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३३२] श्रीप्रवचनसारटोका ।
अन्वय सहित सामान्यार्थः-(नो) जो कोई (सहावम्) निन खभावको (आसेज) पाकर (परं अप्पाणं एवं) परको और आत्माको इस तरह भिन्न २ (ण वि जाणदि) नहीं जानता है वही (मोहादो) मोहके निमित्तसे (अहं ममेदत्ति) मै इस पर रूप हू या यह पर मेरा है ऐसा (अन्झवसाणं कीरदि) अभिप्राय करता है।
विशेषार्थ-जो कोई शुद्धोपयोग लक्षण निन स्वभावको आश्रय करके पूर्वमें कहे प्रमाण छः कायके जीव समूहादि परद्रव्योको और निर्दोष परमात्मद्रव्यस्वरूप निन आत्माको भिन्न २ नहीं जानता है वह ममकार व अहकार आदिसे रहित परमात्माकी भावनासे हटा हुआ मोहके आधीन होकर यह परिणाम किया करता है कि मैं रागादि परद्रव्यरूप हूं या यह शरीरादि मेरा है इससे यह सिद्ध हुआ कि इस तरहके स्वपरके भेद विज्ञानके वलसे ही स्वसंवेदन ज्ञानी जीव अपने आत्म द्रव्यमें प्रीति करता है और परद्रव्यसे निवृत्ति करता है।
___ भावार्थ-गाथामे भी आचार्यने भेदविज्ञानकी महिमा बताई है कि जो कोई निश्चयनयके द्वारा अपने आत्माको सर्व रागादि भावकर्म, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म और शरीरादि नोकर्मसे भिन्न नहीं अनुभव करता है वही स्वसंवेदन ज्ञानसे रहित होकर मोहके कारण मैं रागी हूं, द्वेषी हू, मैं राजा हूं, मैं रक हूं, मै दुःखी हूं, मै सुखी हूं, मै विद्वान् हू, मैं मूर्ख हू, इत्यादि विकल्प अथवा यह शरीर मेरा है, यह धन मेरा है, यह मकान मेरा है, यह राज्य मेरा है, यह पुत्र मेरा है इत्यादि परिणाम किया करता है, परन्तु जो भेदविज्ञानी हैं वे निज आत्मामें ही अपनापना
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