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________________ (३२८] श्रीप्रवचनसारटोका । देश आवरण रहित होनेसे क्षायोपशमिक खंड ज्ञानकी व्यक्तिरूप है तथा वह शुद्धात्मारूप शुद्ध पारिणामिक भाव सर्व आवरणसे रहित होनेके कारणसे अखंड ज्ञानकी व्यक्तिरूप है । यह समाधिरूप भाव आदि व अन्त सहित होनेसे नागवान है वह शुद्ध पारिणामिक भाव अनादि व अनंत होनेसे अविनाशी है । यदि इन दोनों भावोमें एकांतसे अभेद हो तो जैसे घटकी उत्पत्तिमें मिट्टीके पिंडका नाश होना माना जावे वसे ध्यान पर्यायके नाश होनेपर व मोक्ष अवस्थाके उत्पन्न होनेपर ध्येयरूप पारिणामिकका. भी विनाश होनायगा सो ऐसा नहीं होता । मिट्टीके पिडसे जैसे घट अवस्थाकी अपेक्षा भेद है मिट्टीकी अपेक्षा अभेद है वसे ध्यान पर्यायसे ध्येय भावका अवस्थाकी अपेक्षा भेद है जव कि आत्म द्रव्यकी अपेक्षा अभेद है। इसीसे ही जाना जाता है कि शुद्ध पारिणामिक भाव ध्येयरूप है, ध्यान भावनारूप नही है क्योकि ध्यान नाशवंत है। भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने यह बताया है कि जो भाव अपने आत्माकी ही तरफ सन्मुख है-न किसी परवस्तुसे राग करता है न वेप करता है, वह शुद्धोपयोग भाव व आत्मामे एकाग्र रमनरूप भाव सर्व संसारके दुःखोंके क्षयका कारण उपादेयभूत है तथा पंचपरमेष्ठीमें भक्तिरूप व परोपकार आदिरूप परमे झुका हुआ उनके गुणोमें विनयरूप भाव शुभ उपयोग है, जो साता वेदनीय आदि पुण्य कर्मोको बांधता है। तथा विषय कषायोंके रागमें लीन भाव अशुभ उपयोग है जो असाता वेदनीय आदि पाप कर्मोको वांधता है। निश्चय नयसे शुद्धोपयोग केवलज्ञानीके ही होता
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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