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________________ द्वितीय खंड। [३३१ नाम कर्मके उदयके कारण भिन्न २ पुगलमई शरीरोंको रखनेसे भिन्न २ नाम पानेसे वोले जाते हैं। ये सब अवस्थाएं शुद्ध जीवसे भिन्न हैं । शुद्ध जीव इनसे भिन्न है। मै निश्चयसे शुद्ध जीव हूं। मेरा इनका कोई सम्बन्ध नहीं है। स्वामी अमितिगतिने बड़े सामायिकाठमे कहा है - नाह कस्यचिदस्मि पश्चन न मे भाव परो विद्यते, उत्तवात्मानमपातकर्मसमिति शाने क्षणालकृति । यस्यैषा मतिरति तास सदा जातात्मतत्वस्थितेअधस्तस्य न वनितत्रिभुवन सासारिर्वधनैः ॥ ११ ॥ भावार्थ-मैं आत्मा हूं, निश्चयसे सर्व कर्मसमूहसे रहित हू, ज्ञानमई नेत्रसे शोभित है। मेरे इस स्वभावको छोड़कर मैं न किसीका हूं न कोई अन्य पदार्थ मेरा है । जिस महापुरुषके चित्तमें ऐसी बुद्धि वर्तती है वह सदा ज्ञाता दृष्टा आत्माके स्वभाचमें ठहरता है तथा तीन भवनमे सासारिक बंधनोसे उस आत्माका बंध नहीं होता है। ____वास्तदमें हमे निज स्वभावपर उपयोग रख शुद्ध स्वभावकी ही भावना करनी योग्य है ॥ ९३ ॥ उत्थानिका.-आगे इसी ही भेदविज्ञानको अन्य तरहसे दृढ करते हैं जो ण विजाणदि एवं परमप्पाणं सहावमासेज । कोरदि मज्भवसाणं अहं ममेदत्ति महादो ॥ ६४ ॥ यो न विज्ञानात्येव परमात्मानं स्वभावमासाद्र । कुरुतेऽध्यवसानमहं ममेदमिति मोहात् ॥ ९४ ।।
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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