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________________ द्वितीय खंड [ ३२९ है क्योंकि वहां निरावरण ज्ञान होगया है । अशुद्ध निश्चयनयसे अप्रमत्तसे क्षीणकषायक होता है । क्योंकि यहां यद्यपि शुद्धात्मा ध्येय है तथापि ज्ञान निर्मल नहीं है, सावरण है। तात्पर्य यह है कि केवलज्ञान होनेके लिये हमको निर्विकल्प समाधि लक्षण शुद्धोप्रयोगमई भावका उपाय करना चाहिये। इसी कारणसे बाह्य पदार्थका मोह त्यागकर देना चाहिये। जैसा स्वामी अमितिगतिने बड़े सामायिक पाठ कहा है यावच्चेतसि बाह्यवस्तुविषयः स्नेहः स्थिरो वर्तते । तावन्नश्यति दुःखदानकुशल कर्मप्रपचः कथ ॥ आर्द्र वसुधातलस्य सजटा शुष्यति किं पादपा । मृत्स्वत्तानिपातरोधनपराः शाखोपशाखान्विताः ॥ ९६ ॥ भावार्थ - जबतक चित्तमें बाहरी पदार्थ सम्बन्धी स्नेह स्थिर है तबतक दुखोंके देनेमें कुशल कर्मोंका प्रपंच कैसे नष्ट होमक्ता है ? पृथ्वीतलके नल सहित होने पर धूपके रोकनेवाले अनेक शाखाओसे वेष्टित जटावाले वर्गतके वृक्ष कैसे सूख सक्ते हैं ? इसलिये रागद्वेष भावोंका मिटाना ही हितकारी है ॥ ९२ ॥ इस तरह द्रव्य बधका कारण होनेसे मिथ्यात्व रागादि विकल्परूप भाव बन्ध ही निश्चयसे बन्ध है ऐसे कथनकी मुख्यतासे तीन गाथाओं द्वारा चौथा स्थल समाप्त हुआ । उत्थानिका- आगे इस जीवकी अपने आत्मद्रव्यमें प्रवृत्ति और परद्रव्योंसे निवृत्तिके कारण छ प्रकार जीवकायोंसे भेदविज्ञान दिखलाते हैं:--
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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