावोंसे बन्धा हुआ है। अर्थात् उपयोगने अपनेमें रागद्वेष मोहका रंग चढ़ा लिया है। जैसे सफेद वस्त्र काले, पीले, हरे, लाल रंगमें रंगनेसे रंगीन हो जाता है वैसे यह आत्मा रागद्वेष मोहमें रंग जानेसे रागीद्वेषी मोही हो जाता है। उस समय आत्माकी स्वाभाविक वीतरागता
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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