________________
द्वितीय खंड |
[ ३२७
रूप भाव मोक्षका कारण होनेसे शुद्ध भाव है ऐसा परमागममें कहा है अथवा ये भाव यथासंभव लव्धिकालमे होते हैं। विस्तार यह है कि मिथ्यादृष्टि, सासादन और मिश्र इन तीन गुणस्थानोमे तारतम्यसे अर्थात् कमती कमती अशुभ परिणाम होता है ऐसा पहले • कहा जा चुका है। अविरत सम्यक्त, देशविरत तथा प्रमत्तसयत इन तीन गुणस्थानोमे तारतम्यसे शुभ परिणाम कहा गया है । तथा अप्रमत्त गुणस्थान से क्षीणकषाय नाम बारहवें गुणस्थानतक तारतम्य से शुद्धोपयोग ही कहा गया है । यदि नयकी अपेक्षासे विचार करें तो मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से क्षीणकषाय तकके गुणस्थानोमे अशुद्ध निश्चय नय ही होता है। इस अशुद्ध निश्चय नयके विषयमे शुद्धोपयोग कैसे प्राप्त होता है ऐसी पूर्वपक्ष शिष्यने की । उसका उत्तर देते है कि वस्तु के एक देशकी परीक्षा जिससे हो वह नयका लक्षण है । तथा शुभ अशुभ व शुद्ध द्रव्यके आलम्बनरूप भावको शुभ, अशुभ व शुद्ध उपयोग कहते है । यह उपयोगका लक्षण है। इस कारणसे अशुद्ध निश्चयन के मध्यमें भी शुद्धात्माका आलम्बन होनेसे व शुद्ध ध्येय होने से व शुद्धका साधक होनेसे शुद्धोपयोग परिणाम प्राप्त होता है । इस तरह नयका लक्षण और उपयोगका लक्षण यथासंभव सर्व जगह जानने योग्य है | यहा जो कोई रागादि विकल्पकी उपाधिसे रहित समाधि लक्षणमई शुद्धोपयोगको मुक्तिका कारण कहा गया है सो शुद्धात्मा द्रव्य लक्षण जो ध्येयरूप शुद्ध पारिणामिक भाव है उससे अभेद प्रधान द्रव्यार्थिक नयसे अभिन्न होनेपर भी भेद प्रधान पर्यायार्थिक नयसे भिन्न है। इसका कारण यह है कि यह जो समाधिलक्षण शुद्धोपयोग है वह एक