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________________ ३२६] श्रीप्रवचनसारटोका। परिणाममेव कारणमाहुः न्यल पुण्यपापोः प्राशाः । तस्मात्यापापचनः पुष्ोपचयश्च सुविधेयः ॥ २२ ॥ भावार्थ:-आचार्याने परिणामने ही पुण्य तथा पापका कारण कहा है इसलिये पापोका नाम और पुण्यका मंत्रह वरना योग्य है। यह प्रथम अवस्थाच उपदेश है। वीतराग भाव अबंधका करता है वही उपादेय है, यह तात्पर्य है ॥९॥ उत्थानिका-आगे कहते है कि द्रव्यरूप पुण्य पाप बन्यका कारण होनेसे शुभ अशुभ परिणामोंको पुण्य पापकी संज्ञा है तथा शुभ अशुमसे रहित शुद्धोपयोगमई परिणाम मोक्षका कारण है सुहपरिणामो पुण्णं असुहो पावत्ति भणियमण्णेसु । परिणामोणण्णगदो दुक्खक्खयकारणं समये । ६२ ।। शुमचरिणाम: पुष्प शुभः पापभिन्न भणितम्न्येषु ।। परिणामोऽनन्यगो दुःखयका समय ॥ ९२ ॥ अन्वय महित मामान्यार्य-(अण्णेसु) अपने मात्मासे अन्य द्रव्योंमें (सुहपरिणामो) शुभ रागरूप भाव (पुण्ण) द्रव्य पुन्यबन्धका कारण होनेसे भाव पुण्य है (असुहो) व अशुभ रागरूप भाव ( पावत्ति भणियम् ) द्रव्य पाप बन्धका कारण होनेसे भाव पाप कहा जाता है तथा (अणण्णगनो परिणानो) अन्य द्रव्यमें नहीं रमता हुमा शुद्ध भाव (दुक्खरखवकारणं ) संसारके दुःखोंके क्षयका कारण भाव है ऐसा (मनये) परमागसमें कहा है। विशेषार्थ-अपने शुद्धत्मासे भिन्न सर्व शुभ व अशुभ द्रव्य हैं। इन द्रव्योंक सम्बन्धमें रहता हुआ जो शुभभाव है वह पुण्य है और जो अशुभभाव है वह पाप है तथा शुद्धोपयोग
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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