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________________ द्वितीय खंड। ३३३ मानकर उदासीन रहते हुए साम्यभावका आनन्द पाते हैं। स्वामी अमिगति सामायिकपाठमें कहते हैविचित्रैरुपायैः सदा पाल्यमानः, स्वकीयो न देहः सम यत्र याति । क्थं बाह्य भूतानि वित्तानि तत्र, प्रबुद्धेति कृत्यो न कुत्रापि मोहः ॥३४ भावार्थ-जहां नाना उपायोसे पाला हुआ यह अपना शरीर भी अपने साथ नही जाता है वहां अन्य बाहरी सम्पदा कैसे साथ जायगी ऐसा जानकर किसी भी पर पदार्थमे मोह न करना। चाहिये ॥ ९४ ॥ इस तरह भेदभावनाके कथनकी मुख्यता करके दो सूत्रोमें पांचमा स्थल पूर्ण हुआ। उत्थानिका-आगे कहते हैं कि आत्मा अपने ही परिणामोका कर्ता है, द्रव्य कर्मोका कर्ता नहीं है-अशुद्ध निश्चयसे रागादि, भावोंका व शुद्ध निश्चयसे शुद्ध वीतराग भावका कर्ता है: कुव्वं सभावमादा हवदि हि कत्ता सगस्स भावस्स । पोग्गलवमयाणं ण दु कत्ता सव्वभावाणं ॥ ५ ॥ कुर्वन् स्वभारमात्मा भवति हि कर्ता स्वक्स्य भावस्य । पुद्गलद्रव्यमयाना न तु कर्ता सर्वभावानाम् ॥ ९५ ॥ अन्वय सहित सामान्यार्थ-(आदा) आत्मा (सभाव कुब्ब) अपने भावको करता हुआ (सगस्स भावस्स) अपने भावका (हि) ही (कत्ता हवदि) का होता है। (पोग्गलदव्वमयाण सव्वभावाण) पुद्गल द्रव्यसे बनी हुई सर्व अवस्थाओका (ण दु कत्ता) तो कर्ता नहीं है। विशेषार्थ-यहां स्वभाव शब्दसे यद्यपि शुद्ध निश्चयनयसे
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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