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________________ ३३४] श्रीप्रवचनसारटोका। शुद्धबुद्ध एक स्वभाव ही कहा जाता है तथापि कर्मबंधके प्रस्तावमें अशुद्ध निश्चयनयसे रागादि परिणामको भी स्वभाव कहते हैं । यह आत्मा इस तरह अपने भावको करता हुआ अपने ही चिद्रूप स्वभाव रूप रागादि परिणामका ही प्रगटपने कर्ता है और वह रागादि परिणाम निश्चयसे उसका भावक्रम कहाजाता है । जैसे गर्म लोहेमें उष्णता व्याप्त है वैसे आत्मा उन रागादि भावोमें व्याप्त होनाता है। तथा चैतन्यरूपसे विलक्षण पुद्गल द्रव्यमई सर्व भावोंका-ज्ञानावरणीय आदि कर्मकी पर्यायोका तो यह आत्मा कभी भी कर्ता होता नहीं। इससे जाना जाता है कि रागादि अपना परिणाम ही कर्म है जिसका ही यह जीव कर्ता है। भावार्थ:-यहां आचार्यने यह बतलाया है कि यह आत्मा चैतन्यमई है इसलिये इसमें चेतनामई भाव ही सम्भव है-अचेतन-मई भावोका यह उपादान कर्ता नहीं होसका । यह अपने चेतन भावोका ही कर्ता है शुद्ध निश्चयनयसे यह शुद्ध वीतराग भावका कर्ता है जब कि अशुद्ध निश्चयनयसे यह अशुद्ध रागादि भावोका कर्ता है जो भाव मोह कर्मके उदयके निमित्तसे हुए हैं। इन गगादि भावोका निमित्त पाकर कर्मवर्गणाके पुद्गल स्वयमेव ज्ञानावरणीय आदि कर्मरूप परिणमन कर जाते हैं। इससे जीवको व्यवहारसे इनका कर्ता कह दिया जाता है, परन्तु वास्तवमें जीव तो अपने भावोंका ही है। है। यहां यह बतलाया कि जैसे शरीर व द्रव्यकर्म आत्माके नहीं हैं वैसे यह आत्मा इन शरीरोंका कर्ता भी नहीं है । इस जीवको पुद्गलका अकर्ता अनुभव करके यह निश्चयसे शुद्ध वीतरागभावोमें ही परिणमन करे । रागादि परिणामोमें
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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