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श्रीप्रवचनसारटीका ।
भणिदा पुढविप्पमुहा जीवणिकायाध थावरा य तसा । अण्णा ते जीवादी जीवो वि य तेहिंदो अण्णा ॥६३॥ भणिताः पृथिवीप्रमुखा जीवनिकाया अथ स्थावराश्च त्रसाः । अन्ये ते जीवाजीवोsप तेभ्योऽन्यः ॥ ९३ ॥
अन्चयसहित सामान्यार्थ - ( पुढविध्यमुहा) पृथ्वीको आदि लेकर ( जीवनिकाया ) जीवोके समूह ( अध थावरा य तसा ) अर्थात् पृथ्वी कायिक आदि पांच स्थावर और द्वेन्द्रियादि त्रस (भणिदा) जो परमागममें कहे गए हैं (ते जीवादो अण्णा) वे सब शुद्धबुद्ध एक जीवके स्वभावसे भिन्न हैं । ( जीवो विय तेहिदो अण्णो ) तथा यह जीव भी उनसे भिन्न है ।
विशेषार्थ - टांकी में उकेरेके समान ज्ञायक एक स्वभावरूप परमात्मतत्वकी भावनाको न पाकर इस जीवने जो त्रास या स्थावर नाम कर्म बांधा होता है उसके उदयसे उत्पन्न होनेके कारणसे तथा शरीर पुद्गलमई अचेतन होनेसे ये त्रस स्थावर जीवोके समूह शुद्ध चैतन्य स्वभावधारी जीवसे भिन्न हैं । जीव भी उनसे विलक्षण होनेसे उनसे निश्चयसे भिन्न है । यहां यह प्रयोजन है कि इस तरह भेद विज्ञान हो जानेपर मोक्षार्थी जीव अपने निज आत्मद्रव्य में प्रवृत्ति करता है और परद्रव्यसे अपनेको हटाता है । भावार्थ - इस गाथामें आचार्यने भेद विज्ञानका उपाय बताया है कि हमको शुद्ध निश्चयनयके द्वारा अपने निन आत्माके स्वाभाविक ज्ञानदर्शन सुख वीर्यमय शुद्ध स्वभावपर लक्ष्य देकर देखना चाहिये तब सर्व पुद्गलकृत जीवकी पर्यायें भिन्न मालूम पड़ेंगीं, कि ये अनेक प्रकार प्रकार त्रस स्थावररूपके धारी जीव
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