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________________ द्वितीय खंड बंध होता है इस पूर्व पक्षरूपसे दूसरी, फिर उसका समाधान करते हुए तीसरी इस तरह तीन गाथाओसे प्रथम स्थल समाप्त हुआ। उत्थानिका-राग द्वेष मोह लक्षणके धारी भावबन्धका खरूप कहते हैं:। उवओगमओ जीवो मुझदि रज्जेदि वा पदुस्सेदि । पप्पा' विविधे विसए जो हि पुणो तेहिं संबंधो ॥८६॥ उपयोगमयो जीवो मुह्यति त्यति वा प्रदेष्टि । प्राप्य विविधान् विषयान् यो हि पुनस्तैः सम्बन्धः ॥ ८६ ॥ अन्वय सहित सामान्यार्थः-(उवओगमओ जीवो) उपयोग -मई जीव (विविधे चिसये) नानाप्रकार इंद्रियोके पदार्थोंको (पप्पा) 'पाकर (मुह्यदि) मोह करलेता है (रज्नदि) राग कर लेता है (वा) अथवा (पदुस्सेदि) द्वेष कर लेता है। (पुणो) तथा (हि) निश्चयसे (जो) वही जीव (तेहि संबंधो) उन मावोसे बन्धा है यही भावबंध है। विशेषार्थः यह जीव निश्चय नयसे विशुद्ध ज्ञान दर्शन उपयोगका धारी है तौमी अनादि कालसे कर्मबंधकी उपाधिके वशसे जैसे स्फटिकमणि उपाधिके निमित्तसे अन्य भावरूप परिणमती है इसी तरह कर्मरूत औपाधिक भावोंसे परिणमता हुआ इंद्रियोके विषयोसे रहित परमात्म खरूपकी भावनासे विपरीत नाना प्रकार पचेंद्रियोके विषयरूप पदार्थोंको पाकर उनमें राग द्वेष मोह कर लेता है। ऐसा होता हुआ यह जीव राग द्वेष मोह रहित अपने शुद्ध वीतरागमई परम धर्मको न अनुभवता हुआ इन राग देष मोह भावोंसे बड होता है। यहां पर जो इस जीवके यह राग द्वेष मोह रूप परिणाम है सो ही भावबन्ध है।
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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